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        • ।।बुढबा नेता ।।
        • ।।बेबस जोगी ।।
        • ।।घर ।।
        • ।।कः कालः।।
        • ।।स्त्रीक दुनिञा।।
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        • ।।गोनू झाक गीत।।
        • ।।जाति-धरम के गीत।।
        • ।।भैया जीक गीत।।
        • ।।मदना मायक गीत।।
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        • ।।प्रलय-रहस्य।।
        • ।।धनक लेल कविक प्रार्थना।।
        • ।।बुद्धक दुख॥
        • ।।गिद्धक पक्ष मे एकटा कविता।।
        • ।।विद्यापतिक डीह पर।।
        • ।।पंचवटी।।
        • ।।घरबे।।
        • ।।रंग।।
        • ।।संभावना।।
        • ।।सिपाही देखैए आमक गाछ।।
        • ।।जै ठां भेटए अहार ।।
        • ।।ककरा लेल लिखै छी ॥
        • ।।स्त्रीक दुनिञा।।
        • ।।घर ।।
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बाजार और ईश्वर

5/30/2012

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यह कैसी विडम्बना है कि जिस धार्मिकता के कारण हमारे समाज का सबसे यादा शोषण होता है, वह हमारे ही भीतर कहीं जीवंत होता है। हम जहां है वहीं असुरक्षित हैं और असुरक्षा की इस भावना का करोड़ों-अरबों रुपयों का व्यापार हमारे इर्द-गिर्द हो रहा है। इस व्यापार का मूल स्रोत हमारे ही भीतर है पर हम उसमें हिस्सेदार नहीं हैं। हम सिर्फ डरे-सहमे हुए लोग हैं और बेहतर ढंग से रह सकें, इसके लिए हमारी कल्पना-शक्ति तक को कुंद कर दिया जाता है। अपने लाखों, करोड़ों-अरबों रुपयों के व्यापार और लाभ-हानि के खेल में वे उन करोड़ों उपभोक्ताओं, और दर्शकों को कुछ सौ या कुछ हजार रुपए की कल्पनाशक्ति में सीमित कर देते हैं और एक पूरा समाज लगभग पंगु होकर इन पूंजीपतियों के बिछाए जाल में फंसकर रह जाता है। यह बात बहुत आश्चर्यजनक लगती है कि भारतीय समाज जो कि मूल रूप से धर्म भीरू समाज है- अपने धर्म और अपनी आस्था को समझने के लिए एक गाब की 'फैंटेसी' का निर्माण करता है और संभवत: उसी प्रयास में उसके आसपास जो यथार्थ में घटित हो रहा है- जिसमें उसके शोषण की नई-नई पारियां खेली जाती हैं, जिसकी पीड़ा भी सब से यादा उसे ही भोगनी पड़ती है, उन तमाम स्थितियों में वह अपने विवेक को कुंद कर देता है।
एक कथनी याद आती है। एक देश की सरकार ने अपने नागरिकों की कल्पनाशक्ति जांचने-परखने के लिए एक प्रयोग किया। एक कमरे में ब्लैकबोर्ड पर सफेद चाक से एक बड़ा सा गोला बनाया गया। फिर प्रशासनिक अधिकारियों के एक दल को बुला कर उनसे पूछा गया कि -''यह क्या है?'' प्रशासनिक अधिकारियों के दल ने काफी देर के विचार विमर्श के बाद यह कहा कि ''हम किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंच सके हैं इसके लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाएगा और तभी अंतिम रूप से यह बताया जा सकेगा कि यह क्या है?'' फिर, विश्वविद्यालयीन प्राध्यापकों के एक दल को बुलाया गया। प्राध्यापकों ने कहा कि ''यह एक इस तरह का चित्र है जिस पर शोध होना अभी बाकी है। हम जल्द ही दो-चार छात्रों का पंजीयन कराएंगे और फिर उनके शोध कार्य का एक तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद अपनी रिपोर्ट देंगे।'' इसके बाद प्राथमिक स्कूल के शिक्षकों को बुलाया गया- ''उन्होंने सीधा सा जवाब दिया कि यह एक ब्लैकबोर्ड है जिस पर खड़िया से शून्य लिखा हुआ है।'' अंतिम दौर में प्राथमिक शाला के बच्चों को बुलाया गया- ''बच्चों ने उसे देखते ही तपाक से उत्तर दिया कि -''काले बादलों से भरे आसमान में यह पूर्णिमा का चांद है।'' कहानी के नीचे एक वाक्य लिखा था कि ''यों-यों हम बड़े होते जाते हैं, हमारी कल्पनाशक्ति को लकवा मारता चलता है।'' यह कहानी पिछले करीब बीस वर्षों से मुझे परेशानी करती है। यह सच है कि हमारी कल्पनाशक्ति पर जो ताले जड़े हैं वह पिछले बीस वर्षों से ही जड़े गए हैं और इनकी चाबी हमारे पास नहीं रहने दी जाती। कमरा भी हमारा है, ताला भी हमारा ही है पर उसकी चाबी उन्होंने हथिया ली है, जो पहले कभी दूर देश से हमारे यहां व्यापार करने आए थे। वे आज उसी तरह हर देश में बैठकर हमारे साथ व्यापार कर रहे हैं। जो लोग यह व्यापार कर रहे हैं वे भारतीय हो भी सकते हैं और भारतीय नहीं भी हो सकते क्योंकि उनका धर्म और राष्ट्र सब कुछ पैसे में ही समाहित है।  इनमें चंद बड़े उद्योगपति, कुछ खिलाड़ी, कुछ राजनैतिज्ञ और बालीबुड के कुछ कथित बादशाह शामिल हैं। अंग्रेजी मीडिया का खुला समर्थन इसे प्राप्त है। आम आदमी की लगातार कुंद होती कल्पनाशक्ति को और अधिक कमजोर करने का काम ये सारे लोग बहुत मुस्तैदी के साथ करते हैं। आम आदमी कहता है- 'रोटी', तो यह कहते हैं- 'लो कर दी न छोटी बात, हम तुम्हारे लिए आईपीएल लेकर आए हैं- इसे देखोगे तो रोटी भूल जाओगे।' आम आदमी रोटी को नहीं भूलता पर यह भूल जाता है कि सच क्या है? यह आज की बात नहीं है- सत्ता-तंत्र का खेल आरंभ से यही रहा है। जब-जब भी किसी महत्वपूर्ण जनकल्याणकारी मुद्दे पर चर्चा करनी होती है, अचानक एक ऐसा गैर- अर्थपूर्ण और बेमानी मुद्दा वे हमारे नथुनों में भर देते हैं, जिसमें आक्सीजन नहीं होती। हमारे तमाम संबंध चीजों की चकाचौंध में धुंधला गए हैं और एक छद्म तरीके से हम धूप, हवा और अंधेरे से बचने की कोशिश में हैं। दरअसल यथार्थ अब इतना भयावह है कि उससे बचकर निकलने का रास्ता कल्पनालोक से होकर ही जाता है और यह रास्ता कथित रूप से धर्म का रास्ता है। धर्म मनुष्य के कल्पनालोक का सबसे बड़ा हिस्सा है, कुछ लोगों को अगर इस बात पर आपत्ति हो और वे कहें कि धर्म जीवन जीने का एक मार्ग है तो फिर संभवत: ईश्वर मनुष्य की एक विराट कल्पना है। बहरहाल, यहां आशय दर्शनशास्त्र की गुफा-कंदराओं में खो जाने का नहीं है और न ही सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ से पलायन का है, यहां आशय विकल्प से है। बाजार का विकल्प क्या है? क्या बााार का विकल्प ईश्वर हो सकता है? संभवत: नहीं, क्योंकि ईश्वर का इस्तेमाल यह बाजार सब से यादा कर रहा है। बाजार आप को धार्मिक बनाने के सारे खेल, खेल रहा है, बाजार आपके लिए एक वैकल्पिक ईश्वर की रचना करने में लगा है। बाजार ऐसे-ऐसे उत्पाद लेकर जा रहा है, जो सूर्य की तपिश और चांद की चांदनी को भी चुनौती देते हुए से लगते हैं। ''चेहरे पर यह क्रीम लगाइए मैडम तो सूरज की किरणें आपकी त्वचा पर पड़ने से पहले ही अपना रास्ता बदल देंगी।'' रायपुर के एक शापिंग माल में एक दुकानदार एक महिला ग्राहक से कह रहा था।
''कितने की है''- महिला ने उत्सुकतावश पूछा। 
''दो हजार तीन सौ निन्यान्वे रुपए की''- दुकानदार ने कुछ यों बताया कि जैसे यह कोई कीमत ही नहीं है। महिला ग्राहक सोच में पड़ गई। दुकानदार उनका चेहरा देखकर समझ गया कि, बात अभी बनी नहीं। ''आप चाहें तो छोटी टयूब ले जाएं, एक बार आजमा लें।'' सूरज की किरणों से बचने का लालच संभवत: काफी बड़ा था।  महिला ने पन्द्रह सौ पचहत्तर रुपए अस्सी पैसे में वह छोटी टयूब खरीद ली और इस दिवास्वप्न के साथ दुकान से बिदा हुई कि सूरज अब उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। बाजारर की माया और बाजार का कल्पना-लोक तो कुछ ऐसा है कि वह आप को एक तरह के धुंधलके में रखता है। बाजार में जब तक आप खरीदने की हैसियत रखते हैं, ठीक है, जिस दिन आप की जेब की हैसियत खत्म हो जाती है, आप को बाजार के पिछवाड़े कचराघर में भी जगह नहीं मिलती। वहां पड़े रहने के लिए भी पैसे लगते हैं। बाजार की दिक्कत यह है कि वहां मानवीय संबंधों और उपमा के लिए कोई स्थान नहीं है और यही सबसे यादा खतरनाक है। यहां तक कि अब कल्पना में भी यह बात नहीं रही। देखते ही देखते सारा दृश्य बदल गया सा लगता है। बाजार से भागने के सारे रास्ते बंद नार आते हैं क्योंकि बाजार लगभग घर के अंदर तक आ चुका है।
देखते ही देखते हमारे लिए पुस्तकों के मुखपृष्ठ अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं, भीतर शब्दों में, शब्द की संवेदनाओं में क्या है, इससे किसी का कोई मतलब नहीं रह गया है, और यही हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है। एक पूरी की पूरी पीढ़ी संवेदनहीनता के बोझ तले दबी हुई है और उसके ऊपर मंच सजा कर कुछ लोग रंगीन कपड़े पहिने, अपनी ऑंखों में काले चश्मे लगाकर घोषणा कर रहे हैं कि -''सब कुछ ठीक-ठाक है और यह दबाव हम आपकी सुरक्षा के लिए बना रहे हैं।''
मैं आश्वस्त हूं कि उनका यह झूठ अंतत: एक दिन सबके सामने आएगा और आसमान के काले बादलों के बीच पूर्णिमा के चांद की कल्पना सिर्फ प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की कल्पना नहीं रहेगी। हमारा समाज बच्चे की उस कल्पना को अपने अंदर एक सजग दृष्टि की तरह विकसित करेगा और बाजार की ताकतें विफल होंगी। 
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    एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
    आभार    
    देवाशीष वत्स  

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