अकेला बूढा
रोज
रात की मेज पर
लिखता है कुछ
टुटा फूटा
सपना जैसा
चाय की प्याली को देर तक
निहारता है
शायद
किसी का मीठा स्पर्श
फटे कुरते से
झांकता है उसका
गीला मन
बडबडाते हुए कोसता है
जाने किसे
पल में
हँसता
पल में सुबकने लगता है
बच्चों की तरह
बीती यादों को गुनता हुआ
अपने आप से
करता है लम्बी बातें
लगाता है ठहाके
सुनते हुए रेडियो
रात की दहलीज पर
रुक जाता है
डरकर
चिल्लाता है पूरी पूरी रात
बंद दरवाजे को पीटता है
और
पुकारता है
जाने किसे
गहरी आत्मीयता से
गली भर में गूंजती है
रात भर उसकी
टीस भरी थरथराती आवाज
अपनों को चुभता है
बेबस
अकेला बूढा
रात की मेज पर
लिखता है कुछ
टुटा फूटा
सपना जैसा
चाय की प्याली को देर तक
निहारता है
शायद
किसी का मीठा स्पर्श
फटे कुरते से
झांकता है उसका
गीला मन
बडबडाते हुए कोसता है
जाने किसे
पल में
हँसता
पल में सुबकने लगता है
बच्चों की तरह
बीती यादों को गुनता हुआ
अपने आप से
करता है लम्बी बातें
लगाता है ठहाके
सुनते हुए रेडियो
रात की दहलीज पर
रुक जाता है
डरकर
चिल्लाता है पूरी पूरी रात
बंद दरवाजे को पीटता है
और
पुकारता है
जाने किसे
गहरी आत्मीयता से
गली भर में गूंजती है
रात भर उसकी
टीस भरी थरथराती आवाज
अपनों को चुभता है
बेबस
अकेला बूढा