प्रथम मंडल
प्रथम मण्डल 'श्रुतं किमपि व्यस्ये'
(किछ सुनलहुँ सखि?)
गृहमे प्रवेश करिते, ऋषि काक्षसेनी पुत्री ॠजिश्वा प्रश्न कलयक आ आबिके शाश्वती लग आसन्दी (चौकी) पर बैसि गेलि l बैसि गेलि सटिक l
महर्षि ऋतुर्वित -पुत्री शाश्वती , अन्यमनस्क भावसँ, गवाक्षसँ प्रवहमान सरस्वती दिस ताकि रहलि छलि l ताकिते जा रहल छलि ।
चौंकलि l अपन असम्वृत अधोवस्त्रकें व्यवस्थित केलक l घूमलि आ प्रशनवाचक दृष्टिसँ तकलक l
ऋजिशवाक वर्ण क्षीर जकाँ उज्जवल नहि अपितु गोधूम (गहूम) जकाँ रक्तिम छैक l नासाग्र तीक्ष्ण , किन्तु नेत्रनील नहि , श्यामल l आकार किछु छोट, किन्तु प्रकार विस्तृत, मांसल l कांतिमान मुखमंडल l पैरमे नुपुर, कटि पर अधोचर्म l नागवेणी l कुण्डल l बाजूबन्द l
शाश्वती लेल ई सभ परिचित अछि l अपरिचित लागल ऋजिशवाक मुखमंडल l मुखमंडल पर सांध्यकालीन आकाशक उदासीनता आ कौतुहलिन शून्य दृष्टि l पुछलक-'अर्थात ? स्पष्ट कुरु !'
-'वीतिहोत्र प्रसंग ?'
-' एतब तँ सुनलहूँ जे जन-समिति अपन अंतिम निर्णयक द्वारा हुनका राज्यच्युत के देलक…. ।'
-'ई तँ निर्णयक मात्र एकटा अंश थिक।'
-'दोसर अंश की थिक ? यैह ने जे समिति, दोसर राजाक निर्वाचन करत ?'
-'एहन तँ नियमे छैक स्व्भाविके।'
-'तँ अस्वभाविक की भेलै ? कहू ने ? अहाँ तँ कूट-मंत्र रचे लगलहुँ !'
शाशवती पुछलक आ प्रशनवाचक दृष्टिसँ ताके लागलि।
-'जन-समिति'-ऋजिश्वा उत्तर देलक-'जन सभाक इच्छा पर वितिहोत्रकें निर्वासनक व्यवस्था दे देलक ।'-'निर्वासन ?' शास्वती चौंकि उठलि ।
-'वीतिहोत्र निष्क्रमणो केँ गेलाह….'
-'ऐं ! निष्क्रमण ? ई तँ नहि सुनलहुँ ?'
शाश्वती चकित रहि गेलि । लागल, जेन सरस्वती अकस्मात सुख गेल हो । लागल, जेना ब्रह्मचारी बटुकलोकनि मन्त्र-अभ्यास छोड़ी देने हो। लागल, जेना आबसँ धेनुसभ दूध देब बंद कें देत ।
-'आइये, प्रातःकाल, उषापूर्वे ।'
-कतय गेलाह? कोन दिशामे ?
-'सरस्वती पार कें गेलाह,दक्षिण,दृषद्वति दिस गेलाह अछि , मुदा कतय गेलाह, ई तँ ककरो कहलनि नहि …। '
आ एतबा कहैत ऋजिश्वाक आँखि झरझरा गेलनि । लागल जेन कोनो अवरोध छल जे टूटि गेल ।
शाश्वती स्तब्ध रहि गेलि, निष्क्रमणक समाचार सुनी कें । स्तब्ध रहि गेलि , ऋजिश्वाक अश्रुपूरित मुखमंडल देखि के । ओहो विलगित भ' गेलि,अश्रुपूरित । ऋजिश्वा तकलक शाश्वती दिस । ओकरा कोनो सहोदरा नहि छै। जँ रहबो करितैक तँ शाश्वतीसँ अधिक महत्वपूर्ण नहि होइते ।
शाश्वतीक एहन विलगित रूप, एहिसँ पूर्व ओ कहियो देखने नहि अछि ।
जहिया कहियो देखने छलि शरदक आकाश जकाँ भव्य । धेनु दुग्ध जकाँ निर्मल । सविता जकाँ सौम्य, वैश्वानर जकाँ दिव्य-उर्जस्वल ।
ऋजिश्वा कोनो अकिस्मातमे पकड़ी लेलक ओकरा । दुनु-दुनुकें पकड़ी लेलक दुनु एक दोसरामे आबद्ध भS गेलि । एकाकार । नीरब। दुनू एक दोसराकें जेन बिसरी गेलि । बहुत कालधरी सरल रहलि । कि बाधा पड़ल ।
-'भगवती शास्वती '
ता दुटा अन्तेवासी ब्रह्मचारी बटुक द्वार पर प्रकट भेल। दुनु एही दुनुकें एहन अस्वाभाविक असम्वृत स्थितिमे देखि, चकित रही गेल । घूरि सकैत छल , मुदा महर्षि आदेश-पालन बाधा छल |
दुनु अपन अधिवासक वस्त्र्खंड आ मृगचर्मकें ठीक करय लागलि । ऋजिश्वा पुछलक-'सकुन्द' कुशल अछि ने?'
-'भगवतीक अनुकम्पा अछि ... महर्षिक सांध्य-यज्ञक लेल गृहाग्नि आनबाक आज्ञा अछि ...किन्तु!'
-'किन्तु'
-संभव समिधा-प्रदानक असावधानीक कारणे देव वैश्वानर मालिन भ' गेलाह अछि ...।'
बटुक सुकुन्द उत्तर द' अपन माथ झुका लेलक । झुका लेलक एही लेल जे गृहाग्निमे निरंतर समिधा देबाक कार्य भगवती शाश्वतीक अछि, जाहिमे शिथिलता आबि गेल छलै आ तकरे संकेत करें पड़ल रहै,अपनासँ श्रेष्ठक दोषकें संकेत करें पड़ल छलै सहसा ।
सहसा ऋजिश्वोक दृष्टि अग्निकुण्ड दिस गेल ।
ता शाश्वती ओतय पहुँचिकें पातर-पातर समिधा दें, मृग-चर्मसँ वायु कें सुनगाबौमे लागि गेल छलि ।
प्रतिकुलमे गार्हपत्य-अग्नि रखबाक नियम अछि । एही लेल आंगनमे एकटा गृह अलगे होइत अछि । यैह गृह अछि शाश्वतिक । आ निरंतर ओकरा प्रज्ज्वलित रखबाक कार्य ओकरे अछि । यैह गृहमेधाग्नि समस्त गृहकर्माणिक मूल थिक । गृहाग्निक मलिन भें जायब अशुभ मानल जाइत अछि ।
-'ब्रह्मचारी सकुन्द ?' ऋजिश्वा अपन मृगचर्म कटिमे बन्हैत बाजलि ।
-'आज्ञा भगवती !'दुनु ब्रह्मचारी ऋजिश्वा दिस ताक' लागल। भगवती शाश्वती जकाँ ऋजिश्वा सेहो मंत्र-दर्शन करैत अछि, ई बात सभकें ज्ञात अछि । सुकुन्दकें सेहो। आ ताहि स्थितिमे, सब मंत्र-द्रष्टाकें कहल जाइत अछि भगवती ।
-'अहाँ दुनु नित्य श्रुति-अभ्यास करैत छी ?'
-'निश्चय भगवती, ई तँ अहाँ देखिते छी ।'
-'एखन अहाँ दुनुकें सांध्य-यज्ञक लेल गृहाग्नि अनबाक आज्ञा अछि।'
-'अछि भगवती।'
-'आरो कोनो आज्ञा भेटल अछि ?' ऋजिश्वा पुछलक
-नहि तँ ...? ता शाश्वतिक कार्य पूर्ण भ' गेल छल । बाजलि -'ऋजिश्वा ! आश्रमक ब्रह्म्चारिक संग अनपेक्षित वार्ता करबाक प्रथा नहि अछि , ज्ञात अछि ने ?'-'ज्ञात अछि शाश्वती ...।'-तँ आज्ञा हो भगवती, सांध्य-यज्ञक समय निकट आयल जइत अछि ।' सुकुन्द नियमानुसार जयबाक आज्ञा लेलक आ गृहाग्नि ल' क' जाय लागल।
-'आज्ञा अछि - ऋजिश्वा कहलक -आ महर्षिके ज्ञात हो जे हमसब सांध्यकृत्यक लेल आबि रहल छी ।
दुनू पुनः गंभीर भ' गलि ।
-'जे आज्ञा भगवती ।
आ दुनू विदा भS गेल ।
शाश्वती गृहसँ बहराकें एकटा कम्बल ल' आनलि आ ऋजिश्वाक देह पर राखि देलक ।
-'एकर की प्रायोजन छल ? हम शीघ्र घुरबो करब… ।'
-'भS सकैत अछि अहाँके घुरबामे किछु विलम्ब भ' जाय।'
-'विलम्ब ? कियैक ?'
-'एक तँ वार्ता शेष रही गेल…'
-'ओ तँ कइये लेब।'
-'एकरा अतिरिक्त'-शाश्वती कहलक -जननी किंचित यवागु (भूजल जौ ) ल' क' आबि रहलि छथि, फेर सांध्यकृत्य आ एकता घटना आरो घटबाक सम्भावना अछि .... भ' सकैत अछि रात्रि-विश्राम एतहि कराय पड़त ।'
-एही बीच हमर गृह सेहो चलय पड़त अहाँके।'
-'विशेष प्रयोजन ?'
-'विशेष नहि,मात्र सामान्य प्रयोजन ।'
-'अर्थात ?'-शाश्वती पुछलक
-'सोमाश्व मंत्राक्ष एकटा निष्कग्रीव कतहुँसँ ल' अनलनि अछि ...।
-एकटा ल' अनलनि अछि तँ अहाँ धारण करु।
-'हम नहि अहाँ धारण करब ।'
अनलनि अछि अहाँ लेल आ धारण करी हम, ई केहन बात थिक ?'
-'हमरा लेल नहि,अहाँ लेल अनलान अछि ।' -'हमरा लेल ? शाश्वती चौंकलि-निष्कग्रीव आ मंत्राक्ष? ओ तँ अहीं लेल आनि सकैत छलाह ? अनबो कयने हेताह ?'-'अनने छथि । एक हमरा लेल आ दोसर अहुंक लेल ।
रिजिश्वा बाजलि ।
ता कदलि-डम्फ-पात्रमे यवागु ल' क' वृद्धा जनानी अयलीह । जल ल' क' गृहदासी रुलिक आयलि । ऋजिश्वा उठिक' प्रणिपात आ यवागू-पात्र ल' क' पुनः आसंदी पर बैसि गेल । बाजलि-'अबैत काल देखलहुँ नहि जननी ?'
-काल्हिसँ महिर्षि अग्निष्टोम-यज्ञ प्रारंभ क' रहल छथि ने ! ताहिमे, बाहर पर्णकुटीमे वयस्त छलहुँ !'
-'ओह ! अग्निष्टोम यज्ञ ? तखन तँ पाँच दिन व्यस्तता बहुत बढि जायत अहाँक । '
-'ओ तँ रहिते अछि, कोनो ने कोनो विशेष यज्ञ तँ महिर्षि करिते रहैत छथि, ई तँ हुनक स्वभाव सर्वविदित अछि-ए । किन्तु एहिवेर एहि अग्निष्टोम यज्ञक किछु आरो विशेष महत्व अछि, अतः किछु विशेष रुपें होयत ।'-'अर्थात ?' ऋजिश्वा चकित भावसँ पुछलक ।
-'किछु दिन पूर्व वत्स मंत्राक्ष वितस्ता दिस गेल छलाह ।'
-'गेल छलाह, सुदूर पश्चिमोतर सुवास्तु तट धरि गेल छलाह ।'
-'तँ ओहि क्रममे, ओम्हरुका, किछु ऋषि लोकनि संकेत देने रहनि जे पौष पुर्णिमाक दिन ओ सभ सरस्वती दर्शन लेल आवि सकेंत छथि, ओ लोकनि कोनो क्षण पाधारि सकैत छथि । एहि लेल आजुक पौर्णमास यज्ञ सेहो किछु'विस्तृत रुपमे होयत आ काल्हिसँ अग्निष्टोम यज्ञ सेहो ...। '
-'एकर चर्चा ऋषि-ग्राममे खूब होइत अछि, लोक सब महर्षिक बहुत प्रशंसा करैत रहैत अछि ...एहि वेर तँ ऋजिश्वा प्रसन्न भावसँ बाजलि-'एकटा चर्चा आरो अछि जननी ?'
-'से की ?' वृद्धा जननी पुछलनि ।
-'लोक सभक कहव अछि जे एहिवेर महर्षिकें धरित्री प्रसन्न भ' क' बहुत रास अत्र देने छथि, आ चर्चा तँ इहो अछि जे एहिवेर जौसँ बेसी गोधुम भेल अछि ।' -'ई सब वरुणदेवक कृपा थिक' -जननी ऊपर दिस अंजलिबद्ध होइत बाजली-'विगत वर्ष जे राजन दिससँ धेनु, वृषभ आ दस-दासी दानमे देल गेल छल, ओहिसँ एतेक कृषि संभव भ' सकल अछि।'
-'ऋषिग्राममे एकरो चर्चा अछि, महर्षिकें राजनक पौरोहित्यसँ बहुत लाभ भेलनि अछि।'
-'निशचय। दानक चर्चा आ प्रशंसा हेबाके चाही।' -बाजिक' जननी शाशवती दिस धूमली-'आइ दिनमे अहाँ बहुत सुतलहहुँ शाशवती! हम अनेक बेर देखि गेल रही।'
-'हँ जननी! आइ पौर्णमासक अनाध्याय छल ने...बहुत सूति रहलहुँ...। कोनो आज्ञा?
-'महर्षिगण कखनो आबि संकेत छथि, सतर्क तँ रहबाके छैक।
शाशवती माथ हिला देलक।
जननी चलि गेलि।
दुनू यवागू फाँक' लागलि।
-'कहलहुँ निसि, वीतिहोत्रकें जाइत के देखलक?' शाशवती पुचलक।
-'हमर एकटा दास-पुत्र, नाविक सेहो पाछाँ कहलक, वैह
सरस्वती पार करैने छल।'
-'पार केलाक बाद कोम्हर गेलाह? पूब दिस वा पश्चिम दिस? या दक्षिण दृषद्वती दिस?'
-'यैह क्यो नशि कहि रहल अछि। उषा पूर्वक समय छल, अतः क्यो नशि जानि सकल।'
-'गंत्वयक जिज्ञासा नशि कलयक ओ सभ?'
बिसरी गेलहुँ? अनास शिशनदेवाः कें जिज्ञासाक अनुमति तँ नशि अछि ने।'
-'ओह! बिसरिए गेल छलहुँ। तखन?'
-'हमर अनुमान अछि जे ओ दृषद्वती दिस गेलाह अछि।'
-'अनुमानक आधार?'
-'ओह! तँ-कर्मान्त अछि ने राजाक बहुत पूर्वासँ?
-'कर्मान्त तँ शतुद्रि दिस सेसो अछि। फेर उत्तर जयवाक अपेक्ष, दक्षिण दिस कियैक गेलाह, जखन कि सुनि रहल छ।, दक्षिणमे कृषण (कारी) सभक उपद्रव बहुत बढि गेल अछि।'-'बढि गेल अछि, किन्तु दृषद्वतिक पार यमुनाक दिशामे।'
-'हुनक कोन निश्चय? कतहु ओम्हरे ने बढि जाथि?'
-'यैह चिन्ताक बात थिक ने।'
-'की कयल जाय?' शाश्वती पुछलक |
-'हमरा तँ लागैत अछि जे ककरो पठाओल जाय ई देखबाक लेल कि ओ कोम्हर गेलाह अछि, कतय छथि? आ दक्षिण नहि जयबाक संकेत द' देल जाइनि।'
-'राजकुमार असंग की क' रहल छथि?'
-'असंग तँ आरोअनेक समस्यामे पडि गेल छथि। मानलहुँ जे ओहो पता लगबथि, किन्तु ओ जखन लगबथि, ओकर बात ओ जानय, हमरा सभकें तँ शीघ्र समाचार चाही।' ऋजिश्वा चिंतित भावसँ बाजली।
-'तँ की सोचलहुँ?'
-'अहाँ जँ चाही तँ अहाँक कहला पर एक व्यक्ति जा सकैत अछि...।'
-'के?' शाश्वती पुछलक।
-'सोमशव मंत्राक्ष।'
-'किन्तु ओ छथि कतय? एम्हर तँ पवन थिकाह, कखन कतय रहताह, कहब कठिन अछि।'
कि सकुन्द पुनः आबि गेल।
-'भगवती! अतिथिगन आबि गेलाह अछि।'
-'हँ भगवती। आ ओ सभ तुरत चलि गेलाह सरस्वती मे पूर्णमास स्नान करबाक लेल। ओ सभ शीघ्रहि घुरताह। आ हुनका सभक घुरिते सांध्य- यज्ञ प्रारम्भ भ' जायत। समिधा पर्याप्त आबि गेल अछि।'
-'ई सूचना-व्यवस्था-ऋजिश्वा विहुँसि क' पुछलक-महर्षि दिससँ अछि अथवा स्वतः प्रेरित।'
-'स्वतः प्रेरित भगवती।'
-'ई स्वतः प्रेरणा कोनो विशेष प्रयोजन सँ अथवा सात्रिध्य-लैभ सँ?'
सकुन्द किंचित संकुचित भेल। ओकर गोर आकृति आरक्त भ' उठल। बाजल-'श्रेष्ठ जनक सात्रिध्य-लोभ तँ श्रेयष्कर अछिए' भगवती, किन्तु सम्प्रति यज्ञवेदीक निकट अतिव्यस्तता देखिक, सूचना-प्रेषण अति आवश्यक लागल।'
-'कोनो अन्य सूचना?'
किन्तु बीचेमे शाश्वती बाजी उठली-'ऋजिश्वा, अहाँ अपन रसिकताक आवेशमे परिहासक मर्यादाकें बिसरी जाइत छी।'
सकुन्द मुख घुमा लेलक। श्रेष्ठजनक निन्दा प्रत्यक्षतः सुनब अपराध थिक।
-'की करी व्यवस्था, यैह तँ हमर स्वभाव थिक।'
-'कोनो अन्य सूचना सकुन्द?'
-'अछि भगवती।'
-'की'
-'ऋषिपुत्र सोमाश्व मंत्राक्ष आइयो एकटा अदभुत सुखद चमत्कार कयलनि अछि।'
-'मंत्राक्ष? कतय छथि ओ?'
दुनू चौंकि गेलि। संगहि पूछि वैसलि। दुनू एक-दोसराके कूटदृष्टिसँ देखलक।
सकुन्दकें किछु अर्थ नसि लागलै। मात्र सहज उत्सुकता मानि लेलक। बाजल -'छथि नसि, छलाह।'
-'अर्थात? कतय गेलाह?'
-'राज-हमर्य दिस गेलाह अछि, महर्षि आगमनक सूचना देबाक लेल।'
-'घूरताह ने।'
-'ई तँ ज्ञात नसि अछि, ऋषि-पुत्रकें जानि लेब सहज नसि अछि, तेयो अनुमानतः घुरबे करताह।'
-'आयल कखन छलाह?'
-'महर्षिगणक असगामनक पश्चाते आ सामग्री द' क' शीघ्रहि घूरि गेलाह।'
-'सामग्री?'
-'यैह तँ चमत्कार थिक।'
-'की?'
-'जतेक ऋषि-महर्षिगण आयल छथि, सभक लेल एक-एक अति विलक्षण कम्बल अनलसि अछि, आ ओहो श्वेत कम्बल... एकटा कुलपति महर्षिक लेल सेहो...। ओना कम्बलकें देखि सभ अतिथि बहुत प्रसन्न भेलाह।
चरम संतुष्ट भ' क' स्नान करबाक लेल चलि गेलाह । हमरा सभक नृयज्ञक प्रथम चरण अति सार्थक रहल ।'-'कतेक अतिथि छथि ?'
-'सप्तर्षि भगवती ।' सुकुंद किंचित बिहुँसल ।
-'शुभ अछि , जाउ -शास्वती कहलक -आखेटसँ लोक सब घूरल ?'
-'नहि भगवती ।'
-'जाउ , व्यवस्था देखू, हमहुँ सभ अन्य व्यवस्था देखिकS आबि रहल छि ।
सुकुंद चलि गेल
शाश्वती जल पीबि क' उठैत बाजलि 'चलु आब अहाँक संभव नहि रहल । आय रात्रि संगहि सुतब,बहुत रास गप करबाक अछि । दुनु गृहाग्नी गृह सँ बाहारयलीह। सूर्यास्त भ'रहल छल । आँगन-गृहक चारसँ रौद भागल जा रहल छल । आँगनमें चारुकातसँ गृह अछि । ऋषि ग्राममें ई सौभाग्य आ ऐश्वर्यक प्रतीक मानल जाइत अछि । महर्षि ऋतुर्वितक कुल संयुक्त अछि । अनेक सदस्य छथि । भरल-पुरल आँगन-घर ।
आँगनक दक्षिणमे किछुए दूर पर सरस्वती नदी अछि । पश्चिममे,पाछामें गोशाल । पूर्वमे ,क्रमशः ऋषि महर्षिगणक गृह छनि, क्रम पूर्व चलि गेल अछि, काते-कात ।उत्तर उत्तरमे ,आँगन सँ बहरायल पर अछि यज्ञ-कुटी |ओहि यज्ञ-कुटीमे नृयज्ञक अतिथि सभक निवास होइत अछि जा स्वयं कुलपति महर्षि ऋतुर्वितक वास सेहो |
सबटा गृह बाँस आ काष्ठक अछि तृणगाच्छादित । चारुकात भ' क' चारुकात बाट अछि । एहि समय शश्वस्तिक अग्रज कालस्वन जे किछु दासक संग आखेटमे गेल छलाह किछु मृत पशुकें ल' क' आबैत गेलाह ।
शाश्वती आ ऋजिश्वा जाबत यज्ञ-कुटीमे पहुँचली,ताबत सांध्य-यज्ञ प्रारम्भ भ' गेल छल । आगत ऋषि-महर्षिगण श्वेत कम्बल ओढने अपन-अपन आसन पर विराजमान छलाह । यज्ञ-कुण्ड सँ भगवान वैश्वानर उर्ध्वमुख भ' क' यज्ञ-वेदीमे बैसल लोकसभकें रक्तिम आशीष प्रदान क' रहल छलाह । यज्ञ वेदी सँ धूम्र-रेख उठि क' भगवान सोमक स्वागतमे अंतरिक्ष दिस क्रमशः उठल जाइत छल ।
चारुकात संध्या-तिमिर आ सोम-प्रकाशक संघर्ष चलि रहल छल आ क्रमशः प्रकाशक जय होइत जाइत छल । होता आ उद्गातक मंत्रोच्चार सँ वातावरण मुखरित भ' रहल छल । स्वयं महर्षि ऋतुर्वित आइ अध्वर्युक आसन पर बैसल छथि । आगत महर्षिगण में सँ एकटा ब्रह्माक आसन पर छथि । किछु उद्गाता छथि, किछु होता । होतावर्ग में स्थानीय ऋषि सेहो छथि । ऋषि-ग्रामक अन्य नर-नारी शेष दू दिशासँ यज्ञवेदीकें घेरी क' बैसल छथि । अग्निकुण्ड प्रकाशसँ रहि-राहिक' सभक मुखमंडल आलोकित भ' उठैत अछि ।
शाश्वती आ ऋजिश्वा दुनु बैसि गेलि ।
अध्वर्युक यज्ञक्रिया चलि रहल छल :
'इदम अग्नये,इदं सोमाय,इदं न मम्
अग्न्येत्वा ,इन्द्रयेत्वा,इदमग्नेय स्वाहा ,
इन्द्राय स्वाहा ।'उद्गातालोकनिक स्तुति चलि रहल छल :'हे अग्नि
अहीं इंद्र ,वृषभ,उरुगाय विष्णु थिकहुँ
अहीं ब्रह्मा आ वृहस्पति थिकहुँ
अहाँ राज वरुण, उरुगाय विष्णु थिकहुँ
अहीं राजा वरुण,मित्र,अर्चना,पूषण,रूद्र ,मरुत आ सविता थिकहुँ ।
हे अग्नि
अहीं शरीरक रक्षक थिकहुँ हमर रक्षा करो
जीवनदाता थिकहुँ जीवन दी
शक्तिमय थिकहूँ
हमर अपूर्णताकें पूर्ण करू
पूर्णाहुति सँ पूर्व नियमानुसार शाश्वती आ ऋजिश्वा समिधा ओरदान्न कयलक ।
अग्निर्ज्योती ज्योतिरग्नि श्वहा ।
मेष-बलि कृत्य संपन्न भ' गेल छलैक । हुनका सन पाकशास्त्री एहि कुरु जनपदमे क्यों दोसर नहि । एहन अवसर पर जाधरि ओ पाकशाला नाहि पहुँचता ताधरि प्रिषद (भोज्य पदार्थ) स्वादिष्ट नहि होयत -ई सर्वमान्य धारण अछि ।
तें हुनका पूर्वसूचना द' देल जाइत अछि आ समयनुसार ओ पहुँचियो जाइत छथि । मात्र पाकशाला सभटा ब्रह्मचारी बटुकगण ,जारानि आन' बला दासगण आ अन्य ऋषिक सहायक सभकें ई ध्यान राखे पड़ैत अछि जे ओ कोनो बात पर असंतुष्ट भ' क' क्रुद्ध नहि भ' जाथि |
क्रुद्ध ओ अति शीघ्र भ' जाइत छथि । आ तखन ओ रुसि जाइत छथि । मुदा रुसि क' अपना पिता जकाँ चलि नहि जाइत छथि पाकशाला सँ ।
ओ पाकशालाक निकटे किछु दूर हँटिक' बैसि जाइत छथि आ मुहँ घुमा क' स्वगत -भाषण करैत रहैत छथि । सुविधा एतबे रहैत अछि जे ओ क्षमायाचनाक पश्चात शीघ्रे मानियो जाइत छथि । ताहुमे ई आवश्यक नहि अछि जे मूल अपराधिए क्षमा-याचना करय।
क्यों क्षमा-याचना क' कोनो क्षण बैंसी क' पुनः पाकशालामें आनि सकैत अछि ।प्रायः इ काज महर्षि ऋतुर्वित-पुत्र कालस्वने करैत छथि । यैह कालस्वन पाकशालामे प्रधान सहायक छथि ।
कालस्वन अल्पभाषी छथि । श्रुति-मंत्रक अतिरिक्त अन्य शब्द हुनक मुख सँ सुनबा लेल लालायित रहैत अछि लोक। कोनो-कोनो पक्ष तँ हुनक मुख सँ कोनो शब्द बहराइते नहि छनि । बस,मौन-भाव सँ अपन काज करबाक अभ्यासे टा हुनकर छनि । कालस्वन सेहो उठलाह आ आ प्रिषद -व्यवस्थामे चलि गेलाह । यज्ञ-बलि तथा आखेट पशुकें मिला क' प्रिषद बनाओत जायत ।
एहिमे विलम्ब होयत । तें महर्षि ऋतुर्वित नृयज्ञ (अतिथि सेवा) क आगत अथितिक लेल दुग्धपानक व्यवस्था क लेने छलाह । ब्रह्मचारी बटुक आगत महर्शिगणकें ताम्र-पात्रमे दुग्ध आनि-आनि पान करा रहल अछि ।
ओहि ताम्र-पात्रकें सभ निहारी रहल छथि । छोट-छोट पात्रक व्यवहार तँ एम्हर होब' लागल छल,किन्तु एतेक पैघ ताम्र -पान-पात्र क्यों नहि देखने छल । महर्षि ऋतुर्वित एही अवसरक लेल राज हर्म्य सँ एकर व्यवस्था कयने छलाह ।
राजा हर्म्यकें ई दास राजा बब्लूथ दिससँ उपहारमें प्राप्त भेल छल ।
राजा बब्लूथ दासकें आर्यलोकनिक प्रति बैर-भाव नहि,अपितु ओ मित्रते चाहैत छथि । हरियूपियापतन आ ओकर विभिन्न नगर सभ उजड़ी गेलाक पश्चात यैह बब्लूथ अनार्य सभक ध्वस्त वाणिज्य-व्यवस्थाकें फेर सँ संगठित कयलनि आ ओकरा बढ़ोलनि । सबसँ अधिक बढोलक वस्त्र आ धातु उद्योगकें । वैह आर्यलोकनिककें वस्त्र-आपूर्ति कयलक तथा धातु-पात्र उपलब्ध करौलक । एहिसँ पूर्व आर्यगण चर्मपात्रक व्यवहार करैत छल । सुवास्तु तटक बाद मृत्तिका पात्रक वव्हार सेहो यदाकदा कर' लागल । परुषनी तटक पश्चात धातु-पात्र पर दृष्टि पड़ल आ आब एहि सरस्वती तट पर ओहि धातु-पात्रक उपयोग सेहो करय लागल। किन्तु सभ नहि । एखनो ताम्र-पान-पात्र दुर्लभ आ विशिष्टलोकनि लेल मर्यादित मानल जाइत अछि ।
-'एतेक दुग्ध ?' एकटा महर्षि हँसलाह ।
-'अपनेक तँ ई अति प्रीय अछि ।' दोसर बजलाह ।
-'प्रिषदो बनि रहल अछि ने ?'
-'उदरों तँ अग्नि-कुण्डे थिक ।'
-'भस्म भS जायत सैह ने ?'
सब हँसलाह ।
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(किछ सुनलहुँ सखि?)
गृहमे प्रवेश करिते, ऋषि काक्षसेनी पुत्री ॠजिश्वा प्रश्न कलयक आ आबिके शाश्वती लग आसन्दी (चौकी) पर बैसि गेलि l बैसि गेलि सटिक l
महर्षि ऋतुर्वित -पुत्री शाश्वती , अन्यमनस्क भावसँ, गवाक्षसँ प्रवहमान सरस्वती दिस ताकि रहलि छलि l ताकिते जा रहल छलि ।
चौंकलि l अपन असम्वृत अधोवस्त्रकें व्यवस्थित केलक l घूमलि आ प्रशनवाचक दृष्टिसँ तकलक l
ऋजिशवाक वर्ण क्षीर जकाँ उज्जवल नहि अपितु गोधूम (गहूम) जकाँ रक्तिम छैक l नासाग्र तीक्ष्ण , किन्तु नेत्रनील नहि , श्यामल l आकार किछु छोट, किन्तु प्रकार विस्तृत, मांसल l कांतिमान मुखमंडल l पैरमे नुपुर, कटि पर अधोचर्म l नागवेणी l कुण्डल l बाजूबन्द l
शाश्वती लेल ई सभ परिचित अछि l अपरिचित लागल ऋजिशवाक मुखमंडल l मुखमंडल पर सांध्यकालीन आकाशक उदासीनता आ कौतुहलिन शून्य दृष्टि l पुछलक-'अर्थात ? स्पष्ट कुरु !'
-'वीतिहोत्र प्रसंग ?'
-' एतब तँ सुनलहूँ जे जन-समिति अपन अंतिम निर्णयक द्वारा हुनका राज्यच्युत के देलक…. ।'
-'ई तँ निर्णयक मात्र एकटा अंश थिक।'
-'दोसर अंश की थिक ? यैह ने जे समिति, दोसर राजाक निर्वाचन करत ?'
-'एहन तँ नियमे छैक स्व्भाविके।'
-'तँ अस्वभाविक की भेलै ? कहू ने ? अहाँ तँ कूट-मंत्र रचे लगलहुँ !'
शाशवती पुछलक आ प्रशनवाचक दृष्टिसँ ताके लागलि।
-'जन-समिति'-ऋजिश्वा उत्तर देलक-'जन सभाक इच्छा पर वितिहोत्रकें निर्वासनक व्यवस्था दे देलक ।'-'निर्वासन ?' शास्वती चौंकि उठलि ।
-'वीतिहोत्र निष्क्रमणो केँ गेलाह….'
-'ऐं ! निष्क्रमण ? ई तँ नहि सुनलहुँ ?'
शाश्वती चकित रहि गेलि । लागल, जेन सरस्वती अकस्मात सुख गेल हो । लागल, जेना ब्रह्मचारी बटुकलोकनि मन्त्र-अभ्यास छोड़ी देने हो। लागल, जेना आबसँ धेनुसभ दूध देब बंद कें देत ।
-'आइये, प्रातःकाल, उषापूर्वे ।'
-कतय गेलाह? कोन दिशामे ?
-'सरस्वती पार कें गेलाह,दक्षिण,दृषद्वति दिस गेलाह अछि , मुदा कतय गेलाह, ई तँ ककरो कहलनि नहि …। '
आ एतबा कहैत ऋजिश्वाक आँखि झरझरा गेलनि । लागल जेन कोनो अवरोध छल जे टूटि गेल ।
शाश्वती स्तब्ध रहि गेलि, निष्क्रमणक समाचार सुनी कें । स्तब्ध रहि गेलि , ऋजिश्वाक अश्रुपूरित मुखमंडल देखि के । ओहो विलगित भ' गेलि,अश्रुपूरित । ऋजिश्वा तकलक शाश्वती दिस । ओकरा कोनो सहोदरा नहि छै। जँ रहबो करितैक तँ शाश्वतीसँ अधिक महत्वपूर्ण नहि होइते ।
शाश्वतीक एहन विलगित रूप, एहिसँ पूर्व ओ कहियो देखने नहि अछि ।
जहिया कहियो देखने छलि शरदक आकाश जकाँ भव्य । धेनु दुग्ध जकाँ निर्मल । सविता जकाँ सौम्य, वैश्वानर जकाँ दिव्य-उर्जस्वल ।
ऋजिश्वा कोनो अकिस्मातमे पकड़ी लेलक ओकरा । दुनु-दुनुकें पकड़ी लेलक दुनु एक दोसरामे आबद्ध भS गेलि । एकाकार । नीरब। दुनू एक दोसराकें जेन बिसरी गेलि । बहुत कालधरी सरल रहलि । कि बाधा पड़ल ।
-'भगवती शास्वती '
ता दुटा अन्तेवासी ब्रह्मचारी बटुक द्वार पर प्रकट भेल। दुनु एही दुनुकें एहन अस्वाभाविक असम्वृत स्थितिमे देखि, चकित रही गेल । घूरि सकैत छल , मुदा महर्षि आदेश-पालन बाधा छल |
दुनु अपन अधिवासक वस्त्र्खंड आ मृगचर्मकें ठीक करय लागलि । ऋजिश्वा पुछलक-'सकुन्द' कुशल अछि ने?'
-'भगवतीक अनुकम्पा अछि ... महर्षिक सांध्य-यज्ञक लेल गृहाग्नि आनबाक आज्ञा अछि ...किन्तु!'
-'किन्तु'
-संभव समिधा-प्रदानक असावधानीक कारणे देव वैश्वानर मालिन भ' गेलाह अछि ...।'
बटुक सुकुन्द उत्तर द' अपन माथ झुका लेलक । झुका लेलक एही लेल जे गृहाग्निमे निरंतर समिधा देबाक कार्य भगवती शाश्वतीक अछि, जाहिमे शिथिलता आबि गेल छलै आ तकरे संकेत करें पड़ल रहै,अपनासँ श्रेष्ठक दोषकें संकेत करें पड़ल छलै सहसा ।
सहसा ऋजिश्वोक दृष्टि अग्निकुण्ड दिस गेल ।
ता शाश्वती ओतय पहुँचिकें पातर-पातर समिधा दें, मृग-चर्मसँ वायु कें सुनगाबौमे लागि गेल छलि ।
प्रतिकुलमे गार्हपत्य-अग्नि रखबाक नियम अछि । एही लेल आंगनमे एकटा गृह अलगे होइत अछि । यैह गृह अछि शाश्वतिक । आ निरंतर ओकरा प्रज्ज्वलित रखबाक कार्य ओकरे अछि । यैह गृहमेधाग्नि समस्त गृहकर्माणिक मूल थिक । गृहाग्निक मलिन भें जायब अशुभ मानल जाइत अछि ।
-'ब्रह्मचारी सकुन्द ?' ऋजिश्वा अपन मृगचर्म कटिमे बन्हैत बाजलि ।
-'आज्ञा भगवती !'दुनु ब्रह्मचारी ऋजिश्वा दिस ताक' लागल। भगवती शाश्वती जकाँ ऋजिश्वा सेहो मंत्र-दर्शन करैत अछि, ई बात सभकें ज्ञात अछि । सुकुन्दकें सेहो। आ ताहि स्थितिमे, सब मंत्र-द्रष्टाकें कहल जाइत अछि भगवती ।
-'अहाँ दुनु नित्य श्रुति-अभ्यास करैत छी ?'
-'निश्चय भगवती, ई तँ अहाँ देखिते छी ।'
-'एखन अहाँ दुनुकें सांध्य-यज्ञक लेल गृहाग्नि अनबाक आज्ञा अछि।'
-'अछि भगवती।'
-'आरो कोनो आज्ञा भेटल अछि ?' ऋजिश्वा पुछलक
-नहि तँ ...? ता शाश्वतिक कार्य पूर्ण भ' गेल छल । बाजलि -'ऋजिश्वा ! आश्रमक ब्रह्म्चारिक संग अनपेक्षित वार्ता करबाक प्रथा नहि अछि , ज्ञात अछि ने ?'-'ज्ञात अछि शाश्वती ...।'-तँ आज्ञा हो भगवती, सांध्य-यज्ञक समय निकट आयल जइत अछि ।' सुकुन्द नियमानुसार जयबाक आज्ञा लेलक आ गृहाग्नि ल' क' जाय लागल।
-'आज्ञा अछि - ऋजिश्वा कहलक -आ महर्षिके ज्ञात हो जे हमसब सांध्यकृत्यक लेल आबि रहल छी ।
दुनू पुनः गंभीर भ' गलि ।
-'जे आज्ञा भगवती ।
आ दुनू विदा भS गेल ।
शाश्वती गृहसँ बहराकें एकटा कम्बल ल' आनलि आ ऋजिश्वाक देह पर राखि देलक ।
-'एकर की प्रायोजन छल ? हम शीघ्र घुरबो करब… ।'
-'भS सकैत अछि अहाँके घुरबामे किछु विलम्ब भ' जाय।'
-'विलम्ब ? कियैक ?'
-'एक तँ वार्ता शेष रही गेल…'
-'ओ तँ कइये लेब।'
-'एकरा अतिरिक्त'-शाश्वती कहलक -जननी किंचित यवागु (भूजल जौ ) ल' क' आबि रहलि छथि, फेर सांध्यकृत्य आ एकता घटना आरो घटबाक सम्भावना अछि .... भ' सकैत अछि रात्रि-विश्राम एतहि कराय पड़त ।'
-एही बीच हमर गृह सेहो चलय पड़त अहाँके।'
-'विशेष प्रयोजन ?'
-'विशेष नहि,मात्र सामान्य प्रयोजन ।'
-'अर्थात ?'-शाश्वती पुछलक
-'सोमाश्व मंत्राक्ष एकटा निष्कग्रीव कतहुँसँ ल' अनलनि अछि ...।
-एकटा ल' अनलनि अछि तँ अहाँ धारण करु।
-'हम नहि अहाँ धारण करब ।'
अनलनि अछि अहाँ लेल आ धारण करी हम, ई केहन बात थिक ?'
-'हमरा लेल नहि,अहाँ लेल अनलान अछि ।' -'हमरा लेल ? शाश्वती चौंकलि-निष्कग्रीव आ मंत्राक्ष? ओ तँ अहीं लेल आनि सकैत छलाह ? अनबो कयने हेताह ?'-'अनने छथि । एक हमरा लेल आ दोसर अहुंक लेल ।
रिजिश्वा बाजलि ।
ता कदलि-डम्फ-पात्रमे यवागु ल' क' वृद्धा जनानी अयलीह । जल ल' क' गृहदासी रुलिक आयलि । ऋजिश्वा उठिक' प्रणिपात आ यवागू-पात्र ल' क' पुनः आसंदी पर बैसि गेल । बाजलि-'अबैत काल देखलहुँ नहि जननी ?'
-काल्हिसँ महिर्षि अग्निष्टोम-यज्ञ प्रारंभ क' रहल छथि ने ! ताहिमे, बाहर पर्णकुटीमे वयस्त छलहुँ !'
-'ओह ! अग्निष्टोम यज्ञ ? तखन तँ पाँच दिन व्यस्तता बहुत बढि जायत अहाँक । '
-'ओ तँ रहिते अछि, कोनो ने कोनो विशेष यज्ञ तँ महिर्षि करिते रहैत छथि, ई तँ हुनक स्वभाव सर्वविदित अछि-ए । किन्तु एहिवेर एहि अग्निष्टोम यज्ञक किछु आरो विशेष महत्व अछि, अतः किछु विशेष रुपें होयत ।'-'अर्थात ?' ऋजिश्वा चकित भावसँ पुछलक ।
-'किछु दिन पूर्व वत्स मंत्राक्ष वितस्ता दिस गेल छलाह ।'
-'गेल छलाह, सुदूर पश्चिमोतर सुवास्तु तट धरि गेल छलाह ।'
-'तँ ओहि क्रममे, ओम्हरुका, किछु ऋषि लोकनि संकेत देने रहनि जे पौष पुर्णिमाक दिन ओ सभ सरस्वती दर्शन लेल आवि सकेंत छथि, ओ लोकनि कोनो क्षण पाधारि सकैत छथि । एहि लेल आजुक पौर्णमास यज्ञ सेहो किछु'विस्तृत रुपमे होयत आ काल्हिसँ अग्निष्टोम यज्ञ सेहो ...। '
-'एकर चर्चा ऋषि-ग्राममे खूब होइत अछि, लोक सब महर्षिक बहुत प्रशंसा करैत रहैत अछि ...एहि वेर तँ ऋजिश्वा प्रसन्न भावसँ बाजलि-'एकटा चर्चा आरो अछि जननी ?'
-'से की ?' वृद्धा जननी पुछलनि ।
-'लोक सभक कहव अछि जे एहिवेर महर्षिकें धरित्री प्रसन्न भ' क' बहुत रास अत्र देने छथि, आ चर्चा तँ इहो अछि जे एहिवेर जौसँ बेसी गोधुम भेल अछि ।' -'ई सब वरुणदेवक कृपा थिक' -जननी ऊपर दिस अंजलिबद्ध होइत बाजली-'विगत वर्ष जे राजन दिससँ धेनु, वृषभ आ दस-दासी दानमे देल गेल छल, ओहिसँ एतेक कृषि संभव भ' सकल अछि।'
-'ऋषिग्राममे एकरो चर्चा अछि, महर्षिकें राजनक पौरोहित्यसँ बहुत लाभ भेलनि अछि।'
-'निशचय। दानक चर्चा आ प्रशंसा हेबाके चाही।' -बाजिक' जननी शाशवती दिस धूमली-'आइ दिनमे अहाँ बहुत सुतलहहुँ शाशवती! हम अनेक बेर देखि गेल रही।'
-'हँ जननी! आइ पौर्णमासक अनाध्याय छल ने...बहुत सूति रहलहुँ...। कोनो आज्ञा?
-'महर्षिगण कखनो आबि संकेत छथि, सतर्क तँ रहबाके छैक।
शाशवती माथ हिला देलक।
जननी चलि गेलि।
दुनू यवागू फाँक' लागलि।
-'कहलहुँ निसि, वीतिहोत्रकें जाइत के देखलक?' शाशवती पुचलक।
-'हमर एकटा दास-पुत्र, नाविक सेहो पाछाँ कहलक, वैह
सरस्वती पार करैने छल।'
-'पार केलाक बाद कोम्हर गेलाह? पूब दिस वा पश्चिम दिस? या दक्षिण दृषद्वती दिस?'
-'यैह क्यो नशि कहि रहल अछि। उषा पूर्वक समय छल, अतः क्यो नशि जानि सकल।'
-'गंत्वयक जिज्ञासा नशि कलयक ओ सभ?'
बिसरी गेलहुँ? अनास शिशनदेवाः कें जिज्ञासाक अनुमति तँ नशि अछि ने।'
-'ओह! बिसरिए गेल छलहुँ। तखन?'
-'हमर अनुमान अछि जे ओ दृषद्वती दिस गेलाह अछि।'
-'अनुमानक आधार?'
-'ओह! तँ-कर्मान्त अछि ने राजाक बहुत पूर्वासँ?
-'कर्मान्त तँ शतुद्रि दिस सेसो अछि। फेर उत्तर जयवाक अपेक्ष, दक्षिण दिस कियैक गेलाह, जखन कि सुनि रहल छ।, दक्षिणमे कृषण (कारी) सभक उपद्रव बहुत बढि गेल अछि।'-'बढि गेल अछि, किन्तु दृषद्वतिक पार यमुनाक दिशामे।'
-'हुनक कोन निश्चय? कतहु ओम्हरे ने बढि जाथि?'
-'यैह चिन्ताक बात थिक ने।'
-'की कयल जाय?' शाश्वती पुछलक |
-'हमरा तँ लागैत अछि जे ककरो पठाओल जाय ई देखबाक लेल कि ओ कोम्हर गेलाह अछि, कतय छथि? आ दक्षिण नहि जयबाक संकेत द' देल जाइनि।'
-'राजकुमार असंग की क' रहल छथि?'
-'असंग तँ आरोअनेक समस्यामे पडि गेल छथि। मानलहुँ जे ओहो पता लगबथि, किन्तु ओ जखन लगबथि, ओकर बात ओ जानय, हमरा सभकें तँ शीघ्र समाचार चाही।' ऋजिश्वा चिंतित भावसँ बाजली।
-'तँ की सोचलहुँ?'
-'अहाँ जँ चाही तँ अहाँक कहला पर एक व्यक्ति जा सकैत अछि...।'
-'के?' शाश्वती पुछलक।
-'सोमशव मंत्राक्ष।'
-'किन्तु ओ छथि कतय? एम्हर तँ पवन थिकाह, कखन कतय रहताह, कहब कठिन अछि।'
कि सकुन्द पुनः आबि गेल।
-'भगवती! अतिथिगन आबि गेलाह अछि।'
-'हँ भगवती। आ ओ सभ तुरत चलि गेलाह सरस्वती मे पूर्णमास स्नान करबाक लेल। ओ सभ शीघ्रहि घुरताह। आ हुनका सभक घुरिते सांध्य- यज्ञ प्रारम्भ भ' जायत। समिधा पर्याप्त आबि गेल अछि।'
-'ई सूचना-व्यवस्था-ऋजिश्वा विहुँसि क' पुछलक-महर्षि दिससँ अछि अथवा स्वतः प्रेरित।'
-'स्वतः प्रेरित भगवती।'
-'ई स्वतः प्रेरणा कोनो विशेष प्रयोजन सँ अथवा सात्रिध्य-लैभ सँ?'
सकुन्द किंचित संकुचित भेल। ओकर गोर आकृति आरक्त भ' उठल। बाजल-'श्रेष्ठ जनक सात्रिध्य-लोभ तँ श्रेयष्कर अछिए' भगवती, किन्तु सम्प्रति यज्ञवेदीक निकट अतिव्यस्तता देखिक, सूचना-प्रेषण अति आवश्यक लागल।'
-'कोनो अन्य सूचना?'
किन्तु बीचेमे शाश्वती बाजी उठली-'ऋजिश्वा, अहाँ अपन रसिकताक आवेशमे परिहासक मर्यादाकें बिसरी जाइत छी।'
सकुन्द मुख घुमा लेलक। श्रेष्ठजनक निन्दा प्रत्यक्षतः सुनब अपराध थिक।
-'की करी व्यवस्था, यैह तँ हमर स्वभाव थिक।'
-'कोनो अन्य सूचना सकुन्द?'
-'अछि भगवती।'
-'की'
-'ऋषिपुत्र सोमाश्व मंत्राक्ष आइयो एकटा अदभुत सुखद चमत्कार कयलनि अछि।'
-'मंत्राक्ष? कतय छथि ओ?'
दुनू चौंकि गेलि। संगहि पूछि वैसलि। दुनू एक-दोसराके कूटदृष्टिसँ देखलक।
सकुन्दकें किछु अर्थ नसि लागलै। मात्र सहज उत्सुकता मानि लेलक। बाजल -'छथि नसि, छलाह।'
-'अर्थात? कतय गेलाह?'
-'राज-हमर्य दिस गेलाह अछि, महर्षि आगमनक सूचना देबाक लेल।'
-'घूरताह ने।'
-'ई तँ ज्ञात नसि अछि, ऋषि-पुत्रकें जानि लेब सहज नसि अछि, तेयो अनुमानतः घुरबे करताह।'
-'आयल कखन छलाह?'
-'महर्षिगणक असगामनक पश्चाते आ सामग्री द' क' शीघ्रहि घूरि गेलाह।'
-'सामग्री?'
-'यैह तँ चमत्कार थिक।'
-'की?'
-'जतेक ऋषि-महर्षिगण आयल छथि, सभक लेल एक-एक अति विलक्षण कम्बल अनलसि अछि, आ ओहो श्वेत कम्बल... एकटा कुलपति महर्षिक लेल सेहो...। ओना कम्बलकें देखि सभ अतिथि बहुत प्रसन्न भेलाह।
चरम संतुष्ट भ' क' स्नान करबाक लेल चलि गेलाह । हमरा सभक नृयज्ञक प्रथम चरण अति सार्थक रहल ।'-'कतेक अतिथि छथि ?'
-'सप्तर्षि भगवती ।' सुकुंद किंचित बिहुँसल ।
-'शुभ अछि , जाउ -शास्वती कहलक -आखेटसँ लोक सब घूरल ?'
-'नहि भगवती ।'
-'जाउ , व्यवस्था देखू, हमहुँ सभ अन्य व्यवस्था देखिकS आबि रहल छि ।
सुकुंद चलि गेल
शाश्वती जल पीबि क' उठैत बाजलि 'चलु आब अहाँक संभव नहि रहल । आय रात्रि संगहि सुतब,बहुत रास गप करबाक अछि । दुनु गृहाग्नी गृह सँ बाहारयलीह। सूर्यास्त भ'रहल छल । आँगन-गृहक चारसँ रौद भागल जा रहल छल । आँगनमें चारुकातसँ गृह अछि । ऋषि ग्राममें ई सौभाग्य आ ऐश्वर्यक प्रतीक मानल जाइत अछि । महर्षि ऋतुर्वितक कुल संयुक्त अछि । अनेक सदस्य छथि । भरल-पुरल आँगन-घर ।
आँगनक दक्षिणमे किछुए दूर पर सरस्वती नदी अछि । पश्चिममे,पाछामें गोशाल । पूर्वमे ,क्रमशः ऋषि महर्षिगणक गृह छनि, क्रम पूर्व चलि गेल अछि, काते-कात ।उत्तर उत्तरमे ,आँगन सँ बहरायल पर अछि यज्ञ-कुटी |ओहि यज्ञ-कुटीमे नृयज्ञक अतिथि सभक निवास होइत अछि जा स्वयं कुलपति महर्षि ऋतुर्वितक वास सेहो |
सबटा गृह बाँस आ काष्ठक अछि तृणगाच्छादित । चारुकात भ' क' चारुकात बाट अछि । एहि समय शश्वस्तिक अग्रज कालस्वन जे किछु दासक संग आखेटमे गेल छलाह किछु मृत पशुकें ल' क' आबैत गेलाह ।
शाश्वती आ ऋजिश्वा जाबत यज्ञ-कुटीमे पहुँचली,ताबत सांध्य-यज्ञ प्रारम्भ भ' गेल छल । आगत ऋषि-महर्षिगण श्वेत कम्बल ओढने अपन-अपन आसन पर विराजमान छलाह । यज्ञ-कुण्ड सँ भगवान वैश्वानर उर्ध्वमुख भ' क' यज्ञ-वेदीमे बैसल लोकसभकें रक्तिम आशीष प्रदान क' रहल छलाह । यज्ञ वेदी सँ धूम्र-रेख उठि क' भगवान सोमक स्वागतमे अंतरिक्ष दिस क्रमशः उठल जाइत छल ।
चारुकात संध्या-तिमिर आ सोम-प्रकाशक संघर्ष चलि रहल छल आ क्रमशः प्रकाशक जय होइत जाइत छल । होता आ उद्गातक मंत्रोच्चार सँ वातावरण मुखरित भ' रहल छल । स्वयं महर्षि ऋतुर्वित आइ अध्वर्युक आसन पर बैसल छथि । आगत महर्षिगण में सँ एकटा ब्रह्माक आसन पर छथि । किछु उद्गाता छथि, किछु होता । होतावर्ग में स्थानीय ऋषि सेहो छथि । ऋषि-ग्रामक अन्य नर-नारी शेष दू दिशासँ यज्ञवेदीकें घेरी क' बैसल छथि । अग्निकुण्ड प्रकाशसँ रहि-राहिक' सभक मुखमंडल आलोकित भ' उठैत अछि ।
शाश्वती आ ऋजिश्वा दुनु बैसि गेलि ।
अध्वर्युक यज्ञक्रिया चलि रहल छल :
'इदम अग्नये,इदं सोमाय,इदं न मम्
अग्न्येत्वा ,इन्द्रयेत्वा,इदमग्नेय स्वाहा ,
इन्द्राय स्वाहा ।'उद्गातालोकनिक स्तुति चलि रहल छल :'हे अग्नि
अहीं इंद्र ,वृषभ,उरुगाय विष्णु थिकहुँ
अहीं ब्रह्मा आ वृहस्पति थिकहुँ
अहाँ राज वरुण, उरुगाय विष्णु थिकहुँ
अहीं राजा वरुण,मित्र,अर्चना,पूषण,रूद्र ,मरुत आ सविता थिकहुँ ।
हे अग्नि
अहीं शरीरक रक्षक थिकहुँ हमर रक्षा करो
जीवनदाता थिकहुँ जीवन दी
शक्तिमय थिकहूँ
हमर अपूर्णताकें पूर्ण करू
पूर्णाहुति सँ पूर्व नियमानुसार शाश्वती आ ऋजिश्वा समिधा ओरदान्न कयलक ।
अग्निर्ज्योती ज्योतिरग्नि श्वहा ।
मेष-बलि कृत्य संपन्न भ' गेल छलैक । हुनका सन पाकशास्त्री एहि कुरु जनपदमे क्यों दोसर नहि । एहन अवसर पर जाधरि ओ पाकशाला नाहि पहुँचता ताधरि प्रिषद (भोज्य पदार्थ) स्वादिष्ट नहि होयत -ई सर्वमान्य धारण अछि ।
तें हुनका पूर्वसूचना द' देल जाइत अछि आ समयनुसार ओ पहुँचियो जाइत छथि । मात्र पाकशाला सभटा ब्रह्मचारी बटुकगण ,जारानि आन' बला दासगण आ अन्य ऋषिक सहायक सभकें ई ध्यान राखे पड़ैत अछि जे ओ कोनो बात पर असंतुष्ट भ' क' क्रुद्ध नहि भ' जाथि |
क्रुद्ध ओ अति शीघ्र भ' जाइत छथि । आ तखन ओ रुसि जाइत छथि । मुदा रुसि क' अपना पिता जकाँ चलि नहि जाइत छथि पाकशाला सँ ।
ओ पाकशालाक निकटे किछु दूर हँटिक' बैसि जाइत छथि आ मुहँ घुमा क' स्वगत -भाषण करैत रहैत छथि । सुविधा एतबे रहैत अछि जे ओ क्षमायाचनाक पश्चात शीघ्रे मानियो जाइत छथि । ताहुमे ई आवश्यक नहि अछि जे मूल अपराधिए क्षमा-याचना करय।
क्यों क्षमा-याचना क' कोनो क्षण बैंसी क' पुनः पाकशालामें आनि सकैत अछि ।प्रायः इ काज महर्षि ऋतुर्वित-पुत्र कालस्वने करैत छथि । यैह कालस्वन पाकशालामे प्रधान सहायक छथि ।
कालस्वन अल्पभाषी छथि । श्रुति-मंत्रक अतिरिक्त अन्य शब्द हुनक मुख सँ सुनबा लेल लालायित रहैत अछि लोक। कोनो-कोनो पक्ष तँ हुनक मुख सँ कोनो शब्द बहराइते नहि छनि । बस,मौन-भाव सँ अपन काज करबाक अभ्यासे टा हुनकर छनि । कालस्वन सेहो उठलाह आ आ प्रिषद -व्यवस्थामे चलि गेलाह । यज्ञ-बलि तथा आखेट पशुकें मिला क' प्रिषद बनाओत जायत ।
एहिमे विलम्ब होयत । तें महर्षि ऋतुर्वित नृयज्ञ (अतिथि सेवा) क आगत अथितिक लेल दुग्धपानक व्यवस्था क लेने छलाह । ब्रह्मचारी बटुक आगत महर्शिगणकें ताम्र-पात्रमे दुग्ध आनि-आनि पान करा रहल अछि ।
ओहि ताम्र-पात्रकें सभ निहारी रहल छथि । छोट-छोट पात्रक व्यवहार तँ एम्हर होब' लागल छल,किन्तु एतेक पैघ ताम्र -पान-पात्र क्यों नहि देखने छल । महर्षि ऋतुर्वित एही अवसरक लेल राज हर्म्य सँ एकर व्यवस्था कयने छलाह ।
राजा हर्म्यकें ई दास राजा बब्लूथ दिससँ उपहारमें प्राप्त भेल छल ।
राजा बब्लूथ दासकें आर्यलोकनिक प्रति बैर-भाव नहि,अपितु ओ मित्रते चाहैत छथि । हरियूपियापतन आ ओकर विभिन्न नगर सभ उजड़ी गेलाक पश्चात यैह बब्लूथ अनार्य सभक ध्वस्त वाणिज्य-व्यवस्थाकें फेर सँ संगठित कयलनि आ ओकरा बढ़ोलनि । सबसँ अधिक बढोलक वस्त्र आ धातु उद्योगकें । वैह आर्यलोकनिककें वस्त्र-आपूर्ति कयलक तथा धातु-पात्र उपलब्ध करौलक । एहिसँ पूर्व आर्यगण चर्मपात्रक व्यवहार करैत छल । सुवास्तु तटक बाद मृत्तिका पात्रक वव्हार सेहो यदाकदा कर' लागल । परुषनी तटक पश्चात धातु-पात्र पर दृष्टि पड़ल आ आब एहि सरस्वती तट पर ओहि धातु-पात्रक उपयोग सेहो करय लागल। किन्तु सभ नहि । एखनो ताम्र-पान-पात्र दुर्लभ आ विशिष्टलोकनि लेल मर्यादित मानल जाइत अछि ।
-'एतेक दुग्ध ?' एकटा महर्षि हँसलाह ।
-'अपनेक तँ ई अति प्रीय अछि ।' दोसर बजलाह ।
-'प्रिषदो बनि रहल अछि ने ?'
-'उदरों तँ अग्नि-कुण्डे थिक ।'
-'भस्म भS जायत सैह ने ?'
सब हँसलाह ।
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