राजकमल चौधरी की मैथिली कविताएं : गांव के बारे में अनुवाद–तारानन्द वियोगी
अपने ही बगीचे में लगे
पेड-पौधे, फूल-पात पहचानता नहीं
जानता नहीं हूं वृक्षों के, लोगों के नाम
इतने दिन इस गांव में आए हो गए
मन जैसे काला-कलूटा आईना हुआ
कि इन्हें जानने-पहचानने की चेष्टा करूं
यह सूझा नहीं।
अब भी लगता है कि
इस प्रकृति, इस स्त्री, इस नदी से
अपरिचित ही रह जाऊं इस ग्राम से, धाम से
प्रवासी होने के सारे दुख, सारी वेदनाएं
अकेला मैं ही सह जाऊं, अपरिचित रह जाऊं।
इतने दिन इस गांव में
आए हो गए
लेकिन, परिचित नहीं हुआ त्रिकाल के
इस अंधकार में;
अपना ही घर-आंगन।
अपने ही घर-आंगन में पुकारता हूं
बस अपना ही नाम
प्रवासी,नगरवासी हूं–यह उलाहना
देता है मुझे अपना ही गांव
अपना ही गांव।
पेड-पौधे, फूल-पात पहचानता नहीं
जानता नहीं हूं वृक्षों के, लोगों के नाम
इतने दिन इस गांव में आए हो गए
मन जैसे काला-कलूटा आईना हुआ
कि इन्हें जानने-पहचानने की चेष्टा करूं
यह सूझा नहीं।
अब भी लगता है कि
इस प्रकृति, इस स्त्री, इस नदी से
अपरिचित ही रह जाऊं इस ग्राम से, धाम से
प्रवासी होने के सारे दुख, सारी वेदनाएं
अकेला मैं ही सह जाऊं, अपरिचित रह जाऊं।
इतने दिन इस गांव में
आए हो गए
लेकिन, परिचित नहीं हुआ त्रिकाल के
इस अंधकार में;
अपना ही घर-आंगन।
अपने ही घर-आंगन में पुकारता हूं
बस अपना ही नाम
प्रवासी,नगरवासी हूं–यह उलाहना
देता है मुझे अपना ही गांव
अपना ही गांव।