अभी कल तक गालियॉं देती तुम्हें हताश खेतिहर, अभी कल तक धूल में नहाते थे गोरैयों के झुंड, अभी कल तक पथराई हुई थी धनहर खेतों की माटी, अभी कल तक धरती की कोख में दुबके पेड़ थे मेंढक, अभी कल तक उदास और बदरंग था आसमान! और आज ऊपर-ही-ऊपर तन गए हैं तम्हारे तंबू, और आज छमका रही है पावस रानी बूँदा-बूँदियों की अपनी पायल, और आज चालू हो गई है झींगुरो की शहनाई अविराम, और आज ज़ोरों से कूक पड़े नाचते थिरकते मोर, और आज आ गई वापस जान दूब की झुलसी शिराओं के अंदर, और आज विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म समेटकर अपने लाव-लश्कर।
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लोहिया चाहते थे कि कोई भी जाति विनाशक आंदोलन जाति के नाश के लिए हो न कि ब्राहमण और कायस्थ की बराबरी के लिये. लोहिया के आंदोलन का लक्ष्य है औरत, शूद्र, हरिजन, मुसलमान और आदिवासी. औरत में वे द्विज औरतों को भी शामिल किया जाना उचित मानते हैं. जन्म - मरण, शादी - व्याह, भोज आदि की रस्में जाति के चौखटे में ही होती हैं. अंतरजातीय विवाहों का तमाशा भी बस उंची जातियों के मध्य देखने को आता है. विदेशी हमलों में भारत की लगातार पराजय को वे जाति व्यवस्था के परिणाम के रूप में देखते हैं. जाति ने भारत की नब्बे फीसदी आबादी को दर्शक बनाकर छोड दिया है, यहां आप तुलसी की पंक्तियां याद कर सकते हैं - कोउ नृप होंहि हमें का हानि. लोहिया लिखते हैं -' ... जो छोटी जातियां हैं उनका तो राजनीति से, हमले से स्वतंत्रता से मतलब ही नहीं रहा है. ... पलटनें आपस में लडती रहती हैं, लेकिन हिंदुस्तान का किसान तो अपना खेत जोतता रहता है.' लोहिया आर्श्चय करते हैं कि ऐसा दुनिया में कहीं नहीं होता कि जब हार-जीत का फैसला हो रहा हो तब आबादी का अधिकांश वैरागी की तरह नाटक देखता हो. इसकी जड़ में वे जाति प्रथा को देखते हैं. वे लिखते हैं -' स्थिति बिल्कुल स्पष्ट है कि जाति-प्रथा एक कारण रहा है जिससे हिंदुस्तान की आबादी की बडी संख्या राजनीति से वैरागी रही है और वह लडी वगैरह नहीं.' कोई भी आकर हमें लूट जाए क्या मतलब. लोहिया लिखते हैं कि – ‘ कि जाति की आवश्यकताएं राष्ट की आवश्यकताओं से भिड जाती हैं. इस भिडंत में जाति जीत जाती है , क्योंकि विपत्ति में अथवा रोजमर्रा की तकलीफों में व्यक्ति की यही एकमात्र विश्वसनीय सुरक्षा है.‘ लोहिया पाते हैं कि जाति ने कर्तव्य की भावना को ही नष्ट कर दिया है. और यह तबतक नहीं आएगी जब तक अधिकार की भावना नहीं आएगी. जाति को एक माने में लोहिया विश्वव्यापी तत्व मानते हैं. पर भारत में वह जम गयी है जबकि अन्य जगह वह गतिशील है. उंची जातियां सुसंस्कृत पर कपटी हैं और छोटी जातियां थमी हुई और बेजान. और जिसे हम विदवता पुकारते हैं वह ज्ञान के सार की अपेक्षा बोली और व्याकरण की एक शैली मात्र है. नेहरू का उदाहरण देकर लोहिया बतलाते हैं कि जातिगत बाधाएं लोकप्रिय व्यक्ति को भी काम नहीं करने देतीं. क्योंकि जातिगत दबावों में वह कोई जोखिम नहीं उठा पाता. इस मामले में वे गांधी को याद करते हैं कि उनमें अपनी लोकप्रियता को जोखिम में डालने का माददा था. गांधी ने जाखिम उठाने को कई कम किए. गाय के बछडे को मौत की सूई दिलवा दी, एक बंदर को बंदूक से मरवा दिया, हरिजनों को मंदिर में ले गये, वे उन्हें शादियों में जाते थे जो अंतरजातिय होती थीं. उन्होंने तलाक को माना. हिन्दू उन्हें देशद्रोही मानते रहे पर उन्होंने पचपन करोड की रकम उन्हें दिलवा दी. वे संपत्ति के विरूदध सिर्फ बोलते ही नहीं थे बल्कि काम भी करते थे. लोहिया लिखते हैं कि गांधी – ‘ ऐसे किसी काम को करने से नहीं चूके जो कि देश में नई जान डालता, चाहे उस काम से उनको खतरा और अपयश ही क्यों न हो.‘ लोहिया मानते हैं कि कुछ लोगों को नाराज किए बिना कभी कोई बडा काम नहीं होता. यूं छोटी जातियों के पिछलग्गूपन से भी लोहिया परेशान रहते थे. उनका राजनैतिक आचरण उन्हें विचित्र लगता था. उनकी समझ में नहीं आता था कि वे अपने ही खिलाफ साजिश में उंची जातियों का साथ क्यों देते हैं. इसका एक साफ कारण वे यह बतलाते हैं कि –' उंची जाति को जाति से जितनी सुरक्षा मिलती है, उससे ज्यादा छोटी जाति को मिलती है पर, नि:संदेह जानवर से भी बदतर स्तर की. ' मतलब जातिवाद की जडें नीची जातियों में भी उसी तरह गहरी हैं. वे पाते हैं कि नीची जातियों के पास ऐसी ढेरों कहानियां हैं जो उनकी उस गिरी हालत की भी ओजस्वी और त्यागपूर्ण व्याख्या करती हैं. इस तरह की व्याखाएं हम डॉ.अंबेडकर तक में देख सकते हैं. इन कहानियों में उनका गौरवपूर्ण काल्पनिक अतीत होता है जिसमें कभी वे क्षत्रियों से भी ज्यादा बलशाली थे और अगर उन्हें क्षत्रिय धोखा नहीं देते तो आज वे इस हालत को नहीं प्राप्त होते. लोहिया लिखते हैं - ' सैदधांतिक आधिपत्य की लंबी परंपरा ने छोटी जातियों को निश्चल बना दिया है, उनका राजनैतिक आचरण कुछ कम समझ में आता लगता है. यह धारणा बिल्कुल सही है. ...बुरे दिनों में भी जाति से चिपके रहना, पूजा दवारा अच्छे जीवन की कामना करना, रसम-रिवाज और सामन्य नम्रता उनमें सदियों से कूट-कूटकर भरी गई है. यह बदल सकता है. वास्तव में इसे बदलना चाहिए. जाति से विद्रोह में हिंदुस्तान की मुक्ति है....' विदेशी शासन ने भी जातीय विभेद को बढाया ही. ब्रिटिश राज ने ' जाति के तत्व को उसी तरह इस्तेमाल किया जैसे धर्म के तत्व को. चूंकि भिडंत कराने में जाति की शक्ति धर्म के जितनी बडी न थी, इस प्रयत्न में उसे सीमित सफलता मिली.' लोहिया मानते हैं कि विदेशी शासन ने निश्चित तौर पर जातीय विभेद को बढाया पर इस विभेद की जमीन पहले से मौजूद थी. अंग्रेजी शासन तो हट गया पर जिन जातीय पार्टियों को उसने पैदा किया वे आज भी चल रही हैं. ' पश्चिम हिंदुस्तान की कामगारी, शेतकरी पक्ष और रिपब्लिकन पार्टी,दक्षिण हिंदुस्तान का द्रविड मुनेत्र कषगम और पूर्वी हिन्दुस्तान की झारखंड पार्टी के साथ-साथ गणतंत्र और जनता पार्टियां न सिर्फ क्षेत्रिय पार्टियां हैं बल्कि जातीय पर्टियां भी हैं.' आदिवासी, महार, मराठा, मुदलियार और क्षत्रिय आदि जातियां इन पार्टियों का प्राण हैं. इस तरह क्षेत्रिय जातियों के दल बनने को लोहिया पसंद नहीं करते थे. चाहे वे जैसा भी क्रांतिकारी मुखौटा लगाकर आएं उनकी तोडने की क्षमता को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. लोहिया बताते हैं कि जिन मराठा, जस्टिस या अनुसूचित जातियों को अंग्रेज शासकों ने बहुत गंदे ढंग से इस्तेमाल किया अपने हित में उनके साथ भारतीय समाज ने दुर्व्यवहार किया था. सामान्यत: पीडित जातियां का विद्रोह शासक जातियों को रिप्लेस कर शांत हो जाता है पर इससे समस्या हल नहीं होती बस एक की जगह दूसरी जाति आ जाती है और जातिवाद वैसा का वैसा रह जाता है. लोहिया के शब्दों में - ' जाति प्रथा को समूचे भारत में नष्ट करने के बजाय, इस या उस जाति को उंचा उठाने के लिए ही दबी जातियों के विद्रोह को हमेशा और बार-बार बेजा इस्तेमाल किया गया.' अपनी जातिविरोधी राजनीति को लोहिया इस तरह चलाना चाहते थे कि उंची जातियों को राजनैतिक सत्ता से वंचित किया जाए पर वे उन्हें आर्थिक और दूसरे प्रकारों की सत्ता से वंचित नहीं करना चाहते थे. वे मानते थे कि द्वेषपूर्ण बातें जाति समस्या की ठोस बात को धुंधला और कमजोर बना देती हैं. जाति प्रथा पर मैक्स वेबर जैसे प्रख्यात समाजशास्त्री के वक्तव्य को सामने रखते लोहिया बताते हैं कि उनके अनुमान पूरी तरह गलत साबित हुए हैं. उनका कहना था कि योरोप शिक्षित हिंदुस्तानी भारत लौटकर जाति को खत्म कर देंगे. जबकि उंची जातियों से जाने के कारण इन विलायत पलटों ने जाति को और बढाया ही. विलायत का अर्थ लोहिया सिर्फ इंगलैंड नहीं बल्कि यूरोप लेते हैं. इन विलायत पलटों का आर्थिक आधार पर आकलन करते हुए लोहिया लिखते हैं -' ... अब तक जितने लोग यूरोप पढने गए हैं ...उनमें करीब 80-90 सैकडा ऐसे लोग मिलेंगे, जिनके पास खुद के पैसे हैं. ...पहले से ही उंची जाति और जब विलायत से पास करके लौटकर आते हैं तो उंची जाति में भी एक उंची जाति की सीढी बन जाती है.' इसी तरह ब्राहमण ब्राहमण में भी लोहिया फर्क करते हुए लिखते हैं -' एक ब्राहमण है जो राज चलाता है , दूसरा शिव महाराज के उपर बेलपत्र चढाता है, दोनों में बडा फर्क है. वह बेलपत्र चढाने वाला सच पूछो तो छोटी जाति का हो गया, और जो नौकरी करता है, वह उंची जाति का हो गया. इसी तरह वे मुसलमान मुसलमान में भी फर्क करते हैं. जाति समस्या का हल लोहिया यह मानते हैं कि समान अवसर की जगह उन्हें विशेष अवसर दिए जाएं. हजारों सालों के बडी जातियों के अत्याचार ने जो हालत निम्न तबकों की कर दी है उसे कुछ दशकों तक विशेष अवसर देकर ही सुधारा जा सकता है. पहले उन्हें बडी जगहों पर बिठाइए फिर उनमें योग्यता आ जाएगी. अक्सरहां लोग तर्क देते हैं कि पहले उन्हें योग्य बनाओ फिर उंची जगहों पर बिठाओ. लोहिया यहां याद दिलाना चाहते हैं कि -' यही तर्क अंग्रेज लोग दिया करते थे, जो गलत था. लोहिया कहते हैं कि इस जातिव्यवस्था के टिके रहने का एक मुख्य कारण यह भी है कि उंची जातियों का बहुमत ज्यादातर नीची जातियों की पांत में आता है. पर उन्हें इसकी जानकारी नहीं और यह अनभिज्ञता ही इसके टिके रहने का करण है. वे बताते हैं कि सचमुच की उंची जाति के लोग मात्र पांच या दस लाख हैं जब कि झूठी उंची जाति के लोग आठ करोड हैं और नीची जाति के लोग तीस करोड हैं. जिन उंची जातियों की चर्चा लोहिया करते हैं, वे हैं -' बंगाली बडडी, मारवाडी, बनिए, कश्मीरी ब्रहमण, जो व्यापार अथवा पेशे के नेताओं को उगलते हैं.' लोहिया बतलाते हैं कि जाति की चक्की केवल नीची जातियों को ही नहीं पीसती वह उंची जाति को भी पीसकर सच्ची उंची जाति और झूठी उंची जाति को अलग अलग कर देती है. उनके अनुसार सच्ची उंची जाति दिल्ली और अन्य राजधानियों में निवास करने वाले ब्राहमण , बनिए, क्षत्रिय और कायस्थ हैं जो कोट,कंठलंगोट, शेरवानी और चूडीदार पायजामा पहनती हैं. बनिया जाति के तेली, जायसवाल और पंसारी आदि को पोंगापंथी लोग शूद्र की कोटि में रखते हैं जबकि अच्छा खाता पीता थोक व्यापारी वैश्य बन गया. आप देखें तो भारतीय इतिहास में थोक व्यापारी और पुजारी की हमेशा सांठ-गांठ रही है. इस सांठ-गांठ ने उन्हें ' द्विज और आधुनिक हिंदू समाज की उत्कृष्ट उच्च जाति बना दिया.' इसे लोहिया खुली धोखेबाजी बताते हुए कहते हैं कि -' पैसे और प्रतिष्ठा के जमाव के रूप के अतिरिक्त जाति और किसी रूप में प्रकट नहीं होती.' देखा जाए तो जाति पर बात करते हुए लोहिया कहीं भी उसके आर्थिक पहलू को अनदेखा नहीं करते. लोहिया मात्र शास्त्रों के आधार पर ही जाति का आकलन नहीं करते बल्कि समय के साथ आर्थिक रूप से ताकतवर हो जाने वाली जातियों को भी वे उंची जाति में गिनते हैं. 'जाति' शीर्षक से अपने लेख में वे लिखते हैं -' उन सभी को उंची जाति वाला मानें , चाहे हिंदू शास्त्रों के मुताबिक वे उंची जाति के हों या न हों, जो इस इलाके में कभी राजा रह चुके हैं या जो आज भी राजनीति के पलटाव में फिर से जनतंत्र में राजा बन रहे हैं जैसे रेडडी या वेलमा. वैसे वेलमा राजा नहीं बने हैं , लेकिन कभी रह चुके हैं. कुछ थोडा बहुत अपने धन के कारण कम्मा को भी उनमें शामिल किया जा सकता है.... मराठा, मुदलियार वगैरह को उंची जाति में शामिल कर लेता हूं , चाहे धर्म उन्हें करता हो न करता हो. यह इसलिये कि उन्होंने रूपया पैदा करना शुरू किया या अब वे राजनीति में उंचे आने शुरू हुए हैं.' आगे अहीर जाति को भी लोहिया इसी में गिनना चाहते हैं पर उनमें वे जाति प्रथा के नाश का रूझान भी पाते हैं. लोहिया के बाद बाकी जातियों की तरह अहीर भी सत्तासीन हुए पर जाति के विनाश के उनके सपने के अनुरूप वे भी खरे नहीं उतर सके. इस तरह हम देखते हैं कि लोहिया ने अपने समय की तमाम जातियों के आर्थिक संदर्भों पर भी गौर किया है. ब्राहमणों की तुलना करते वे लिखते हैं -' ... किसके मुकाबले में वह ब्राहमण है. हिंदुस्तान का माला, मादीगा और कापू के मुकाबले में वह ब्राहमण है, लेकिन रूस और अमरीका के ब्राहमणों के मुकाबले में वह हरिजन है. वह हमेशा भीख मांगते फिरता है.' लोहिया इस बात को लेकर चिंता जताते हैं कि शूद्रों की ऐसी जातियां जो तादाद में ज्यादा हैं वे लाकतंत्र और बालिग मताधिकार का फायदा उठाकर जब सत्ता में आती हैं तो इसका लाभ उंची जातियों की तरह अपने से नीची जातियों को नहीं देतीं. दक्षिण में मुदलियार और रेडडी और पश्चिम में मराठा आदि ऐसी ही जातियां हैं. वे अपने क्षेत्र की राजनैतिक रूप से मालिक हैं. लोहिया को भय है कि इन क्षेत्रों में उंची जातियां अपने सत्ता में वापिस आने के षडयंत्र में सफल हो सकती हैं क्योंकि 'जाति के विरूद्ध' बडी आबादी वाली नीची जातियों के 'आंदोलन थोथे' हैं. क्योंकि -' समाज को ज्यादा न्यायसंगत, चलायमान और क्रियाशील बनाने के अर्थ में वे समाज को नहीं बदलते'. लोहिया जनतंत्र को संख्या पर आधारित शासन मानते हैं और लिखते हैं -' ... सबसे ज्यादा संख्या वाले समुदाय राजनैतिक और आर्थिक विशेषाधिकार प्राप्त कर ही लेते हैं.' इस तरह एक हद तक जनतंत्र जाति आधारित सत्ता को धीरे-धीरे संख्या आधारित सत्ता में बदल देता है. इस अर्थ में वे गोप और चर्मकार इन दो जातियों को 'वृहत्काय' बताते हैं और कहते हैं कि ये वैसे ही हैं जैसे द्विजों में ब्राहमण और क्षत्रिय. वे कहते हैं कि -' कोई भी आंदोलन जो उनकी हैसियत और हालत को बदलता नहीं, उसे थोथा ही मानना चाहिए. ... पूरे समाज के लिए उनका कोई खास महत्व नहीं.' रेडिडयों और मराठों की तरह अहीरों और चर्मकारों के आंदोलन की सीमा को इसी संदर्भ में वे देखते हैं. वे लिखते हैं -' संसद और विधायिकाओं के लिए उन्हीं के बीच से उम्मीदवारों का चयन करने के लिए राजनीतिक दल उनके पीछे भागते फिरते हैं. और , व्यापार और नौकरियों में अपने हिस्से के लिये ये ही सबसे ज्यादा शोर मचाते हैं. इसके परिणाम बहुत ही भयंकर होते हैं.' लोहिया देखते हैं कि इन चारों बडी जातियों के हो हल्ले में सैकडों नीची जातियां निश्चल हो जाती हैं. उनके अनुसार -' जाति पर हमले का मतलब होना चाहिए सबकी उन्नति न कि सिर्फ एक तबके की उन्नति.' इसलिये लोहिया जातियों के आधार में परिवर्तन चाहते हैं. वे इस बात पर दुख जताते हैं कि -' उंची जाति पर पहुंचने के बाद , सभी जानते हैं कि नीची जाति के लोग कैसे अपनी औरतों को परदे में कर देते हैं जो कि उंची जाति में नहीं होता, बल्कि बिचली उच्च जाति में होता है. इसके अलावा उंचे उठने वाली नीची जातियां द्विज की तरह जनेउ पहनने लगती हैं, जिससे वे अब तक वंचित रखे गए, लेकिन जिसे अब सच्ची उंची जाति उतारने लगी है. लोहिया, कोई भी जाति विनाशक आंदोलन जाति के नाश के लिए चाहते हैं न कि ब्राहमण और कायस्थ की बराबरी के लिये, उनके जैसा ही हो जाने के लिए. लोहिया लिखते हैं कि -' ऐसे थोथे आंदोलनों को रोकने का अब समय है.' लोहिया के आंदोलन का लक्ष्य है औरत, शूद्र, हरिजन, मुसलमान और आदिवासी. इन पांच समुदायों की योग्यता को नजरंदाज कर फिलहाल वे उन्हें नेतृत्व के स्थानों पर बिठाना चाहते हैं. यहां औरत में वे द्विज औरतों को भी शामिल किया जाना उचित मानते हैं. लोहिया के अनुसार -' दबे हुए समुदायों को उंचा उठाने के धर्मयुद्ध से उंची जाति भी पुनरजीवित होगी और उससे सारे चौखट और मूल्य, जो आज बिगड गए हैं, ठीक हो जाएंगे.' लोहिया मानते हैं कि आज जैसे राजनीतिक दल वोट फंसाने के लिए नीची जाति के पंद्रह-बीस लोगों को जोड लेते हैं उससे काम नहीं चलने का आज सैकडों और हजारों लोगों को जोडने की जरूरत है. अपनी इस नीती का मूल्यांकन करते हुए लोहिया कहते हैं इस प्रक्रिया में कई बाधाएं आएंगी और हो सकता है कि इससे एक ओर द्विज तो नाराज हो जाएं और शूद्र को प्रभावित होने में समय लगे. इसमें धैर्य और तालमेल की जरूरत होगी. नहीं तो आंदोलन की जरा सी भी असफलता को लेकर द्विज आंदोलनकर्ताओं पर बदनामी मढ सकते हैं और यह भी हो सकता है कि वृहत्काय अहीर, चर्मकार जैसी जातियां इस नीति के फल को नीची जातियों में बांटे बिना खुद ही चट कर जा सकती हैं. जिसका मतलब होगा कि ब्राहमण और चमार तो अपनी जगह बदल लेंगे पर जाति वैसी ही बनी रहेगी. ... नीची जातियों के स्वार्थी लोग अपनी निज की उन्नति करने के लिये इस नीति का अनुचति इस्तेमाल कर सकते हैं और वे लडाने-भिडाने और जाति के जलन के हथियारों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.' लोहिया इस मामले में सचेत हैं कि इस आंदोलन की आड में आर्थिक और राजनैतिक समस्याओं को पृष्ठभूमि में ना ढकेल दिया जाए. कि -' अपने स्वार्थ साधन के लिये नीची जातियों के प्रतिक्रियावादी तत्व जाति-विरोधी नीति का बेजा इस्तेमाल कर सकते हैं.. मिसाल के लिए, पिछडी जाति आयोग की रपट ने, नीची जाति जिसकी दुहाई देती रहती है, जनता की बडी समस्याओं से कन्नी काट ली है,... उनकी ठोस सिफारिशों की संख्यां कुल दो है जिनमें एक अच्छी है और दूसरी खराब. पिछडी जातियों के लिये नौकरियों में सुरक्षा की उसने सिफारिश की है और यह सुरक्षा इस आयोग की ईच्छा से बढकर न्यायसंगत रूप में अनुपातहीन हो सकती है. लेकिन शिक्षा में भी ऐसी ही सिफारिश करके उसने गलती की है. स्कूलों और कालेजों में , अगर जरूरत हो तो, पिछडी जातियां दो या तीन पालियों कीं मांग कर सकती हैं, लेकिन हिंदुस्तान के किसी भी बच्चे को किसी शैक्षणिक संस्था के दरवाजे में घुसने न देने की मांग नहीं करनी चाहिए.' लोहिया चेतावनी देते हैं कि आंदोलन की नीति ऐसे जहर उगल सकती है और इस मामले में अगर हम सचेत होकर लगातार काम करें तो ' हिंदुस्तान अपने इतिहास की सबसे ज्यादा स्फूर्तिदायक क्रांति से अवगत होगा.' लोहिया लिखते हैं -' कार्ल मार्क्स ने वर्ग को नाश करने का प्रयत्न किया. जाति में परिवर्तित हो जाने की उसकी क्षमता से वे अनभिज्ञ थे, लाजमी तौर पर हिंदुस्तान की जाति के सींकचों जैसे नहीं पर अचल वर्ग तो हैं ही. इस मार्ग को अपनाने पर पहली बार वर्ग और जाति को एक साथ नाश करने का एक तजुरबा होगा.' इस जाति विरोधी आंदोलन को लोहिया किसी जाति को लाभ पहुचाने वाला आंदोलन ना मानकर राष्ट्र के नवोत्थान का आंदोलन बनाना चाहते हैं और उंची जाति के युवकों से आहवान करते हैं कि वे इस आंदोलन में छोटी जातियों के लिये ' खाद बन ' कर नयी रौशनी को फैलाने में सहायक बनें. लोहिया कहते हैं कि -' उन्हें उंची जातियों की सभी परंपराओं और शिष्टाचारों का स्वांग नहीं रचना है, उन्हें शारीरिक श्रम से कतराना नहीं है, व्यक्ति की स्वार्थोन्नति नहीं करनी है, तीखी जलन में नहीं पडना है, बल्कि यह समझकर कि वे कोई पवित्र काम कर रहे हैं, उन्हें राष्ट्र के नेतृत्व का भार वहन करना है.' --------------------------- कुमार मुकुल लोहिया पर लिखी कुमार मुकुल की एक किताब शीघ्र प्रकाशित होने वाली है. |
एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
आभार देवाशीष वत्स Archives
May 2013
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