डॉ.कुमार विमल से मेरी पहली भेंट 1987 में हुई थी। अपने पहले कविता संग्रह समुद्र के आंसू के लिए दो शब्द लिखवाने के संदर्भ में उनसे तीन मुलाकातें हुयीं थीं। दो उनके आवास पर,एक उनके सचिवालय स्थित दफ्तर में। अमरेन्द्र कुमार मुकुल से कुमार मुकुल होने में एक हद तक उनके नाम से ही प्रेरित हुआ था मैं। मुकुल मेरे घर का पुकार का नाम था।
जब मैं डॉ.कुमार विमल से किताब के दो शब्द लिखा लाया तब जाकर एक हद तक पिता आश्वस्त हुए कि मैं कुछ गलत नहीं जा रहा। आरा जैन कालेज में जिस साल पिता एमए अंग्रेजी की डिग्री लेकर निकल रहे थे उसी साल विमल जी वहां प्राध्यापक के रूप् में नियुक्त हएु थे जैसा कि पिता बताते थे। घर में उनकी उस समय लिखी गयी आलोचना की एक पुस्तक भी थी। जब मैं उनसे दो शब्द लिखा लाया तब उनके बारे में और पता किया और देखा कि पिता ने सौंदर्यशास्त्र पर उनकी किताब मंगा कर अपनी टेबल पर जमा रखी है। मेंने किताब पढी और उस समय की अपनी समझ के अनुसार काफी लंबा एक लेख भी लिखा। संभवत: वह मेरे गद्य लेखन की शुरूआत थी। अभी भी उस आलेख की कापी मेरे पास है, जिसका संपादन करने की मैं आज तक सोचता रह गया।
दो शब्द लिखाने की जब मैंने सोचना आरंभ किया उस समय साहित्य में भी मेरे गुरू पिता ही थे। सहरसा में लोग गोष्ठियों में भाषण करने उन्हें अक्सर ले जाते थे और मुग्ध होकर उनका भाषण सुनते थे। पिता की भाषा भी संस्कृत निष्ठ थी विमल जी जैसी। पिता ने ही चर्चा करते बताया था कि विमल जी ने पंत की भूमिका लिखी है और महादेवी की लिखने वाले हैं, अब मुझे और क्या चाहिए था। उस समय तक पिता की टेबल पर मुक्तिबोध की भूरी-भूरी खाक धूल आ चुकी थी पर उसमें मेरी रसाई नहीं थी। दिनकर का चक्रवाल ही मेरे लिए महान ग्रंथ था तब।
उस समय मैं सहरसा में रहता था। विमल जी से लिखवाने के लिए पटना जाना होता, और घर में मेरी इतनी वकत नहीं थी तब कि केवल इसी के लिए मुझे पटना जाने दिया जाता। तो इंटर के बाद हुआ कि पटना कालेज में मेरा एडमिशन होगा।केदारनाथ कलाधर पिता से क्लास में जुनियर थे और पिता ने उस समय पढाई में उनकी मदद वगैरह की थी। तो जब उनसे मिले हमलोग तो कलाधर जी काफी आवभगत की। पिता को निश्चिंत कर सहरसा भेज दिया कि जाइए मैं एडमिशन करवा दूंगा और रहने की व्यवस्था भी करवा दूंगा। तब मैं पटना में अपने स्कूल के साथी शैलजा दत्त पाठकके यहां ठहरा था। शैलजा के पिता भी मेरे पिता के सहपाठी थे।
सप्ताह भर रहने के बाद भी जब मेरे रहने के बारे में कुछ पता नहीं चला तो मैं कलाधर जी से मिला। कि कुछ व्यवस्था कीजिए अब। तो वे मुझे लेजाकर हिंदी साहित्य सम्मेलन के एक हाल में टिका दिए। हाल में एक बडी सी टेबल लगी थी कमर तक उंची पर एक बडे पलंग से बडी। तो उसी पर मैंने विस्तर लगा दिया और दीवार पर टंडन जी आदि साहित्यिकों की तस्वीरें थीं टंगी तो उनकी खूंटियों में मच्छडदानी अंटका लिया करता रात को। मेरी इस दखलंदाजी को वहां के पारंपरिक निवासी पसंद नहीं कर रहे थे। सो वे कहते कि इस कमरे में कोई मर गया था कि उसका भूत रहता है इसमें। राम में थोडा डर लगता, पर तब तक मैं इतना कमजोर नहीं रह गया था, भूत से डरा कर भगा दिया जाए। सो मैं टिक गया।
तब वहीं सामने के सीढी घर के नीचे के कमरे में मगही के कवि रामसिंगासन सिंह विद्यार्थी रहते थे। उनसे मेरी दोस्ती हो गयी थी। वे तंगहाली में रहते थे। एक बार मेरी गर्दन की नस चढ गयी तो उन्होंने कहा कि वे अच्छे बैद्य भी हैं फिर पीठ की नसों को कुछ खींचा वींचा तो कुछ आराम हुआ। फिर एक दिन वे अपने साथ मुझे पटना रेडियो स्टेशन ले गये। उस दिन वे खूब सजधज कर गये थे। सो मुझे ही अजूबे लग रहे थे।
उस समय समुद्र के आंसू की पांडुलिपी मैं साथ लेता गया था। कलाधर जी का आश्वासन बिरबल की खिचडी की तरह पक रहा था तो मैं इस जुगाड में था कि इसी बीच पुस्तक की भूमिका आदि लिखवा ली जाए। विमल जी के अलावे मुझेश्रीरंजन सूरिदेव से भी भूमिका लिखानी थी।
तो मैं दोनों लोगों से बारी-बारी मिला। दोनों ही सज्जन व्यक्त्िा निकले। विमल जी जैसा मीठे स्वभाव का व्यक्ति मैंने फिर देखा नहीं। उस समय मैं सोचता यह सौदर्यशास्त्र पर किताब लिखने के चलते इतने सुदर्शन और मीठे स्वभाव के हैं। इतना धीमे और मधुर वे बोलते कि क्या कहा जाए। उनके कमरे में चारों ओर किताबें फैलीं रहतीं। यहां तक कि जिस सोफे पर बैठना होता उस भी किताबें हटा कर बैठना होता। सामने टेबल पर एक पीतल का जूता किताबों पर रखा होता वह मुझ भोजपुरिया को और अजूबा लगता। कला वला का क ख ग तब कहां कितना समझ पाता था।
दूसरी मुलाकात में मैंने उन्हें पुस्तक की पांडुलिपी दी। उन्होंने कहा कि एक सप्ताह बाद दफ्तर में मिलिए। दफ्तर में सिपाही से नजरें बचाकर जब मैं दाखिल हुआ तो उन्होंने पूछा – किसी ने रोका नहीं , मैं हंसा – नहीं तो। वे मुस्कुराए। बोले – धुन के पक्के हो तुम, राइज करोगे। फिर इस बीच वे पांडुलिपी पढ चुके थे, व पास ही थी। एक सादा कागज उन्होंने मुझे थमाया तो मेरी समझ में नहीं आया कि मुझे क्या करना है। फिर उन्होंने डिक्टेशन दे दो शब्द लिखवाए। फिर उसे टाइप करवाकर दस्तखत कर मुझे दिया। प्रमुदित मैं साहित्य सम्मेलन लौट आया। फिर मैंने पता किया तो कलाधर जी के आश्वासनों का कोई मानी नहीं था। और मैं पटना से सहरसा लौट आया।
किताब पिता ने छपवाई। डाक से उन्हें भेजा तो उनका उत्साह बर्धक पत्र आया।
आगे मेरी कविताई ने नयी राह ली। सहरसा के महाप्रकाश , केदार कानन आदि अग्रज कवियों के संपर्क में मैं आया तो विकास के साथ पिता की और विमल जी और सूरिदेव जी की संस्कृत निष्ठ भाषा मुझे अखरने लगी। तब अग्रजों की संगत में कविता के नये मुहावरों और उनकी नयी विकसित होती दुनिया से मेरा साबका पडा तो पिछला सब भूल गया। अपना ही कविता संग्रह मुझे बेकार लगने लगा। हालांकि उस समय हिंदुस्तान में मुकेश प्रत्यूष ने इसकी समीक्षा भी लिखी थी , उत्साहबर्धक ।
इस सब के करीब दस साल बाद पटना रेडियो स्टेशन में विमल जी से मुलाकात हुई। सुलभ जी के निर्देशन में हमें कविता पढनी थी और विमल जी को भी। हम एक साथ बैठे रिकार्डिंग रूम के खाली होने का इंतजार कर रहे थे। विमल जी ने मुझे पहचाना नहीं तो बातचीत में अपने बारे में बताने का मौक ही नहीं आया। मैं आधे घंटे तक उन्हें सुनता रहा। उनकी मीठी वाणी का आकर्षण था शायद कि मैं अंत तक सुनता रहा कविता-आलोचना की दुनिया की चर्चा। फिर उनके रिकार्डिंग का वक्त् आ गया। निकलते समय मैंने उन्हें नमस्कार किया, वे चले गये और मैं अपनी रिकार्डिंग के लिए भीतर गया।
यही आखिरी मुलाकात थी। फिर उन्हें जब तब पढता रहा अखबार आदि में। उनके दो तीन कविता संग्रह पढे पर उनके गद्य सा उसका कोई प्रभाव नहीं पडा मुझ पर। कल फेशबुक पर उनके नहीं रहने की खबर पढ मुझे सब कुछ याद आने लगा, खासकर उनकी मीठी जबान के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।
....... कुमार मुकुल
जब मैं डॉ.कुमार विमल से किताब के दो शब्द लिखा लाया तब जाकर एक हद तक पिता आश्वस्त हुए कि मैं कुछ गलत नहीं जा रहा। आरा जैन कालेज में जिस साल पिता एमए अंग्रेजी की डिग्री लेकर निकल रहे थे उसी साल विमल जी वहां प्राध्यापक के रूप् में नियुक्त हएु थे जैसा कि पिता बताते थे। घर में उनकी उस समय लिखी गयी आलोचना की एक पुस्तक भी थी। जब मैं उनसे दो शब्द लिखा लाया तब उनके बारे में और पता किया और देखा कि पिता ने सौंदर्यशास्त्र पर उनकी किताब मंगा कर अपनी टेबल पर जमा रखी है। मेंने किताब पढी और उस समय की अपनी समझ के अनुसार काफी लंबा एक लेख भी लिखा। संभवत: वह मेरे गद्य लेखन की शुरूआत थी। अभी भी उस आलेख की कापी मेरे पास है, जिसका संपादन करने की मैं आज तक सोचता रह गया।
दो शब्द लिखाने की जब मैंने सोचना आरंभ किया उस समय साहित्य में भी मेरे गुरू पिता ही थे। सहरसा में लोग गोष्ठियों में भाषण करने उन्हें अक्सर ले जाते थे और मुग्ध होकर उनका भाषण सुनते थे। पिता की भाषा भी संस्कृत निष्ठ थी विमल जी जैसी। पिता ने ही चर्चा करते बताया था कि विमल जी ने पंत की भूमिका लिखी है और महादेवी की लिखने वाले हैं, अब मुझे और क्या चाहिए था। उस समय तक पिता की टेबल पर मुक्तिबोध की भूरी-भूरी खाक धूल आ चुकी थी पर उसमें मेरी रसाई नहीं थी। दिनकर का चक्रवाल ही मेरे लिए महान ग्रंथ था तब।
उस समय मैं सहरसा में रहता था। विमल जी से लिखवाने के लिए पटना जाना होता, और घर में मेरी इतनी वकत नहीं थी तब कि केवल इसी के लिए मुझे पटना जाने दिया जाता। तो इंटर के बाद हुआ कि पटना कालेज में मेरा एडमिशन होगा।केदारनाथ कलाधर पिता से क्लास में जुनियर थे और पिता ने उस समय पढाई में उनकी मदद वगैरह की थी। तो जब उनसे मिले हमलोग तो कलाधर जी काफी आवभगत की। पिता को निश्चिंत कर सहरसा भेज दिया कि जाइए मैं एडमिशन करवा दूंगा और रहने की व्यवस्था भी करवा दूंगा। तब मैं पटना में अपने स्कूल के साथी शैलजा दत्त पाठकके यहां ठहरा था। शैलजा के पिता भी मेरे पिता के सहपाठी थे।
सप्ताह भर रहने के बाद भी जब मेरे रहने के बारे में कुछ पता नहीं चला तो मैं कलाधर जी से मिला। कि कुछ व्यवस्था कीजिए अब। तो वे मुझे लेजाकर हिंदी साहित्य सम्मेलन के एक हाल में टिका दिए। हाल में एक बडी सी टेबल लगी थी कमर तक उंची पर एक बडे पलंग से बडी। तो उसी पर मैंने विस्तर लगा दिया और दीवार पर टंडन जी आदि साहित्यिकों की तस्वीरें थीं टंगी तो उनकी खूंटियों में मच्छडदानी अंटका लिया करता रात को। मेरी इस दखलंदाजी को वहां के पारंपरिक निवासी पसंद नहीं कर रहे थे। सो वे कहते कि इस कमरे में कोई मर गया था कि उसका भूत रहता है इसमें। राम में थोडा डर लगता, पर तब तक मैं इतना कमजोर नहीं रह गया था, भूत से डरा कर भगा दिया जाए। सो मैं टिक गया।
तब वहीं सामने के सीढी घर के नीचे के कमरे में मगही के कवि रामसिंगासन सिंह विद्यार्थी रहते थे। उनसे मेरी दोस्ती हो गयी थी। वे तंगहाली में रहते थे। एक बार मेरी गर्दन की नस चढ गयी तो उन्होंने कहा कि वे अच्छे बैद्य भी हैं फिर पीठ की नसों को कुछ खींचा वींचा तो कुछ आराम हुआ। फिर एक दिन वे अपने साथ मुझे पटना रेडियो स्टेशन ले गये। उस दिन वे खूब सजधज कर गये थे। सो मुझे ही अजूबे लग रहे थे।
उस समय समुद्र के आंसू की पांडुलिपी मैं साथ लेता गया था। कलाधर जी का आश्वासन बिरबल की खिचडी की तरह पक रहा था तो मैं इस जुगाड में था कि इसी बीच पुस्तक की भूमिका आदि लिखवा ली जाए। विमल जी के अलावे मुझेश्रीरंजन सूरिदेव से भी भूमिका लिखानी थी।
तो मैं दोनों लोगों से बारी-बारी मिला। दोनों ही सज्जन व्यक्त्िा निकले। विमल जी जैसा मीठे स्वभाव का व्यक्ति मैंने फिर देखा नहीं। उस समय मैं सोचता यह सौदर्यशास्त्र पर किताब लिखने के चलते इतने सुदर्शन और मीठे स्वभाव के हैं। इतना धीमे और मधुर वे बोलते कि क्या कहा जाए। उनके कमरे में चारों ओर किताबें फैलीं रहतीं। यहां तक कि जिस सोफे पर बैठना होता उस भी किताबें हटा कर बैठना होता। सामने टेबल पर एक पीतल का जूता किताबों पर रखा होता वह मुझ भोजपुरिया को और अजूबा लगता। कला वला का क ख ग तब कहां कितना समझ पाता था।
दूसरी मुलाकात में मैंने उन्हें पुस्तक की पांडुलिपी दी। उन्होंने कहा कि एक सप्ताह बाद दफ्तर में मिलिए। दफ्तर में सिपाही से नजरें बचाकर जब मैं दाखिल हुआ तो उन्होंने पूछा – किसी ने रोका नहीं , मैं हंसा – नहीं तो। वे मुस्कुराए। बोले – धुन के पक्के हो तुम, राइज करोगे। फिर इस बीच वे पांडुलिपी पढ चुके थे, व पास ही थी। एक सादा कागज उन्होंने मुझे थमाया तो मेरी समझ में नहीं आया कि मुझे क्या करना है। फिर उन्होंने डिक्टेशन दे दो शब्द लिखवाए। फिर उसे टाइप करवाकर दस्तखत कर मुझे दिया। प्रमुदित मैं साहित्य सम्मेलन लौट आया। फिर मैंने पता किया तो कलाधर जी के आश्वासनों का कोई मानी नहीं था। और मैं पटना से सहरसा लौट आया।
किताब पिता ने छपवाई। डाक से उन्हें भेजा तो उनका उत्साह बर्धक पत्र आया।
आगे मेरी कविताई ने नयी राह ली। सहरसा के महाप्रकाश , केदार कानन आदि अग्रज कवियों के संपर्क में मैं आया तो विकास के साथ पिता की और विमल जी और सूरिदेव जी की संस्कृत निष्ठ भाषा मुझे अखरने लगी। तब अग्रजों की संगत में कविता के नये मुहावरों और उनकी नयी विकसित होती दुनिया से मेरा साबका पडा तो पिछला सब भूल गया। अपना ही कविता संग्रह मुझे बेकार लगने लगा। हालांकि उस समय हिंदुस्तान में मुकेश प्रत्यूष ने इसकी समीक्षा भी लिखी थी , उत्साहबर्धक ।
इस सब के करीब दस साल बाद पटना रेडियो स्टेशन में विमल जी से मुलाकात हुई। सुलभ जी के निर्देशन में हमें कविता पढनी थी और विमल जी को भी। हम एक साथ बैठे रिकार्डिंग रूम के खाली होने का इंतजार कर रहे थे। विमल जी ने मुझे पहचाना नहीं तो बातचीत में अपने बारे में बताने का मौक ही नहीं आया। मैं आधे घंटे तक उन्हें सुनता रहा। उनकी मीठी वाणी का आकर्षण था शायद कि मैं अंत तक सुनता रहा कविता-आलोचना की दुनिया की चर्चा। फिर उनके रिकार्डिंग का वक्त् आ गया। निकलते समय मैंने उन्हें नमस्कार किया, वे चले गये और मैं अपनी रिकार्डिंग के लिए भीतर गया।
यही आखिरी मुलाकात थी। फिर उन्हें जब तब पढता रहा अखबार आदि में। उनके दो तीन कविता संग्रह पढे पर उनके गद्य सा उसका कोई प्रभाव नहीं पडा मुझ पर। कल फेशबुक पर उनके नहीं रहने की खबर पढ मुझे सब कुछ याद आने लगा, खासकर उनकी मीठी जबान के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।
....... कुमार मुकुल