मेरा मन
कितने ही शक्लों में
मुझ तक
आया
मेरा मन
कभी
चूल्हे का धुंआ होकर
तो
कभी जंगली फूलों पर
लेटे ओस से अपना चेहरा ढांपे
कभी
पानी के बुलबुलों से झांकता
कभी
बादलों से होड़ लगाते
नन्हे पंखों की उड़ान में
कभी
छत से टपकती बूंदों की धुन पर
बजते लोकगीत में
कभी
खिड़की के पीछे
नए घोंसले की तैयारियों में लगे
सुगबुगाते परिंदों में
कभी उतरकर
मेरी गोद में रखते हुए अपना सर
मेरे बेटे की
मीठी कहानियों की जिद्द में
कभी
धूप संग
परछाइयों के खेल में
हर बार मुझ तक
पहुंचकर
मुझसे गुजरता हुआ
और फिर
लुका छिपी का खेल खेलता
मुझसे
मेरा मन ........
मुझ तक
आया
मेरा मन
कभी
चूल्हे का धुंआ होकर
तो
कभी जंगली फूलों पर
लेटे ओस से अपना चेहरा ढांपे
कभी
पानी के बुलबुलों से झांकता
कभी
बादलों से होड़ लगाते
नन्हे पंखों की उड़ान में
कभी
छत से टपकती बूंदों की धुन पर
बजते लोकगीत में
कभी
खिड़की के पीछे
नए घोंसले की तैयारियों में लगे
सुगबुगाते परिंदों में
कभी उतरकर
मेरी गोद में रखते हुए अपना सर
मेरे बेटे की
मीठी कहानियों की जिद्द में
कभी
धूप संग
परछाइयों के खेल में
हर बार मुझ तक
पहुंचकर
मुझसे गुजरता हुआ
और फिर
लुका छिपी का खेल खेलता
मुझसे
मेरा मन ........