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        • ।।बुढबा नेता ।।
        • ।।बेबस जोगी ।।
        • ।।घर ।।
        • ।।कः कालः।।
        • ।।स्त्रीक दुनिञा।।
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        • ।।गोनू झाक गीत।।
        • ।।जाति-धरम के गीत।।
        • ।।भैया जीक गीत।।
        • ।।मदना मायक गीत।।
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        • ।।प्रलय-रहस्य।।
        • ।।धनक लेल कविक प्रार्थना।।
        • ।।बुद्धक दुख॥
        • ।।गिद्धक पक्ष मे एकटा कविता।।
        • ।।विद्यापतिक डीह पर।।
        • ।।पंचवटी।।
        • ।।घरबे।।
        • ।।रंग।।
        • ।।संभावना।।
        • ।।सिपाही देखैए आमक गाछ।।
        • ।।जै ठां भेटए अहार ।।
        • ।।ककरा लेल लिखै छी ॥
        • ।।स्त्रीक दुनिञा।।
        • ।।घर ।।
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हे अमृत के पुत्रों

1/21/2012

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उस अंतिम शिला पर बैठकर स्वामी ने अपना मन एकाग्र किया | वे ध्यान में गहरे उतरते चले गए | उनका ध्यान भारत के वर्तमान और भविष्य पर एकाग्र हो रहा था | देश के इस पतन का कारण क्या है ? एक दृष्टा के दिव्यदर्शन के रूप में उन्होंने देखा-क्यों भारत उन्नति की चोटी से पतन के गर्त में गिर गया | उस एकांत में जहाँ चारों ओर झाग और पवन का वेग ही सुनाई पड़ता था, उनके सारे अस्तित्व में मानों भारत का गंतव्य प्राण के रूप में स्पंदन कर रहा था | भारत की उपलब्धियाँ आकाश के ग्रहों के समान उनके हृदयाकाश में द्युतिमान थीं | अनागत शताब्दियों के आवरण को हटाकर अपना रहस्य उद्घाटित कर रही थीं | भारतीय संस्कृति के क्षमतावान स्वरुप के यथार्थ को स्वामी ने साक्षात देखा | जिस प्रकार कोई वास्तुकार अनबने भवन की कल्पना ईंट और पत्थरों में करता है, उसी प्रकार उन्होंने भारत को उसके मूर्त्त रूप में देखा | साक्षात देखा | सांगोपांग देखा | उन्होंने देखा कि भारत माता की धमनियों में दौड़ने वाला रक्त और कुछ नहीं, केवल धर्म था | अध्यात्म ही उसका प्राण था | उन्हें अनुभव हुआ : भारत का निर्माण उसी सर्वोच्च आध्यात्मिक चेतना की पुन:प्रतिष्ठा से होगा, जिसने उसे सदा के लिए भक्ति, श्रद्धा और मानवता का पालना बना दिया था | उन्होंने भारत की महानता को देखा | उन्होंने उसकी सीमाओं और दुर्बलताओं को भी देखा | भारत अपनी अस्मिता खो चुका था | अब एक मात्र आशा ऋषियों की संस्कृति में थी | उसे पुन: जगाया जाए, उसे पुन: जीवंत किया जाए, उसे पुन: स्थापित किया जाए | धर्म भारत के पतन का कारण नहीं था | पतन का कारण था- धर्म के आदेशों की अवहेलना, उनका उल्लंघन | धर्म का आचरण संसार की सबसे बड़ी शक्ति को जन्म देता है |मोक्षोन्मुखी संन्यासी एक सुधारक, एक राष्ट्रनिर्माता, विश्वशिल्पी में परिणत हो गया था | उनकी आत्मा करुणा से पिघलकर जैसे सर्वव्यापक हो गई | हे भगवान ! जिस देश में बड़ी-बड़ी खोपड़ी वाले आज दो सहस्र वर्षों से यह ही विचार कर रहे हैं कि दाहिने हाथ से खाऊँ या बाएँ हाथ से ? पानी दाहिनी ओर से लूँ या बायीं ओर से | अथवा जो लोग फट फट स्वाहा, क्रां, क्र्रूं हुं हुं करते हैं , उनकी अधोगति न होगी, तो और किसकी होगी ? काल: सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रम: | काल का अतिक्रम करना बहुत कठिन है | ईश्वर सब जानते हैं, भला उनकी आँखों में कौन धूल झोंक सकता है ?जिस देश में करोड़ों लोग महुआ खाकर दिन गुज़ारते हैं, और दस-बीस लाख साधु और दस-बारह करोड़ ब्राह्मण उन गरीबों का खून चूस कर जीते हैं; और उनकी उन्नति के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, वह देश है या नरक ? वह धर्म है या उसकी भ्रमित व्याख्या करने वाला पिशाच नृत्य ? मैं भारत को घूम-घूमकर देख चुका हूँ-क्या बिना कारण के कहीं कोई कार्य होता है ? क्या बिना पाप के दंड मिल सकता है ? 'सब शास्त्रों और पुराणों में व्यास के ये दो वचन हैं - परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप |' देश का दारिद्र्य और अज्ञता देखकर मुझे नींद नहीं आती | क्या हमारे गुरुदेव नहीं कहा करते थे कि खाली पेट से धर्म नहीं होता ? वे गरीब, जो पशुओं का सा जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उसका कारण अज्ञान है | पाजियों ने युग युगों से उनका खून चूसा है और उन्हें अपने पैरों तले कुचला है | हिन्दू, मुसलमान, ईसाई- सबने ही उन्हें पैरों तले रौंदा है | उनकी उद्धार की शक्ति भी भीतर से अर्थात कट्टर हिंदुओं से ही आएगी | प्रत्येक देश में बुराइयाँ धर्म के कारण नहीं, वरन धर्म को न मानने के कारण ही विद्यमान रहती हैं | दोष धर्म का नहीं, समाज का है | स्वामी ने स्पष्ट देखा : सन्यास और सेवा- ये युगल विचार ही भारत का उद्धार कर सकते हैं |हाँ, वे अमेरिका जाएँगे | भारत के करोड़ों लोगों के नाम पर, उनके प्रतिनिधि बनकर वे अमेरिका जाएँगे | अपने मस्तिष्क की शक्ति से वे वहाँ संपत्ति अर्जित करेंगे | भारत लौटकर वे अपने देशवासियों के उत्थान का प्रयत्न करेंगे | या फिर इस प्रयत्न में अपने प्राण दे देंगे | और कोई सहायता करे न करे, गुरुदेव उनकी सहायता करेंगे |उनका वर्षों का चिंतन आज कुछ निष्कर्षों पर पहुँचा था | उन्हें मार्ग मिल गया था | उन्होंने अश्रुभरी आँखों से सागर को देखा : उनका ह्रदय अपने गुरु और जगदंबा के चरणों में नत हो गया | आज से उनका जीवन अपने देश की सेवा को समर्पित था | विशेष रूप से अस्पृश्य नारायण की सेवा के लिए, भूखे नारायणों के लिए, करोड़ों करोड़ दलित और दमित नारायणों के लिए | ब्रह्म का साक्षात्कार, निर्विकल्प समाधि का आनन्द, उनके जीवन का लक्ष्य नहीं था, जीवन का लक्ष्य था - सेवा | उन्होंने नारायण को देखा, संसार के स्वामी, अनुभवातीत, किंतु सारे जीवों में व्याप्त | उनका असीम प्रेम कोई भेदभाव नहीं करता - कोई ऊँच-नीच नहीं है, शुद्ध और अशुद्ध धनी और निर्धन, पुण्यात्मा और पापी - किसी में कोई भेद नहीं करते थे | उनके लिए धर्मलाभ ही मनुष्य के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं था | मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिए- वेद, ऋषि, तपस्या और ध्यान, आत्मसाक्षात्कार ... किंतु यह सर्वसाधारण...उनका जीवन, उनके सुख-दुख, उनकी पीड़ा और दीनता, उनकी निर्धनता और असहायता | मानव यातना से निरपेक्ष धर्म तत्वहीन और सारहीन था |


(विवेकानंद के पर प्रस्तुत अंश डॉ. नरेन्द्र कोहली जी द्वारा लिखित पुस्तक 'न भूतो न भविष्यति' से लिया गया है | एक साधारण संन्यासी से एक युग प्रवर्तक और समाज सेवक बनने का दृढ़ संकल्प कन्याकुमारी की अंतिम शिला से शुरू हुआ और पूरे भारत में क्रांति बनकर छा गया |   साभार   http://kabaadkhaana.blogspot.com )
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केदारनाथ मिश्र अग्रवाल

1/4/2012

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यह केदार जी का शताब्दी वर्ष है. केदार के चिंतन को आज के संदर्भ में कैसे समझा जाए, उसके भीतर ऐसे सूत्र कहां से तलाशे जाए कि केदार आज के लिए ज्यादा प्रासंगिक हो जाए या आज के समय के सरोकारों से केदार की कविता गहरे से संवाद कर सके. वह सामाजिक विषमता हो या समाज की अन्या अन्य समस्या हो केदार की कविता बच्चे द्वारा फेंका गया वह कंकड है जो अनंत काल को कंपा देता है. यह पुस्तक केदार के साथ लम्बे समय तक जुड़े रहे, वर्तमान में केदार शोध पीठ के सचिव और कवि नरेन्द्र पुण्डरीक  द्वारा संपादित  है.इसमें केदार की वे कविताएं ली है जिनसे केदार की समग्र दृष्टि को समझने में आसानी रहे. तकरीबन पच्चीस वर्ष पहले रामविलास जी ने केदार जी पर एक लम्बी भूमिका के साथ पुस्तक का संपादन किया था. वह पुस्तक केदारजी को समझने के लिए  बहुत ही उपयोगी है. लेकिन जैसा कि रामविलास जी की अपनी दृष्टि है उसके कारण उसमें केदार की राजनीतिक कविताएं ही केदार की दृष्टि  का प्रतिनिधित्व करती है. इस पुस्तक में यह देखने का प्रयास किया है कि केदार की समग्रता कहां है. वे प्रकृति प्रेम जीवन संघर्ष ,जीवन के राग के रचनाकार है. वे निरंतरता में परिवर्तन के कवि है. वे संक्रमण के कवि है.वे अपने समय में रुपान्तरण के कवि है. बसंत के कवि है. चुनौती देनेवाले चुनौती लेने वाले कवि है. पुण्डरीक जी ने संपादन में किसी तरह की काल क्रमता नहीं बनायी, उन्होंने केदार की प्रतिनिधि कविताएं ली हैं.

केदार की कविता बंसती हवा जीवन  के राग की कविता है, मनुष्य के स्वच्छंद विचरण की कविता है, मनुष्य और प्रकृति के संगीत की कविता है. केदार की इस कविता में मनुष्य की प्रकृति के साथ जो स्वच्छन्द  कल्पना है वह जीवन का संगीत है. वहां थाप है जिसका राग प्रकृति का राग है मनुष्य का राग है. वहां कुंठा नहीं हैं. मांझी का संगीत है. केदार का काव्य राग जीवन की संघर्षधर्मिता से पैदा हुआ मानव मुक्ति का राग है.कविता की यह पुस्तक केदार के कई पक्षों को एक साथ अभिव्यक्त करती है. यहां केदार अनास्था पर लिखे आस्था के शिलालेख है. वे मृत्यु पर जीवन की जय की घोषणा करते है. वे किसी भी तरह से अपने में सिमटते नहीं. अपने को बाहर के समाज के साथ खड़ा किये हुए हैं. कवि  कहता है-मार हथोड़ाकर कर चोट

लाल हुए काले लोहे कोजैसा चाहे वैसा मोड़मार हथोड़ाकर कर चोटदुनिया की जाती ताकत होजल्दी छवि से नाता जोड़!अपनी कमजोर छवि से नाता तोड़कर ही यह वर्ग अपनी ताकत का अहसास करा सकता है दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ तुम्हारे पास पाने के लिए सारा जहान है और खोने के लिए कुछ नहीं है. आज अन्ना हजारे के सड़क पर उतरने पर जो जनता सड़को पर आयी है वह जनता की ही ताकत है. केदार उसी जनता को अपनी ताकत का अहसास करा रहे हैं जो अपने पर सबसे ज्यादा भरोसा करती है.केदार की कविता के कई स्वर हैं. वहां राजनीतिक चेतना की प्रखरता हो या फिर प्रकृति के झंझावात में मानव का झंझावात हो.मुझे न मारोमान-पान सेमाल्यार्पण सेयशोज्ञान सेमिट्टी के घर सेनिकाल करधरती से ऊपर उछाल कर.केदार पांव दुखानेवाले हैं न  पांव पुजानेवाले. ऐसे में केदार को यह सब जिसका प्रचलन आजकल बहुत ज्यादा हो गया है. वह सम्मान के नाम पर हो या फिर किसी और तरह से,केदार को यह सब मंजूर नहीं है. वे अपनी धरती पर रहे हैं. वे कविता में ही नहीं जीवन में भी उतने ही प्रगतिशील है. यही वजह है कि केदार की कविता में तप की गहरी आंच है.दुख ने मुझकोजब-जब तोड़ा,मैंने

अपने टूटेपन कोकविता की ममता से जोड़ाजहां गिरा मैंकविता ने मुझे उठायाहम दोनों  नेवहां प्रात का सूर्य उगाया.

दुख का कवि को तोड़ना और कवि का गिरना और कविता का उसे उठाना, यह मनुष्य के नैतिक पतन की कथा है. जिसके बारे में आचार्य शुक्ल कह गये कि मनुष्य को किसी की जरुरत हो या न हो पर कविता की जरुरत हमेशा रहेगी. जिससे कि वह मनुष्य बना रहे. यहां कवि का निहितार्थ वही है. कवि वहीं से गिरने और कविता द्वारा उठाना और वह भी प्रात का सूर्य. मनुष्य का सौंदर्यबोध और उसके भीतर का आभाबोध!लिपट गयी जो धूल पाँव सेवह गोरी है इसी गाँव कीजिसे उठाया नहीं किसी नेइस कुंठा से.इस संकलन में संपादक ने केदार की कविता को कई खण्डों में विभाजित किया है. प्रेम कविताएं नदी एक नौजवान ढीठ लड़की है शीर्षक के अंतर्गत है. यह तेज धार का कर्मठ पानी है, जिसमें प्रतिवाद है. अज्ञेय पानी की गति को कामुकता के साथ जोड़ते हैं, केदार के यहां पानी अपने गहरे निहितार्थ में प्रेम की गहराई को व्यक्त करता है. वहां उदासी है तो उसका सम्मान भी है. केदार की कविता में यह नैतिकताबोध बहुत गहरे  पैठा है.केदार की कविता में जनता के प्रति गहरा लगाव है. जनता के पुछने पर यह कवि हकलाता नहीं है यह साफ कहता कि मैं जन कवि हूं. आज के समय में जितनी समस्याएं सामने आ रही है वे इसी हकलाहट के कारण है. केदार इसको अस्वीकार करते हैं और इसी कारण केदार आपाताकाल का विरोध करते हैं.  केदार अपने भीतर एक आलोचक को सदैव जीवित रखते हैं. यह कवि हथौड़े का गीत गाता है कटाई का गीत गाता है. बुंदेलखण्ड के आदमी का गीत गाता है जिसे आल्हा सुनकर सोने के अलावा कुछ नहीं दिखता जबकि वह हट्टा कट्टा है. वही ऐसी विषमता है कि पैतृक संपति के नाम पर बाप से सौगुनी भूख मिलती है. वह अपने पेट की आग के लिए संघर्ष करे या वह आजादी का जश्न मनाये जिसके बारे में उसको कुछ खबर ही नहीं है. उसे क्या मतलब है कि लंदन जाकर कौन आजादी ला रहा है या अमरिका से डालर आ रहा है. उसे अपने पेट की चिंता  है. वह परती जमीन जिसका कल तक कोई दाम नहीं था पर वही जमीन आज करोड़ो की हो चली है, उससे उसको क्या मिलने वाला है. वह तो वहीं पर है. बाजार के लुटेरे  उसे लूट रहे हैं और वह कुछ नहीं कर सकता. उसको अपनी जमीन से ही बेदखल कर रही है उसी की लोकतांत्रिक सरकार.

हे मेरी तुम में पार्वती  का साहचर्य है जिसको पाकर कवि अपने को जरा मरण से परे कर लेता है. पार्वती की आत्मगंध केदार के बुढापे की बहुत बड़ी ताकत बन जाती है. केदार कहते हैं हे मेरी तुम!सुख का मुख तोयही तुम्हारा मुख हैजिसको मैनेइस दुनिया के दुख-दर्पण मेंअपने सिर पर मौन बांध कर देखाऔर यह देख कर मुग्ध हुआ;यह क्यों आज उदास है?हाथ मनुष्य के श्रम को अभिव्यक्त करते हैं. केदार कहते हैं कि वे हाथ जो कुछ न कर पाये वे हाथ टूट जाये.हाथ जोचटृान कोतोड़े नहींवह टूट जायेलौह कोमोडे़ नहींसौ तार कोजोड़े नहींवह टूट जाये!जो हाथ कुछ नहीं कर सकते उनका टूटना ही श्रेयकर है. सवेरा होते ही जो हाथ कमल की तरह खिल उठते हैं यदि उनमें श्रम का ताप नहीं तो वे किस काम के हैं? जिंदगी को वही गढ़ते हैं जो शिलाएं तोड़ते हैं. केदार के यहां मनुष्य के श्रम का सौंदर्य है. वही समाज की जिंदगी को मोड़ता है.

कालुलाल कुलमी

शोध छात्रमहात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा.

आभार श्री अरुण देव जी ( http://samalochan.blogspot.com )  
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एक कविता की पंक्तियां हैं- ''संकरी सी एक गली है इन उलझे हुए रास्तों के बीच जो मेरे इर्द-गिर्द हैं और

1/4/2012

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एक रास्ता है जो मेरा होगा और जो अभी खो गया है, जब तक मैं खोज नहीं पाता, मैं अभिशप्त हूं तुम्हारे बिछाये हुए रास्तों पर चलने के लिए मेरे जूते घिस गए हैं, पर एक जोड़ी जूते मैंने छिपा कर रखे हैं, अपने जिस्म में कि, एक दिन मैं उन्हें पहनूंगा, उस रास्ते पर, जिसे सिर्फ मैं खोजूंगा, अपने लिये-'' अभी पिछले दिनों पढ़े-लिखे कुछ युवकों के बीच बैठने का मौका मिला। पढ़े-लिखे इस अर्थ में कि वे आई.आई.टी. कर चुके थे और एम.बी.ए. कर रहे थे या फिर एम.बी.ए.कर चुके थे और कुछ और करने का रास्ता खोज रहे थे। इनमें से कुछ की रुचि विज्ञान के साथ-साथ आध्यात्म में भी थी ''आर्ट ऑफ लिविंग'' का एडवांस्ड कोर्स भी वे कर चुके थे। उनके मस्तिष्क के सारे तार कहीं न कहीं अमेरिका के साथ जाकर जुड़ते थे। जब मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें यह नहीं लगता कि पिछले बीस वर्षों में अमेरिका उनके निजी जीवन का कुछ अधिक ही अतिक्रमण कर रहा है तो उन सबके भीतर जैसे धमाका हो गया। उनके चेहरे इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण थे कि वे मुझमें एक बेहद पिछड़े हुए व्यक्ति के चेहरे को तलाश रहे थे। यह एक सीधा तर्क है कि जिस तरह हमारे जीवन-मूल्यों में जो है, सब अच्छा और अनुसरण करने योग्य नहीं है ठीक उसी तरह अमेरिका के जीवन-मूल्यों में भी सब हरा ही हरा नहीं है, कीचड़ सने कुछ लाल निशान वहां भी हैं। हमें उन्हें मिटाने का काम करना है, और एक सार्थक विकल्प की तलाश करनी है। हमें यह जानने की सख्त ारूरत है कि अपने व्यवसायिक ज्ञान और उपाधियों के अलावा हमारा साक्षर समाज क्या पढ़ रहा है? और हमारे विश्वविद्यालय, हमारे समस्त अकादमिक संस्थान, हमारी सरकारें और हमारे विचारक क्या पढ़ने के लिए मुहैया कराते हैं। यह जो पीढ़ी अंग्रेजी की जासूसी किस्सागोई पढ़ती है या यह जो पीढ़ी जिसे अपने पड़ोस के बच्चों के मानवीय अधिकारों के उल्लंघन की खबर नहीं है लेकिन जिसे भारत से उन्नीस देश दूर किसी अन्य देश में मानवाधिकारों के उल्लंघन के बारे में ज्यादा जानकारी है क्योंकि वह सैटेलाईट रास्ते से अमेरिका द्वारा अपने निहित स्वार्थों के कारण या अपने राजनैतिक हितों के चलते बार-बार दुनिया के मीडिया पर दिखलाई जा रही है, उनके बारे में ज्यादा पता है। आखिर हम अपने जनसामान्य की व्यथा-कथा को अपने ही पढ़े-लिखे समाज तक क्यों नहीं पहुंचा पा रहे हैं? क्या कारण है कि हमारा युवा वर्ग अपने ही समाज की व्यथा से इतना कटा हुआ रहता है। ऐसा तो नहीं कि वह संवेदनशील नहीं है पर कहीं न कहीं हमारा नेतृत्व चाहे वह राजनैतिक हो अथवा सामाजिक या अकादमिक, उसकी इस संवेदनशीलता को पकड़ने की जगह उसका अपने हित में इस्तेमाल करना अधिक लाभकारी मानता आया है।
हिन्दी में बडी संख्या में ऐसे लेखक हैं जिन्होंने समाज में आम आदमी की पीड़ा को अपने लेखन का विषय बनाया है और सिर्फ विषय ही नहीं बनाया है बल्कि उसकी पीड़ा के कारणों की तह में जाते हुए, यथार्थपरक तरीके से उन कारणों की पड़ताल भी की है जिनकी वजह से सामाजिक असंतुलन है। ''आई डोन्ट नो व्हाय बट हिन्दी लिटरेचर जस्ट डा नाट इंटरेस्ट मी'' हिन्दी समाज के ही मध्यवर्गीय परिवार के एक लड़के ने मुझ से यह कहा तो मैं अचम्भित रह गया। उसकी दिक्कत यह थी कि उस ने पढ़ा ही नहीं था और वह बिना पढ़े ही यह टिप्पणी कर रहा था। उसकी दूसरी दिक्कत यह थी कि वह कभी हिन्दी प्रदेश के किसी गांव में नहीं रहा, गांव तो दूर की बात है कस्बों और छोटे नगरों तक में नहीं रहा। मैं यह नहीं कहता कि साहित्य की संवेदना को समझने के लिए छोटे कस्बों में रहना किसी तरह की अनिवार्यता है लेकिन जब तक आपके मन में वह संवेदना नहीं होगी आप के लिए किताबों में उस संवेदना को पकड़ पाना असंभव होगा। कोई युवा बीएमडब्ल्यू और मर्सिडींज कार का सपना पालता रहे तो फिर साइकिल चलाते हुए बूढ़े आदमी की तरफ वह उचित सम्मान के साथ नहीं देख सकता। दिक्कत यह है कि एशिया और अफ्रीका के तमाम गरीब देश संयुक्त राज्य अमेरिका के लगभग उपनिवेश बनते जा रहे हैं- चाहे वह अफगानिस्तान हो या श्रीलंका। पर मेरी समझ में यह एक बात नहीं आती कि इन गरीब देशाें की तो एक बड़ी सैन्य-आर्थिक विवशता हो सकती है किंतु भारत जैसे प्रमुख विकासशील राष्ट्र के सामने ऐसी कौन सी विवशता है कि हमने अपनी संस्कृति, अपने पहनावे और खान-पान तक को उनके हवाले कर दिया है। हिन्दी और कुछ अन्य प्रादेशिक भाषाओं जैसे मराठी, बांग्ला, मलयालम, तमिल तथा पंजाबी में अमेरिकी कलावादियों के प्रति विरोध का स्वर सुनाई देता है। हिन्दी में कुछ कथित महान और बड़े कलावादी लेखक हैं जो कि लगभग अपठनीय हैं ारूर पुरस्कृत और सक्रिय हैं लेकिन उनके बरक्स प्र्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और दलित लेखकों का एक बड़ा वर्ग इस कदर सक्रिय है कि कलावादियों के अभिजात्य का शून्य तक डूबता-उभरता चिंतन अपने आप गौण हो जाता है। पर प्रगतिशील चिंतन और लेखन को सामान्यजन तक पहुंचाने की सख्त जरूरत है। चार प्रकाशकों, साढे तीन आलोचकों, तीन विश्वविद्यालयों और दो रद्दी पेपर पर छपने वाले अखबारों के भरोसे यह काम होने वाला नहीं है फिर भले ही गांवों और कस्बों में रहने वाले, अपने कमजोर कंधों पर झोला लटकाये कितने ही कलम के सिपाही, इसके साथ क्यों न हों?
उनके साथ लड़ने के लिए उनके ही अस्त्रों का इस्तेमाल करना होगा, तभी हम अपने लोगों तक पहुंचने का तीसरा रास्ता खोज पाएंगे। यह रास्ता निश्चित ही सृजनशील वैचारिक लेखन से होकर निकलेगा। हिन्दी में एक लंबी फेहरिस्त है, हमारे पास हरिशंकर परसांई, और गजानन माधव मुक्तिबोध की विरासत है। बाबा नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल हैं। इन सब लोगों ने मजदूरों और अन्य श्रमिक वर्गों के जीवन को उनके अंतस तक जाकर पहचाना है और फिर उसे शब्द दिए हैं। मध्यवर्ग की वैचारिक शून्यता और अवसरवादी प्रवृत्तियों को भी समझा है और त्रासदी को भी, इसलिए इनके शब्दों में वह ताकत है जो एक तरह की आस्था पैदा करती है। यह तय है कि अपना रास्ता बनाने के लिए हमें अकेले ही चलना होगा, इस उम्मीद के साथ कि लोग हमारे साथ जुड़ते चले जाएंगे। 
यह एक दुखद तथ्य है हिन्दी में लिखा जा रहा आधुनिक साहित्य अपने पाठकों तक पहुंच नहीं पाता। अधिकांशत: पढा-लिखा समाज हिन्दी लेखन के मामले में प्रेमचंद पर आकर अटक जाता है या फिर उसे गुरूवर रविन्द्रनाथ ठाकुर, शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय और अमृता प्रीतम के नाम याद होते हैं, जिनके अनुवाद हिन्दी में जगह-जगह पर उपलब्ध हैं। हिन्दी के प्रकाशकों को अपनी 'मार्केटिंग' की तकनीक निश्चित ही बदलनी होगी अन्यथा खरपतवारों की तरह बढ़ते हुए प्रकाशकों और पुस्तकों का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा।
फ्रांस के प्रख्यात कवि फ्रेंक आंद्रे जाम के शब्दों में - ''शायद तुम ने कभी खुद को खोया न हो? शायद तुम कभी जागे न हो, तब भी तुम्हें गुजरना होगा तलघर से, अकेले-''  

                                                           -------- तेजिंदर गगन 
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    एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
    आभार    
    देवाशीष वत्स  

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