भारतीय समाज : चतुर पंच
जहिना भारतक इतिहास, भारतक भूगोलक देन थिक तहिना भारतीय समाज, भारतीय संस्कृतिक परिणाम थिक।
विश्वक अन्य सभ्यता जकाँ भारत (किछु अंषमे चीनो) अपन पूर्वजक संस्कृतिकेँ सर्वथा बदलिकेँ अन्य संस्कृतिकेँ कहियों स्वीकार नहि केलक अपितु सामाजिक समन्वयनक लेल अपन पूर्व संस्कृतिमे कालोचित परिवर्तन अनैत अपन अभियोजनषील गतिषीललताक परिचय दैत रहल।
भारतक भाल पर कालदेव जे तिलक केलक तकर मात्र रंग टा बदलल, रूप सदा वर्तमान रहल। आ तेँ आइयो नवीन भारतकेँ देखिकेँ प्राचीन भारतकेँ देखल जा सकैछ, बूझल जा सकैछ।
विश्वभरिमे जे तीन गोट नृतत्वषास्त्रक रंग अछि-कारी, गोर आ पीयर तथा जे तीन गोट प्रजाति अछि इथोपियन, काकेषियन आ मंगोलियन एवं जे तीन गोट सांस्कृतिक परम्परा अछि-सेमेटिक, आर्य आ मंगोली, सबटा आइयो भारतमे, कोनो ने कोनो रूपमे, अपन प्राचीन स्वरूपमे भेटी सकैत अछि।
भारत अनेक केर एक महादेष थिक जाहिठाम जीवनक लेल अनेक चिंतन तत्वन समायोजन भेल अछि। ओ थिक पहिल वर्ण-व्यवस्था, दोसर आश्रम व्यवस्था, तेसर पुरूषार्थ, चारिम कत्र्तव्य तथा पाँचम आचरण। सभक संख्या चारिमे अछि, क्रमष: ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैष्य ओ शूद्र। ब्रह्राचर्य, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ ओ संन्यास। धर्म, अर्थ, काम ओ मोक्ष। पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण ओ लोकऋण। त्याग, दान, दया ओ सेवा।
यैह थिक ओ चतुर पंच भारतीय संस्कृतिक आत्मा थिक, प्राणधारा थिक जे समाजकेँ एकटा व्यापकता देलक, एकटा मर्यादा देलक, एकटा व्यवस्था देलक तथा देलक एकटा संतुलन, जकरा ने आइधरि कियो आक्रमणकारी तोड़ी सकल, ने कोनो विदेषी धर्म प्रभावित क• सकल। यैह थिक भारतक आष्चर्य। भारतक आष्चर्य चीनक देबाल नहि थि, मिस्रक पिरामिड नहि थिक आ ने ताजमहले थि-एकर आष्चर्य थिक एकर समाज जे प्रषान्त सागर जकाँ गम्भरी अछि, हिमालय जकाँ सर्वोच्च अछि तथा इन्द्रधनुष जकाँ समरंगी होइतहुँ एक रंगक आभास दैत अछि।
प्रथम चतुर : वर्ण व्यवस्था
एहि वर्ण शब्दकेँ, आइधरि जतबा अंधकारमें राखल गेल अछि, ततबहि एकर दुरूपयोग सेहो भेल अछि। वर्णक अथ। जाति नहि थिक, र्इ अर्थ मौर्यकालक पश्चाते देल गेल अछि जे आर्इ चलि रहल अछि।
वर्णक अर्थ थिक रंग, आ से रंग प्राचीनकालमे दुइयेटा छल कारी आ गोर अर्थात अनार्य आ आर्य। यैह दुनू मीलिकेँ हिन्दु भेल आ तखने निछुमे वर्ण व्यवसथा मान्य भेल। मान्य भेल मात्र चारि वर्ण जाहिमे आर्इ अनेक जाति अछि। तेँ र्इ दुनू शब्द पर्यायवाची नहि थिक।
किन्तु दुनूकेँ पर्याय मानिकेँ आधुनिक भारतमे अनेक वैमनस्यक सृषिट कयल गेल जे वस्तुत: अपन घृणित उíेष्यसँ अंगरेज देन थिक आ जाहिमे आइयो भारतीय ओझराकेँ औना रहल अछि।
सामान्यत: वर्णकेँ वर्ग अथवा कोटि मानल जा सकैछ जे सम्भव वैदिक ऋषिक कल्पना छल। र्इ कल्पना सर्वथा प्राकृतिक थिक। जहिना प्रकृतिमे अनेक भेद अछि तहिना समाजोमे अछि, जहिना एके प्रकृतिक अनेक रूप दृषिटगत होइछ, तहिना समाजोमे भेद अछि, जकरा मेटाओल नहि जा सकैछ। भेद सृषिट तत्वक मूलाि। आ एही अवधारणाक आधार पर ऋग्वेदक प्रथम मंडलक पुरूष सूक्तमे सर्वप्रथम एहि कल्पनाकेँ जन्म लैत पबैत छी।
कहबाक प्रयोजन नहि जे र्इ कल्पना ऋग्वैदिक युगक नहि थिक, उत्तर वैदिकयुगक थिक, कारण प्रथम मंडल, जाहिमे र्इ पुरूष सूक्त अछि से स्वयं परवर्ती कालक रचना, सम्भव महाभारतक घटनाकालक रचना थिक। किन्तु ऋग्वेदक ओहू ऋचा (109012)मे वर्ण शब्द कहु नहि अछि। एकर स्पष्ट अर्थ थिक जे एहि कल्पनामे मात्र समाजक चारि टा कोटि अथवा वर्ग दिस संकेत कयल गेल अछि।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात र्इ थिक, जाहि पर ठीकसँ ध्यान नहि देल गेल अछि, जे एहिठाम एहि चारूक (आधुनिक वर्णन) आवयविक सम्बन्ध स्थापित कयल गेल अछि। जहिना एक्के शरीरमे विभिन्न अंग अछि जे सब महत्वपूर्णे नहि थिक अपितु विभिन्न उíेष्येँ सेहो अछि, तहिना र्इ चारू वर्ण अछि जे एक्के मूल समाजसँ सम्बद्ध अछि तथा भिन्न होइतहुँ अभिन्न अछि।
असलमे पुरूष समक्तक र्इ विभाजन समाजक (आधुनिक) श्रम विभाजनक सिद्धान्त पर आधारीत अछि जे उत्पादनक व्यवस्थापन तथा समाजक संतुलनक लेल आवष्यके नहि, अनिवार्यो अछि। र्इ आष्चर्येक विषय थि जे प्राचीन ऋषिमनीषीक समाजषास्त्रीय अवधारणा कतेक उर्वर तथा समग्र छल। किन्तु आष्चर्य इहोािक जे एहि सूक्त केर कतेक भ्रामक अर्थ बनाओल जाइत रहल अछि जकरा पाछू एकमात्र अंगरेज इतिहासकारक षडयंत्र अछि आ जकर दुरूपयोग राजनीति केलक अछि, कयल जाइत अछि।
वस्तुत: वर्णव्यवस्था उत्पादन प्रक्रियाक देन थिक, जकरा सामाजिक संतुलन अपन हितकेँ देखैत एकरा प्रोत्साहित केलक। आ से भेल उत्तरवैदिक युगमे। पूर्व वैदिकयुगमे एहि दृषिट´े कोनो भेद नहि छल, भेद छल आर्य आ अनार्यमे।
डा. ए. एल. वैषम (अदभुत भारतमे) मानैत छथि जे आर्यमे प्राचीने कालसँ वर्ग अथवा भेद रहल अछि। र्इ सर्वथा भ्रामक तथा अनैतिहासिक मान्यता थिक। एहन कतहु कोनो प्रमाण ऋग्देवक मंत्रमे नहि अछि। ऋग्वेद केर दोसर मंडलसँ ल• केँ नवम मंडल धरि प्राचीनतम मानल जाइत अछि, एहिसे दोसर मंडल के (2210) मेंत्रमे 'पंचकृष्टय:' शब्द आयल अछि जे पंचजना: केर अर्थमे अछि। छठम मंडल (61031)मे ब्राह्राण शब्द आयल अछि। एहिसँ र्इ अर्थ बहराहल अछि जे आर्यक प्राचीन इतिहासमे सर्वप्रथम ब्राह्राणे संस्कार अलग भेल आ शेष विष: अर्थात जनता रहल। र्इ सिथति सम्भव र्इराने कालमे भेल होयत जत• यज्ञवादक जन्म भेल छल आ जखन भारतीय आर्यदल पूर्व दिषामे हेलमन्द नदी (अफगानिस्तान) दिस चलल। ताधरि पूर्व जीवनक गान, यज्ञवादसँ जुडि़केँ मंत्रक गरिमा प्रज्ञपत क• गेल तेँ प्राचीन मंत्रक रूमृतिपट पर खराब आ नवीन मंत्रक रचना करब आवष्यक भेल होयत, जाहि लेल आर्य समाजक किछु जन सक्रिय भेल आ रचना परम्परा तथा कंठ परम्पराक विकास कर• लागल, वैह कहौलक ब्राह्राण, किन्तु र्इ कर्मणा छलं तेँ एकरा हम तत्काल संस्कार कहैत छी जे परिवर्तनषील छल। जीवन क्रम सामूहिक छल।
आर्य समाजक र्इ सिथति र्इरानसँ प्रस्थान कालसँ ल• कँ रावी तट धरि अर्थात र्इ. पूर्व 25 वषसँ र्इ, पूर्व 180 वर्षक बीच धरि रहल होयत।
रावी तटक दाषराज्ञ युद्ध जे विष्वामित्रक पुराहितक रूपमे अस्वीकृतिक कारणे भेल छल सँ लगैत अछि जे आर्य समाजक र्इ ब्राह्राण संस्कार जे एखन धरि कर्मणा छल, आब जन्मनाक सिद्धान्त दिस उन्मुख भेल जकरा पूर्णता भेटल सरस्वती तट पर, जाहिठाम ब्राह्राण संस्कार, संस्कारे नहि रहल, अपितु आधुनिक अर्थमे वर्ण बनि गेल आ एहिमे जन्मनाक सिद्धान्तक पालन होम• लागल आ जाहिमे कठोरता आयल यमुना तट पर अर्थात महाभारतक काल धरि। आ तेँ ब्राह्राणकर्मा भीष्म, विुदर आ वयस्त ब्राह्राण नहि भ• सकला तथा क्षत्रियकर्मा द्रोणाचार्य आ कृपाचार्य क्षत्रिय नहि भ• सकहाल।
महाभारतक बादेसँ ब्राह्राण वर्ण केर जन्मनाक सिद्धान्त कठोरता ओ कêरता आब• लागल तेँ भारतक सर्वप्रथम यैह जाति अपन रूढि़वादिताक जालने ओझरायल। अर्थात ब्राह्राणमे रूढि़वादक जन्म र्इ. पूर्व 120 इ्र. क महाभारतक घटनाकाल धरि भ• गेल छल।
ऋग्वेदक सातम मंडलक (71038) मंत्रमे क्षत्रिय शब्दक भेल अछि किन्तु से भेल अछि एहन योद्धाक प्रति जे विष:जनकेँ क्षत (हानि) सँ बचबैत हो।
र्इ मान्य तथ्य थिक जे आर्य विभिन्न दलमे आयल छल जकरा जन कहल जाइत छल, एही कारणे प्रधान दलकेँ पंचजना: कहल बेल अछि। हेलमन्द तटक (अफगानिस्तानक) पश्चात जकरा बादसँ सेमेअिक द्रविड़क ग्राम क्रमष: अधिक भेटय लागल आ आर्यप्रसारमे गतिरोध उम्पन्न कर• लागल तखन युद्धक सड.हि योद्धाक महत्व अधिक भेल होयत। यधपि जन पर विपत्ति पडत्रला पर सब समान रूपसेँ लड़ैत छल, र्इ सिथति कसँ कम मुख्य सिन्धु पर करयसँ पूर्व धरि अवष्य रहल होयज।
संग-संग युद्ध करबाक प्रथाक जन्म निषिचत रूपेँ मूल अभिजनक निष्क्रमण काल धरि भ• गेल होयत जखन आदिम आर्यजीवन विभिन्न दलक असितव स्पष्ट होम• लागल होयत। किन्तु ताधरि समस्त आर्य समाजमे तथा दल विषेषमे जे विभिन्न दिषामे उन्मुख भ• रहल छल, कोनो प्रकारक भेद नहि आयल छल। शुद्ध आदिम समानताक समाज छल। एहि समय धरि आर्य शुद्ध षिकार युगक संग्राहक युगमे छल किन्तु पशुपालन आरम्भ भ• गेल छल आ घोडऋा, कुकूर तथा गाय मुख्य पशु रहल होयत। वर्गभेदक कोनो प्रष्ने नहि उठैत अछि। र्इ कालखंड र्इ. पूर्व 3500 सै वर्षसँ पूर्वक थिक।
एकर बादे हित्ती, मित्तनी, हुर्री, कस्साइट तथा इंडो र्इरानीक एकटा महादल जे सम्भव अपन मूल अभिजनमे एकठाम छल, कासिपयन सागरक पूर्वी तट होइल दक्षिण र्इरान दिस चलल जे र्इ. पूर्व 3000 वर्ष धरि उत्तरी इैरानमे संग-संग रहल। एहि कालखंड धरि आर्यदवे इन्द्र, मित्र, वरूण केर असितत्व स्पष्ट भ• गेल छल जकरा ल• केँ हित्ती, मित्तनी सम्भव र्इरानसँ संख्याधिक्यक कारणे, पुन: कासिपयन सागरक पषिचम होइत उत्तर दिषामे चलल आ र्इ. पूर्व 2500 इ्र.क आसपास (आधुनिक) तुर्की पहुँचि गेल।
र्इ. पूर्व 2500 सैक आसपास जे र्इरानी आय्र (पाष्र्व) तथा मिश्रित जाति असुरक एवं भारतीय आर्यक बीच युद्ध भेल, जकरा देवासुर संग्राम कहल जाइत अछि, ताधरि सामाजिक समझौता सिद्धान्तक अनुकूल नेता निर्वाचनक प्रथाक जन्म भ• गेल छल, कारण र्इ युद्ध इन्द्रक नेतृत्व लडऋल गेल छल। यैह नेतृत्व पाछू राजामे परिवर्तित भेल। आ महान देव इन्द्रक अनुकरणमे राजा जे सेनापतियो होइत छल जाहिमे समस्त जनक लोक सेना बनैत छल, इन्द्र पदकेँ प्राप्त कलेक। राजा गत्वर जनक नायक होइत छल आ सर्वोच्च योद्धा होइत छल, जकर निर्वाचन होइत रहैत छल। एही प्रथाक समृतिषेष कालांतरक पौराणिक कथामे तपस्यासँ इन्द्रक आसनक डोलब बला अनेक कथा सब अछि।
जे हो, राहुल सांकृत्यायनक अनुसारेँ राजाक इन्द्रपद रावीतटधरि समाप्त भ• गेल तँ सुदास पिता दिवोदास ब्रह्रार्षि देष (सुवास्तुसँ रावीधरि) केर प्रथम राजा भेल।
सुवास्तु तट धरि अर्थात र्इ. 2200 वर्ष पूर्व धरि आर्यसमाज पशुपालन युगक अंतिम चरणमे छल आ कृषिक प्रति आकर्षित भ• गेल छलि। र्इ वैह समय थिक जखन भौगोलिक पिरवर्तनक कारणे वर्षाक घोर अभाव भ• रहल छल, जाहिसँ द्रविड़ समाजक कृषि सभ्यता उदास भ• रहल छल आ एम्हर आर्य आतंक बढि़ रहल छल तेँ हड़प्पा सभ्यता केनिद्रत भ• रहल छल। जाहिमे सँ हड़प्पाक पतन र्इ. पूर्व 2000 सँ 1800 र्इ. पूर्वक बीचमे भेल।
स्मरणरीय जे दाषराज्ञ युद्धमे दुनू पक्षसँ अनार्य सरदार (राजा) सेहो अछि जे आर्यक संग मीलिकेँ युद्ध केलक अछि। एकर अर्थ थिक जे आर्य आर्यक मिलनकार्य रावी तट धरि अर्थात र्इ. पूर्व 1800 वर्ष धरि बहुत आगू बढि़ गेल छल। र्इ भेल होयत कृषियेक कारणे।
मुख्य सिन्धु पार केलाक बादेसँ गर्म जलवायुक कारणे आर्य मनमे अनार्य वस्त्रक प्रति लोभ जागल होयत तथा एहि क्षेत्रमे अपेक्षाकृत वन्यपशुक अभावक कारणे कृषि द्वारा द्वारा जीवनयापन सुगम बुझना गेल होयत। आ र्इ दुनू षिल्प अनार्यक हाथमे छल तेँ मिलन प्रक्रियामे तीव्रता आयल होयत। जे अनार्य आर्यक अधीनता स्वीकार करैत ओकरा लेल अन्न तथा वस्त्रक उत्पादन करैत होयत अथवा सहयोग दैत होयत ओ (ऋग्वेदक) दास भेल आ शेष भेल दस्यु। तेँ ऋग्वेद दासक प्रति सदय तथा दस्युक प्रति कठोर अछि।
र्इ क्रियाकलाप अथवा सिथति रावी तट धरि रहल होयत अर्थात र्इ. पूर्व 1800 र्इ. धरि तकर बाद मिलन प्रक्रियामे आरो तीव्रता आयल जे क्रम यमुना तट धरि अपन पूर्णताकेँ प्राप्त कयने होयत अर्थात र्इ. पूर्व 1300 र्इ. धरि। कारण तकर बादे होइत अछि महाभारत जकर बाद समाजमे अनेक परिवर्तन आब• लगैत अछि।
एहि पुनरावृति तथा विस्तृत विषयान्तरक अछि र्इ देखायब जे सुवास्तु तटक बादेसँ यमुना तट धरि आर्य अनार्यमे युद्धक भयंकर सिथति कोना प्रकारेँ नहि बनैत अछि, तकर कारण भेल द्रविड़क शांतिप्रियता एवं आर्यक सुखद तथा सुगम जीवनक लोभ। तेँ डा. ए. एल. वैषमकेँ ऋग्वेदमे ओतेक युद्ध वर्णन नहि भेटैत अछि, जतेक रहक चाही जे सर्वथा स्वाभाविके अछि।
आ तेँ क्षत्रिय संस्कार यधपि सुवास्तु तटक बादेसँ स्पष्ट होम• लागल छल किन्तु संस्कारे छल कोनो सामाजिक भेद नहि छल। सब समान रूपेँ विष: केर जनता छल। आ समस्त विष:मे, समान कर्मणाक सिद्धान्त छल तथा वृति परिवर्तन अति सुगम छल, मात्र अपवाद छल सरस्वती तटक बादसँ ब्राह्राण समाज जाहिमे जन्मनाक सिद्धान्त आब गेल छल।
जेँ ल• केँ आर्य समाज सामान्यत: कृषि रावी तटक पश्चाते विषेषत: शतुदि्र (षजलजक) पश्चात प्रवृत भेल आ समाज कर्म पशुपालनक संग कृषियो भेल तेँ सरस्वती तटक पश्चात समाजमे एकटा तेसर संस्कार प्रकट भेल ओ छल विष:मे रह• बला वैष्य संस्कार जे पशुपालन आ कृषि कार्य करैत छल। किन्तु कोनो भेद नहि छल, सर्वत्र कर्मणा सिद्धान्त छल।
आ वृति परिवर्तन अति सुगम तथा सामान्य छल। आ ओही आधार पर विष: केर जन उपनयनक कारणे द्विज कहबैत छल।
स्मरणीय जे वैष्य संज्ञा सेही सरस्वती तटक उपरान्ते असितत्वमे आयल होयत, जखनसँ कृषि आजीविकाक साधन में प्रधानता प्राप्त कर• लागल होयत्ं किन्तु समाजमे भेद भावना धरि नहि जागल छल। रथकर (जे पाछू कमार जाति कहौलक के समाजमे महत्वपूर्ण स्थान छल, ओहिना जेना ग्रामनायक ग्रामणीक अथवा पुरोहितक। यैह सब मीलिकेँ राजाक निर्वाचन करैत छल।
रावी तटसँ पूर्व कुलप्रधान (कुलप) स्वयं पौरोहित्य करैत छल, पाछू ब्राह्राणकेँ पुरोहितक पद भेटल। एहि प्रकारेँ आर्य जीवनक उत्तरार्धमे अर्थात महाभारतसँ पूर्व धरि मात्र ब्राह्राण वर्ग टा बनि सकल छल शेष क्षत्रिय आ वैष्य अपन कोटि निर्माण दिस बढि़ रहल छल।
तेँ डा. ए. एल. वैषमक प्राचीन आर्य समाज मे भेद कल्पना निराधार अछि।
सरस्वती तटसँ यमुना तअक बीच अर्थात महाभारतसँ पूर्व मिश्रण (आर्य-अनार्य) प्रक्रिया बहुत तिव्र भेल होयत, एकर दुइ गोट प्रमाण भेटैत अछि। प्रथम तँ ऋग्वेदमे दृष्द्वती तटक लीवनक प्रति (जे सरस्वतीक शाखा नदी थिक तथा सरस्वतीक दक्षिण तथा यमुनाक उत्तर, बीचमे अछि) हीनताक भाव दृषिटगोचर होइत अछि। एकर अर्थ थिक सरस्वती तटसँ जहिना-जहिना आर्य प्रसार पूब हिदस भेल गेल मिश्रण बढ़ैत गेल। एकर दोसर प्रमाण थिक कृष्ण द्वैपायन व्यासक जन्म। र्इ दुनू सिथति ओही मिश्रण प्रक्रिया दिस संकेत करैत अछि।
सम्भव थिक अधिकांष दासीपुत्रकेँ विष: केर वैष्य मानल जाइत हो । किन्तु इै प्रवृति, समाजक महाभारत घटनाक बादक थिक। कारण ऋग्वैदिक प्राचीन मंत्रमे विष: अनेक बेर भेटैत अछि किन्तु ओहिसँ बनल वैष्य नहि। वैष्य आ शूद्र पहील बेर भेटैत अछि दसम मंडल (109012)मे जकरा महाभारत घटना कालक मानल जाइल अछि।
लगैत अछि पूर्व वैदिक युगक नितान्त अंतिम चरणमे, जखन कृषि उत्पादनमे अधिकाधिक आर्य आब• लागल होयत आ परिवारक रूप सिथर हेबाक सड.हि अधिकृत भूमि (ताधरि स्वामित्वक प्रष्न नहि छल) केर तथा चल सम्पतिक उत्तराधिकारक प्रष्न ठाढ़ होयत तँ र्इ मिश्रण क्रिया (विषेषत: दासी संतान) निषिचत रूपेँ एकटा समस्या बनि गेल होयत।
दोसर दिस किछु शुद्ध अनार्य जे पूर्वहिसँ दासत्वकेँ स्वीकार क• नेने छल तथा प्रसारक्रमक सड.हि दिनानुदिन दासत्वकेँ स्वीकार करैत आर्य जीवनक लेल अनिवार्य बनल चल जाइत छल ओरहु सामंजसयक लेल आर्यवृतमे आनब आवष्यक भ• गेल होयत। एही प्रष्न, एही समस्या तथा एही आवष्यकताक अनुभवक संग पूर्व वैदिकयुग समाप्त होइत अछि। तेँ पूर्व वैदिकयुगमे धर्म, अर्थ तथा कामे जकाँ तीनियेटा कोटि बनि सकल ब्राह्राण, क्षत्रिय आ वैष्य। किन्तु ब्राह्राणकँ छोडि़ शेष कर्मणाक सिद्धान्त अनुकूल परिवर्तनषील तथा प्रगतिषील छल।
उत्तर वैदिक युगमे अर्थात महाभारतक बाद र्इ. पूर्व 1200 र्इ.क पछाति ब्राह्राण वर्णक पश्चात सर्वप्रथम क्षत्रिय संस्कार वर्ण बनिकेँ स्पष्ट भेल तथा चारिम कोटिक निर्माण भेल जे शूद्र कहौलक, जाहिमे उत्तराधिकारसँ वंचित दासी अथवा अनार्य संतानकेँ तथा अधिकांष शुद्ध अनार्यकेँ जे दासत्व स्वीकार क• नेन छल तकरा स्थान भेटल।
एतबा निषिचत अछि जे शूद्रक कोटिमे जे आयल तकरा प्रति किछु न किदु ीिनताक भाव शुद्ध आर्यरक्तमे अवष्ये होयत। एकर दुइगोट कारण छल, एकटा तँ वर्ण संकरक संग उत्तराधिकारक प्रष्न जकरा शुद्ध आर्य सम्पतिसँ वंचित कयल गेल वा जे पूर्वेसँ मातृपक्ष षिल्पकर्ममे लागि गेल छल। आ दोसर जे शुद्ध अनार्य, दासत्य स्वीकार क• आर्यवृत्तमे आयल छल तकरा प्रति तेँ स्वाभाविके अछि। किन्तु हीनताक भाव जे रहल हो, कठोरताक भाव निषिचते नहि छल।अपितु वर्णसंकरक प्रति जकरा व्रात्यो कहल जाइत छल, तकरा प्रति अथर्ववेदमे आदर व्यक्त कयल गे अछि। ओकरा सबकेँ मात्र उत्तराधिकारसँ वंचित क• एकटा नवीन कोटिमे द• देल गेल, अनादर नहि कयल गेल। अपितु एही कारणे जे शुद्ध अनार्य शूद्र कोटिमे आयल छल कालांतरमे ओकरा एकटा विषेष लाभ बहुत बादक मेगास्थनीज वर्णन तथा कौटिल्यक अर्थषास्त्र।
मेगास्थनीजकेँ जे अनेक समय धरि भारतमे रहल छल तथा अनेक स्थान घुमल छल, तकरा भारतीय समाजमे दास (गुलाम) नहि भेटल छल। एकर अथ। थिक जे समाज ओहि पूर्व करम्पराक कारणे आदरक स्थान पर स्नेह अथवा मानवीयता देब• लागल। दोसर प्रमाण थिक कौटिल्यक अर्थषास्त्र जे दासक प्रति मानवीय व्यवहारक निर्देषेटा नहि दैत अछि अपितु अन्यथामे दंड विधान सेहो करैत अछि। आ तेँ अंतमे डा. ए.ल. वैषमकेँ कह• पड़ैत अछि (अदभूत भारतमे) जे भारतमे गुलामक ओ सिथति नहि छल जेहन मिस्र, यूनान तथा रोममे छल।
भारतीय वर्ण व्यवस्थाक उपयोगिता तथा महत्वक अनेक प्रषंसा डा. राधाकृष्णन कयने छथि जे सर्वथा समीचीन अछि किन्तु अंगरेज लोकनि मत्सय-नोर बहबैत अनेक चिंता कयने छल आ अंत धरि भारतीय समाजकेँ तोड़बामे कोनो कसरि केँ उठाक• नहि राखलक तोडि़येकेँ गेल जकर परिणाम स्वतंत्र भारतकेँ भोग• पडि़ रहल अछि। एहिमे किछु भारतीयो चिंतक केर भ्रान्ता धारणा योगदान दैत रहल अछि, सम्भव वर्णव्यवस्थाक मूल कल्पना पर ध्यान नहि देलक। प्रतिबद्ध इतिहासकारलोकनि एहि बिन्दुकेँ सेहो अनावष्यक उभारिकेँ अपन प्रगतिषीलताक आवषमे किछु अधिके तुल द• देलनि जे जनमानसकेँ विकृत केलक आ जाहिसँ लाभ ककरहु नहि भेल, अपितु तनावे बढ़ल। वस्तुत: कोनो मान्यता अपन उपयोगिता तथा तात्कालिकतेक आधार पर, युगीन समस्याक समाधान लेल समाजमे प्रवेष करैत अछि।
वर्ण व्यवस्थाक जन्म आर्य प्रसारक क्रममे भेल छल। आर्यवृत्तमे आयल समस्त समाजमे एकटा सामाजिक संगठन एवं उत्पादनमे संतुलन बनेबाक लेल एकर प्रयोजन भेल छल। आ तेँ वर्ण व्यवस्थाक आदिम कल्पनामे (पुरूषसूक्तमे) शरीरक विभिन्न अंग जकाँ आवयविक सम्बन्ध केर धारणाक आरोपन कयल गेल अछि। एहि बात पर कत ध्यान देल गेल। अधिक ध्यान दले गेल अछि एहि वर्ण व्यवस्थासँ उत्पन्न कालांतकरक जाति प्रथा पर। वस्तुत: वर्ण आ जातिकेँ एक मानि लेलासँ र्इ भ्रम उत्पन्न भेल अछि।
वर्ण व्यवस्थाक शूद्र शब्द पर सेहो आपति प्रकट कयल गेल अछि जे वस्तुत: अज्ञानतेक परिचायक थिक। शब्दक अर्थ बदलैत रहैत अछि आ से बादमे बदलैत अछि, पहिने बदलैत अछि समाज।
आरम्भमे शूद्र शब्द आदरे व्यक्त करबाक लेल व्यवहार कायल गेल छल। शूद्र शब्दक मूल, आदिम द्रविड़ समाजमे अछि। जहिना व्यापारिक क्रममे सुमेर (मेसोपोटामिया) मे भारतीय ग्राम हेबाक सम्भावना अनेक विद्वान व्यक्त कयने छथि, तहिना सम्भव भारतोमे सुमेरी ग्राम अथवा, जन अवष्ये रहैत होयत। एकर प्रमाणमे सुमेरक ओ पौराणिक कथा उपसिथत कयल जा सकैछ जाहिमे महाप्लावनक पश्चात सुमेरक पौराणिक राजा जियसूद्र एनकी देवक कृपासँ अमर हेबाक लेल डिलमुन आयल छल। डिलमुन ओहि सबयमे भारमे कहबैत छल।
र्इ सुमेरी पौराणिक कथा भारतीय आवगमन तथा आवास दिस संकेत करैत अछि, सम्भव उत्तम जलवायुक कारणे एकरा अमरलोक सेहो सुमेरमे मानल जाइत छल। सम्भव थिक ओ सुमेरी प्रजा जे अपनाकेँ जियसूद्रक प्रजा मानैत छल आ अपनाकेँ शूद्र कहिकेँ गौरवक अनुभव करैत हो। सम्भव थिक यमुनाक आसपास एहन शूद्रक किछु संख्या अपन पूर्व व्यापारक कारणे आर्थिक रूपेँ सम्पन्न रहल हो तेँ ओकरे सम्मानमे एहि कोटिये कनाम षूद्र राखि देल गेल, जाहिमे ओकर अपन रक्त अनार्य संतान सेहो स्थान पाब• जा रहल छल। किन्तु एकर कोनो पुरातात्विक साक्ष्य नहि उपसिथत कयल जा सकैछ तेँ आइधरि कोनो इतिहासकारक ध्यान एहि दिस नहि गेलनि तेँ डा. आर. एस. शर्मा सेहो सम्भव अपन षूद्रों का इतिहास मे एकर कोनो संकेत नहि केलनि।
जे हो, र्इ वर्ण व्यवस्था श्रम विभाजनक आधुनिक सिद्धान्तक सर्वथा अनुकूल छल तेँ समाजमे मान्यो भेल। षिक्षा, धर्मकत्य, पौरोहित्य तथा समाजमे नैतिक व्यवस्थापनक कार्य ब्राह्राणकेँ देल गेल, समस्त समाजक रक्षाक दायित्व राजन्य वर्ग क्षत्रियक छल तथा सामाजिक समस्त उत्पादनक भार वैष्य एवं शूद्रकेँ छल। सभक अपन-अपन कार्य छल, दायित्व छल आ पूर्वजक तथा षिल्पक मोह छल जे अपन-अपन कोटिमे बान्हमे छल। यैह छल सामाजिक संतुलन, व्यवस्थापन तथा समायोजन।
द्वितीय चतुर : व्यकित कत्र्तव्य
कहबाक प्रयोजन नहि जे भारतीय प्राचीन चिंतकक जे चिंतना भेल ओ सर्वांगीन श्रंखलाबद्धेटा नहि अपितु एकटा निषिचत अनुषासनक अनुकूल भेल अछि। एकर प्रमाण थिक चारि गोट कत्र्तव्य तथा चारि गोट पुरूषार्थ ज चारि गोअ आश्रममे पूर्ण भ• जाइत अछि।
एहि प्रकारेँ जीवन गाड़ीक लेल एहि प्रकारक लीख बनाओल गेल जे जँ व्यकित-बहलमान सूतियो रहत तैयो कत्र्तव्य पथपर गाड़ी चलैत अपन सामाजिक जीवनक समग्रताक गन्तव्य पर पहुँचबे करत। आ ताँ व्यकितकेँ समाजक एकार्इ मानिकेँ ओकरा लेल कत्र्तव्यक निर्धारण कयल गेल जे व्यकितक मध्यमे समस्त समाजक जीवनलक्ष्य भ• जाइत अछि।
पूर्व वैदिकयुगमे, जे प्रवृतिमार्गी समाज छल आ जे ताधरि मात्र यमलोक (स्वर्ग) केर कल्पना क• सकल छल, नरक कल्पना सर्वथा अपरिचित छल, तीन टा लक्ष्य अथवा पुरूषार्थ कयल गेल छल, धर्म, अर्थ आ काम। किन्तु उत्तर वैदिकयुगक उपनिषदीय चिंतनक सड.हि चारिम वर्ण शूद्र जकाँ चारिम पुरूषार्थ मोक्षक जन्म भेल।
एहि पुरूषार्थ प्रापित लेल माध्यम मानल गेल ऋषि ऋण, पितृ,देव ऋण तथा लोक ऋण जकरा ल• केँ व्यकित जन्म लैत आछि आ जकरा चुकायब अनिवार्य कर्तव्य थिक।
लगैत अछि आहि समयक आर्य ऋणसँ बहुत डरैत छलाह तेँ कत्र्तव्यकेँ ऋणसँ जोड़ल गेल। किन्तु र्इ कर्तव्य जाहि आश्रमक माघ्यमे पूर्ति होयत तकर समुचित विकास उत्तरे वैदिकयुगक वस्तु थिक। पूर्व वैदिकयुगमे मात्र दुइगोट आश्रम छल ब्रह्राचर्य तथा गृहस्थाश्रम। शेष दुइ आश्रमक प्रावधान उत्तर वैदिक युगमे भेल। पूर्व वैदिक युगमे एकर नामो सम्भव आश्रमक रूपमे नहि पड़ल छल।
आश्रम कल्पना ऐत्तेरेय ब्रह्राण, बृहदारणयकोपनिषदसँ भेट• लगैत अछि किन्तु व्यवसिथत रूपेँ ओकर रूप तथा संज्ञा जाबालोपनिषदमे प्राप्त होइअ अछि।1
संहिता साहित्यमे ब्रह्राचर्य शब्दक सड.हि यति शब्द सेहो भेटैत अछि। एत्तरेय ब्राह्राचर्य, गृही, वनी तथा परिव्राजक शब्द आयल अछि। ध्यान देेबाक अछि जे परिव्राजक आ यति एक नहि थिक। यधपि एह पर ठीकसँ विचार नहि भले अछि, किन्तु लगैत अछि वैदिक परिव्राजकसँ भिन्न यति केर आसितत्व छल आ से सम्भव रावी तटक जीवनक अर्थात र्इ. पूर्व 1800 र्इ. क आसपसेसँ अछि जहियासँ आर्य अनार्यक मिलन प्रक्रिया आरम्भ भेल आछि। निषिचत रूपँ र्इ यति सम्प्रदाय अनार्यक सम्प्रदाय थिक जे दाढ़ी मोछ, जटाजूट बढ़ौने समाजमे घुमैत रहैत छल। सम्भव र्इ सब स्नान नहि करैत छल आ भस्म आदि लगौने श्मषान आदि स्थानमे रहैत छल तेँ ऋग्वैदिक आर्यक एकरा प्रति उपेक्षा भाव देखैत छी जे ऋग्वेदसँ प्रकट होइत अछि।
ऋग्वैदिक आर्यक प्रवृतिमार्गीक जीवनकेँ देखैत यति केर सम्भावना कतुहुसँ नहि बनैत अछि। किन्तु मंत्रकेँ कंठ परम्परा देबाक लेल निषिचत रूपेँ ब्रह्राचारीक जन्म सुवास्तु तटक जीवन धरि अर्थात र्इ. पूर्व 2200-2000 र्इ.क आसपास भ• गेल होयत। ओहीठामसँ गुरू परम्पराक तथा उपनयन प्रथाक जन्म सेहो भेल होयत। सम्भव एहि प्रथाक जन्म र्इराने कालमे भेल हो, कारण प्राचीन अगिनहोत्री र्इरानीमे उत्तरीय वस्त्रक प्रथा देखबामे अबैत अछि। सम्भव उत्तरी र्इरानमे एलम-सूसासँ वस्त्र प्रथा आबि गेल। किन्तु भारतीय आर्यकेँ भारतक मार्गमे वस्त्र सम्भावना नहि छल तेाँरिनक अथवा अन्य पशुचर्म जनौ जकाँ पहिरैत होयत। एकर प्रमाणमे मिथिलाक ब्राह्राणकेँ राखल जा सकैछ जकरामे उपनयन कालमे पहिने हरिनक छालक जनौ देल जाइत अछि तखन वस्त्रक। र्इ ओही प्राचीन प्रथा दिस संकैत करैत अछि।
जे हो, किन्तु उपनयनक पश्चाते बटुक गुरूपरम्पराक अनुकूल श्रुति अभ्यासमे जाइत छल आ से जाइत होयत सुवास्तुये तटसँ। श्रुति अभ्यास आहि भेदभावहीन समस्त आर्य समाजक बटुक लेल छल जाहिमे बालिका सेहो अबैत छल तेँ ओकरहु उपनयन होइत छल आ सब द्विज कहबैत छल। तखने प्रारम्भ होइत छल ब्रह्राचर्य जीवन। प्रारम्भमे पिता गुरू होइत छल। सम्भव सरस्वती तट पर जखन ब्राह्राण संस्कारमे जन्मनाक सिद्धान्त आयल तथा गृहप्रधान केर स्थान पर अलगसँ पुरोहितक प्रवधान भेल तखनसँ गुरूकुलक परम्परा अपन स्पष्ट असितत्वमे आयल आ पिताभिन्न गुरू होम• लागल जे मंत्रद्रष्टा ऋषिलोकनि होइत छलाह। ओहि समयक अर्थात र्इ. पूर्व 1200 र्इ. सँ पूर्व धरि विधाक नामपर मात्र मंत्रअभ्यास छल, तेँ ओकर नाम श्रुति भेल। लोपामुद्रा आ घोषा आदि ओही बालिका उपनयन प्रथाक देन थिक जे परम्परा उत्तर वैदिकयुगक उत्तरार्धमे समाप्त भ• गेल।
ओहि समयमे अर्थात पूर्व वैदिकयुगमे ब्रह्राचर्य जीवनक पश्चात गृहस्थ जीवन प्रारम्भ होइत छल। सम्भव किछु वृद्ध पुन: षिक्षाक क्षेत्रमे अबैत होथि तेँ वानपस्थ आ तेँ परिव्राजक।
किन्तु अनार्य ग्राम (क्षेत्र) मे यति अवष्ये होइत होयत जे द्रविड़ सभ्यताक स्मृतिषेष थिक।
आब अनेक विद्वान मान• लागि गेल छथि जे अथर्ववेदक किछु, मंत्र ऋग्वेदोसँ थिक। एहन मंत्र थिक अनार्य जीवनक अभिचार मंत्र। सम्भव थिक जाहि भारषिवकेँ द्रविड़ सभ्यताक मोहर पर पबैत छी ओकर परम्परा समाजोमे रहल हो। लिंगदेवक अतिरिक्त मातृदेवीक सेहो अनेक मूर्ति द्रविड़ सभ्यतामे भेटल अछि, जाहिसँ अनुमान लगाओल जाइत अछि जे ओ सब साकार मुर्तिपूजक छल विषेषत: (षिव) लिंगदेवनक आ शकित (मातृदेवी) केर। ओ सभ्यता कृषि आ वणिक सभ्यताक छल तेँ देव उपासना लेल अवष्ये पुरोहित रहैत होयत जे समाजमे जड़ी बूटीक औषधि विज्ञानक विकास सेहो करैत होयत आ अभिचार क्रियाक सेहो।
एकर संकेत परवर्ती पौराणिक साहित्यमे सेहो भेटैत अछि जे बहुत दिन धरि षिव ओ शकित उपसना संग रहल अछि। जैं ल• केँ र्इ देव अनार्यदेव थिक तेँ र्इ बात कथाक माध्यमे आर्यजीवनमे सेहो आबि गेल जे पुराणमे व्यक्त भेल अछि।
सम्भव थिक द्रविड़ सभ्यताक ओ यति हड़प्पा पतनक पश्चात आर्य अनार्यक मिलनक कारणे आर्यग्राम दिस अबैत जाइत हो तथा अनार्य समाजमे एखनहुँ वैधगिरि एवं अभिचार क्रिया करैत हो। सम्भव थिक ओ यति अनार्य ग्राममे अपन मूर्तिजूजाक क्रिया सेहो चलबैत हो। र्इ सब आइयो उत्तर भारतक अनेक ग्राममे समाजक निम्नवर्गमे वर्तमान अछि। ओकरा सबमे पूर्व जीवनक अभिचार-क्रिया, पुरोहित-परम्परा जकरा ओझा सेहो कहल जाइछ तथा गाछ तर अथवा कोनो एकान्त घरमे जे अधिक खन ग्रामसँ बाहने होइछ, अपन देव-स्थानक प्रवृति देखबामे आबि जाइत अछि जे एही परम्पराक शेष स्मृतिचिहन थिक।
सम्भव थिक एही अनार्यक यति केँ देखिकेँ पूर्व वैदिकयुगक अंतिम चरणमे अर्थात महाभारतसँ पूर्व परिव्राजक तथा एही परिव्रारकसँ उत्तरवैदिक युगक संन्यास कल्पनाक जन्म भेल हो जे यतिये जकाँ दाढ़ी केष बढ़ाकेँ समाजमे घुमैत छल। किन्तु परिव्राजक भिक्षाटन नहि करैत छल, एकाघ दिनूक आतिथ्य स्वीकार अवष्ये करैत छल , ओ मुख्यत: गुरूकुल सबमे षिक्षामे सहयोग दैत छल। संन्यासी ओही पूर्व यति जकाँ भिक्षाटन करैत छल। किन्तु र्इ संन्यासी बादक वस्तु थिकं पूर्व वैदिक जीवनमे एकर असितत्व नहि छल।
पूर्व वैकि जीवनमे ब्रह्राचर्य आ गृहस्थाश्रममे देवऋण, पितृऋण तथा ऋषिऋणक भावना अवष्ये आबि गेल छल।
देवऋणकेँ उतारबाक लेल इन्द्र, मित्र, वरूण, वैष्वानर आदि देवक लेल प्रतिदिन यज्ञ कयल जाइत छल जाहि कारणे प्रति गृहमे गृहागिन रहैत छल, अपितु निरंतर अगिनकेँ प्रज्वलित राखबाक लेल आंगनमे एकटा घरे अलग होइत छल। मैथिल जीवनक नवान्न एकरे स्मृतिषेष थिक। दैनिक यज्ञ ऋषिलोकनि सेहो करैत छलाह तथा गृहस्थलोकनि सेहो। दैनिक यज्ञ लेल पूर्वमे पुरोहितक प्रयोजन नहि छल। कालांतरमे राजन्यवर्ग लेेल दैनिको यज्ञ लेल पूर्वमे पुराहितक प्रयोजन नहि छल। कालांतरमे राजन्यवर्ग लेल दैनिको यज्ञ पुरोहिते कर• लागल।
दोसर पितृऋण लेल गृहस्थाश्रममे जाकेँ संतति परम्पराकेँ अक्षुण्ण राखब तथा ऋषिऋणकेँ उतारबाक लेल षिक्षादान देब अत्यावष्यक मानल गेल। यैह कर्तव्य भेल धर्म, अर्थ आ काम नामक तीन पुरूषार्थ। कर्तव्यकेँ जीवनक संग एहि प्रकारेँ बानिह देल गेल।
यैह छल पूर्व वैदिक ऋषि लोेकनिक जीवन सम्बंधी संकल्पना तथा ताहि लेल कर्तव्य अवधारणा जे अपन पूर्णताकेँ प्राप्त केलक उतर वैदिकयुगमे। उत्तर वैदिकयुगमे ऋणमे ऋणमे लोकऋणक वृद्धि भेल जाहि द्वारा समाजसेवाकेँ अनिवार्य मानल गेल, जाहि लेल मानल गेल परिव्राजक जीवन। तकर बाद उपनिषद कालमे मोक्षक कल्पना जाग्रत भेल जे चारिम पुरूषार्थ बनल।
एहि प्रकारेँ चारिटा ऋण अर्थात कर्तव्य भेल तथा चारिटा पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम ओ मोक्ष।
तृतीय चतुर : जीवनक लक्ष्य पुरूषार्थ
कहबाक प्रयोजन नहि जे अधिकांष विद्वान धर्म आ भकित तथा सम्प्रदायकेँ एक मानिकेँ अनेक निष्कर्ष प्रस्तुत कयने छथि जकर मूलमे अछि अंगरेज। योरोपमे भकितयेकेँ धर्म मानि लेल गेल अछि किन्तु भारतमे र्इ दुनू वस्तु भिन्न थिक, एक दोसरक पर्याय कथमपि नहि थिक।
धर्मक अर्थ थिक समान रूपेँ धारण कर• योग्य, जकर सम्बन्ध मानवीय कर्तव्यसँ अछि। अर्थात दैनिक जीवनलक क्रियाकलापसँ अछि सबकेँ करबाक अछि। विभिन्न ऋणकेँ अथवा पुरूषार्थकेँ प्राप्त करब धर्म मानल गेल जकर सम्बंध समान रूपेँ दैनिक जीवनसँ अछि। एही आस्था विष्वासक कारणे कर्तव्यमे सरसता, निष्ठा तथा लगन अबैत अछि जाहिसँ ओकर सम्पादन सुगम भ• जाइत अछि। पूर्व वैदिक जीवनमे यैह वस्तु छल। किन्तु उतर वैदिकयुगमे जखन यज्ञवाद व्यकित जीवनसँ उठिकेँ सामाजिक जीवनमे आबि गेल तखनसँ आस्था विष्वास पूर्णतया अलग भ• गल तथा व्यकित जीवनक मानसमे रहि गेल जे पाछू भकितक रूप ग्रहण क• लेलक।
जेँ ल• केँ भकित, आस्था ओ विष्वासक वस्तु भ• गेल तेँ उतर वैदिकयुगमे व्यकितकेँ एहि लेल स्वाधीन छोडि़ देल गेल। व्यकित मानस पर कोनो अंकुष उचित नहि मानल गेल कारण एकर सम्बंध समाजसँ नहि अछि। यैह थिक भारतीय मनीषाक महान उदारता तथा संतुलन। एही कारणे समाजमे वैचारिक भिन्नता आयल तथा अनेक दर्षनक जन्म भेल, जे विष्वक आनठाम कतिपय कारणे प्राचीन कालमे सम्भव नहि छल।
एहि प्रकारेँ, धर्मक सम्बंध मानव जीवनक सामाजिक पक्षसँ सम्बंद्ध सम्बंद्ध अछि तथा भकितक वैयकितक जीवनसँ। धर्ममे गतिषीलता अछि भकितमे नहि। धर्म जँ शरीर थिक तँ भकित आत्मा। वस्तुत: धर्म मानवक कर्म थिक तेँ धर्म-कर्म शब्द प्रचलितो भेल।
पूर्व वैदिक युगक आदिम अवस्थामे धर्म आ भकित एक अवष्य छल किन्तु कालान्तारमे दुनू अलग भ• गेल जे आइयो अछि।
पूर्व वैदिकयुगमे धर्म भेल तीनू ऋण (देव, पितृ तथा ऋषि)केँ उतारब जाहि लेल ब्रह्राचर्य ओ गृहस्थाश्रममे जाकेँ तीनू पुरूषार्थ (धर्म, अर्थ ओ काम) केँ प्राप्त करब।
पुरूषार्थमे अर्थक महत्व पूर्व वैदिक युगक उतरार्धमे भेल होयत जखन पशुपालनक सड.हि समाज कृषि दिस उन्मुख भेल होयत। एही धर्म आ अर्थक प्रापितसँ सकल कामक पूर्ति होइत अछि।
लगैत अछि तीनू पुरूषार्थक कल्पना आर्यजीवनमे रावीतटसँ सरस्वती तटक बीचमे अर्थात र्इ. पूर्व 1800 वर्षक बीचमे अवष्ये जागि गेल होयत।
ब्राह्राणकालमे अर्थात र्इ. पूर्व 1000र्इ. क आसपास वानप्रस्थक कल्पना जागल होयत जकर प्रमाण थिक ऐतरेय ब्राह्राणक वनी शब्द। र्इ वैह समय थिक जखन महाभारतक (र्इ. पूर्व 1200 र्इ.) पश्चात आर्यक प्रसार गंगासँ पूर्व सदानीराक पूर्वी तट धरि, हिमालयक तलहटीसँ ल• केँ विन्ध्याचल धरि भ• गेल छल, भ• रहल छल। कृषि अपन विकासक मध्याहनमे आबि गेल छल तथा गृहउधोग वाणिज्य केर रूप् ग्रहण करबाक तैयारी क• रहल छल। एहि समयधरि शूद्रक जन्म भ• गेल छल तथा वैष्य, क्षलियक सड.हि अपन स्पष्ट असितत्वमे आबि गेल छल। आगि द्वारा जंगलक सफैया तथा कृषि उत्पादनक द्वारा समाजमे जाहि भौतिकताक हलचल आयल छल, बहुतो पूर्ववर्ती जीवनपद्धति समाप्त भ• रहल छल जे समयानुकूले छल। लोकजीवनमे अर्थ आ काम प्रधान भ• गेल। दल। स्त्रीक गृह दायित्व बढि़ गेल छल।
र्इ सिथति ब्रह्राचर्य जीवन पर आघात केलकं बालिकाक उपनयनक सड.हि वैष्य उवनयन प्रथा छोडि़ रहल छल। वर्तमान जीवन पद्धतिमे ओकरा लेल र्इ ने महत्वपूर्णे छल आ ने प्रयोजनीये। क्षत्रिय वर्ग उपनयन छोड़लक नहि किन्तु उपेक्षा अवष्ये देखब• लागल। एकर फल र्इ भेल जे उपनयन, ब्रह्राचर्य जीवन तथा षिक्षासँ एकमात्र ब्राह्राणेटा अपन निष्ठाभावेँ सम्बद्ध रहि गेल। षिक्षा परिणाममे अवष्ये बढि़ रहल छल किन्तु परिमाणमे घटि रहल छल। षिक्षक विस्तृति सीमित भेल जा रहल छल। ब्राह्राएसकर्माक यैह चिंताक विषय छल।
शुद्र वर्गमे जे वर्णसंकर छल ओ कृषि आ षिल्पमे लागि छल तथा अनर्याक भाषा भिन्न छल तेँ ओकरा आर्यवृतमे आनियोकेँ वैदिक भाषाक षिक्षासँ नहि जोड़ल जा सकैत छल। जेँ ल• केँ परवर्ती दासीपुत्र अथवा अनार्यसंतान वैदिक कृत्यकेँ छोडि़ देने छल, तेँ शुद्र वर्गकेँ वैदिक संस्कारसँ चिंतन युगकेँ बिसरिकेँ भइये नहि सकैत अछि।
तेँ ओहि आर्थिक उथल पुथल तथा भौतिक जीवनक व्यस्ततामे वानप्रस्थक कल्पना कयल गेल जाहिसँ समाजमे आध्यातिमकता बनल रहय तथा भौतिकताक आधार पर निर्मित सांसारिकता गौण मानल जाइत रहय। एहिसँ लोकतीवन अर्थप्रधान नहि होयत तथा समाजमे त्याग ओ दान आदिक भावना जीवंत रहि सकत। वानप्रस्थ योजनाक पाछू यैह कल्पना रहल होयत। एहि लेल ब्राह्राण पुरोहित जे मंत्रिपद सेहो प्राप्त कर• लागल छल, समाजक एहन व्यकित जे वय प्राप्त कइयो क• वानप्रस्थी नहि होइत छल तकरा लेल प्रेरणा द• केँ राजा द्वारा आदेष सेहो निर्गत करबैत छल।
एही वानप्रस्थीक लेल ब्राह्राण लोकनि आरण्यक ग्रंथ केर रचना सेहो कयल जाहिमे आध्यातिमकताक गम्भीर तत्व चिंतन रहैत छल। र्इ तत्व चिंतन ऋग्वैदिक अथवा ब्राह्राण चिंतनक सर्वथा अनुकूल छल, ब्राह्राण वैराचिकताक निकट छल। तेँ अधिकांष आरण्यक ब्राह्राण ग्रंथक परिषिष्ट रूपमे अछि। एही आरण्यक केर अगिला विकास थिक उपनिषद जे वैदिक चिंतनसँ सर्वथा भिन्न अछि, अलग अछि, तेँ ओकरा वेदान्तो कहल गेल।
एही वानप्रस्थसँ उपनिषद कालमे संन्यास आश्रमक विकास भेल। एहि प्रकारेँ वाणप्रस्थ आश्रम तथा विभिन्न आरण्यक केर रचना र्इ. पूर्व 900 र्इ.क आसपास धरि सम्पन्न भ• गेल होयत।
उत्तर वैदिक युगक आरण्यक काल धरि ब्राह्राण वर्णकेँ छोडि़, शेष दुनू वर्णकेँ पूर्व जीवनक ऋण कल्पनाक अनुकूल जीवनयापन करब सम्भव नहि रहि गेल छल। राजाक लेल राज कार्य तथा वैष्यक लेल उत्पादन कार्य बढि़ गेल छल, बढ़ले जा रहल छल तेँ समस्त समाज लेल ब्राह्राण लोकनि चारि टा वृत्ति देननि जे भेल त्याग, दान, दया ओ सेवाभाव।
त्याग द्वारा वानप्रस्थकेँ तथा दानवृतिकेँ प्रोत्साहन भेटैत छल। सेवामे गुरूसेवा, पूर्वजसेवा तथा अतिथिसेवा आदि विभिन्न सेवा आबि जाइत छल। यैह आतिथ्यसेवा भारतक विष्वविख्यात भेल जकर मूल एही वृति योजनामे अछि।
पूर्व वैदिकयुगमे एकटा दैनिक यज्ञ सम्पादित होइत छल विष्वदेव यज्ञ, जाहिमे विभिन्न दिषाक विभिन्न पशु-पक्षीकेँ यतिंकचित भाजन देल जाइत छल। उत्तर वैदिकयुगमे एहि यज्ञक महत्व घट• लागल छल जकर स्मृतिषेष आब मात्र श्राद्ध संस्कारमे देखल जा सकैछ तथा ब्राह्राणक भोजन कालक नैवैध क्रियामे। आब ब्राह्राणो समाजसँ र्इ उठल जा रहल आछि।
कहबाक प्रयोजन नहि जो एहि क्रियाक पाछू निखिल विष्वजीवनक लेल दया भावे छल।
किन्तु कालांतरमे जखन आश्रमोक प्रति लोकक निष्ठा घट• लागल, एकमात्र ब्राह्राण समाजमे तथा किछु क्षत्रिय समाजमे रहि गेल तखन पुन: धर्मक स्वरूप् बदलि गेल।
उपनिषद कालक अंत धरि अर्थात र्इ पूर्व 800 र्इ.क आसपास धरि भूमि पर स्वामित्व प्रष्न स्थापित भ• गेल छल, जकर प्रथम प्रमाण बुद्धजीवनक ओ घटना थिक जाहिमे अनाथपिंड भूमि कीनिकेँ दान दैत अछि। अर्थात भूमि क्रय मुद्राक आधार पर बुद्धक बादसँ मानल जाइत अछि।
किन्तु एहिसँ पूर्व भूमिक हस्तांतरण वस्तु विनिमयक आधार पर अवष्य होम• लागल होयत जकरा साक्ष्यक आधार पर प्रमाणित करब कठिन अछि। निष्चय र्इ भावना स्थायी ग्राम योजनाक सड.हि अपन असितत्वमे होयत। एही भूमि स्वामित्वक कारणे वर्णसंकरता एकटा जटिल समस्या बनि गेल होयत।
एही आरण्यक उपनिषद कालमे विभिन्न वर्णमे विभिन्न जातिक जन्म होम• लागल जे किछु तँ षिल्पक आधार पर छल तथा किछु वर्णसंकरताक आधार पर। एहि वर्णसंकरताक कारणे जातिमे उपजातिक लक्षण प्रकट होम• लागल। एहिसँ समाजमे भूमिक स्वामित्वक प्रष्नकेँ ल• केँ वर्णसंकरताकेँ रोकबाक लेल ब्रह्राचर्य केर महत्वक प्रतिपादन भेल तथा आर्य सप्तमर्यादकक उदय भेल, जाहिमे अहिंसा, ब्रह्राचर्य, अस्तेय, सत्य, अपरिग्रह तथा संगति दोषसँ बचब आदि मुख्य धर्म मानल गेल जकरा कुरूधर्म सेहो कहल गेल।
एहि प्रकारेँ ब्राह्राण चिंतन, समाजमे नैतिक जीवनक लेल आदर्षक व्यवस्थापन दैत रहल। भारतीय समाज एही नैतिकता आदर्ष धरातल पर ठाढ़ रहल। आ उपनिषद कालक एकटा नवीन बिहाडि़क प्रतिक्षा कर• लागल।
उपनिषद काल एकटा नवीन उत्तेजना ओ हलचल ल• केँ आयल जे तीनि आश्रम व्यवस्थामे चारिम आश्रम व्यवस्था जोड़लक, संन्यास आश्रम।
एहि चारिम आश्रम व्यवस्थापक पाछू एकटज्ञ छोटछिन इतिहास अछि।
महाभारतक घटना कालमे कृष्ण, युद्ध भूमिमे मृत्यु प्राप्त केनिहार योद्धाकेर आत्माक अमरताक बात कहने छलाह। योद्धा जैँ ल• केँ क्षत्रिय वर्गक लोक होइत छल तेँ क्षत्रिय वर्णमे आत्मक अमरताक सिद्धांत मान्य भेल तथा प्रचलित भेल। एही सिद्धांतसँ ब्रह्रावाद तथा आत्मक नित्यतावाद जन्म भ्ेल एवं मोक्ष केर कल्पना असितत्वमे आयल। एकहि ब्रह्रा (परमात्मा) सँ समस्त चराचरक (जीवात्मक) सृषिटसँ, अर्थात एहि अद्वैतवादसँ एकताक भावनाक तँ अवष्ये विकास भेल जे ओहि समय आर्य अनार्र्यक मिलनक तथा समस्त सामाजिक संगठन लेल आवष्यक छल जाहि कारणे एहि कल्पनाक जन्मो भेल छल, किन्तु सड.हि किछु अराजकता सेहो पसरल।
एहि समयमे छान्दोग्य उपनिषद तत्कालीन वैदिक कर्मकांडसँ तत्व चिंतनक ज्ञानकांडक श्रेंष्ठताक घोषणा कयलक तथा मोक्षक लेल आत्मा-परमात्माक ज्ञानकेँ आ ताहि लेल संन्यासकेँ अत्यावष्यक मानि लेलक। एहि (सन्यास) सँ उत्पादन कार्यमे बाधा पड़ैत। सड.हि वैदिक ब्रह्राचर्य, गृहस्थाश्रम तथा वानप्रस्थक बिना जे संन्यासी होयत, एक तँ ओ सृषिट परम्पराकेँ रोकत तथा दोसर दिस, बिनु अध्ययन, अनुभव ओ चिंतनक जे ओ संन्यासी बनत से मात्र भिक्षाटन द्वारा समाजक भारे बनत।
एहि सब बातक अनुमान, अनुभवप्राप्त वैदिक व्यवस्थापक आचार्यलोकनिकेँ छलनि तेँ एहि उपनिषद सबसँ बहुत पूर्वे शुक्लयजुर्वेदमे निष्कामकर्म केर अवधारणा प्रस्तुत कयल गेल छल आ सड.हि स्वर्ग केर कल्पना कयल गेल। एहिसँ पूर्व ऋग्वैदिक युगमे यमलोक केर कल्पना मात्र छल, स्वर्गक कल्पना नहि छल।
शुक्ल यजुर्वेद अपन निष्काम कर्मक सिद्धांतक प्रतिपादन उत्पादन कार्यकेँ प्रोत्साहिते करबाक लेल कयने छल। किन्तु ज्ञानकांडक ओहि युगमे संन्यासक प्रवृति जोर पकड़ने जा रहल छल जे उत्पादनकेँ बाधित क• रहल छल। दोसर दिस वैदिक परिव्राजक जे संन्यासी रूपमे घुमैत छल ओ लोकऋणक आधार पर विभिन्न गुरूकुलमे जाकेँ अथवा सामाजिक जीवनमे जाकेँ षिक्षा अथवा आचार विचारक बात बुझबैत सुझबैत रहैत छल। ओ स्वयं ब्रह्राचर्य जीवनमे विधा तथा गृहस्थाश्रमक अनुभव प्राप्त कयने रहैत छल। एकर भिन्न, उपनिषदीय संन्यासी एहि दूनू जीवनकेँ बहिष्कार क• षिक्षा तथा अनुभवसँ वंचित रहि जाइत छल आ मात्र भिक्षाटन एवं सत्संगक आधार पर मोक्षक मार्ग प्रदर्षन करैत छल। एहिसँ सामाजिक उत्पादन, दैनिक जीवनक कर्मण्यताक उत्साह तथा षिक्षाक प्रसार पर भयानक कुपरिणाम पडि़ रहल छल तथा पड़बाक सम्भावना छल।
तेसर दिस, नारी समाज एवं वैष्य अपन व्यस्तताक कारणे उपनयन तथा षिक्षा छोडि़ रहल छल, छोडने चल जा रहल छल। तत्कालिक दैनिक जीवनमे ओकरा लेल एकर प्रयोजने नहि रहल छल। उत्तर वैदिक कालमे, आर्य प्रसार तथा नवीन क्षेत्रक असितत्वक कारणे (राजन्य वर्ग) क्षत्रियमे शासन व्यवस्थापनक व्यस्तता बहुत बढि़ गेल छल। तेँ अति संक्षिप्त काल लेल ब्राह्राणे टा जकरा लेल कृषि एवं सम्पति अर्जन वर्जित क• देल गेल छल आ जे श्रुति रक्षाकेँ एकमात्र अपन धर्म मानि रहत छल, षिक्षााजगतसँ निष्ठा तथा नियमपूर्वक सम्बद्ध रहल।
आश्रमव्यवस्था एही सामाजिक चिंताक परिणाम छल जकरा ब्राह्राणलोकनि कठोरतासँ कार्यानिवत करबाक चेष्टा केलनि तथा राजाकेँ एकर व्यवसिथत कार्यान्वयनक प्रेरणा देलनि। सड.हि एकटा नवीन आश्रमक व्यवस्था केलनि, संन्यास आश्रमक।
समाजमे जे वस्तु आबि जाइत अछि तथा बद्धमूल भ• जाइत अछि, तखने ओकरा साहित्यमे स्थान भेटैत अछि। जावालोपनिषद सेहो एक प्रकारक साहित्ये थिकै जे परवर्ती उपनिषद थिक तेँ एहिमे सर्वप्रथम व्यवसिथत रूपमे वर्णाश्रम व्यवस्थापक प्रतिपादन देखैत छी। सम्भव र्इ. पूर्व 1000 र्इ. पूर्वक बीच आश्रम व्यवस्था पूर्णरूपेण असितत्वमे गेल छेल।
आब एहि आश्रम व्यवस्थामे-षतंजीवक केर आधार पर जीवनकेँ चारि भागमे बाँटि देल गेल। सर्वप्रथम 25 वर्षक ब्रह्राचर्य जीवन जाहिमे अण्ययन दोसर, 25 वर्षक गृहस्थाश्रम जाहिमे काम भावना तथा अनुभव तेसर, 25 वर्षक वानप्रस्थ जाहिमे संतानकेँ अपना सोझाँमे जीवन निर्देषन तथा अनुभवक पर तत्व चिंतन आ अंतमे 25 वर्षक संन्यास जीवनमे अध्ययन, अनुभव एवं चितंनक आधार पर समाजकेँ षिक्षा प्रदान।
एहि प्रकारेँ अपन चारू ऋणक पूर्ति तथा चारू पुरूषर्थकेँ प्राप्त करबाक लेल सामाजिक जीवनकेँ बानिह देल गेल। वर्णाश्रम व्यवसाि आहियुगक संक्रांति कालीन समाजक लेल ततेक आवष्यक मानल गेल जकरा समाज स्वीकारेटा नहि केलक अपितु ओकर दृढ़तापूर्वक पालनो बहुतदिन धरि करैत रहल। वस्तुत: भारतीय समाजक समस्त व्यापकता तथा सम्पूर्ण स्वयस्था एही वर्णाश्रम धर्मक सुपरिणाम थिक जाहिसँ भारतीय समाज आइयो अपन ठोस मान्यता ओ आदर्षक धरातल पर ठाढ़ अछि आ जे विष्वक लेल आष्चर्यजनक वस्तु मानल जाइत अछि।
इै बात भिन्न थिक जे कालांतरमे मात्र ब्राह्राणे समाज टा अपेक्षाकृत अधिक तत्परता, निष्ठा एवं दृढ़तासँ एकर पाल करैत रहल किन्तु समाजकेँ यैह वस्तु युगयुगान्त धरि प्रेरणा दैत रहल। आ तेँ एही गुणक कारणे ब्राह्राण, समाजमे अपन सर्वोच्चता स्थापित क• सकल तथा अर्थववेदक भूदेव संज्ञाकेँ सार्थकता द• सकल।
प्रयोजनानुसार आश्रमक अवधिमे परिवर्तन सम्भव छल जे समाजक प्रगतिषलतेक परिचायक थिक।
यैह भैल भारतीय समाजक 'चतुर पंच'।
वर्ण व्यवस्था : ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैष्य आ शूद्र, कत्र्तव्य रूप : पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण आ लोकऋण, पुरूषार्थ : धर्म, अर्थ, काम आ मोक्ष, आचरण : त्याग, दान, दया आ सेवाभाव, आश्रम : ब्रह्राचर्य, गृहस्थ, वान आ संन्यास।
येह 'चतुर पंच' थिक भारतीय मनीषका अतुलनीय दान, जाहि पर भारतीय समाज आइयो संगठित, समनिवत, मर्यादित एवं संतुलित अछि यधपि बिहाडि़ अनेक बहल अछि।
साम्प्रतिक भारतीय समाजमे जे भौतिकताक बिहाडि़क कारणे अराजकता तथा वैयकितकताक कारणे अषुभ असंतुलन अछि तकरा मूलमे एही चतुर पंचक अभाव अछि। निषिचत एकर सब मान्यता वर्तमान जीवनक अनुकूल नहि अछि किन्तु एहिमे मानवीय निष्ठाक जे इतिहास अछि निरंतर बनल रहत।
विश्वक अन्य सभ्यता जकाँ भारत (किछु अंषमे चीनो) अपन पूर्वजक संस्कृतिकेँ सर्वथा बदलिकेँ अन्य संस्कृतिकेँ कहियों स्वीकार नहि केलक अपितु सामाजिक समन्वयनक लेल अपन पूर्व संस्कृतिमे कालोचित परिवर्तन अनैत अपन अभियोजनषील गतिषीललताक परिचय दैत रहल।
भारतक भाल पर कालदेव जे तिलक केलक तकर मात्र रंग टा बदलल, रूप सदा वर्तमान रहल। आ तेँ आइयो नवीन भारतकेँ देखिकेँ प्राचीन भारतकेँ देखल जा सकैछ, बूझल जा सकैछ।
विश्वभरिमे जे तीन गोट नृतत्वषास्त्रक रंग अछि-कारी, गोर आ पीयर तथा जे तीन गोट प्रजाति अछि इथोपियन, काकेषियन आ मंगोलियन एवं जे तीन गोट सांस्कृतिक परम्परा अछि-सेमेटिक, आर्य आ मंगोली, सबटा आइयो भारतमे, कोनो ने कोनो रूपमे, अपन प्राचीन स्वरूपमे भेटी सकैत अछि।
भारत अनेक केर एक महादेष थिक जाहिठाम जीवनक लेल अनेक चिंतन तत्वन समायोजन भेल अछि। ओ थिक पहिल वर्ण-व्यवस्था, दोसर आश्रम व्यवस्था, तेसर पुरूषार्थ, चारिम कत्र्तव्य तथा पाँचम आचरण। सभक संख्या चारिमे अछि, क्रमष: ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैष्य ओ शूद्र। ब्रह्राचर्य, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ ओ संन्यास। धर्म, अर्थ, काम ओ मोक्ष। पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण ओ लोकऋण। त्याग, दान, दया ओ सेवा।
यैह थिक ओ चतुर पंच भारतीय संस्कृतिक आत्मा थिक, प्राणधारा थिक जे समाजकेँ एकटा व्यापकता देलक, एकटा मर्यादा देलक, एकटा व्यवस्था देलक तथा देलक एकटा संतुलन, जकरा ने आइधरि कियो आक्रमणकारी तोड़ी सकल, ने कोनो विदेषी धर्म प्रभावित क• सकल। यैह थिक भारतक आष्चर्य। भारतक आष्चर्य चीनक देबाल नहि थि, मिस्रक पिरामिड नहि थिक आ ने ताजमहले थि-एकर आष्चर्य थिक एकर समाज जे प्रषान्त सागर जकाँ गम्भरी अछि, हिमालय जकाँ सर्वोच्च अछि तथा इन्द्रधनुष जकाँ समरंगी होइतहुँ एक रंगक आभास दैत अछि।
प्रथम चतुर : वर्ण व्यवस्था
एहि वर्ण शब्दकेँ, आइधरि जतबा अंधकारमें राखल गेल अछि, ततबहि एकर दुरूपयोग सेहो भेल अछि। वर्णक अथ। जाति नहि थिक, र्इ अर्थ मौर्यकालक पश्चाते देल गेल अछि जे आर्इ चलि रहल अछि।
वर्णक अर्थ थिक रंग, आ से रंग प्राचीनकालमे दुइयेटा छल कारी आ गोर अर्थात अनार्य आ आर्य। यैह दुनू मीलिकेँ हिन्दु भेल आ तखने निछुमे वर्ण व्यवसथा मान्य भेल। मान्य भेल मात्र चारि वर्ण जाहिमे आर्इ अनेक जाति अछि। तेँ र्इ दुनू शब्द पर्यायवाची नहि थिक।
किन्तु दुनूकेँ पर्याय मानिकेँ आधुनिक भारतमे अनेक वैमनस्यक सृषिट कयल गेल जे वस्तुत: अपन घृणित उíेष्यसँ अंगरेज देन थिक आ जाहिमे आइयो भारतीय ओझराकेँ औना रहल अछि।
सामान्यत: वर्णकेँ वर्ग अथवा कोटि मानल जा सकैछ जे सम्भव वैदिक ऋषिक कल्पना छल। र्इ कल्पना सर्वथा प्राकृतिक थिक। जहिना प्रकृतिमे अनेक भेद अछि तहिना समाजोमे अछि, जहिना एके प्रकृतिक अनेक रूप दृषिटगत होइछ, तहिना समाजोमे भेद अछि, जकरा मेटाओल नहि जा सकैछ। भेद सृषिट तत्वक मूलाि। आ एही अवधारणाक आधार पर ऋग्वेदक प्रथम मंडलक पुरूष सूक्तमे सर्वप्रथम एहि कल्पनाकेँ जन्म लैत पबैत छी।
कहबाक प्रयोजन नहि जे र्इ कल्पना ऋग्वैदिक युगक नहि थिक, उत्तर वैदिकयुगक थिक, कारण प्रथम मंडल, जाहिमे र्इ पुरूष सूक्त अछि से स्वयं परवर्ती कालक रचना, सम्भव महाभारतक घटनाकालक रचना थिक। किन्तु ऋग्वेदक ओहू ऋचा (109012)मे वर्ण शब्द कहु नहि अछि। एकर स्पष्ट अर्थ थिक जे एहि कल्पनामे मात्र समाजक चारि टा कोटि अथवा वर्ग दिस संकेत कयल गेल अछि।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात र्इ थिक, जाहि पर ठीकसँ ध्यान नहि देल गेल अछि, जे एहिठाम एहि चारूक (आधुनिक वर्णन) आवयविक सम्बन्ध स्थापित कयल गेल अछि। जहिना एक्के शरीरमे विभिन्न अंग अछि जे सब महत्वपूर्णे नहि थिक अपितु विभिन्न उíेष्येँ सेहो अछि, तहिना र्इ चारू वर्ण अछि जे एक्के मूल समाजसँ सम्बद्ध अछि तथा भिन्न होइतहुँ अभिन्न अछि।
असलमे पुरूष समक्तक र्इ विभाजन समाजक (आधुनिक) श्रम विभाजनक सिद्धान्त पर आधारीत अछि जे उत्पादनक व्यवस्थापन तथा समाजक संतुलनक लेल आवष्यके नहि, अनिवार्यो अछि। र्इ आष्चर्येक विषय थि जे प्राचीन ऋषिमनीषीक समाजषास्त्रीय अवधारणा कतेक उर्वर तथा समग्र छल। किन्तु आष्चर्य इहोािक जे एहि सूक्त केर कतेक भ्रामक अर्थ बनाओल जाइत रहल अछि जकरा पाछू एकमात्र अंगरेज इतिहासकारक षडयंत्र अछि आ जकर दुरूपयोग राजनीति केलक अछि, कयल जाइत अछि।
वस्तुत: वर्णव्यवस्था उत्पादन प्रक्रियाक देन थिक, जकरा सामाजिक संतुलन अपन हितकेँ देखैत एकरा प्रोत्साहित केलक। आ से भेल उत्तरवैदिक युगमे। पूर्व वैदिकयुगमे एहि दृषिट´े कोनो भेद नहि छल, भेद छल आर्य आ अनार्यमे।
डा. ए. एल. वैषम (अदभुत भारतमे) मानैत छथि जे आर्यमे प्राचीने कालसँ वर्ग अथवा भेद रहल अछि। र्इ सर्वथा भ्रामक तथा अनैतिहासिक मान्यता थिक। एहन कतहु कोनो प्रमाण ऋग्देवक मंत्रमे नहि अछि। ऋग्वेद केर दोसर मंडलसँ ल• केँ नवम मंडल धरि प्राचीनतम मानल जाइत अछि, एहिसे दोसर मंडल के (2210) मेंत्रमे 'पंचकृष्टय:' शब्द आयल अछि जे पंचजना: केर अर्थमे अछि। छठम मंडल (61031)मे ब्राह्राण शब्द आयल अछि। एहिसँ र्इ अर्थ बहराहल अछि जे आर्यक प्राचीन इतिहासमे सर्वप्रथम ब्राह्राणे संस्कार अलग भेल आ शेष विष: अर्थात जनता रहल। र्इ सिथति सम्भव र्इराने कालमे भेल होयत जत• यज्ञवादक जन्म भेल छल आ जखन भारतीय आर्यदल पूर्व दिषामे हेलमन्द नदी (अफगानिस्तान) दिस चलल। ताधरि पूर्व जीवनक गान, यज्ञवादसँ जुडि़केँ मंत्रक गरिमा प्रज्ञपत क• गेल तेँ प्राचीन मंत्रक रूमृतिपट पर खराब आ नवीन मंत्रक रचना करब आवष्यक भेल होयत, जाहि लेल आर्य समाजक किछु जन सक्रिय भेल आ रचना परम्परा तथा कंठ परम्पराक विकास कर• लागल, वैह कहौलक ब्राह्राण, किन्तु र्इ कर्मणा छलं तेँ एकरा हम तत्काल संस्कार कहैत छी जे परिवर्तनषील छल। जीवन क्रम सामूहिक छल।
आर्य समाजक र्इ सिथति र्इरानसँ प्रस्थान कालसँ ल• कँ रावी तट धरि अर्थात र्इ. पूर्व 25 वषसँ र्इ, पूर्व 180 वर्षक बीच धरि रहल होयत।
रावी तटक दाषराज्ञ युद्ध जे विष्वामित्रक पुराहितक रूपमे अस्वीकृतिक कारणे भेल छल सँ लगैत अछि जे आर्य समाजक र्इ ब्राह्राण संस्कार जे एखन धरि कर्मणा छल, आब जन्मनाक सिद्धान्त दिस उन्मुख भेल जकरा पूर्णता भेटल सरस्वती तट पर, जाहिठाम ब्राह्राण संस्कार, संस्कारे नहि रहल, अपितु आधुनिक अर्थमे वर्ण बनि गेल आ एहिमे जन्मनाक सिद्धान्तक पालन होम• लागल आ जाहिमे कठोरता आयल यमुना तट पर अर्थात महाभारतक काल धरि। आ तेँ ब्राह्राणकर्मा भीष्म, विुदर आ वयस्त ब्राह्राण नहि भ• सकला तथा क्षत्रियकर्मा द्रोणाचार्य आ कृपाचार्य क्षत्रिय नहि भ• सकहाल।
महाभारतक बादेसँ ब्राह्राण वर्ण केर जन्मनाक सिद्धान्त कठोरता ओ कêरता आब• लागल तेँ भारतक सर्वप्रथम यैह जाति अपन रूढि़वादिताक जालने ओझरायल। अर्थात ब्राह्राणमे रूढि़वादक जन्म र्इ. पूर्व 120 इ्र. क महाभारतक घटनाकाल धरि भ• गेल छल।
ऋग्वेदक सातम मंडलक (71038) मंत्रमे क्षत्रिय शब्दक भेल अछि किन्तु से भेल अछि एहन योद्धाक प्रति जे विष:जनकेँ क्षत (हानि) सँ बचबैत हो।
र्इ मान्य तथ्य थिक जे आर्य विभिन्न दलमे आयल छल जकरा जन कहल जाइत छल, एही कारणे प्रधान दलकेँ पंचजना: कहल बेल अछि। हेलमन्द तटक (अफगानिस्तानक) पश्चात जकरा बादसँ सेमेअिक द्रविड़क ग्राम क्रमष: अधिक भेटय लागल आ आर्यप्रसारमे गतिरोध उम्पन्न कर• लागल तखन युद्धक सड.हि योद्धाक महत्व अधिक भेल होयत। यधपि जन पर विपत्ति पडत्रला पर सब समान रूपसेँ लड़ैत छल, र्इ सिथति कसँ कम मुख्य सिन्धु पर करयसँ पूर्व धरि अवष्य रहल होयज।
संग-संग युद्ध करबाक प्रथाक जन्म निषिचत रूपेँ मूल अभिजनक निष्क्रमण काल धरि भ• गेल होयत जखन आदिम आर्यजीवन विभिन्न दलक असितव स्पष्ट होम• लागल होयत। किन्तु ताधरि समस्त आर्य समाजमे तथा दल विषेषमे जे विभिन्न दिषामे उन्मुख भ• रहल छल, कोनो प्रकारक भेद नहि आयल छल। शुद्ध आदिम समानताक समाज छल। एहि समय धरि आर्य शुद्ध षिकार युगक संग्राहक युगमे छल किन्तु पशुपालन आरम्भ भ• गेल छल आ घोडऋा, कुकूर तथा गाय मुख्य पशु रहल होयत। वर्गभेदक कोनो प्रष्ने नहि उठैत अछि। र्इ कालखंड र्इ. पूर्व 3500 सै वर्षसँ पूर्वक थिक।
एकर बादे हित्ती, मित्तनी, हुर्री, कस्साइट तथा इंडो र्इरानीक एकटा महादल जे सम्भव अपन मूल अभिजनमे एकठाम छल, कासिपयन सागरक पूर्वी तट होइल दक्षिण र्इरान दिस चलल जे र्इ. पूर्व 3000 वर्ष धरि उत्तरी इैरानमे संग-संग रहल। एहि कालखंड धरि आर्यदवे इन्द्र, मित्र, वरूण केर असितत्व स्पष्ट भ• गेल छल जकरा ल• केँ हित्ती, मित्तनी सम्भव र्इरानसँ संख्याधिक्यक कारणे, पुन: कासिपयन सागरक पषिचम होइत उत्तर दिषामे चलल आ र्इ. पूर्व 2500 इ्र.क आसपास (आधुनिक) तुर्की पहुँचि गेल।
र्इ. पूर्व 2500 सैक आसपास जे र्इरानी आय्र (पाष्र्व) तथा मिश्रित जाति असुरक एवं भारतीय आर्यक बीच युद्ध भेल, जकरा देवासुर संग्राम कहल जाइत अछि, ताधरि सामाजिक समझौता सिद्धान्तक अनुकूल नेता निर्वाचनक प्रथाक जन्म भ• गेल छल, कारण र्इ युद्ध इन्द्रक नेतृत्व लडऋल गेल छल। यैह नेतृत्व पाछू राजामे परिवर्तित भेल। आ महान देव इन्द्रक अनुकरणमे राजा जे सेनापतियो होइत छल जाहिमे समस्त जनक लोक सेना बनैत छल, इन्द्र पदकेँ प्राप्त कलेक। राजा गत्वर जनक नायक होइत छल आ सर्वोच्च योद्धा होइत छल, जकर निर्वाचन होइत रहैत छल। एही प्रथाक समृतिषेष कालांतरक पौराणिक कथामे तपस्यासँ इन्द्रक आसनक डोलब बला अनेक कथा सब अछि।
जे हो, राहुल सांकृत्यायनक अनुसारेँ राजाक इन्द्रपद रावीतटधरि समाप्त भ• गेल तँ सुदास पिता दिवोदास ब्रह्रार्षि देष (सुवास्तुसँ रावीधरि) केर प्रथम राजा भेल।
सुवास्तु तट धरि अर्थात र्इ. 2200 वर्ष पूर्व धरि आर्यसमाज पशुपालन युगक अंतिम चरणमे छल आ कृषिक प्रति आकर्षित भ• गेल छलि। र्इ वैह समय थिक जखन भौगोलिक पिरवर्तनक कारणे वर्षाक घोर अभाव भ• रहल छल, जाहिसँ द्रविड़ समाजक कृषि सभ्यता उदास भ• रहल छल आ एम्हर आर्य आतंक बढि़ रहल छल तेँ हड़प्पा सभ्यता केनिद्रत भ• रहल छल। जाहिमे सँ हड़प्पाक पतन र्इ. पूर्व 2000 सँ 1800 र्इ. पूर्वक बीचमे भेल।
स्मरणरीय जे दाषराज्ञ युद्धमे दुनू पक्षसँ अनार्य सरदार (राजा) सेहो अछि जे आर्यक संग मीलिकेँ युद्ध केलक अछि। एकर अर्थ थिक जे आर्य आर्यक मिलनकार्य रावी तट धरि अर्थात र्इ. पूर्व 1800 वर्ष धरि बहुत आगू बढि़ गेल छल। र्इ भेल होयत कृषियेक कारणे।
मुख्य सिन्धु पार केलाक बादेसँ गर्म जलवायुक कारणे आर्य मनमे अनार्य वस्त्रक प्रति लोभ जागल होयत तथा एहि क्षेत्रमे अपेक्षाकृत वन्यपशुक अभावक कारणे कृषि द्वारा द्वारा जीवनयापन सुगम बुझना गेल होयत। आ र्इ दुनू षिल्प अनार्यक हाथमे छल तेँ मिलन प्रक्रियामे तीव्रता आयल होयत। जे अनार्य आर्यक अधीनता स्वीकार करैत ओकरा लेल अन्न तथा वस्त्रक उत्पादन करैत होयत अथवा सहयोग दैत होयत ओ (ऋग्वेदक) दास भेल आ शेष भेल दस्यु। तेँ ऋग्वेद दासक प्रति सदय तथा दस्युक प्रति कठोर अछि।
र्इ क्रियाकलाप अथवा सिथति रावी तट धरि रहल होयत अर्थात र्इ. पूर्व 1800 र्इ. धरि तकर बाद मिलन प्रक्रियामे आरो तीव्रता आयल जे क्रम यमुना तट धरि अपन पूर्णताकेँ प्राप्त कयने होयत अर्थात र्इ. पूर्व 1300 र्इ. धरि। कारण तकर बादे होइत अछि महाभारत जकर बाद समाजमे अनेक परिवर्तन आब• लगैत अछि।
एहि पुनरावृति तथा विस्तृत विषयान्तरक अछि र्इ देखायब जे सुवास्तु तटक बादेसँ यमुना तट धरि आर्य अनार्यमे युद्धक भयंकर सिथति कोना प्रकारेँ नहि बनैत अछि, तकर कारण भेल द्रविड़क शांतिप्रियता एवं आर्यक सुखद तथा सुगम जीवनक लोभ। तेँ डा. ए. एल. वैषमकेँ ऋग्वेदमे ओतेक युद्ध वर्णन नहि भेटैत अछि, जतेक रहक चाही जे सर्वथा स्वाभाविके अछि।
आ तेँ क्षत्रिय संस्कार यधपि सुवास्तु तटक बादेसँ स्पष्ट होम• लागल छल किन्तु संस्कारे छल कोनो सामाजिक भेद नहि छल। सब समान रूपेँ विष: केर जनता छल। आ समस्त विष:मे, समान कर्मणाक सिद्धान्त छल तथा वृति परिवर्तन अति सुगम छल, मात्र अपवाद छल सरस्वती तटक बादसँ ब्राह्राण समाज जाहिमे जन्मनाक सिद्धान्त आब गेल छल।
जेँ ल• केँ आर्य समाज सामान्यत: कृषि रावी तटक पश्चाते विषेषत: शतुदि्र (षजलजक) पश्चात प्रवृत भेल आ समाज कर्म पशुपालनक संग कृषियो भेल तेँ सरस्वती तटक पश्चात समाजमे एकटा तेसर संस्कार प्रकट भेल ओ छल विष:मे रह• बला वैष्य संस्कार जे पशुपालन आ कृषि कार्य करैत छल। किन्तु कोनो भेद नहि छल, सर्वत्र कर्मणा सिद्धान्त छल।
आ वृति परिवर्तन अति सुगम तथा सामान्य छल। आ ओही आधार पर विष: केर जन उपनयनक कारणे द्विज कहबैत छल।
स्मरणीय जे वैष्य संज्ञा सेही सरस्वती तटक उपरान्ते असितत्वमे आयल होयत, जखनसँ कृषि आजीविकाक साधन में प्रधानता प्राप्त कर• लागल होयत्ं किन्तु समाजमे भेद भावना धरि नहि जागल छल। रथकर (जे पाछू कमार जाति कहौलक के समाजमे महत्वपूर्ण स्थान छल, ओहिना जेना ग्रामनायक ग्रामणीक अथवा पुरोहितक। यैह सब मीलिकेँ राजाक निर्वाचन करैत छल।
रावी तटसँ पूर्व कुलप्रधान (कुलप) स्वयं पौरोहित्य करैत छल, पाछू ब्राह्राणकेँ पुरोहितक पद भेटल। एहि प्रकारेँ आर्य जीवनक उत्तरार्धमे अर्थात महाभारतसँ पूर्व धरि मात्र ब्राह्राण वर्ग टा बनि सकल छल शेष क्षत्रिय आ वैष्य अपन कोटि निर्माण दिस बढि़ रहल छल।
तेँ डा. ए. एल. वैषमक प्राचीन आर्य समाज मे भेद कल्पना निराधार अछि।
सरस्वती तटसँ यमुना तअक बीच अर्थात महाभारतसँ पूर्व मिश्रण (आर्य-अनार्य) प्रक्रिया बहुत तिव्र भेल होयत, एकर दुइ गोट प्रमाण भेटैत अछि। प्रथम तँ ऋग्वेदमे दृष्द्वती तटक लीवनक प्रति (जे सरस्वतीक शाखा नदी थिक तथा सरस्वतीक दक्षिण तथा यमुनाक उत्तर, बीचमे अछि) हीनताक भाव दृषिटगोचर होइत अछि। एकर अर्थ थिक सरस्वती तटसँ जहिना-जहिना आर्य प्रसार पूब हिदस भेल गेल मिश्रण बढ़ैत गेल। एकर दोसर प्रमाण थिक कृष्ण द्वैपायन व्यासक जन्म। र्इ दुनू सिथति ओही मिश्रण प्रक्रिया दिस संकेत करैत अछि।
सम्भव थिक अधिकांष दासीपुत्रकेँ विष: केर वैष्य मानल जाइत हो । किन्तु इै प्रवृति, समाजक महाभारत घटनाक बादक थिक। कारण ऋग्वैदिक प्राचीन मंत्रमे विष: अनेक बेर भेटैत अछि किन्तु ओहिसँ बनल वैष्य नहि। वैष्य आ शूद्र पहील बेर भेटैत अछि दसम मंडल (109012)मे जकरा महाभारत घटना कालक मानल जाइल अछि।
लगैत अछि पूर्व वैदिक युगक नितान्त अंतिम चरणमे, जखन कृषि उत्पादनमे अधिकाधिक आर्य आब• लागल होयत आ परिवारक रूप सिथर हेबाक सड.हि अधिकृत भूमि (ताधरि स्वामित्वक प्रष्न नहि छल) केर तथा चल सम्पतिक उत्तराधिकारक प्रष्न ठाढ़ होयत तँ र्इ मिश्रण क्रिया (विषेषत: दासी संतान) निषिचत रूपेँ एकटा समस्या बनि गेल होयत।
दोसर दिस किछु शुद्ध अनार्य जे पूर्वहिसँ दासत्वकेँ स्वीकार क• नेने छल तथा प्रसारक्रमक सड.हि दिनानुदिन दासत्वकेँ स्वीकार करैत आर्य जीवनक लेल अनिवार्य बनल चल जाइत छल ओरहु सामंजसयक लेल आर्यवृतमे आनब आवष्यक भ• गेल होयत। एही प्रष्न, एही समस्या तथा एही आवष्यकताक अनुभवक संग पूर्व वैदिकयुग समाप्त होइत अछि। तेँ पूर्व वैदिकयुगमे धर्म, अर्थ तथा कामे जकाँ तीनियेटा कोटि बनि सकल ब्राह्राण, क्षत्रिय आ वैष्य। किन्तु ब्राह्राणकँ छोडि़ शेष कर्मणाक सिद्धान्त अनुकूल परिवर्तनषील तथा प्रगतिषील छल।
उत्तर वैदिक युगमे अर्थात महाभारतक बाद र्इ. पूर्व 1200 र्इ.क पछाति ब्राह्राण वर्णक पश्चात सर्वप्रथम क्षत्रिय संस्कार वर्ण बनिकेँ स्पष्ट भेल तथा चारिम कोटिक निर्माण भेल जे शूद्र कहौलक, जाहिमे उत्तराधिकारसँ वंचित दासी अथवा अनार्य संतानकेँ तथा अधिकांष शुद्ध अनार्यकेँ जे दासत्व स्वीकार क• नेन छल तकरा स्थान भेटल।
एतबा निषिचत अछि जे शूद्रक कोटिमे जे आयल तकरा प्रति किछु न किदु ीिनताक भाव शुद्ध आर्यरक्तमे अवष्ये होयत। एकर दुइगोट कारण छल, एकटा तँ वर्ण संकरक संग उत्तराधिकारक प्रष्न जकरा शुद्ध आर्य सम्पतिसँ वंचित कयल गेल वा जे पूर्वेसँ मातृपक्ष षिल्पकर्ममे लागि गेल छल। आ दोसर जे शुद्ध अनार्य, दासत्य स्वीकार क• आर्यवृत्तमे आयल छल तकरा प्रति तेँ स्वाभाविके अछि। किन्तु हीनताक भाव जे रहल हो, कठोरताक भाव निषिचते नहि छल।अपितु वर्णसंकरक प्रति जकरा व्रात्यो कहल जाइत छल, तकरा प्रति अथर्ववेदमे आदर व्यक्त कयल गे अछि। ओकरा सबकेँ मात्र उत्तराधिकारसँ वंचित क• एकटा नवीन कोटिमे द• देल गेल, अनादर नहि कयल गेल। अपितु एही कारणे जे शुद्ध अनार्य शूद्र कोटिमे आयल छल कालांतरमे ओकरा एकटा विषेष लाभ बहुत बादक मेगास्थनीज वर्णन तथा कौटिल्यक अर्थषास्त्र।
मेगास्थनीजकेँ जे अनेक समय धरि भारतमे रहल छल तथा अनेक स्थान घुमल छल, तकरा भारतीय समाजमे दास (गुलाम) नहि भेटल छल। एकर अथ। थिक जे समाज ओहि पूर्व करम्पराक कारणे आदरक स्थान पर स्नेह अथवा मानवीयता देब• लागल। दोसर प्रमाण थिक कौटिल्यक अर्थषास्त्र जे दासक प्रति मानवीय व्यवहारक निर्देषेटा नहि दैत अछि अपितु अन्यथामे दंड विधान सेहो करैत अछि। आ तेँ अंतमे डा. ए.ल. वैषमकेँ कह• पड़ैत अछि (अदभूत भारतमे) जे भारतमे गुलामक ओ सिथति नहि छल जेहन मिस्र, यूनान तथा रोममे छल।
भारतीय वर्ण व्यवस्थाक उपयोगिता तथा महत्वक अनेक प्रषंसा डा. राधाकृष्णन कयने छथि जे सर्वथा समीचीन अछि किन्तु अंगरेज लोकनि मत्सय-नोर बहबैत अनेक चिंता कयने छल आ अंत धरि भारतीय समाजकेँ तोड़बामे कोनो कसरि केँ उठाक• नहि राखलक तोडि़येकेँ गेल जकर परिणाम स्वतंत्र भारतकेँ भोग• पडि़ रहल अछि। एहिमे किछु भारतीयो चिंतक केर भ्रान्ता धारणा योगदान दैत रहल अछि, सम्भव वर्णव्यवस्थाक मूल कल्पना पर ध्यान नहि देलक। प्रतिबद्ध इतिहासकारलोकनि एहि बिन्दुकेँ सेहो अनावष्यक उभारिकेँ अपन प्रगतिषीलताक आवषमे किछु अधिके तुल द• देलनि जे जनमानसकेँ विकृत केलक आ जाहिसँ लाभ ककरहु नहि भेल, अपितु तनावे बढ़ल। वस्तुत: कोनो मान्यता अपन उपयोगिता तथा तात्कालिकतेक आधार पर, युगीन समस्याक समाधान लेल समाजमे प्रवेष करैत अछि।
वर्ण व्यवस्थाक जन्म आर्य प्रसारक क्रममे भेल छल। आर्यवृत्तमे आयल समस्त समाजमे एकटा सामाजिक संगठन एवं उत्पादनमे संतुलन बनेबाक लेल एकर प्रयोजन भेल छल। आ तेँ वर्ण व्यवस्थाक आदिम कल्पनामे (पुरूषसूक्तमे) शरीरक विभिन्न अंग जकाँ आवयविक सम्बन्ध केर धारणाक आरोपन कयल गेल अछि। एहि बात पर कत ध्यान देल गेल। अधिक ध्यान दले गेल अछि एहि वर्ण व्यवस्थासँ उत्पन्न कालांतकरक जाति प्रथा पर। वस्तुत: वर्ण आ जातिकेँ एक मानि लेलासँ र्इ भ्रम उत्पन्न भेल अछि।
वर्ण व्यवस्थाक शूद्र शब्द पर सेहो आपति प्रकट कयल गेल अछि जे वस्तुत: अज्ञानतेक परिचायक थिक। शब्दक अर्थ बदलैत रहैत अछि आ से बादमे बदलैत अछि, पहिने बदलैत अछि समाज।
आरम्भमे शूद्र शब्द आदरे व्यक्त करबाक लेल व्यवहार कायल गेल छल। शूद्र शब्दक मूल, आदिम द्रविड़ समाजमे अछि। जहिना व्यापारिक क्रममे सुमेर (मेसोपोटामिया) मे भारतीय ग्राम हेबाक सम्भावना अनेक विद्वान व्यक्त कयने छथि, तहिना सम्भव भारतोमे सुमेरी ग्राम अथवा, जन अवष्ये रहैत होयत। एकर प्रमाणमे सुमेरक ओ पौराणिक कथा उपसिथत कयल जा सकैछ जाहिमे महाप्लावनक पश्चात सुमेरक पौराणिक राजा जियसूद्र एनकी देवक कृपासँ अमर हेबाक लेल डिलमुन आयल छल। डिलमुन ओहि सबयमे भारमे कहबैत छल।
र्इ सुमेरी पौराणिक कथा भारतीय आवगमन तथा आवास दिस संकेत करैत अछि, सम्भव उत्तम जलवायुक कारणे एकरा अमरलोक सेहो सुमेरमे मानल जाइत छल। सम्भव थिक ओ सुमेरी प्रजा जे अपनाकेँ जियसूद्रक प्रजा मानैत छल आ अपनाकेँ शूद्र कहिकेँ गौरवक अनुभव करैत हो। सम्भव थिक यमुनाक आसपास एहन शूद्रक किछु संख्या अपन पूर्व व्यापारक कारणे आर्थिक रूपेँ सम्पन्न रहल हो तेँ ओकरे सम्मानमे एहि कोटिये कनाम षूद्र राखि देल गेल, जाहिमे ओकर अपन रक्त अनार्य संतान सेहो स्थान पाब• जा रहल छल। किन्तु एकर कोनो पुरातात्विक साक्ष्य नहि उपसिथत कयल जा सकैछ तेँ आइधरि कोनो इतिहासकारक ध्यान एहि दिस नहि गेलनि तेँ डा. आर. एस. शर्मा सेहो सम्भव अपन षूद्रों का इतिहास मे एकर कोनो संकेत नहि केलनि।
जे हो, र्इ वर्ण व्यवस्था श्रम विभाजनक आधुनिक सिद्धान्तक सर्वथा अनुकूल छल तेँ समाजमे मान्यो भेल। षिक्षा, धर्मकत्य, पौरोहित्य तथा समाजमे नैतिक व्यवस्थापनक कार्य ब्राह्राणकेँ देल गेल, समस्त समाजक रक्षाक दायित्व राजन्य वर्ग क्षत्रियक छल तथा सामाजिक समस्त उत्पादनक भार वैष्य एवं शूद्रकेँ छल। सभक अपन-अपन कार्य छल, दायित्व छल आ पूर्वजक तथा षिल्पक मोह छल जे अपन-अपन कोटिमे बान्हमे छल। यैह छल सामाजिक संतुलन, व्यवस्थापन तथा समायोजन।
द्वितीय चतुर : व्यकित कत्र्तव्य
कहबाक प्रयोजन नहि जे भारतीय प्राचीन चिंतकक जे चिंतना भेल ओ सर्वांगीन श्रंखलाबद्धेटा नहि अपितु एकटा निषिचत अनुषासनक अनुकूल भेल अछि। एकर प्रमाण थिक चारि गोट कत्र्तव्य तथा चारि गोट पुरूषार्थ ज चारि गोअ आश्रममे पूर्ण भ• जाइत अछि।
एहि प्रकारेँ जीवन गाड़ीक लेल एहि प्रकारक लीख बनाओल गेल जे जँ व्यकित-बहलमान सूतियो रहत तैयो कत्र्तव्य पथपर गाड़ी चलैत अपन सामाजिक जीवनक समग्रताक गन्तव्य पर पहुँचबे करत। आ ताँ व्यकितकेँ समाजक एकार्इ मानिकेँ ओकरा लेल कत्र्तव्यक निर्धारण कयल गेल जे व्यकितक मध्यमे समस्त समाजक जीवनलक्ष्य भ• जाइत अछि।
पूर्व वैदिकयुगमे, जे प्रवृतिमार्गी समाज छल आ जे ताधरि मात्र यमलोक (स्वर्ग) केर कल्पना क• सकल छल, नरक कल्पना सर्वथा अपरिचित छल, तीन टा लक्ष्य अथवा पुरूषार्थ कयल गेल छल, धर्म, अर्थ आ काम। किन्तु उत्तर वैदिकयुगक उपनिषदीय चिंतनक सड.हि चारिम वर्ण शूद्र जकाँ चारिम पुरूषार्थ मोक्षक जन्म भेल।
एहि पुरूषार्थ प्रापित लेल माध्यम मानल गेल ऋषि ऋण, पितृ,देव ऋण तथा लोक ऋण जकरा ल• केँ व्यकित जन्म लैत आछि आ जकरा चुकायब अनिवार्य कर्तव्य थिक।
लगैत अछि आहि समयक आर्य ऋणसँ बहुत डरैत छलाह तेँ कत्र्तव्यकेँ ऋणसँ जोड़ल गेल। किन्तु र्इ कर्तव्य जाहि आश्रमक माघ्यमे पूर्ति होयत तकर समुचित विकास उत्तरे वैदिकयुगक वस्तु थिक। पूर्व वैदिकयुगमे मात्र दुइगोट आश्रम छल ब्रह्राचर्य तथा गृहस्थाश्रम। शेष दुइ आश्रमक प्रावधान उत्तर वैदिक युगमे भेल। पूर्व वैदिक युगमे एकर नामो सम्भव आश्रमक रूपमे नहि पड़ल छल।
आश्रम कल्पना ऐत्तेरेय ब्रह्राण, बृहदारणयकोपनिषदसँ भेट• लगैत अछि किन्तु व्यवसिथत रूपेँ ओकर रूप तथा संज्ञा जाबालोपनिषदमे प्राप्त होइअ अछि।1
संहिता साहित्यमे ब्रह्राचर्य शब्दक सड.हि यति शब्द सेहो भेटैत अछि। एत्तरेय ब्राह्राचर्य, गृही, वनी तथा परिव्राजक शब्द आयल अछि। ध्यान देेबाक अछि जे परिव्राजक आ यति एक नहि थिक। यधपि एह पर ठीकसँ विचार नहि भले अछि, किन्तु लगैत अछि वैदिक परिव्राजकसँ भिन्न यति केर आसितत्व छल आ से सम्भव रावी तटक जीवनक अर्थात र्इ. पूर्व 1800 र्इ. क आसपसेसँ अछि जहियासँ आर्य अनार्यक मिलन प्रक्रिया आरम्भ भेल आछि। निषिचत रूपँ र्इ यति सम्प्रदाय अनार्यक सम्प्रदाय थिक जे दाढ़ी मोछ, जटाजूट बढ़ौने समाजमे घुमैत रहैत छल। सम्भव र्इ सब स्नान नहि करैत छल आ भस्म आदि लगौने श्मषान आदि स्थानमे रहैत छल तेँ ऋग्वैदिक आर्यक एकरा प्रति उपेक्षा भाव देखैत छी जे ऋग्वेदसँ प्रकट होइत अछि।
ऋग्वैदिक आर्यक प्रवृतिमार्गीक जीवनकेँ देखैत यति केर सम्भावना कतुहुसँ नहि बनैत अछि। किन्तु मंत्रकेँ कंठ परम्परा देबाक लेल निषिचत रूपेँ ब्रह्राचारीक जन्म सुवास्तु तटक जीवन धरि अर्थात र्इ. पूर्व 2200-2000 र्इ.क आसपास भ• गेल होयत। ओहीठामसँ गुरू परम्पराक तथा उपनयन प्रथाक जन्म सेहो भेल होयत। सम्भव एहि प्रथाक जन्म र्इराने कालमे भेल हो, कारण प्राचीन अगिनहोत्री र्इरानीमे उत्तरीय वस्त्रक प्रथा देखबामे अबैत अछि। सम्भव उत्तरी र्इरानमे एलम-सूसासँ वस्त्र प्रथा आबि गेल। किन्तु भारतीय आर्यकेँ भारतक मार्गमे वस्त्र सम्भावना नहि छल तेाँरिनक अथवा अन्य पशुचर्म जनौ जकाँ पहिरैत होयत। एकर प्रमाणमे मिथिलाक ब्राह्राणकेँ राखल जा सकैछ जकरामे उपनयन कालमे पहिने हरिनक छालक जनौ देल जाइत अछि तखन वस्त्रक। र्इ ओही प्राचीन प्रथा दिस संकैत करैत अछि।
जे हो, किन्तु उपनयनक पश्चाते बटुक गुरूपरम्पराक अनुकूल श्रुति अभ्यासमे जाइत छल आ से जाइत होयत सुवास्तुये तटसँ। श्रुति अभ्यास आहि भेदभावहीन समस्त आर्य समाजक बटुक लेल छल जाहिमे बालिका सेहो अबैत छल तेँ ओकरहु उपनयन होइत छल आ सब द्विज कहबैत छल। तखने प्रारम्भ होइत छल ब्रह्राचर्य जीवन। प्रारम्भमे पिता गुरू होइत छल। सम्भव सरस्वती तट पर जखन ब्राह्राण संस्कारमे जन्मनाक सिद्धान्त आयल तथा गृहप्रधान केर स्थान पर अलगसँ पुरोहितक प्रवधान भेल तखनसँ गुरूकुलक परम्परा अपन स्पष्ट असितत्वमे आयल आ पिताभिन्न गुरू होम• लागल जे मंत्रद्रष्टा ऋषिलोकनि होइत छलाह। ओहि समयक अर्थात र्इ. पूर्व 1200 र्इ. सँ पूर्व धरि विधाक नामपर मात्र मंत्रअभ्यास छल, तेँ ओकर नाम श्रुति भेल। लोपामुद्रा आ घोषा आदि ओही बालिका उपनयन प्रथाक देन थिक जे परम्परा उत्तर वैदिकयुगक उत्तरार्धमे समाप्त भ• गेल।
ओहि समयमे अर्थात पूर्व वैदिकयुगमे ब्रह्राचर्य जीवनक पश्चात गृहस्थ जीवन प्रारम्भ होइत छल। सम्भव किछु वृद्ध पुन: षिक्षाक क्षेत्रमे अबैत होथि तेँ वानपस्थ आ तेँ परिव्राजक।
किन्तु अनार्य ग्राम (क्षेत्र) मे यति अवष्ये होइत होयत जे द्रविड़ सभ्यताक स्मृतिषेष थिक।
आब अनेक विद्वान मान• लागि गेल छथि जे अथर्ववेदक किछु, मंत्र ऋग्वेदोसँ थिक। एहन मंत्र थिक अनार्य जीवनक अभिचार मंत्र। सम्भव थिक जाहि भारषिवकेँ द्रविड़ सभ्यताक मोहर पर पबैत छी ओकर परम्परा समाजोमे रहल हो। लिंगदेवक अतिरिक्त मातृदेवीक सेहो अनेक मूर्ति द्रविड़ सभ्यतामे भेटल अछि, जाहिसँ अनुमान लगाओल जाइत अछि जे ओ सब साकार मुर्तिपूजक छल विषेषत: (षिव) लिंगदेवनक आ शकित (मातृदेवी) केर। ओ सभ्यता कृषि आ वणिक सभ्यताक छल तेँ देव उपासना लेल अवष्ये पुरोहित रहैत होयत जे समाजमे जड़ी बूटीक औषधि विज्ञानक विकास सेहो करैत होयत आ अभिचार क्रियाक सेहो।
एकर संकेत परवर्ती पौराणिक साहित्यमे सेहो भेटैत अछि जे बहुत दिन धरि षिव ओ शकित उपसना संग रहल अछि। जैं ल• केँ र्इ देव अनार्यदेव थिक तेँ र्इ बात कथाक माध्यमे आर्यजीवनमे सेहो आबि गेल जे पुराणमे व्यक्त भेल अछि।
सम्भव थिक द्रविड़ सभ्यताक ओ यति हड़प्पा पतनक पश्चात आर्य अनार्यक मिलनक कारणे आर्यग्राम दिस अबैत जाइत हो तथा अनार्य समाजमे एखनहुँ वैधगिरि एवं अभिचार क्रिया करैत हो। सम्भव थिक ओ यति अनार्य ग्राममे अपन मूर्तिजूजाक क्रिया सेहो चलबैत हो। र्इ सब आइयो उत्तर भारतक अनेक ग्राममे समाजक निम्नवर्गमे वर्तमान अछि। ओकरा सबमे पूर्व जीवनक अभिचार-क्रिया, पुरोहित-परम्परा जकरा ओझा सेहो कहल जाइछ तथा गाछ तर अथवा कोनो एकान्त घरमे जे अधिक खन ग्रामसँ बाहने होइछ, अपन देव-स्थानक प्रवृति देखबामे आबि जाइत अछि जे एही परम्पराक शेष स्मृतिचिहन थिक।
सम्भव थिक एही अनार्यक यति केँ देखिकेँ पूर्व वैदिकयुगक अंतिम चरणमे अर्थात महाभारतसँ पूर्व परिव्राजक तथा एही परिव्रारकसँ उत्तरवैदिक युगक संन्यास कल्पनाक जन्म भेल हो जे यतिये जकाँ दाढ़ी केष बढ़ाकेँ समाजमे घुमैत छल। किन्तु परिव्राजक भिक्षाटन नहि करैत छल, एकाघ दिनूक आतिथ्य स्वीकार अवष्ये करैत छल , ओ मुख्यत: गुरूकुल सबमे षिक्षामे सहयोग दैत छल। संन्यासी ओही पूर्व यति जकाँ भिक्षाटन करैत छल। किन्तु र्इ संन्यासी बादक वस्तु थिकं पूर्व वैदिक जीवनमे एकर असितत्व नहि छल।
पूर्व वैकि जीवनमे ब्रह्राचर्य आ गृहस्थाश्रममे देवऋण, पितृऋण तथा ऋषिऋणक भावना अवष्ये आबि गेल छल।
देवऋणकेँ उतारबाक लेल इन्द्र, मित्र, वरूण, वैष्वानर आदि देवक लेल प्रतिदिन यज्ञ कयल जाइत छल जाहि कारणे प्रति गृहमे गृहागिन रहैत छल, अपितु निरंतर अगिनकेँ प्रज्वलित राखबाक लेल आंगनमे एकटा घरे अलग होइत छल। मैथिल जीवनक नवान्न एकरे स्मृतिषेष थिक। दैनिक यज्ञ ऋषिलोकनि सेहो करैत छलाह तथा गृहस्थलोकनि सेहो। दैनिक यज्ञ लेल पूर्वमे पुरोहितक प्रयोजन नहि छल। कालांतरमे राजन्यवर्ग लेेल दैनिको यज्ञ लेल पूर्वमे पुराहितक प्रयोजन नहि छल। कालांतरमे राजन्यवर्ग लेल दैनिको यज्ञ पुरोहिते कर• लागल।
दोसर पितृऋण लेल गृहस्थाश्रममे जाकेँ संतति परम्पराकेँ अक्षुण्ण राखब तथा ऋषिऋणकेँ उतारबाक लेल षिक्षादान देब अत्यावष्यक मानल गेल। यैह कर्तव्य भेल धर्म, अर्थ आ काम नामक तीन पुरूषार्थ। कर्तव्यकेँ जीवनक संग एहि प्रकारेँ बानिह देल गेल।
यैह छल पूर्व वैदिक ऋषि लोेकनिक जीवन सम्बंधी संकल्पना तथा ताहि लेल कर्तव्य अवधारणा जे अपन पूर्णताकेँ प्राप्त केलक उतर वैदिकयुगमे। उत्तर वैदिकयुगमे ऋणमे ऋणमे लोकऋणक वृद्धि भेल जाहि द्वारा समाजसेवाकेँ अनिवार्य मानल गेल, जाहि लेल मानल गेल परिव्राजक जीवन। तकर बाद उपनिषद कालमे मोक्षक कल्पना जाग्रत भेल जे चारिम पुरूषार्थ बनल।
एहि प्रकारेँ चारिटा ऋण अर्थात कर्तव्य भेल तथा चारिटा पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम ओ मोक्ष।
तृतीय चतुर : जीवनक लक्ष्य पुरूषार्थ
कहबाक प्रयोजन नहि जे अधिकांष विद्वान धर्म आ भकित तथा सम्प्रदायकेँ एक मानिकेँ अनेक निष्कर्ष प्रस्तुत कयने छथि जकर मूलमे अछि अंगरेज। योरोपमे भकितयेकेँ धर्म मानि लेल गेल अछि किन्तु भारतमे र्इ दुनू वस्तु भिन्न थिक, एक दोसरक पर्याय कथमपि नहि थिक।
धर्मक अर्थ थिक समान रूपेँ धारण कर• योग्य, जकर सम्बन्ध मानवीय कर्तव्यसँ अछि। अर्थात दैनिक जीवनलक क्रियाकलापसँ अछि सबकेँ करबाक अछि। विभिन्न ऋणकेँ अथवा पुरूषार्थकेँ प्राप्त करब धर्म मानल गेल जकर सम्बंध समान रूपेँ दैनिक जीवनसँ अछि। एही आस्था विष्वासक कारणे कर्तव्यमे सरसता, निष्ठा तथा लगन अबैत अछि जाहिसँ ओकर सम्पादन सुगम भ• जाइत अछि। पूर्व वैदिक जीवनमे यैह वस्तु छल। किन्तु उतर वैदिकयुगमे जखन यज्ञवाद व्यकित जीवनसँ उठिकेँ सामाजिक जीवनमे आबि गेल तखनसँ आस्था विष्वास पूर्णतया अलग भ• गल तथा व्यकित जीवनक मानसमे रहि गेल जे पाछू भकितक रूप ग्रहण क• लेलक।
जेँ ल• केँ भकित, आस्था ओ विष्वासक वस्तु भ• गेल तेँ उतर वैदिकयुगमे व्यकितकेँ एहि लेल स्वाधीन छोडि़ देल गेल। व्यकित मानस पर कोनो अंकुष उचित नहि मानल गेल कारण एकर सम्बंध समाजसँ नहि अछि। यैह थिक भारतीय मनीषाक महान उदारता तथा संतुलन। एही कारणे समाजमे वैचारिक भिन्नता आयल तथा अनेक दर्षनक जन्म भेल, जे विष्वक आनठाम कतिपय कारणे प्राचीन कालमे सम्भव नहि छल।
एहि प्रकारेँ, धर्मक सम्बंध मानव जीवनक सामाजिक पक्षसँ सम्बंद्ध सम्बंद्ध अछि तथा भकितक वैयकितक जीवनसँ। धर्ममे गतिषीलता अछि भकितमे नहि। धर्म जँ शरीर थिक तँ भकित आत्मा। वस्तुत: धर्म मानवक कर्म थिक तेँ धर्म-कर्म शब्द प्रचलितो भेल।
पूर्व वैदिक युगक आदिम अवस्थामे धर्म आ भकित एक अवष्य छल किन्तु कालान्तारमे दुनू अलग भ• गेल जे आइयो अछि।
पूर्व वैदिकयुगमे धर्म भेल तीनू ऋण (देव, पितृ तथा ऋषि)केँ उतारब जाहि लेल ब्रह्राचर्य ओ गृहस्थाश्रममे जाकेँ तीनू पुरूषार्थ (धर्म, अर्थ ओ काम) केँ प्राप्त करब।
पुरूषार्थमे अर्थक महत्व पूर्व वैदिक युगक उतरार्धमे भेल होयत जखन पशुपालनक सड.हि समाज कृषि दिस उन्मुख भेल होयत। एही धर्म आ अर्थक प्रापितसँ सकल कामक पूर्ति होइत अछि।
लगैत अछि तीनू पुरूषार्थक कल्पना आर्यजीवनमे रावीतटसँ सरस्वती तटक बीचमे अर्थात र्इ. पूर्व 1800 वर्षक बीचमे अवष्ये जागि गेल होयत।
ब्राह्राणकालमे अर्थात र्इ. पूर्व 1000र्इ. क आसपास वानप्रस्थक कल्पना जागल होयत जकर प्रमाण थिक ऐतरेय ब्राह्राणक वनी शब्द। र्इ वैह समय थिक जखन महाभारतक (र्इ. पूर्व 1200 र्इ.) पश्चात आर्यक प्रसार गंगासँ पूर्व सदानीराक पूर्वी तट धरि, हिमालयक तलहटीसँ ल• केँ विन्ध्याचल धरि भ• गेल छल, भ• रहल छल। कृषि अपन विकासक मध्याहनमे आबि गेल छल तथा गृहउधोग वाणिज्य केर रूप् ग्रहण करबाक तैयारी क• रहल छल। एहि समयधरि शूद्रक जन्म भ• गेल छल तथा वैष्य, क्षलियक सड.हि अपन स्पष्ट असितत्वमे आबि गेल छल। आगि द्वारा जंगलक सफैया तथा कृषि उत्पादनक द्वारा समाजमे जाहि भौतिकताक हलचल आयल छल, बहुतो पूर्ववर्ती जीवनपद्धति समाप्त भ• रहल छल जे समयानुकूले छल। लोकजीवनमे अर्थ आ काम प्रधान भ• गेल। दल। स्त्रीक गृह दायित्व बढि़ गेल छल।
र्इ सिथति ब्रह्राचर्य जीवन पर आघात केलकं बालिकाक उपनयनक सड.हि वैष्य उवनयन प्रथा छोडि़ रहल छल। वर्तमान जीवन पद्धतिमे ओकरा लेल र्इ ने महत्वपूर्णे छल आ ने प्रयोजनीये। क्षत्रिय वर्ग उपनयन छोड़लक नहि किन्तु उपेक्षा अवष्ये देखब• लागल। एकर फल र्इ भेल जे उपनयन, ब्रह्राचर्य जीवन तथा षिक्षासँ एकमात्र ब्राह्राणेटा अपन निष्ठाभावेँ सम्बद्ध रहि गेल। षिक्षा परिणाममे अवष्ये बढि़ रहल छल किन्तु परिमाणमे घटि रहल छल। षिक्षक विस्तृति सीमित भेल जा रहल छल। ब्राह्राएसकर्माक यैह चिंताक विषय छल।
शुद्र वर्गमे जे वर्णसंकर छल ओ कृषि आ षिल्पमे लागि छल तथा अनर्याक भाषा भिन्न छल तेँ ओकरा आर्यवृतमे आनियोकेँ वैदिक भाषाक षिक्षासँ नहि जोड़ल जा सकैत छल। जेँ ल• केँ परवर्ती दासीपुत्र अथवा अनार्यसंतान वैदिक कृत्यकेँ छोडि़ देने छल, तेँ शुद्र वर्गकेँ वैदिक संस्कारसँ चिंतन युगकेँ बिसरिकेँ भइये नहि सकैत अछि।
तेँ ओहि आर्थिक उथल पुथल तथा भौतिक जीवनक व्यस्ततामे वानप्रस्थक कल्पना कयल गेल जाहिसँ समाजमे आध्यातिमकता बनल रहय तथा भौतिकताक आधार पर निर्मित सांसारिकता गौण मानल जाइत रहय। एहिसँ लोकतीवन अर्थप्रधान नहि होयत तथा समाजमे त्याग ओ दान आदिक भावना जीवंत रहि सकत। वानप्रस्थ योजनाक पाछू यैह कल्पना रहल होयत। एहि लेल ब्राह्राण पुरोहित जे मंत्रिपद सेहो प्राप्त कर• लागल छल, समाजक एहन व्यकित जे वय प्राप्त कइयो क• वानप्रस्थी नहि होइत छल तकरा लेल प्रेरणा द• केँ राजा द्वारा आदेष सेहो निर्गत करबैत छल।
एही वानप्रस्थीक लेल ब्राह्राण लोकनि आरण्यक ग्रंथ केर रचना सेहो कयल जाहिमे आध्यातिमकताक गम्भीर तत्व चिंतन रहैत छल। र्इ तत्व चिंतन ऋग्वैदिक अथवा ब्राह्राण चिंतनक सर्वथा अनुकूल छल, ब्राह्राण वैराचिकताक निकट छल। तेँ अधिकांष आरण्यक ब्राह्राण ग्रंथक परिषिष्ट रूपमे अछि। एही आरण्यक केर अगिला विकास थिक उपनिषद जे वैदिक चिंतनसँ सर्वथा भिन्न अछि, अलग अछि, तेँ ओकरा वेदान्तो कहल गेल।
एही वानप्रस्थसँ उपनिषद कालमे संन्यास आश्रमक विकास भेल। एहि प्रकारेँ वाणप्रस्थ आश्रम तथा विभिन्न आरण्यक केर रचना र्इ. पूर्व 900 र्इ.क आसपास धरि सम्पन्न भ• गेल होयत।
उत्तर वैदिक युगक आरण्यक काल धरि ब्राह्राण वर्णकेँ छोडि़, शेष दुनू वर्णकेँ पूर्व जीवनक ऋण कल्पनाक अनुकूल जीवनयापन करब सम्भव नहि रहि गेल छल। राजाक लेल राज कार्य तथा वैष्यक लेल उत्पादन कार्य बढि़ गेल छल, बढ़ले जा रहल छल तेँ समस्त समाज लेल ब्राह्राण लोकनि चारि टा वृत्ति देननि जे भेल त्याग, दान, दया ओ सेवाभाव।
त्याग द्वारा वानप्रस्थकेँ तथा दानवृतिकेँ प्रोत्साहन भेटैत छल। सेवामे गुरूसेवा, पूर्वजसेवा तथा अतिथिसेवा आदि विभिन्न सेवा आबि जाइत छल। यैह आतिथ्यसेवा भारतक विष्वविख्यात भेल जकर मूल एही वृति योजनामे अछि।
पूर्व वैदिकयुगमे एकटा दैनिक यज्ञ सम्पादित होइत छल विष्वदेव यज्ञ, जाहिमे विभिन्न दिषाक विभिन्न पशु-पक्षीकेँ यतिंकचित भाजन देल जाइत छल। उत्तर वैदिकयुगमे एहि यज्ञक महत्व घट• लागल छल जकर स्मृतिषेष आब मात्र श्राद्ध संस्कारमे देखल जा सकैछ तथा ब्राह्राणक भोजन कालक नैवैध क्रियामे। आब ब्राह्राणो समाजसँ र्इ उठल जा रहल आछि।
कहबाक प्रयोजन नहि जो एहि क्रियाक पाछू निखिल विष्वजीवनक लेल दया भावे छल।
किन्तु कालांतरमे जखन आश्रमोक प्रति लोकक निष्ठा घट• लागल, एकमात्र ब्राह्राण समाजमे तथा किछु क्षत्रिय समाजमे रहि गेल तखन पुन: धर्मक स्वरूप् बदलि गेल।
उपनिषद कालक अंत धरि अर्थात र्इ पूर्व 800 र्इ.क आसपास धरि भूमि पर स्वामित्व प्रष्न स्थापित भ• गेल छल, जकर प्रथम प्रमाण बुद्धजीवनक ओ घटना थिक जाहिमे अनाथपिंड भूमि कीनिकेँ दान दैत अछि। अर्थात भूमि क्रय मुद्राक आधार पर बुद्धक बादसँ मानल जाइत अछि।
किन्तु एहिसँ पूर्व भूमिक हस्तांतरण वस्तु विनिमयक आधार पर अवष्य होम• लागल होयत जकरा साक्ष्यक आधार पर प्रमाणित करब कठिन अछि। निष्चय र्इ भावना स्थायी ग्राम योजनाक सड.हि अपन असितत्वमे होयत। एही भूमि स्वामित्वक कारणे वर्णसंकरता एकटा जटिल समस्या बनि गेल होयत।
एही आरण्यक उपनिषद कालमे विभिन्न वर्णमे विभिन्न जातिक जन्म होम• लागल जे किछु तँ षिल्पक आधार पर छल तथा किछु वर्णसंकरताक आधार पर। एहि वर्णसंकरताक कारणे जातिमे उपजातिक लक्षण प्रकट होम• लागल। एहिसँ समाजमे भूमिक स्वामित्वक प्रष्नकेँ ल• केँ वर्णसंकरताकेँ रोकबाक लेल ब्रह्राचर्य केर महत्वक प्रतिपादन भेल तथा आर्य सप्तमर्यादकक उदय भेल, जाहिमे अहिंसा, ब्रह्राचर्य, अस्तेय, सत्य, अपरिग्रह तथा संगति दोषसँ बचब आदि मुख्य धर्म मानल गेल जकरा कुरूधर्म सेहो कहल गेल।
एहि प्रकारेँ ब्राह्राण चिंतन, समाजमे नैतिक जीवनक लेल आदर्षक व्यवस्थापन दैत रहल। भारतीय समाज एही नैतिकता आदर्ष धरातल पर ठाढ़ रहल। आ उपनिषद कालक एकटा नवीन बिहाडि़क प्रतिक्षा कर• लागल।
उपनिषद काल एकटा नवीन उत्तेजना ओ हलचल ल• केँ आयल जे तीनि आश्रम व्यवस्थामे चारिम आश्रम व्यवस्था जोड़लक, संन्यास आश्रम।
एहि चारिम आश्रम व्यवस्थापक पाछू एकटज्ञ छोटछिन इतिहास अछि।
महाभारतक घटना कालमे कृष्ण, युद्ध भूमिमे मृत्यु प्राप्त केनिहार योद्धाकेर आत्माक अमरताक बात कहने छलाह। योद्धा जैँ ल• केँ क्षत्रिय वर्गक लोक होइत छल तेँ क्षत्रिय वर्णमे आत्मक अमरताक सिद्धांत मान्य भेल तथा प्रचलित भेल। एही सिद्धांतसँ ब्रह्रावाद तथा आत्मक नित्यतावाद जन्म भ्ेल एवं मोक्ष केर कल्पना असितत्वमे आयल। एकहि ब्रह्रा (परमात्मा) सँ समस्त चराचरक (जीवात्मक) सृषिटसँ, अर्थात एहि अद्वैतवादसँ एकताक भावनाक तँ अवष्ये विकास भेल जे ओहि समय आर्य अनार्र्यक मिलनक तथा समस्त सामाजिक संगठन लेल आवष्यक छल जाहि कारणे एहि कल्पनाक जन्मो भेल छल, किन्तु सड.हि किछु अराजकता सेहो पसरल।
एहि समयमे छान्दोग्य उपनिषद तत्कालीन वैदिक कर्मकांडसँ तत्व चिंतनक ज्ञानकांडक श्रेंष्ठताक घोषणा कयलक तथा मोक्षक लेल आत्मा-परमात्माक ज्ञानकेँ आ ताहि लेल संन्यासकेँ अत्यावष्यक मानि लेलक। एहि (सन्यास) सँ उत्पादन कार्यमे बाधा पड़ैत। सड.हि वैदिक ब्रह्राचर्य, गृहस्थाश्रम तथा वानप्रस्थक बिना जे संन्यासी होयत, एक तँ ओ सृषिट परम्पराकेँ रोकत तथा दोसर दिस, बिनु अध्ययन, अनुभव ओ चिंतनक जे ओ संन्यासी बनत से मात्र भिक्षाटन द्वारा समाजक भारे बनत।
एहि सब बातक अनुमान, अनुभवप्राप्त वैदिक व्यवस्थापक आचार्यलोकनिकेँ छलनि तेँ एहि उपनिषद सबसँ बहुत पूर्वे शुक्लयजुर्वेदमे निष्कामकर्म केर अवधारणा प्रस्तुत कयल गेल छल आ सड.हि स्वर्ग केर कल्पना कयल गेल। एहिसँ पूर्व ऋग्वैदिक युगमे यमलोक केर कल्पना मात्र छल, स्वर्गक कल्पना नहि छल।
शुक्ल यजुर्वेद अपन निष्काम कर्मक सिद्धांतक प्रतिपादन उत्पादन कार्यकेँ प्रोत्साहिते करबाक लेल कयने छल। किन्तु ज्ञानकांडक ओहि युगमे संन्यासक प्रवृति जोर पकड़ने जा रहल छल जे उत्पादनकेँ बाधित क• रहल छल। दोसर दिस वैदिक परिव्राजक जे संन्यासी रूपमे घुमैत छल ओ लोकऋणक आधार पर विभिन्न गुरूकुलमे जाकेँ अथवा सामाजिक जीवनमे जाकेँ षिक्षा अथवा आचार विचारक बात बुझबैत सुझबैत रहैत छल। ओ स्वयं ब्रह्राचर्य जीवनमे विधा तथा गृहस्थाश्रमक अनुभव प्राप्त कयने रहैत छल। एकर भिन्न, उपनिषदीय संन्यासी एहि दूनू जीवनकेँ बहिष्कार क• षिक्षा तथा अनुभवसँ वंचित रहि जाइत छल आ मात्र भिक्षाटन एवं सत्संगक आधार पर मोक्षक मार्ग प्रदर्षन करैत छल। एहिसँ सामाजिक उत्पादन, दैनिक जीवनक कर्मण्यताक उत्साह तथा षिक्षाक प्रसार पर भयानक कुपरिणाम पडि़ रहल छल तथा पड़बाक सम्भावना छल।
तेसर दिस, नारी समाज एवं वैष्य अपन व्यस्तताक कारणे उपनयन तथा षिक्षा छोडि़ रहल छल, छोडने चल जा रहल छल। तत्कालिक दैनिक जीवनमे ओकरा लेल एकर प्रयोजने नहि रहल छल। उत्तर वैदिक कालमे, आर्य प्रसार तथा नवीन क्षेत्रक असितत्वक कारणे (राजन्य वर्ग) क्षत्रियमे शासन व्यवस्थापनक व्यस्तता बहुत बढि़ गेल छल। तेँ अति संक्षिप्त काल लेल ब्राह्राणे टा जकरा लेल कृषि एवं सम्पति अर्जन वर्जित क• देल गेल छल आ जे श्रुति रक्षाकेँ एकमात्र अपन धर्म मानि रहत छल, षिक्षााजगतसँ निष्ठा तथा नियमपूर्वक सम्बद्ध रहल।
आश्रमव्यवस्था एही सामाजिक चिंताक परिणाम छल जकरा ब्राह्राणलोकनि कठोरतासँ कार्यानिवत करबाक चेष्टा केलनि तथा राजाकेँ एकर व्यवसिथत कार्यान्वयनक प्रेरणा देलनि। सड.हि एकटा नवीन आश्रमक व्यवस्था केलनि, संन्यास आश्रमक।
समाजमे जे वस्तु आबि जाइत अछि तथा बद्धमूल भ• जाइत अछि, तखने ओकरा साहित्यमे स्थान भेटैत अछि। जावालोपनिषद सेहो एक प्रकारक साहित्ये थिकै जे परवर्ती उपनिषद थिक तेँ एहिमे सर्वप्रथम व्यवसिथत रूपमे वर्णाश्रम व्यवस्थापक प्रतिपादन देखैत छी। सम्भव र्इ. पूर्व 1000 र्इ. पूर्वक बीच आश्रम व्यवस्था पूर्णरूपेण असितत्वमे गेल छेल।
आब एहि आश्रम व्यवस्थामे-षतंजीवक केर आधार पर जीवनकेँ चारि भागमे बाँटि देल गेल। सर्वप्रथम 25 वर्षक ब्रह्राचर्य जीवन जाहिमे अण्ययन दोसर, 25 वर्षक गृहस्थाश्रम जाहिमे काम भावना तथा अनुभव तेसर, 25 वर्षक वानप्रस्थ जाहिमे संतानकेँ अपना सोझाँमे जीवन निर्देषन तथा अनुभवक पर तत्व चिंतन आ अंतमे 25 वर्षक संन्यास जीवनमे अध्ययन, अनुभव एवं चितंनक आधार पर समाजकेँ षिक्षा प्रदान।
एहि प्रकारेँ अपन चारू ऋणक पूर्ति तथा चारू पुरूषर्थकेँ प्राप्त करबाक लेल सामाजिक जीवनकेँ बानिह देल गेल। वर्णाश्रम व्यवसाि आहियुगक संक्रांति कालीन समाजक लेल ततेक आवष्यक मानल गेल जकरा समाज स्वीकारेटा नहि केलक अपितु ओकर दृढ़तापूर्वक पालनो बहुतदिन धरि करैत रहल। वस्तुत: भारतीय समाजक समस्त व्यापकता तथा सम्पूर्ण स्वयस्था एही वर्णाश्रम धर्मक सुपरिणाम थिक जाहिसँ भारतीय समाज आइयो अपन ठोस मान्यता ओ आदर्षक धरातल पर ठाढ़ अछि आ जे विष्वक लेल आष्चर्यजनक वस्तु मानल जाइत अछि।
इै बात भिन्न थिक जे कालांतरमे मात्र ब्राह्राणे समाज टा अपेक्षाकृत अधिक तत्परता, निष्ठा एवं दृढ़तासँ एकर पाल करैत रहल किन्तु समाजकेँ यैह वस्तु युगयुगान्त धरि प्रेरणा दैत रहल। आ तेँ एही गुणक कारणे ब्राह्राण, समाजमे अपन सर्वोच्चता स्थापित क• सकल तथा अर्थववेदक भूदेव संज्ञाकेँ सार्थकता द• सकल।
प्रयोजनानुसार आश्रमक अवधिमे परिवर्तन सम्भव छल जे समाजक प्रगतिषलतेक परिचायक थिक।
यैह भैल भारतीय समाजक 'चतुर पंच'।
वर्ण व्यवस्था : ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैष्य आ शूद्र, कत्र्तव्य रूप : पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण आ लोकऋण, पुरूषार्थ : धर्म, अर्थ, काम आ मोक्ष, आचरण : त्याग, दान, दया आ सेवाभाव, आश्रम : ब्रह्राचर्य, गृहस्थ, वान आ संन्यास।
येह 'चतुर पंच' थिक भारतीय मनीषका अतुलनीय दान, जाहि पर भारतीय समाज आइयो संगठित, समनिवत, मर्यादित एवं संतुलित अछि यधपि बिहाडि़ अनेक बहल अछि।
साम्प्रतिक भारतीय समाजमे जे भौतिकताक बिहाडि़क कारणे अराजकता तथा वैयकितकताक कारणे अषुभ असंतुलन अछि तकरा मूलमे एही चतुर पंचक अभाव अछि। निषिचत एकर सब मान्यता वर्तमान जीवनक अनुकूल नहि अछि किन्तु एहिमे मानवीय निष्ठाक जे इतिहास अछि निरंतर बनल रहत।