भारतीय आस्थाक रूप : विष्वासक रंग
भारतीय चिंतन बहुआयामी ओ गम्भीर तथा सूक्ष्म अछि। तेँएहिठामक पर्यवेक्षणमे, चाहे जीवन हो अथवा दर्षन अथवा साहित्य संगीत कला सबमे एतेक रास भेदोपभेद उपसिथत भेल, जे चिंतनक सूक्ष्मतेक परिचायक थिक। आ र्इ सूक्ष्मता आयल अछि संस्कृतिक प्राचीनताक कारणे। मानव सभ्यताक विकास भने प्राय: समकालीने रहल हेा किन्तु संस्कृति विकासमे महान अंतर अछि। भारतीय संस्कृति प्राचीनतम थिक जकर स्वीकृत प्रमाण थिक ऋग्वेद जे परवर्ती समस्त चिंतनक मूल थिक।
विश्व संस्कृतिक संग र्इ सिथति नहि अछि। जहिया भारतमे ऋग्वेदक रचना परम्परा समाप्त भ• रहल छल (र्इ. पूर्व 1500र्इ.) तहिया यूनानमे आर्य (डोरियन-एकियन) प्रवेषे क• रहल छल।
एही नवीन चिंतन परम्पराक कारणे योरोपक विद्वान धर्म आ भकितकेँ एके मानि लेलनि। आधुनिक कालमे योरोपक यैह भ्रम भारतीयो चिंतनमे आबि गेल जाहिसँ चिंतन अराजकता उत्पन्न भेल। आ आधुनिक कालमे भकित आ धर्मकेँ एके मानि लेल गेल।
वस्तुत: धर्म जँ शरीर थिक तँ भकित आत्मा ओ बाह्रा थिक तथा र्इ आभ्यन्तरिक ओ सामाजिक थिक तँ र्इ वैयकित। धर्म कर्म थिक किन्तु भकित मर्म। धर्मक सम्बंध मानवीय आचरणसँ अछि किन्तु भकितक मानसिक आस्थासँ एवं विष्वाससँ। व्यकित आचरणसँ समाज प्रत्यक्षत: प्रभावित होइत अछि किन्तु आस्था विष्वाससँ परोक्ष रूपेँ।
आ तेँ भरतीय मनीषा, धर्मक सम्बंधमे अनेक निर्देषन देलनि, अनेक व्यवस्था देललि तथा कठोरताक स्तर धरि पहुँचि गेलाह, वैह भकितक प्रसंगमे मौन रहि गेलाह। एकरा व्यकित विवके पर छोडि़ देलनि। यैह थिक भारतीय सह असितत्वक चिंतन केर महानता जाहि कारणे भारतमे, विभिन्नतामे अभिन्नता भेल तथा अनेकतामे एकता रहि सकल।
एही तथाकथित धर्मक नाम पर जतेक युद्ध योरोप तथा अरब देखलक ओ भोगलक अछि एवं जतेक बर्बर नरसंहार केलक अछि ताहिसँ ओहि समयक एकटा नवीन विष्व बसि सकैत छल। असलमे जे धर्म जतेक नवीन होयत ओ ओतेक असहिष्णु होयत। र्इसाइ तथा इस्लाम दुनूक हाथमे तरूआरि छल आ मोनमे छल लोभ, ओकरे परिणाम छल भीषण रक्तपात।
भारतमे (तथाकथित) धर्मयुद्ध कहियो नहि भेल। किछु विद्वान भ्रमवष रामयुद्ध तथा भारतयुद्धक संज्ञा देलनि जे हुनक तथ्यहीनता थिक। रामयुद्ध आर्यीकीएरक तथा भारतयुद्ध स्वामित्वक युद्ध थिक। किन्तु भारतमे तँ प्रत्येक कर्मकेँ धर्मे मानिकेँ कयल गेल, युद्धो धर्मसम्मते कयल गेल, तैं र्इ भ्रम भेल।
कहबाक प्रयोजन नहि जे अपेक्षाकृत भकित प्राचीन थिक, एकर जन्म मानव सभ्यताक विकासक सड.हि भेल अछि।सभ्यता जखन विकसित होइत अछि प्रकारेँ भकित सभ्यताक देन थिक तथा धर्म संस्कृतिक अवदान।
भकितक जन्मक प्रसंगमे अनेक मत व्यक्त् कयल गेल अछि जाहिमे भयक सिद्धान्तकेँ प्रमुखता देल गेल। एही सिद्धान्तकेेँ कतिपय भारतीयो विद्वान मानि लेलनि, भ्रमक यैह कारण थिक। एहि सिद्धान्तमे आंषिक सत्यता अछि, योरोपीय चिंतन लेल र्इ महत्वपूर्ण अछि। जकर प्रमाण थिक ओल्ड टेस्टामेंटक याहोबा जकरा प्रति भयेक भावना अछि। याहोबा देवकेँ अति कठोर मानल गेल अछि, एहने भावना इस्लामक अल्लाक प्रति अछि।
एकर विपरीत आर्यक आदिमदेव इन्द्र वरूणमे मानवे रूपक आरोपन भेल अछि तथा सदय मानल गेल अछि, अपितु सदति काल संगेमे रह• बला मित्र। यैह भावना कालांतरमे साख्यभावमे प्रकट होइत अछि। भारतम यम देवकेँ सेहो तत्वचिंतक आ मानव हितैषी तथा त्राणदाता मानल गेल अछि। यैह भावना परवर्ती ब्रह्राा विष्णु महेषक त्रिदेवमे अछि। जाहि महेष केँ मृत्युक देवता मानल गेल हुनका षिवक सड.हि अन्यतम दयालु औढ़रदानी मानल गेल अछि। एहि प्रकारेँ भारतीय देवमे दयाभावक आधिक्य, निर्भयतेक परिणाम थिक।
एकर मुख्य कारण थिक संघर्षषीलता। योरोपीय आर्य सभ्यताकेँ जतेक संघर्ष कर• पड़ल ततेक भारतीय आर्यकेँ नहि। योरोपक छोट-छोट पथरीला भूखंड तथा जलवायूक एकरसता ओकर संघर्षकेँ आरो बढ़ा देलक तेँ ओकरामे बर्बरतो अधिक आयल तथा भयो। जकर प्रमाण थिक हाब्स तथा लाक जे प्राचीनकेँ बर्बर मानैत अछि।
भारतक सुविस्तृत कोमल भूमि तथा समषीतोष्ण जलवायु एवं वन्यप्षुक पर्याप्ता एकरा सह असितत्ववादी सदया बना देलक। तेँ एकर देवो भेलाह सदय जे भयक परिणाम नहि थिक।
भारतीय भकित केर जन्म जिज्ञासा एवंं प्रयोजनक कारणे भेल अछि। एहिमे भय कतहु नहि अछि।
धर्म भ• गेल कर्म तथा भकित भ• गेल आस्था। ओ रहल सामाजिक, र्इ भेल वैयकितक। आधुनिक कालमे दुनूकेँ एक क• देल गेल। दुनू कतिपय कारणे प्राणहीन भ• गेल।
स्मरणीय जे भकितक जन्मक सम्बन्धमे कोनो एक कारण पर्याप्त नहि थिक। र्इ अनेक भावक परिणाम थिक।
भारतीय आदिमानवक आदिमदेव भेल वृक्ष जाहि पर ओकर पूर्वज रहैत छल तथा स्वयं जकर फल खाइत छल। बादमे ओकर देव भेल नदी जाहिसँ पशुये जकाँ जल पिबैत छल। अंतमे भारतीय आदिदेव भेल षिष्नदेव तथा स्त्री योनि जकरा ओ सब एहि सृषिट कमूल बुझलक।
एहिमे वृक्ष तथा नदी, षिकार युग अर्थात संग्राहक संस्कृतिक देव थिका। संग्राहक संस्कृति जखन उत्पादन संस्कृतिकमे अर्थात पशुपालन युगमे प्रवेष क• रहल छल तखनुक देव थिक षिष्नदेव एवं पशुपालन यूग जखन कृषिसँ परिचित भ• रहल छल तखनुक योनिचिहन जे पाछू एकाकार भ• गेल। र्इ सब देवधारणा र्इ पूर्व 20,000 वर्ष पूर्वसँ ल• केँ र्इ पूर्व 10,000 वर्ष पूर्व धरिक थिक। वैह वृक्ष आ नदी आइयो भारतीय जीवनमे अछि।
शिकार युग जे शुद्ध मातृसत्तात्मक छल ओ जखन पशुपालन युगमे प्रवेष क• रहल छल तखन एकटा परदेषीक दल आयल छल जकरा प्रोटो आस्ट्रेलाइड कहल जाइत अछि। जे चर्मटोपी पहिरैत छल तथा सींग जकाँ किछु दुइटा खोंसैत छल तथा जकर थुथून आगू मुहेँ नमरल रहैत छल। जकर स्मृतिषेष महिषासुरमे अछि। ओकरे सड.े भारतीय आदिमानवक युद्ध भेल छल जकर नेतृत्व मातृ सत्तात्मक युग हैबाक कारणे मातृवर्गे कयने छल। ओही युद्धक सर्वश्रेष्ठ स्त्रीयोद्धो गुणगायन कालांतकर समाज करैत रहल। ओही आदिम मातृयोद्धाक स्मृतिषेष जे विभिन्न समाज तथा कालक यात्रा करैत आर्य लग पहुँचल तँ मातृदेवी (काली दुर्गा) क रूपमे प्रकट भेल।
ओही प्रोटो आस्ट्रेलाइडक संग मीलिकेँ जे व्यकित सर्वप्रथम कृषि प्रारम्भ केलक ओकरे पाछू षिव मानल गेल जे द्रविड़ सभ्यताक भारषिव थिक जे मोहर पर सींग धारण कयने चारि पशुक बीचमे बैसल अछि।
अपन यैह आदिमदेव तथा धारणा ल• केँ आदिम मानव द्रविड़ सभ्यताक निर्माण केलक ताधरि आरो अनेक औषिट्रक जाति भारत आबि गेल छल।
द्रविड़ सभ्यता कृषिमूलक भौतिकवादी सभ्यता छल। ओ सम्भव पूर्ववर्ती षिष्नदेव आ भारषिवकेँ एकाकार क• देलक तथा पूर्वक मातृदेवीक स्मृतिकेँ साकार एवं स्थावर रूप द• देलक। तेँ हड़प्पा मोबनजोदडोमे मातृदेवीक अनेक मुर्ति भेटैत अछि। सम्भव ताधरि षिष्नदेव आ भारषिवक एकीकरण नहि भ• सकल छल तेँ दुनूक अलग-अलग मूर्ति भेटैत अछि। षिष्नदेवक अनेक छोट-छोट मूर्ति एहि बात दिस संकेत करैत अछि। कृषिक कारणे वृषभ तथा सम्भव किछु अन्यो पशुकेँ देवक कोटि देल गेल हो जे पाछू टोटेम बनि गेल हो। सम्भव हाथी पोसब एही समयमे प्रारम्भ भेल हो जकर स्मृति गणेष मे भेटैत अछि। आदिम मानव सभ्यतामे पशु पक्षीकेँ देव मानबाक प्रथा छल जे विभिन्न देषक पौराणिक कथामे अछि तथा यैह सम्भव टोटेमक रूप धारण केलक।
स्मरणीय जे आदिम प्राचीनकालमे मौखिक कथा-परम्परा अत्यन्त विकसित छल। एही कारणे आहिकालक अनेक कथा, जे कोनो ने कोनो वास्तविक सिथतिसँ सम्बंद्ध अछि, यात्रा करैत आर्यसमाज धरि चलि आयल अछि। आर्य कल्पनाक भगवती, महेष, गणेष, नन्दी तथा भैरव आदि ओही आदिम (भारतीय) तथा द्रविड़ समाजक स्मृतिषेष थिक आ जे मिलन प्रक्रियाक प्रतिफलन थिक। परवर्ती भारतीय आर्यक सम्बंघ जखन यमुनातटक नाग जातिसँ भेल तँ नागोकेँ देव मानल गल जे ओकर प्रबलता एवं सौन्दर्यक प्रतीक थिक। नागभावना बौद्धकालमे अत्यन्त विकसित भेल तथा बौद्धे द्वारा प्रचारिता भेल। बौद्ध यक्षकेँ सेहो देव मानलक जे पौराणिक साहित्यमे स्थान पओलक। किन्तु र्इ सब बादक सिथति थिक।
आर्य समाजक आदिमदेव थिक धौंस, जकर विकास आर्यक मूले अभिजनमे भेल छल जे ज्युयस बनिकेँ यूनान गेल। सम्भव त्वाष्ट्री (अगिनदेव) सेहो ओही कालक देव थिक जे कालांतरमे आर्यजनमे गौण भ• गेल होयत। ऋग्वेदकेँ एहि दुनू देवक मात्र स्मृति टा अछि।
हमर निषिचत मत अछि जे इन्द्र, मित्र, वरूण, नासत्य आदि देवक कल्पना अर्यक किछु दलम तखन जागल जखन मूल अभिजनसँ बहराकेँ हित्ती-मित्तनी, हुर्री-कस्साइट तथा र्इरानी-भारतीय आर्यक एकटा महादल कासिपयन सागरक पूर्वी तट होइत र्इरान दिस चलल होयत। एही कारणे एहि सब दलमे एतेक समानता अछि तथा हित्ती मित्तनीमे इन्द्र, मित्र, वरूण, नासत्यो अछि जे बोगाजकोइक संधिलेख प्रकट करैत अछि। र्इ समय र्इ. पूर्व 3500 सँ 3000 वर्षक बीचक थिक जखन धरि र्इ सब दल संग संग र्इरान धरि रहल अछि। पुन: संख्याधिक्यक कारणे, हित्ती मित्तनी पुन: कासिपयन सागरक पषिचम तट होइत (आधूनिक) तुर्की र्इ. पूर्व 2500 सैक आसपास पहुँचि गेल तथा कस्साइट एलम सूसा दिस बढ़ल जे हमदान अभिलेखसँ प्रकट होइत अछि तथा हुर्री टारस पर्वतक आसपास रहि गेल हो। हित्ती-मित्तनीक एही निष्क्रमणक पश्चात देवासुर संग्राम भेल तथा भारतीय आर्यदल भारत दिस चलल। एहि प्रकारेँ भारतीय आर्य र्इ. पूर्व 2200-2000क आसपास सुवास्तु तट पर स्थापित भेटैछ।
एही र्इरान कालमे हित्ती मित्तनीक निष्क्रमणक पश्चात यज्ञवादक जन्म भेल तथा त्वष्ट्रीक बदलामे वैष्वानर प्रधानदेव मान्य भेल एवं कुंड खोधिकेँ अगिन आधानक प्रक्रिया असितत्वमे आयल। तेँ हित्ती-मित्तनी सड.े विकसित यज्ञवाद नहि गेल किन्तू पार्षव (र्इरानी) मे रहि गेल। सम्भव सुवास्तु तट पर उषा देवीक रूपमे मान्य भेल होयत आ सौन्दर्य सम्बन्धी मंत्रक रचना एही तट पर भेल होयत। एहि प्रकारेँ पूर्व वैदिकयुगक प्रधान देव भेलाह इन्द्र, मित्र, वरूण, वैश्वानर, उषा एवं सरस्वती आदि।
जेना कि पूर्वे कहल गेल अछि, भारतीय देवमे मानवीये रूपक आरोपन भेल अछि तथा ओ सदय मित्र मानल गेल।
एही मानवीयकरणक कारणे राजा तथा सेनापतिकेँ इन्द्रे कहल गेल जकर प्रमाण थिक देवासुर संग्राम तथा पुरन्दर नाम एहि सब देवमे अगिनकेँ अपन अति निकटक देव मानल गेल जकरा प्रति गृहमे कुलागिन कहिकेँ स्थान भेटल तथा अन्य देवकेँ आहुतिक माध्यम मानल गेल। कल्पना कयल गेल जे आवाहनक सड.हि देव उपसिथत होइत छथि। वरूणकेँ सम्राट रूपमे सेहो देखल गेल अछि, सम्भव एहन रूप वरूणकेँ रावी तटसँ सरस्वती तटक बीचमे देल गेल हो जखन आवास व्यवस्था स्थायी तथा कृषि जीवन प्रारम्भ भेल।
जे हो, जखन जाही देवक आवाहन, स्तुति गायन तथा याचना-कामना व्यक्त कयल गेल, तखन वैह देव सर्वोपरि मानल गेलाह। समस्त देव मंंडलक प्र्रति समान आस्था, विश्वास एवं निष्ठा व्यक्त कयल गेल। सामाजिक जीवनमे जहिना जहिना वैभिन्नय अबैत गेल देव संख्या बढ़ैत गेल, पर्जन्य, पूषा, रूद्र एवं विष्णु आदि ओकरे परिणाम थिक जे पूर्वमे गौणदेव छलाह। एहि प्रकारेँ आरमिभक आर्य निराकार बहुदेवोपासक छलाह।
किन्तु जहिना-जहिना लोकजीवनमे स्थायित्व अबैत गेल, पुन: देवताक संख्या घटैत गेल, देव युग्म बन• लागल जेना मित्र आ वरूण मीलिकेँ एक भेलाह मित्रावरूण। जेँ ल• केँ वशिष्ठ, एही दुनू देवक अर्चना -वन्दना अधिक करैत रहथि तेँ र्इ मैत्रावरूण कहौलनि।
जहिना-जहिना शिकार ओ पशुपालन घटैत गेल, कृषि बढ़ैत गेल, समाज ओ जीवनमे स्थायित्व अबैत गेल तथा बौद्धिकताक तर्कशीलताक विकास भेल, देवता लोकनिमे परस्पर एकात्मकताक भावना जगैत गेल। एहीठामसँ एकेश्वरवादक भावना समाजम आब• लागल, जकर प्रमाण थिक ऋग्वेदक अंतिम दशम मंडल जे परवती रचना थिक, ते सहस्रशीर्षा पुरूषा केर अवतरण। र्इ भावना समाजक एकीकरणक प्रतिफल थिक। र्इ प्रवृति सरस्वती तटसँ गंगा तट धरिक बीच अधिक प्रबल भेल होयत आ जे र्इसा पश्चात प्राय: 10म शताब्दी धरि रहल।
भारतीय जीवनक गतिशीलता तथा दृषिटकोणक प्रगतिशीलता अति प्राणवंत अछि जे ग्लेशियरे अर्धदृश्य अछि। एकरा अंगरेज विद्वान ने देखि सकैत छल आ ने बूझि सकैत छल। तेँ गतिहीन तथा जड़ मानि लेलक। भारतक दुर्र्भाग्य थिक जे वैह पहिलुक इतिहासो लिखलक जाहि कारणे अनेक भ्रम आइधरि पसरल रहि गेल।
उत्तर वैदिक युगक ब्राह्राण कालमे, समाज बदलि गेल, जीवन बदलि गेल आ तेँ देवो बदलि गेलाह। बदललनि ब्राह्राण लोकनि आ युगानूरूपता देखिकेँ समाज ओकरा स्वीकृत केलक।
जाहि पूर्व वैदिकयुगक देवकेँ उत्तर वैदिकयुगमे गौण मानल गेल अछि, वस्तुत: ओ आरो प्रधानताकेँ प्राप्त केलनि। उत्तरे वैदिकयुगमे पूर्व वैदिकयुगक यज्ञवाद व्यापकेटा नहि भेल, अपितु जटिल तथा क्रमश: आडम्बरपूर्ण होयब अत्यावश्यक छल कारण ओही यज्ञ द्वारा अनार्य आर्यवृत्तमे आबि रहल छल। दोसर राजा (राजन्य वर्ग) तथा महाशाल लोकनि जे विभिन्न यज्ञ करैत छल तकरा आकर्षक, भव्य तथा आडम्बरी होयब अनिवार्य छल, कारण ओहिमे अनेक अनार्य सरदार तथा अनार्य जनता, कौखन वन्योजन देख• अबैत छल, प्रभाव उत्पन्न करक लेल र्इ अत्यावश्यक छल।
आइयो, जे पुरोहित सत्यनारायण पूजा शीघ्र समाप्त क• लैत छथि, लोककेँ ओहि पुरोहितक प्रति अविश्वास भ• जाइत अछि। र्इ सिथति आधुनिक वैज्ञानिक युगक थिक। सामान्यत: लोक भकितप्रसंगमे अत्याधिक रूढि़़वादी तथा अंधविश्वासी होइते अछि। वास्तविकता तेँ र्इ अछि जे यज्ञवादकेँ आडम्बरी होयब ओहि युगक अनिवार्यता छल। ओहि यज्ञमे आहुति ओही पूर्व वैेदिकयुगक इन्द्र, मित्र तथा वरूण आदि देवकेँ देल जाइत छल एवं ओही देवक आवाहन होइत छल। उत्तर वैदिकयुगक त्रिदेवक यज्ञकेर अवसर पर पूजा अवश्य होइत छल किन्तु ओ यज्ञक प्रधान देव कहियो नहि भेलाह। एहि प्रकारेँ पूर्व वैदिक देवताक प्रधानता घटल नहि अपितु बढ़ल। र्इ बात भिन्न थिक जे देवस्वरूप संकल्पनामे परिवर्तन आयल तथा र्इ देव मात्र याज्ञिक देव भेलाह, सामाजिक देव भेलाह त्रिदेव। एही समाजमे एकटा नवीन अवधारणा अर्थवेदक द्वारा प्रत्यक्ष भेल।
एखनधरि देव आकशक आ अंतरिक्ष छलाह, आब धरतीक सेहो एकटा भेलाह भूदेव, जे भेलाह ब्राह्राण लोकनि। सम्भव ब्राह्राण लोकनि निष्ठा, सत्य, सेवा,शिक्षा, समाज-नियमन एवं व्यवस्थापनमे एतेक निष्पक्ष, समदर्शी ओ महान भेलाह जे अथर्ववेदक द्वारा धरतीक भूदेव मानि लेल गेलाह जकर समर्थन यजुर्वेद सेहो करैत अंिछ। सम्भव र्इ. पूर्व 1100 र्इ धरि अर्थात अथर्ववेदक समपादन काल धरि ब्राह्रामण लोकनि भूदेवक रूपमे मान्य भ• गेल छलाह।
टसलमे ब्राह्राण भूदेवक प्रयोजन ओहि युगकेँ छल। कहबाक प्रयोजन नहि जे समाजमे कोनो अवधारणा निरर्थक ओ निष्प्रयोजन नहि जन्म लैत अछि। र्इ बात भिन्न थिक जे युगपरिवर्तनक सड.हि पूर्व अवधारणा रूढि़ भ• जाइत हो। आ से भेल। एहि भूदेव अवधारणाक कारणे ब्राह्राणजतिक बहुत क्षति भेल अछि।
भूदेव अवधारणाक सड.हि ब्राह्राणकेँ अवध्य, अदंडय आ अवहिष्कार्य तँ मानले गेल, सड.हि एकरा सम्पति संचयसँ सेहो यजुर्वेदक द्वारा वंचित, वर्जित क• देल गेल। एकर फल र्इ भेल जे ओहि कृषि विकासक युगमे ब्राह्राण पछुआ गेल जे आइधरि पछड़ले रहि गेल। आ तेँ कालांतरमे कथा पंकित बनल एकटा छल राजा तथा एकटा छल गरीब ब्राह्राण।
यैह गरीबी ब्राह्राण लेल वरदान बनि गेल जे र्इ एकमात्र शिक्षा जगतसँ जुड़ल रहल, सत्य आ निष्ठाक जीवन जीबैत रहल तथा चिंतन ओ दर्शन-राज्यक सम्राट बनि गेल। पौरोहित्यक सामाजिक जीवनमे र्इ जतबे आडम्बरी रहल वैयकितक जीवनमे ततबे सरल। पौरोहित्य एकर वृति बनि गेल।
एहि भूदेवक युगीन प्रयोजन छल। एकतेँ जाधरि ब्राह्राण स्वयं देवता नहि मानल जाइत, ताधरि व्रात्यष्टोम यज्ञ द्वारा जे अनार्यकेंँ आर्यवृतमे आनिकेँ आर्यीकरणक कार्यकेँ पूर्णता देल जा रहल छल से प्रभावशाली नहि होइत। ब्राह्राण वाक्य मानिकेँ र्इ कार्य सम्पादित होइत छल। दोसर बहुत रास वर्णसंकरकेँ सेहो वर्णकाटि देल जा रहल छल तथा योग्तानुसार तथा कर्मानुसार बहुत रास वैश्यकेँ क्षत्रिय कोटि तथा क्षत्रियकेँ वैश्य कोटि देल जा रहल छल जे स्वेछानुसार तथा प्रयोजनानुसार छल। र्इ कार्य सामाजिक संगठन तथा व्यवस्थापना लेल। अत्यावश्यक छल जकर पूर्ति एकमात्र ब्राह्राणे करैत छल अथवा क• सकैत छल। तेँ पहिने ब्राह्राणेकेँ भूदेव मानि लेल गेल। र्इ तँ सामाजिक प्रयोजन छल। राजनीतिको प्रयोजन छल।
पूर्व वैदिकयुगक सामाजिक समझौता सिद्धान्तक अनुकूल, कबिलाइ समाज ओ जीवनपद्धति टूटि रहल छल। पूर्व केर राजनीतिक जीवनमे अनेक परिवर्तन आबि गेल छल, आबि रहल छल। राजतंत्र आब एकमात्र निर्वाचन पद्धतिपर टिकल नहि रहल अपितु कौलिक भ• गेल छल, भेल जा रहल छल। पूर्वक सभा ओ समिति गौण भ• गेल। राजतंत्र क्रमश: निरंकुशता दिस बढि़ रहल छल। आब राजा गत्वरजनक नेतेटा नहि अपितु स्थायी आवास तथा समाजक शासक सेहो छल।
आर्यवृत आयल समस्त अनार्य पर शासन ओ नियंत्रण स्थापित कर• चाहैत छल। दोसर दिस पूर्व वैदिकयुगमे राजा मात्र उपहार पर जे प्रजा द्वारा स्वेच्छासँ देल जाइत छल, जीवनयापन करैत छल। आब अपन आडम्बरी जीवन, शासन व्यवस्थापना, शिक्षा ओ ब्राह्राणक लेल दान तथा अन्य कार्य लेल कराधानक अधिकार चाहैत छल। आ एहि सब लेल आवश्यक छल सामाजिक समझौता सिद्धान्तक स्थान पर दैवी सिद्धान्तक प्रतिष्ठापन।
एही दैवी सिद्धान्तक आधारपर राजा देवक प्रतिनिधि घोषित कयल जाइत तथा मान्य होइत। तखने देव इच्छासँ ओ शासन तथा कराधान आरोपित क• सकैत छल तथा राजाज्ञाक उल्लंघन, देवाज्ञाक उल्लंघन मानल जाइत जे दंडनीय थिक। एहीठामासँ दंडनीय उदय होइछ। किन्तु दैवी सिद्धान्तक प्रतिपादन तथा कार्यान्वयन एकमात्र ब्राह्राणे क• सकैत छल जे ताधरि अपन शिक्षापरम्परा, अपरिनिष्ठा तथा सामान्य ज्योतिष लग्न, पौरोहित्य तथा धर्मनियामक व्यवस्थापक कारणे समाजक सर्वोच्चे, सर्वप्रधाने नहि अपितु अनिवार्य अंग सेहो बनि गेल छल।
तेँ ब्राह्राणेटा भूदेव बनि सकैत छल तथा वैह दैवी सिद्धान्तक प्रविष्ठापन प्रभावशाली एवं गरिमामय ढंंंगेँ क• सकैत छल। र्इ तत्कालीन राजनीतिक अनिवार्यता छल।
भूदेवमे गरिमाक अभाव नहि छल, किन्तु प्रभावक वृद्धि राजाक द्वारा भेलासँ देवत्वमे पूर्णता आबि गेल, विशेषत: लोकदृषिटमे। यैह भूदेव, राज्यभिषेकक अवसरपर राजाकेँ देवप्रतिनिधि मानैत शासन ओ कराधानक अधिकारी घोषित करैत छल तथा राजाज्ञाकेँ देवाज्ञा जकाँ अनुलंघनीय एवं दंडनीय कहैत छल जे मान्य होइत छल। किन्तु भूदेव बनि गेलाक बाद, कालांंतरमे यज्ञवादक महत्व घटिते ब्राह्राणक दुर्गतियेटा नहि भेल अपितु बहुत पूर्वेसँ जन्मना सिद्धांतसँ रूढि़वादिता तथा कृषि विमुखताक कारणे सबदिन (आइ धरि) र्इ जाति सामूहिक रूपेँ दरिद्रे गेल। र्इ सिथति र्इसाक 10म शताब्दीक पश्चात आरम्भ भेल तथा अंगरेजकालमे चरम पर पहुँचि गेल। जाहि भूदेवसँ अपन-अपन कन्याक विवाह करेबाक लेल राजन्य वर्ग, वैश्य वर्ग तथा अन्य महाशाल (धनीक) लोकनि प्रतीेक्षामे रहैत छल जकर प्रमाण थिक समाजमे प्रचलित अनेक विवाहपद्धतिमे सँ एकटा देवविवाह, जाहि अनुसारे यज्ञेकालमे पुरोहित अथवा ब्राह्राणसँ ब्रह्रााक आज्ञासँ विवाह सम्पादित होइत छल।ओ (ब्राह्राणयुग) सिथति बदलिते विपन्न एवं सर्वहारा भ• गेल।
ब््राह्राणक रूढि़वादिते विपन्नताक कारण बनल। सर्वप्रथम जखन अरबीक हाथेँ (आठम सदी) सिन्ध आ दाहिरक पतन भेल तँ ब्राह्राणवर्ग अधीनता नहि स्वीकार केलक, सिन्ध प्रान्तसँ भागल, किछु उतर आयल आ किछु दक्षिण दिस भागल। पुन: अलाउíीन खिलजीक कालमे ब्राह्राण राजकार्यमे तँ भाग नहिये लेलक जे फारसी भाषाक सेहो विरोध केलक। ब्राह्राण ने फारसी सिखलक ने राजनीतिमे आयल। मुगलकाल धरि छुआछूतक कारणे कटल, हटल रहल तथा अपन संस्कृत ओ संस्कृति धयने रहल। यैह सिथति अंगरेजेा कालमे रहल। अंगरेजीक ओ अंगरेजक विरोधे करैत रहल। वारेन हेसिंटग्सक समयमे तथा बादोमे संस्कृत पढ़य आब• बला अंगरेज, फेंच तथा जर्मनकेँ संस्कृत अवश्ये पढ़बैत छल जाहि कारणे प्राच्यविधाक एतेक प्रचार प्रसार भेल तथा योरोपमे प्राच्य विधाकेँ एतेक सम्मान भेटल एवं भारतीय संस्कृतिकेँ विश्वभरिमे महान मानल गेल किन्तु अध्यापन पश्चात अथवा स्पर्श होइतहि गंगास्नान क• लैत छल। ब्राह्राण यूनानीसँ ल• क• अंगरेज धरि सबकेँ म्लेच्छे मानैत रहल तथा स्पशकेँ वर्जित मानैत रहल। अंगरेज सर्वाधिक एही जातिसँ एह सभक कारणे क्षुब्ध क्रुद्ध रहल। ब्राह्राण अंगरेजी भाषेक अभावमे कहियो राजकार्यमे भाग नहि लेलक, आर्थिक सिथति निरंतर दयनीये भेल गेल। आ जे भागो लेलक तँ विद्रोही वैह प्रकट केलक सर्वप्रथम ।
टवंतारवाद सर्वप्रथम कल्पना शतपथ ब्राह्राणमे देखैत छी। एकर अर्थ भेल जे भारत युद्धक दू सै वर्षक भीतरे त्रिदेवक कल्पना साकार भ• गेल छल।
त्रिवेदक ब्रह्रा पूर्व वैदिकयुगक ब्रह्राा प्रजाति थिकाह। पूर्व वैदिकयुगमे ब्रह्रााक प्रयोग अनेक अर्थमे देखैत छी, यज्ञक र्अगिनक अर्थमे सेहो, मंत्रक अर्थमे सेहो, यज्ञक सर्वज्ञक रूपमे सेहो तथा सृषिटकर्ताक रूपमे सेहो। एही ब्राह्राासँ ब्राह्राण संबा बनल तथा उपनिषद कालक ब्रह्रा यैह पूर्व वैदिकयुगक ब्राह्राा थिक। जहिना पूर्व वैदिकयुगक इन्द्रदेव, राजाक रूपमे प्रकट भेल तहिना ब्रह्राा प्रजापति, यज्ञप्रधान ब्रह्रााक रूपमे। र्इ परम्परा आइयो यज्ञकालमे तथा ब्राह्राणक उपनयन कालमे देखबामे आबि सकैत अछि, जाहिमे ब्राह्राा बनाओल जाइछ।
त्रिवेदक ब्रह्रा प्राय: पूर्व वैदिके युगक ब्रह्राा थिकाह आ जे समस्त तेज, तप, सृषिट आ ज्ञानक प्रतीक बनल रहलाह। दोसर देव भेलाह विष्णु।
पूर्व वैदिकयुगमे विष्णु गौण देव छलाह जे सूर्यक अन्य नाम ओ रूपमे वर्णित अछि। एहि विष्णुमे इन्द्र वरूणक सेहेा समन्वयन भ्ेाल तथा पालनकर्ताक रूप देल गेल। ब्रह्राा, जकर जन्म देननि विष्णु तकरे पालन करताह तेँ विष्णुकेँ ब्राह्रााक अनुगत मानल गेल।
जत• ब्रह्राामे शुुद्ध आर्यतत्व रहल आ निराकार भाव रहल तत• विष्णुमे आर्य आ अनार्य तत्वक समन्वयन भेल आ रंग श्यामल मानल गेल जे अनार्य रंग छल अथवा आकाशक रंग छल। अनार्य निराकारी नहि छल आ समस्या छल समन्वयनक तँ ऋग्वैदिक विष्णुकेँ साकार रूपमे उपसिथत कयल गेल जे कार्य पूर्ण भेल विभिन्न पुराणक द्वारा। पुराणमे जे वामन अवतार भेटैत अछि से वस्तुत: शतपथ आ तेतरीय ब्राह्राणक विकास थिक जे ऋग्वेदक (11543) वर्णनक आधार पर अछि जहिठाम तीन डेगँ (सूर्यक उदय, मध्याहन, अस्त) पृथ्वीकेँ नापबाक बात कहल गेल अछि।
त्रिवेदक ब्रह्राा जतय शुद्ध आर्यदेव रहलाह ततय रूद्र शिव (महेश) शुद्ध अनार्य देव। विष्णुमे दुनू तत्वक भेल। एही समन्वयनक कारणे कालांतकरमे विष्णु सर्वाधिक लोकप्रिय देव भेलाह तथा बहुप्रचारित सेहो तथा अनेक अवतारक कल्पना सेहो विष्णुयेक संग सम्बंद्ध भेल। जतय ब्रह्राा शुद्ध निराकार रहला ततय रूद्र शुद्ध साकार विष्णुमे दूनूक समन्वयन भेल।
ब्रह्राा आ विष्णुये जकाँ रूद्रोक आधार ऋग्वेदे थिक। ऋग्वेदोमे रूद्र मानवे रूपमे वर्णित अछि आ सेहो दशम मंडलक सड.हि दोेसर (23311,6311,338) पाँचम (55314) सातम (75912,463) तथा आठम (8295) मंडलमे सेहो जे प्राचीनतम मंडल थिक। कालांतरक महेशक जतेक रूप नीलकंठी, प्रेतसंग, भस्मलेप, चर्मधारी, वृषभवाहन तथा रोगनाशक अछि, सबटाक आधार ऋग्वेदे थिक। अथर्ववेदमे सर्वप्रथम भूतपति, पशुपति तथा महादेव कहल गेल अछि। वैदिक रूद्र रौद्र रूपक प्रतीक थिक। त्रिदेवक रूपमे रौद्रक सड.हि दयामय शिवरूपक सेहो समन्वयन भेल जे तत्कालीन अनार्य बहुल समाजक अनूकूल छल। अनार्यक संख्या अधिक छल तथा क्रुद्ध भेला पर आर्य पर आक्रमणो क• दैत छल तेँ रूद्रमे औढरदानी दयामय रूपक कल्पना कयल गेल, ओकरहि (अनार्य) पर उत्पादन कार्य मुख्यत: कृषि निर्भर छल तेँ शिवत्वक अधिक आरोपन भेल तथा द्रविड़क शिश्नदेव संग सम्बंध क• देल गेल। तेँ मैथिल ब्राह्राण आइयो महादेव शिवक प्रसाद नहि खाइत अछि आ जे खाइत अछि से भिन्न उपजाति पंडा भ• जाइत अछि जकर वैवाहिक सम्बंध मूल ब्राह्राणसँ छूटि जाइत अछि।
शुक्ल जयुर्वेदक शतरूद्रीय प्रकरण सड.हि त्रिदेवक रूद्र (अथवा षिव) बद्धमूल भ• गेलाह। एहि प्रकारेँ त्रिवेद कल्पना र्इ. पूर्व 1000 र्इ.क आसपास धरि अपन असितत्वमे आबि गेल छल।
कहबाक प्रयोजन नहि जे त्रिवेद कल्पना सामाजिक संगठनक प्रतीक थि तथा ब्राह्राण चिंतक समन्वयवादी दृषिटकोणक प्रतिफलन थिक जे तत्कालीन प्रयोजन छल। ऋण्वेदक आधार पर अथर्ववेदक तथा शुक्ल यजुर्वेद यैह कार्य केलक, जकरा विकसित केलक विभिन्न ब्राह्राणगं्रथ आ जे ख्यात भेल विभिन्न पौराणिक प्रयासेँ।
स्मरणीय जे त्रिवेद विकास आकसिमक नहि, क्रमष: भेल। एहि त्रिवेदक प्रति लोकभकित जागृत भेल उपनिषदक।
उपनिषदेक जाहि परमतत्व, परमसत्ता, परमब्रह्राक कल्पना भेल अछि जे र्इष्वर आदि, अंतहीन, अनन्त असीमत तथा जकरा संकेत पर र्इ सृषिट संचालित अछि एवं जे सर्वव्यापी अछि कालांतरमे यैह तत्व सब त्रिवेदमे आबिकेँ सम्बद्ध भ• गेल आ त्रिदेव हिन्दू जीवनक आराध्यदेव भ• गेलाह।
डा. भंडारकर (अपन वैष्णविज्म शैविज्म पुस्तकमे) कहैत छथि जे उपनिषदमे जतय मोक्षप्रापित लेल ज्ञान, तप आवष्यक छल ओतय एहिठाम भकितभाव। डा. भंडारकरक अनुसारँ श्वेताष्वतरोपनिषदमे अव्यक्त ब्रह्राक स्थान पर सक्रिय व्यक्त देवताक प्रतिष्ठा कयल गेल अछि। सम्यकेतु विधालेकार भकितमार्गक विकास कठोपनिषपदक ओदि पंकितसँ मानैत छथि जाहिमे कहल गेल अछि जे परमात्मा स्वयं जकर क• लैत अछि (जकरा पर हुनक कृपा भ• जाइल अछि) तकरे सम्मुख अपन स्चरूपकेँ प्रकट करैत अछि।1 आ र्इ कृपा, स्मरण, भजन, गुणकीर्तन, अराधना तथा समर्पणक आधार पर सम्भव अछि। एहि लेल आवष्यक अछि आस्था एवं विष्वास।
वस्तुत: भकित आस्था एवं विष्वास पर आधारित अछि जे ब्राह्राणकालक उत्तरार्धक अर्थात र्इ. पूर्व 500 र्इ. क बादक विकास थिक।
निराकार ब्रह्राा केर तँ अधिक परिवर्तन नहि भेल किन्तु वैषणव ओ शैव सम्प्रदायमे अनेक परिवर्तन एवं रूपान्तरण भेल।
राजा वसु केर वासुदेव धर्म जे पशुबलिक विरोधी छल, पांचरात्र केर नर नारायण भकित तथा सात्वतक भागवत धर्म सबटा आविकेँ वैष्णक भकितसँ सम्बद्ध भ• गेल। सात्वत भागवतक आराध्यदेव, महाभारतक कृष्ण। एहि राजनीतिक कृष्णमे एकटा छोट सम्प्रदायक गोपाल कृष्ण तथा एक अन्य बाँसुरीवादक कृष्ण आबिकेँ मीलि गेल। कृष्णक स्वरूपकेँ आरो विराट बनौलक भागवत एंव ब्रह्रावैवर्त पुराण जे कृष्णमे लीलानायकत्व जोडि़ देलक। एहि प्रकारेँ अधिक जोड़तोड़ वैष्णवे धर्ममे भेल, शैव मतमे कम।
महाभारतमे भीष्म, कृष्णकेँ पूज्यं मानने छथि। डा. कीथक अनुसारेँ पाणिनि धरि कृष्ण अवतारमे स्वीकृत भ• गेल छलाह। यैह बात मेगास्थनीज र्इ. पूर्व चारिम शाताब्दीमे, पषिचम भारतमे देखने छल।2
एहि प्रकारेँ र्इ. पूर्व 1000 वर्षेक त्रिदेव, र्इ. पूर्व 500 र्इ. धरि र्इष्वरक रूपमे लोकदेव भ• गेल छलाह तथा शतपथ ब्राह्राणक अवतारवाद लोकजीवनमे प्रवेष क• गेल छल एवं वैदिक विष्णुक राम तथा कृष्ण अवतार रूपमे मान्य भ• गेल छलाह। एहि समयमे रचना प्रक्रियामे गतिषील रामायण तथा महाभारत तदनुकूले परिवर्तन क• रहल छल।
जाहि समयमे पूर्वी भारतमे जैन ओ बौद्ध सम्प्रदायक प्रचार भ• रहल छल, ओही समयमे पषिचमोतर तथा मध्य दक्षिण भारते वैष्णव तथा शैव सम्प्रदायक।
किन्तु र्इ. पूर्व 500 र्इ. धरि जखन आर्य अनाय मीलिकेँ एक भ• गेल छल तथा हिन्दू कहब• लागल तकर बादसँ यज्ञवादक महत्व घट• लागल जे गुप्तकालोत्तर लगभग सामाजिक जीवनसँ समाप्तप्राय भ• गेल मात्र वैयकितक जीवनमे (किछु समूहमे) रहि गेल। एही हिन्दू जनता लेल बहुत पूर्वे ब्राह्राणलोकनि त्रिदेवक कल्पना कयने छलाह से व्यावहारिक दैनिक जीवनमे प्रवेष क• गेल छल। एकर सम्बन्ध यधपि आस्था विष्वाससँ अछि जे भकित थिक किन्तु विद्वार द्वारा एकरा धर्मे कहल गेल।
जे हो, जैन, बौद्ध तथा वैष्णव ओ शैव धर्म कतहुसँ अब्राह्राण धर्म नहि थिक र्इ भ्रम अंगरेजक द्वारा पसारल अछि। र्इ भ्रम अछि उपनिषदक कारणे। कारण, उपनिषदेसँ दुनूक जन्म अछि, किन्तु जैन, बौद्ध वेदकेँ प्रमाण नहि मानलक, उपनिषदक विपरीत जैन, बौद्ध अनीष्वरवादी सेहो भ्ेाल। किन्तु मानैत रहल ओही पूर्वक आर्य सप्तमर्यादाकेँ जे पाछु कुरूधर्म नामे ख्यात भेल। आ एकरे एकाधटा घटा बढ़ाकेँ प्रचार करैत रहल।
जैन, बुद्धक विरोध, गणतंत्रक विरोध राजतंत्रसँ थिक जे वस्तुत: सामाजिक समझौता सिद्धान्तक विरोध दैवीसिद्धान्तसँ थिक जे ब्राह्राण यज्ञवाद द्वारा प्रतिष्ठापिज भ• रहल छल। र्इ दुनू धर्म अहिंसा पर जोर देलक, यज्ञवादक विरोध नहि केलक। जैन, बौद्धक वेद-विरोध धरि क्षम्य छल, अनीष्वरवादी होयब क्षम्य नहि छल तेँ भारतमे टिकि नहि सकल। बाहरोमे आब आडम्बरे टा बनिक• रहि रहल अछि, जीवनीतत्व बनिकेँ नहि।
बौद्ध धर्म, कोनो वृक्ष नहि अमरलती छल जकरा धरतीक जीवनी रस नहि भेटि सकल तेँ गीताक बिहाडि़मे उडि़या गेल जे उपनिषदमे जन्म लेलक तथा गीतामे आबिकेँ मरि गेल। बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्मक ओ शाखा नदी थिक जे निवृतिक गिरिप्रांतरसँ बहराइत अछि तथा वैष्णव सहजयानक बंगसारगरमे आबिकेँ पुन: समाहित भ• जाइत अछि। बौद्ध धर्ममे ने कोनो मौलिक चिंतन छल आ ने जीवनक लेल कोनो व्यापक स्वीकृतिये। ओकर जन्मे मगधक आजीवक लोकनिक विरोध तथा लोकभाषक प्रयोग लेल भेल छल, र्इ कार्य सम्पादित भेल, भारतसँ समाप्त भेल। बौद्ध धर्म एकटा तात्कालिकता छल, एहि दृषिट´े महत्वपूर्ण छल। अगिला भकितमार्गकेँ प्रषस्त केलक।
वैष्णव ओ शैव धर्मक जन्म वैदिक त्रिदेवसँ भेल अछि, र्इ ने वेद विरोधी अछि आ ने अनीष्वरवादिये। तेँ हिन्दू धर्मक मुख्य अंग यैह बलिकेँ आइधरि समाजमे परिव्याप्त अछि। उपनिषदसँ र्इष्वरत्वकेँ प्राप्त करबाक कारणे एहि शंकाक जन्म भेल छल। किन्तु स्वयंं उपनिषद जतय अद्वैतवादी अछि ओतहि र्इ दुनू मत द्वैत वादी अपितु विषुद्धाद्वैतवादी। वैष्णव ओ शैव मत अपन प्रवृति मार्ग, र्इष्वरवादिता तथा सर्वसुलभताक कारणे अत्यन्त व्यापक भेल।
कर्मकांडक यज्ञवाद राजन्य वर्ग अथवा समाजक सम्पन्न लोक लेल छल, उपनिषदक ज्ञानमार्ग सीमित बुद्धिजीवीक लेल छल, सामान्य बृहत जनक लेल वैह पूर्वक त्रिवेदक विष्णु एवं षिवकेँ सामान्य जनदेव बनाओल गेल जे मान्य भेल। सामान्यत: मौर्यकाल धरि अर्थात र्इ. पूर्व चारिम शताब्दी धरि वैष्णव ओ शैव मत व्यापक रूपेँ भारतमे पसरय लागल छल।
कहबाक प्रयोजन नहि जे कोनो क्षेत्रक राजनीतिक विजय कठिन नहि अछि, किन्तु सांस्कृतिक विजय कठिने अपितु अधिकाधिक कालसापेक्ष सेहो होइछ। तेँ र्इ सम्भव नहि अछि जे आर्यीकरण र्इ. पूर्व 800 र्इ. मे प्रारम्भ भेल आ तुरते बोधायन तथा आपस्तम्बक जन्मो भ• गेल।
तेँ अधिक सम्भावना एहि बातक अछि जे दक्षिणक आर्यीकरणक कार्य तीन चरणमे पूर्ण भेल। पहिल, आर्यक यदुषाखा द्वारा, जे सम्भव दाषराज्ञक आसपास अर्थात र्इ. पूर्व 1800-1700क आसपास राजा विदर्भ तथा ऋषि अगस्त्यक नेतृत्वमे भेल छल जकर परिणाम कालांतरक महाकोसल ओ अवन्ती आदि थिक। दोसर थिक मात्र द्वारका (गुजरात) धरि जा सकलाह। एहि तीनू भूमिकाक पश्चात र्इ. पूर्व 800 र्इ.क बाद दक्षिणक आर्यीकरण केर कार्य सम्पन्न भ• सकल आ सांस्कृतिको विजय भेल। एही कारणे बोधायन ओ आपस्तम्बक जन्म भेल।
साम्राज्यक कल्पना सेहो दक्षिणे पषिचमक थिक। आर्यक यदूषाखामे भारतक आदिम महान राजनीतिज्ञ कृष्ण भेलाह जे सर्वप्रथम साम्राज्यक कल्पना कयल। तेँ अजातषत्रु आ अषोककेँ सुगमता भेल। त्रिदेवक षिव सेहो मूलत: दक्षिणेक थिकाह जे उत्तरसँ संषोधित भ• केँ पहुँचल कि स्वीकृत भ• गेल। अपितु जाहि भकित पद्धतिसँ हम आइ परिचित छी तकर जन्म दक्षिणके आलवार (वैष्णव) एव ंनायनार (षैव)मे भेल अछि तथा दक्षिणेक रामानुजम माधवाचार्य द्वारा उत्तरमे पहुँचल अछि सेहो महान दुर्दिनेमे।
उत्तर वैदिकयुगक त्रिदेवकेँ जाहिसँ वैष्णव ओ शैव मत विकसित भेल छल तकरा एकटा सुनिषिचत आधार देलक पुराण साहित्य जकर उपजीव्य ब्राह्राण साहित्य थिक। पुराण साहित्य ब्राह्राण वृत्तक रचना नहि थिक तेँ उपनिषदे जकाँ एकरूपता, व्यवस्था तथा सुनियोजनक अभाव अछि जे एहि पौराणिक त्रिदेवमे देखबामे अबैत अछि, जतय अनेक जोड़तोड़ भेटैत अछि।
जे हो, कालांतरक हिन्दूकेर मानसक हंस यैह वैष्णव ओ शैव मत बनल जे आइधरि विहार विचरण क• रहल अछि तथा संस्कृतिक मोतीकेँ सुरक्षित राखि सकल।
भारतीय आस्था ओ विष्वासक तेसर रूप थिक शाक्तमत जे मूलत: द्रविड़ सभ्यताक देन थिक जे ओकर मातृसत्तात्मक समाजक प्रतिफलन थिक जकर प्रमाण थिक हड़प्पा मोअनजोदड़ोक अनेक मातृमूर्ति। सम्भव थिक द्रविड़ समाजक एक समुदाय विषेषमे, जकर सम्बन्ध भारतीय आदिम समातजक कोनो एहन मातृदेवीक स्मृति रहल हो जे कथारूपमे आय्र धरि पहुँचि गेल हो आ जे काली दुर्गा रूपमे पाछू प्रकट भेल। एकर कोनो प्रमाण नहि देल जा सकैछ किन्तु जैं ल• केँ द्रविड़ समाज भौतिकवादी समाज छल, साकार पूजक छल जकरा लेल कोनो ने कोनो मानवीय आधार आवष्यक होइत अछि, कल्पना कयल जा सकैछ।
द्रविड़ समाजमे आदिमकालमे अभिचार क्रिया सेहो होइत छल, जकर प्रमाण थिक साँपक मंत्र, जाहिमे उरूगल आ आलिगी बिलगी शब्द अछि जे सुमेरी मूलक शब्द थिक आ जे अथर्ववेदमे सेहोा आबि गेल अछि। सम्भव थिक जे अभिचार किया मातृदेवीसँ सम्बद्ध हो जे पाछू बौद्ध बजयानीमे देखबामे आबैत अछि।
प्राग्वैदिक मातृपूजा, महायानसँ सम्बद्ध भेलापर शाक्त मत बनल तथा बजयानक तंत्रमंत्र रहस्यमय बना देलक। तिब्बतसँ आयल चीनाचार एही शाक्त मतसँ सम्बद्ध भ• गेल। आरम्भमे शाक्त ओ शैव मत सम्बद्धे छल किन्तु मंत्र आगमनक पश्चात दुनू अलग भ• गेल। शैवक उíेष्य मुकित भेल किन्तु शाक्तक उíेष्य सिद्धि। एकर एकटा भिन्न मार्ग सेहो भेल जे वामाचार कहौलक।
भारषिव चित्र देखिकेँ लगैत अछि जे भारतीय योग केर जन्म सेहो द्रविड़े समाजमे भेल अछि किन्तु ओकर रूप स्वरूप कोन प्रकारक छल से कहब सम्भव नहि अछि। सम्भव थिक जे ऋग्वैदिक आर्यमे सेहो यौगिक क्रिया कोनो ने कोनो रूपमे रहल हो किन्तु स्वयं योग दर्षनक विकास र्इ. पूर्व दोसर शताब्दीमे पातंजनिक द्वारा भेल।
योगक अर्थ भेल जोड़ब अर्थात शरीर एवं आत्मक एकीकरण। शरीर विज्ञानमे मन अथवा आत्मक कोनेा सिथति नहि अछि। किन्तु एहि दुनूक उपसिथतिसँ शरीर संचालित अछि। र्इ मान्यता सर्वमान्य अछि। आत्मा निर्विकार चैतन्य रूप थिक जे मानवीय थिक । मन समस्त जीवेम अछि। मानवीय मनमे विकारो अछि । योग एही विकारक परिषुद्धि करैत मनकेँ आत्मासँ जोडै़त अछि। एहि प्रकारेँ योगक सम्बन्ध मनोविज्ञान तथा आध्यात्म दूनूसँ अछि। आस संन्यास एकर माध्यम भेल तथा चितवृतिक निरोध एकर लक्ष्य।
एही योगक एक रूप् हठयोग थिक जकर विकास सम्भव मगधक आजीवक लोकनि द्वारा भेल। एहिमे शरीरकेँ यातना देब आ तखन मन पर नियंत्रण प्राप्त करबाक चेष्टा होइछ। र्इ शुष्क कृच्छाचार थिक जे प्राकृतिक नहि थिक। एहि पंथक सिद्धि कठिन, विवादस्पद तथा संदेहास्पद अछि।
जहि समयमे शैव ओ शाक्5त अभिन्न छल, योग समान रूपेँ अवसिथत छल। भिन्न भेला दूनूमे योग ओ हठयोगक विकास अपना -अपना ढड.े भेल।
योग पर सांख्यक पर्याप्त प्रभाव अछि किन्तु योग सांख्य जकाँ अनीष्वरवादी नहि अछि।
महानायक विकास मंत्रयान तथा वज्रयान थिक। परवर्ती दूनू भागमे तंत्र मंत्रक प्रयोग बहुत अधिक भेल जाहिमे हठयोगक प्रधानता अछि। शाक्त दर्षन, अद्वैते दर्षन जकाँ, षिव (पुरूष) आ शकित (प्रकृति) द्वारा सृषिटक सिथति मानैत अछि। तेँ एहि सृषिटमे ने पाप अछि ने पुण्य तथा ने घृणा अछि ने अघृणा। वामाचार एहीठामसँ अलग भ• जाइछ। किन्तु र्इ संसार त्याग नहि करैछ। र्इ समाधि द्वारा महासुख प्राप्त कर• चाहैछ जे मुकितसमान अछि। एहीठामसँ पंचमकारीक विकास भेल।
आश्चर्यक विषय तँ र्इ अछि जे, जे बौद्ध वैराग्यक निवृतिक समर्थक छल तकरे अगिला विकास प्रवृतिमार्गी भ• गेल। लगैत अछि जे निवृति ओ प्रवृतिक संघर्ष चलैत रहल हो। वेद ओ ब्राह्राण प्रवृति मार्गक समर्थक छल तँ उपनिषद ओ बौद्ध जैन निवृतिमार्गक। कृष्ण आ जनक एहि दुनूमे समन्वयन उपसिथत केलनि यधपि प्रवृति ओ निवृतिक क्षीण संघर्ष बादोमे देखबामे अबैत अछि किन्तु ओ जीवनकेँ प्रभावित नहि केलक। कालांतरक हिन्दू जीवन कमूल वैह समन्वयन रहल जाहिमे प्रधानता रहल प्रवृतिये मार्गक जे प्राकृतिक छल तथा स्वाभाविको।
कालांतरमे, जहिना-जहिना कृषिक विकास होइत गेल तथा परिवारमे दृढ़ता अबैत गेल तहिना-तहिना देवता लोकनिक परिवारक कल्पना सेहो कयल गेल, पार्वती, गणेष आदि ओही कल्पनाक प्रतीक थिक।
जे हो, हमरालोकनि आइ जकरा हिन्दू धर्म कहैत छी ओ गुप्तकाल धरि सम्पूर्ण रूपेँ प्रस्तुत भ• गेल छल। कालांतकरक भकित आंदोलन ओकरा सुदृढ़ आधार देलक। एहीठाम आस्था आ विष्वासक प्रष्न उठैत अछि जाहिठाम भारतीय पूर्ण स्वाधीन अछि जे एकर सह असितत्वक भावनाक परिचायक थिक।
हिन्दू धर्म कोनो व्यकित् विषेषक अथवा कोनो ग्रंथ विषेषक निर्देषन नहि थिक, जेना कि विष्वक अन्य धर्म सब अछि, अपितु र्इ काल परम्पराक समन्वय थिक। आगम थिक अनार्य केर तथा निगम थिक आर्य केर। हिन्दू धर्म आचारमे भने संकीण्र हो किन्तू विचारमे अतिषय उदार एवं सहिष्णु अछि। कहबाक प्रयोजन नहि जे, जे धर्म जतेक मौलिक, प्राचीन तथा जीवनानुकूल होयत ओ ततेक सहिष्णु एवं उदार होयत जकर प्रमाण थिक सामंजस्य।
विष्वमे अनेक धर्मक अनेक सम्प्रदाय जतेक बर्बरतापूर्वक परस्पर रक्तपात केलक अछि, भारतक धर्म तथा सम्प्रदाय र्इ देखिकेँ चकित अछि।
विश्व संस्कृतिक संग र्इ सिथति नहि अछि। जहिया भारतमे ऋग्वेदक रचना परम्परा समाप्त भ• रहल छल (र्इ. पूर्व 1500र्इ.) तहिया यूनानमे आर्य (डोरियन-एकियन) प्रवेषे क• रहल छल।
एही नवीन चिंतन परम्पराक कारणे योरोपक विद्वान धर्म आ भकितकेँ एके मानि लेलनि। आधुनिक कालमे योरोपक यैह भ्रम भारतीयो चिंतनमे आबि गेल जाहिसँ चिंतन अराजकता उत्पन्न भेल। आ आधुनिक कालमे भकित आ धर्मकेँ एके मानि लेल गेल।
वस्तुत: धर्म जँ शरीर थिक तँ भकित आत्मा ओ बाह्रा थिक तथा र्इ आभ्यन्तरिक ओ सामाजिक थिक तँ र्इ वैयकित। धर्म कर्म थिक किन्तु भकित मर्म। धर्मक सम्बंध मानवीय आचरणसँ अछि किन्तु भकितक मानसिक आस्थासँ एवं विष्वाससँ। व्यकित आचरणसँ समाज प्रत्यक्षत: प्रभावित होइत अछि किन्तु आस्था विष्वाससँ परोक्ष रूपेँ।
आ तेँ भरतीय मनीषा, धर्मक सम्बंधमे अनेक निर्देषन देलनि, अनेक व्यवस्था देललि तथा कठोरताक स्तर धरि पहुँचि गेलाह, वैह भकितक प्रसंगमे मौन रहि गेलाह। एकरा व्यकित विवके पर छोडि़ देलनि। यैह थिक भारतीय सह असितत्वक चिंतन केर महानता जाहि कारणे भारतमे, विभिन्नतामे अभिन्नता भेल तथा अनेकतामे एकता रहि सकल।
एही तथाकथित धर्मक नाम पर जतेक युद्ध योरोप तथा अरब देखलक ओ भोगलक अछि एवं जतेक बर्बर नरसंहार केलक अछि ताहिसँ ओहि समयक एकटा नवीन विष्व बसि सकैत छल। असलमे जे धर्म जतेक नवीन होयत ओ ओतेक असहिष्णु होयत। र्इसाइ तथा इस्लाम दुनूक हाथमे तरूआरि छल आ मोनमे छल लोभ, ओकरे परिणाम छल भीषण रक्तपात।
भारतमे (तथाकथित) धर्मयुद्ध कहियो नहि भेल। किछु विद्वान भ्रमवष रामयुद्ध तथा भारतयुद्धक संज्ञा देलनि जे हुनक तथ्यहीनता थिक। रामयुद्ध आर्यीकीएरक तथा भारतयुद्ध स्वामित्वक युद्ध थिक। किन्तु भारतमे तँ प्रत्येक कर्मकेँ धर्मे मानिकेँ कयल गेल, युद्धो धर्मसम्मते कयल गेल, तैं र्इ भ्रम भेल।
कहबाक प्रयोजन नहि जे अपेक्षाकृत भकित प्राचीन थिक, एकर जन्म मानव सभ्यताक विकासक सड.हि भेल अछि।सभ्यता जखन विकसित होइत अछि प्रकारेँ भकित सभ्यताक देन थिक तथा धर्म संस्कृतिक अवदान।
भकितक जन्मक प्रसंगमे अनेक मत व्यक्त् कयल गेल अछि जाहिमे भयक सिद्धान्तकेँ प्रमुखता देल गेल। एही सिद्धान्तकेेँ कतिपय भारतीयो विद्वान मानि लेलनि, भ्रमक यैह कारण थिक। एहि सिद्धान्तमे आंषिक सत्यता अछि, योरोपीय चिंतन लेल र्इ महत्वपूर्ण अछि। जकर प्रमाण थिक ओल्ड टेस्टामेंटक याहोबा जकरा प्रति भयेक भावना अछि। याहोबा देवकेँ अति कठोर मानल गेल अछि, एहने भावना इस्लामक अल्लाक प्रति अछि।
एकर विपरीत आर्यक आदिमदेव इन्द्र वरूणमे मानवे रूपक आरोपन भेल अछि तथा सदय मानल गेल अछि, अपितु सदति काल संगेमे रह• बला मित्र। यैह भावना कालांतरमे साख्यभावमे प्रकट होइत अछि। भारतम यम देवकेँ सेहो तत्वचिंतक आ मानव हितैषी तथा त्राणदाता मानल गेल अछि। यैह भावना परवर्ती ब्रह्राा विष्णु महेषक त्रिदेवमे अछि। जाहि महेष केँ मृत्युक देवता मानल गेल हुनका षिवक सड.हि अन्यतम दयालु औढ़रदानी मानल गेल अछि। एहि प्रकारेँ भारतीय देवमे दयाभावक आधिक्य, निर्भयतेक परिणाम थिक।
एकर मुख्य कारण थिक संघर्षषीलता। योरोपीय आर्य सभ्यताकेँ जतेक संघर्ष कर• पड़ल ततेक भारतीय आर्यकेँ नहि। योरोपक छोट-छोट पथरीला भूखंड तथा जलवायूक एकरसता ओकर संघर्षकेँ आरो बढ़ा देलक तेँ ओकरामे बर्बरतो अधिक आयल तथा भयो। जकर प्रमाण थिक हाब्स तथा लाक जे प्राचीनकेँ बर्बर मानैत अछि।
भारतक सुविस्तृत कोमल भूमि तथा समषीतोष्ण जलवायु एवं वन्यप्षुक पर्याप्ता एकरा सह असितत्ववादी सदया बना देलक। तेँ एकर देवो भेलाह सदय जे भयक परिणाम नहि थिक।
भारतीय भकित केर जन्म जिज्ञासा एवंं प्रयोजनक कारणे भेल अछि। एहिमे भय कतहु नहि अछि।
धर्म भ• गेल कर्म तथा भकित भ• गेल आस्था। ओ रहल सामाजिक, र्इ भेल वैयकितक। आधुनिक कालमे दुनूकेँ एक क• देल गेल। दुनू कतिपय कारणे प्राणहीन भ• गेल।
स्मरणीय जे भकितक जन्मक सम्बन्धमे कोनो एक कारण पर्याप्त नहि थिक। र्इ अनेक भावक परिणाम थिक।
भारतीय आदिमानवक आदिमदेव भेल वृक्ष जाहि पर ओकर पूर्वज रहैत छल तथा स्वयं जकर फल खाइत छल। बादमे ओकर देव भेल नदी जाहिसँ पशुये जकाँ जल पिबैत छल। अंतमे भारतीय आदिदेव भेल षिष्नदेव तथा स्त्री योनि जकरा ओ सब एहि सृषिट कमूल बुझलक।
एहिमे वृक्ष तथा नदी, षिकार युग अर्थात संग्राहक संस्कृतिक देव थिका। संग्राहक संस्कृति जखन उत्पादन संस्कृतिकमे अर्थात पशुपालन युगमे प्रवेष क• रहल छल तखनुक देव थिक षिष्नदेव एवं पशुपालन यूग जखन कृषिसँ परिचित भ• रहल छल तखनुक योनिचिहन जे पाछू एकाकार भ• गेल। र्इ सब देवधारणा र्इ पूर्व 20,000 वर्ष पूर्वसँ ल• केँ र्इ पूर्व 10,000 वर्ष पूर्व धरिक थिक। वैह वृक्ष आ नदी आइयो भारतीय जीवनमे अछि।
शिकार युग जे शुद्ध मातृसत्तात्मक छल ओ जखन पशुपालन युगमे प्रवेष क• रहल छल तखन एकटा परदेषीक दल आयल छल जकरा प्रोटो आस्ट्रेलाइड कहल जाइत अछि। जे चर्मटोपी पहिरैत छल तथा सींग जकाँ किछु दुइटा खोंसैत छल तथा जकर थुथून आगू मुहेँ नमरल रहैत छल। जकर स्मृतिषेष महिषासुरमे अछि। ओकरे सड.े भारतीय आदिमानवक युद्ध भेल छल जकर नेतृत्व मातृ सत्तात्मक युग हैबाक कारणे मातृवर्गे कयने छल। ओही युद्धक सर्वश्रेष्ठ स्त्रीयोद्धो गुणगायन कालांतकर समाज करैत रहल। ओही आदिम मातृयोद्धाक स्मृतिषेष जे विभिन्न समाज तथा कालक यात्रा करैत आर्य लग पहुँचल तँ मातृदेवी (काली दुर्गा) क रूपमे प्रकट भेल।
ओही प्रोटो आस्ट्रेलाइडक संग मीलिकेँ जे व्यकित सर्वप्रथम कृषि प्रारम्भ केलक ओकरे पाछू षिव मानल गेल जे द्रविड़ सभ्यताक भारषिव थिक जे मोहर पर सींग धारण कयने चारि पशुक बीचमे बैसल अछि।
अपन यैह आदिमदेव तथा धारणा ल• केँ आदिम मानव द्रविड़ सभ्यताक निर्माण केलक ताधरि आरो अनेक औषिट्रक जाति भारत आबि गेल छल।
द्रविड़ सभ्यता कृषिमूलक भौतिकवादी सभ्यता छल। ओ सम्भव पूर्ववर्ती षिष्नदेव आ भारषिवकेँ एकाकार क• देलक तथा पूर्वक मातृदेवीक स्मृतिकेँ साकार एवं स्थावर रूप द• देलक। तेँ हड़प्पा मोबनजोदडोमे मातृदेवीक अनेक मुर्ति भेटैत अछि। सम्भव ताधरि षिष्नदेव आ भारषिवक एकीकरण नहि भ• सकल छल तेँ दुनूक अलग-अलग मूर्ति भेटैत अछि। षिष्नदेवक अनेक छोट-छोट मूर्ति एहि बात दिस संकेत करैत अछि। कृषिक कारणे वृषभ तथा सम्भव किछु अन्यो पशुकेँ देवक कोटि देल गेल हो जे पाछू टोटेम बनि गेल हो। सम्भव हाथी पोसब एही समयमे प्रारम्भ भेल हो जकर स्मृति गणेष मे भेटैत अछि। आदिम मानव सभ्यतामे पशु पक्षीकेँ देव मानबाक प्रथा छल जे विभिन्न देषक पौराणिक कथामे अछि तथा यैह सम्भव टोटेमक रूप धारण केलक।
स्मरणीय जे आदिम प्राचीनकालमे मौखिक कथा-परम्परा अत्यन्त विकसित छल। एही कारणे आहिकालक अनेक कथा, जे कोनो ने कोनो वास्तविक सिथतिसँ सम्बंद्ध अछि, यात्रा करैत आर्यसमाज धरि चलि आयल अछि। आर्य कल्पनाक भगवती, महेष, गणेष, नन्दी तथा भैरव आदि ओही आदिम (भारतीय) तथा द्रविड़ समाजक स्मृतिषेष थिक आ जे मिलन प्रक्रियाक प्रतिफलन थिक। परवर्ती भारतीय आर्यक सम्बंघ जखन यमुनातटक नाग जातिसँ भेल तँ नागोकेँ देव मानल गल जे ओकर प्रबलता एवं सौन्दर्यक प्रतीक थिक। नागभावना बौद्धकालमे अत्यन्त विकसित भेल तथा बौद्धे द्वारा प्रचारिता भेल। बौद्ध यक्षकेँ सेहो देव मानलक जे पौराणिक साहित्यमे स्थान पओलक। किन्तु र्इ सब बादक सिथति थिक।
आर्य समाजक आदिमदेव थिक धौंस, जकर विकास आर्यक मूले अभिजनमे भेल छल जे ज्युयस बनिकेँ यूनान गेल। सम्भव त्वाष्ट्री (अगिनदेव) सेहो ओही कालक देव थिक जे कालांतरमे आर्यजनमे गौण भ• गेल होयत। ऋग्वेदकेँ एहि दुनू देवक मात्र स्मृति टा अछि।
हमर निषिचत मत अछि जे इन्द्र, मित्र, वरूण, नासत्य आदि देवक कल्पना अर्यक किछु दलम तखन जागल जखन मूल अभिजनसँ बहराकेँ हित्ती-मित्तनी, हुर्री-कस्साइट तथा र्इरानी-भारतीय आर्यक एकटा महादल कासिपयन सागरक पूर्वी तट होइत र्इरान दिस चलल होयत। एही कारणे एहि सब दलमे एतेक समानता अछि तथा हित्ती मित्तनीमे इन्द्र, मित्र, वरूण, नासत्यो अछि जे बोगाजकोइक संधिलेख प्रकट करैत अछि। र्इ समय र्इ. पूर्व 3500 सँ 3000 वर्षक बीचक थिक जखन धरि र्इ सब दल संग संग र्इरान धरि रहल अछि। पुन: संख्याधिक्यक कारणे, हित्ती मित्तनी पुन: कासिपयन सागरक पषिचम तट होइत (आधूनिक) तुर्की र्इ. पूर्व 2500 सैक आसपास पहुँचि गेल तथा कस्साइट एलम सूसा दिस बढ़ल जे हमदान अभिलेखसँ प्रकट होइत अछि तथा हुर्री टारस पर्वतक आसपास रहि गेल हो। हित्ती-मित्तनीक एही निष्क्रमणक पश्चात देवासुर संग्राम भेल तथा भारतीय आर्यदल भारत दिस चलल। एहि प्रकारेँ भारतीय आर्य र्इ. पूर्व 2200-2000क आसपास सुवास्तु तट पर स्थापित भेटैछ।
एही र्इरान कालमे हित्ती मित्तनीक निष्क्रमणक पश्चात यज्ञवादक जन्म भेल तथा त्वष्ट्रीक बदलामे वैष्वानर प्रधानदेव मान्य भेल एवं कुंड खोधिकेँ अगिन आधानक प्रक्रिया असितत्वमे आयल। तेँ हित्ती-मित्तनी सड.े विकसित यज्ञवाद नहि गेल किन्तू पार्षव (र्इरानी) मे रहि गेल। सम्भव सुवास्तु तट पर उषा देवीक रूपमे मान्य भेल होयत आ सौन्दर्य सम्बन्धी मंत्रक रचना एही तट पर भेल होयत। एहि प्रकारेँ पूर्व वैदिकयुगक प्रधान देव भेलाह इन्द्र, मित्र, वरूण, वैश्वानर, उषा एवं सरस्वती आदि।
जेना कि पूर्वे कहल गेल अछि, भारतीय देवमे मानवीये रूपक आरोपन भेल अछि तथा ओ सदय मित्र मानल गेल।
एही मानवीयकरणक कारणे राजा तथा सेनापतिकेँ इन्द्रे कहल गेल जकर प्रमाण थिक देवासुर संग्राम तथा पुरन्दर नाम एहि सब देवमे अगिनकेँ अपन अति निकटक देव मानल गेल जकरा प्रति गृहमे कुलागिन कहिकेँ स्थान भेटल तथा अन्य देवकेँ आहुतिक माध्यम मानल गेल। कल्पना कयल गेल जे आवाहनक सड.हि देव उपसिथत होइत छथि। वरूणकेँ सम्राट रूपमे सेहो देखल गेल अछि, सम्भव एहन रूप वरूणकेँ रावी तटसँ सरस्वती तटक बीचमे देल गेल हो जखन आवास व्यवस्था स्थायी तथा कृषि जीवन प्रारम्भ भेल।
जे हो, जखन जाही देवक आवाहन, स्तुति गायन तथा याचना-कामना व्यक्त कयल गेल, तखन वैह देव सर्वोपरि मानल गेलाह। समस्त देव मंंडलक प्र्रति समान आस्था, विश्वास एवं निष्ठा व्यक्त कयल गेल। सामाजिक जीवनमे जहिना जहिना वैभिन्नय अबैत गेल देव संख्या बढ़ैत गेल, पर्जन्य, पूषा, रूद्र एवं विष्णु आदि ओकरे परिणाम थिक जे पूर्वमे गौणदेव छलाह। एहि प्रकारेँ आरमिभक आर्य निराकार बहुदेवोपासक छलाह।
किन्तु जहिना-जहिना लोकजीवनमे स्थायित्व अबैत गेल, पुन: देवताक संख्या घटैत गेल, देव युग्म बन• लागल जेना मित्र आ वरूण मीलिकेँ एक भेलाह मित्रावरूण। जेँ ल• केँ वशिष्ठ, एही दुनू देवक अर्चना -वन्दना अधिक करैत रहथि तेँ र्इ मैत्रावरूण कहौलनि।
जहिना-जहिना शिकार ओ पशुपालन घटैत गेल, कृषि बढ़ैत गेल, समाज ओ जीवनमे स्थायित्व अबैत गेल तथा बौद्धिकताक तर्कशीलताक विकास भेल, देवता लोकनिमे परस्पर एकात्मकताक भावना जगैत गेल। एहीठामसँ एकेश्वरवादक भावना समाजम आब• लागल, जकर प्रमाण थिक ऋग्वेदक अंतिम दशम मंडल जे परवती रचना थिक, ते सहस्रशीर्षा पुरूषा केर अवतरण। र्इ भावना समाजक एकीकरणक प्रतिफल थिक। र्इ प्रवृति सरस्वती तटसँ गंगा तट धरिक बीच अधिक प्रबल भेल होयत आ जे र्इसा पश्चात प्राय: 10म शताब्दी धरि रहल।
भारतीय जीवनक गतिशीलता तथा दृषिटकोणक प्रगतिशीलता अति प्राणवंत अछि जे ग्लेशियरे अर्धदृश्य अछि। एकरा अंगरेज विद्वान ने देखि सकैत छल आ ने बूझि सकैत छल। तेँ गतिहीन तथा जड़ मानि लेलक। भारतक दुर्र्भाग्य थिक जे वैह पहिलुक इतिहासो लिखलक जाहि कारणे अनेक भ्रम आइधरि पसरल रहि गेल।
उत्तर वैदिक युगक ब्राह्राण कालमे, समाज बदलि गेल, जीवन बदलि गेल आ तेँ देवो बदलि गेलाह। बदललनि ब्राह्राण लोकनि आ युगानूरूपता देखिकेँ समाज ओकरा स्वीकृत केलक।
जाहि पूर्व वैदिकयुगक देवकेँ उत्तर वैदिकयुगमे गौण मानल गेल अछि, वस्तुत: ओ आरो प्रधानताकेँ प्राप्त केलनि। उत्तरे वैदिकयुगमे पूर्व वैदिकयुगक यज्ञवाद व्यापकेटा नहि भेल, अपितु जटिल तथा क्रमश: आडम्बरपूर्ण होयब अत्यावश्यक छल कारण ओही यज्ञ द्वारा अनार्य आर्यवृत्तमे आबि रहल छल। दोसर राजा (राजन्य वर्ग) तथा महाशाल लोकनि जे विभिन्न यज्ञ करैत छल तकरा आकर्षक, भव्य तथा आडम्बरी होयब अनिवार्य छल, कारण ओहिमे अनेक अनार्य सरदार तथा अनार्य जनता, कौखन वन्योजन देख• अबैत छल, प्रभाव उत्पन्न करक लेल र्इ अत्यावश्यक छल।
आइयो, जे पुरोहित सत्यनारायण पूजा शीघ्र समाप्त क• लैत छथि, लोककेँ ओहि पुरोहितक प्रति अविश्वास भ• जाइत अछि। र्इ सिथति आधुनिक वैज्ञानिक युगक थिक। सामान्यत: लोक भकितप्रसंगमे अत्याधिक रूढि़़वादी तथा अंधविश्वासी होइते अछि। वास्तविकता तेँ र्इ अछि जे यज्ञवादकेँ आडम्बरी होयब ओहि युगक अनिवार्यता छल। ओहि यज्ञमे आहुति ओही पूर्व वैेदिकयुगक इन्द्र, मित्र तथा वरूण आदि देवकेँ देल जाइत छल एवं ओही देवक आवाहन होइत छल। उत्तर वैदिकयुगक त्रिदेवक यज्ञकेर अवसर पर पूजा अवश्य होइत छल किन्तु ओ यज्ञक प्रधान देव कहियो नहि भेलाह। एहि प्रकारेँ पूर्व वैदिक देवताक प्रधानता घटल नहि अपितु बढ़ल। र्इ बात भिन्न थिक जे देवस्वरूप संकल्पनामे परिवर्तन आयल तथा र्इ देव मात्र याज्ञिक देव भेलाह, सामाजिक देव भेलाह त्रिदेव। एही समाजमे एकटा नवीन अवधारणा अर्थवेदक द्वारा प्रत्यक्ष भेल।
एखनधरि देव आकशक आ अंतरिक्ष छलाह, आब धरतीक सेहो एकटा भेलाह भूदेव, जे भेलाह ब्राह्राण लोकनि। सम्भव ब्राह्राण लोकनि निष्ठा, सत्य, सेवा,शिक्षा, समाज-नियमन एवं व्यवस्थापनमे एतेक निष्पक्ष, समदर्शी ओ महान भेलाह जे अथर्ववेदक द्वारा धरतीक भूदेव मानि लेल गेलाह जकर समर्थन यजुर्वेद सेहो करैत अंिछ। सम्भव र्इ. पूर्व 1100 र्इ धरि अर्थात अथर्ववेदक समपादन काल धरि ब्राह्रामण लोकनि भूदेवक रूपमे मान्य भ• गेल छलाह।
टसलमे ब्राह्राण भूदेवक प्रयोजन ओहि युगकेँ छल। कहबाक प्रयोजन नहि जे समाजमे कोनो अवधारणा निरर्थक ओ निष्प्रयोजन नहि जन्म लैत अछि। र्इ बात भिन्न थिक जे युगपरिवर्तनक सड.हि पूर्व अवधारणा रूढि़ भ• जाइत हो। आ से भेल। एहि भूदेव अवधारणाक कारणे ब्राह्राणजतिक बहुत क्षति भेल अछि।
भूदेव अवधारणाक सड.हि ब्राह्राणकेँ अवध्य, अदंडय आ अवहिष्कार्य तँ मानले गेल, सड.हि एकरा सम्पति संचयसँ सेहो यजुर्वेदक द्वारा वंचित, वर्जित क• देल गेल। एकर फल र्इ भेल जे ओहि कृषि विकासक युगमे ब्राह्राण पछुआ गेल जे आइधरि पछड़ले रहि गेल। आ तेँ कालांतरमे कथा पंकित बनल एकटा छल राजा तथा एकटा छल गरीब ब्राह्राण।
यैह गरीबी ब्राह्राण लेल वरदान बनि गेल जे र्इ एकमात्र शिक्षा जगतसँ जुड़ल रहल, सत्य आ निष्ठाक जीवन जीबैत रहल तथा चिंतन ओ दर्शन-राज्यक सम्राट बनि गेल। पौरोहित्यक सामाजिक जीवनमे र्इ जतबे आडम्बरी रहल वैयकितक जीवनमे ततबे सरल। पौरोहित्य एकर वृति बनि गेल।
एहि भूदेवक युगीन प्रयोजन छल। एकतेँ जाधरि ब्राह्राण स्वयं देवता नहि मानल जाइत, ताधरि व्रात्यष्टोम यज्ञ द्वारा जे अनार्यकेंँ आर्यवृतमे आनिकेँ आर्यीकरणक कार्यकेँ पूर्णता देल जा रहल छल से प्रभावशाली नहि होइत। ब्राह्राण वाक्य मानिकेँ र्इ कार्य सम्पादित होइत छल। दोसर बहुत रास वर्णसंकरकेँ सेहो वर्णकाटि देल जा रहल छल तथा योग्तानुसार तथा कर्मानुसार बहुत रास वैश्यकेँ क्षत्रिय कोटि तथा क्षत्रियकेँ वैश्य कोटि देल जा रहल छल जे स्वेछानुसार तथा प्रयोजनानुसार छल। र्इ कार्य सामाजिक संगठन तथा व्यवस्थापना लेल। अत्यावश्यक छल जकर पूर्ति एकमात्र ब्राह्राणे करैत छल अथवा क• सकैत छल। तेँ पहिने ब्राह्राणेकेँ भूदेव मानि लेल गेल। र्इ तँ सामाजिक प्रयोजन छल। राजनीतिको प्रयोजन छल।
पूर्व वैदिकयुगक सामाजिक समझौता सिद्धान्तक अनुकूल, कबिलाइ समाज ओ जीवनपद्धति टूटि रहल छल। पूर्व केर राजनीतिक जीवनमे अनेक परिवर्तन आबि गेल छल, आबि रहल छल। राजतंत्र आब एकमात्र निर्वाचन पद्धतिपर टिकल नहि रहल अपितु कौलिक भ• गेल छल, भेल जा रहल छल। पूर्वक सभा ओ समिति गौण भ• गेल। राजतंत्र क्रमश: निरंकुशता दिस बढि़ रहल छल। आब राजा गत्वरजनक नेतेटा नहि अपितु स्थायी आवास तथा समाजक शासक सेहो छल।
आर्यवृत आयल समस्त अनार्य पर शासन ओ नियंत्रण स्थापित कर• चाहैत छल। दोसर दिस पूर्व वैदिकयुगमे राजा मात्र उपहार पर जे प्रजा द्वारा स्वेच्छासँ देल जाइत छल, जीवनयापन करैत छल। आब अपन आडम्बरी जीवन, शासन व्यवस्थापना, शिक्षा ओ ब्राह्राणक लेल दान तथा अन्य कार्य लेल कराधानक अधिकार चाहैत छल। आ एहि सब लेल आवश्यक छल सामाजिक समझौता सिद्धान्तक स्थान पर दैवी सिद्धान्तक प्रतिष्ठापन।
एही दैवी सिद्धान्तक आधारपर राजा देवक प्रतिनिधि घोषित कयल जाइत तथा मान्य होइत। तखने देव इच्छासँ ओ शासन तथा कराधान आरोपित क• सकैत छल तथा राजाज्ञाक उल्लंघन, देवाज्ञाक उल्लंघन मानल जाइत जे दंडनीय थिक। एहीठामासँ दंडनीय उदय होइछ। किन्तु दैवी सिद्धान्तक प्रतिपादन तथा कार्यान्वयन एकमात्र ब्राह्राणे क• सकैत छल जे ताधरि अपन शिक्षापरम्परा, अपरिनिष्ठा तथा सामान्य ज्योतिष लग्न, पौरोहित्य तथा धर्मनियामक व्यवस्थापक कारणे समाजक सर्वोच्चे, सर्वप्रधाने नहि अपितु अनिवार्य अंग सेहो बनि गेल छल।
तेँ ब्राह्राणेटा भूदेव बनि सकैत छल तथा वैह दैवी सिद्धान्तक प्रविष्ठापन प्रभावशाली एवं गरिमामय ढंंंगेँ क• सकैत छल। र्इ तत्कालीन राजनीतिक अनिवार्यता छल।
भूदेवमे गरिमाक अभाव नहि छल, किन्तु प्रभावक वृद्धि राजाक द्वारा भेलासँ देवत्वमे पूर्णता आबि गेल, विशेषत: लोकदृषिटमे। यैह भूदेव, राज्यभिषेकक अवसरपर राजाकेँ देवप्रतिनिधि मानैत शासन ओ कराधानक अधिकारी घोषित करैत छल तथा राजाज्ञाकेँ देवाज्ञा जकाँ अनुलंघनीय एवं दंडनीय कहैत छल जे मान्य होइत छल। किन्तु भूदेव बनि गेलाक बाद, कालांंतरमे यज्ञवादक महत्व घटिते ब्राह्राणक दुर्गतियेटा नहि भेल अपितु बहुत पूर्वेसँ जन्मना सिद्धांतसँ रूढि़वादिता तथा कृषि विमुखताक कारणे सबदिन (आइ धरि) र्इ जाति सामूहिक रूपेँ दरिद्रे गेल। र्इ सिथति र्इसाक 10म शताब्दीक पश्चात आरम्भ भेल तथा अंगरेजकालमे चरम पर पहुँचि गेल। जाहि भूदेवसँ अपन-अपन कन्याक विवाह करेबाक लेल राजन्य वर्ग, वैश्य वर्ग तथा अन्य महाशाल (धनीक) लोकनि प्रतीेक्षामे रहैत छल जकर प्रमाण थिक समाजमे प्रचलित अनेक विवाहपद्धतिमे सँ एकटा देवविवाह, जाहि अनुसारे यज्ञेकालमे पुरोहित अथवा ब्राह्राणसँ ब्रह्रााक आज्ञासँ विवाह सम्पादित होइत छल।ओ (ब्राह्राणयुग) सिथति बदलिते विपन्न एवं सर्वहारा भ• गेल।
ब््राह्राणक रूढि़वादिते विपन्नताक कारण बनल। सर्वप्रथम जखन अरबीक हाथेँ (आठम सदी) सिन्ध आ दाहिरक पतन भेल तँ ब्राह्राणवर्ग अधीनता नहि स्वीकार केलक, सिन्ध प्रान्तसँ भागल, किछु उतर आयल आ किछु दक्षिण दिस भागल। पुन: अलाउíीन खिलजीक कालमे ब्राह्राण राजकार्यमे तँ भाग नहिये लेलक जे फारसी भाषाक सेहो विरोध केलक। ब्राह्राण ने फारसी सिखलक ने राजनीतिमे आयल। मुगलकाल धरि छुआछूतक कारणे कटल, हटल रहल तथा अपन संस्कृत ओ संस्कृति धयने रहल। यैह सिथति अंगरेजेा कालमे रहल। अंगरेजीक ओ अंगरेजक विरोधे करैत रहल। वारेन हेसिंटग्सक समयमे तथा बादोमे संस्कृत पढ़य आब• बला अंगरेज, फेंच तथा जर्मनकेँ संस्कृत अवश्ये पढ़बैत छल जाहि कारणे प्राच्यविधाक एतेक प्रचार प्रसार भेल तथा योरोपमे प्राच्य विधाकेँ एतेक सम्मान भेटल एवं भारतीय संस्कृतिकेँ विश्वभरिमे महान मानल गेल किन्तु अध्यापन पश्चात अथवा स्पर्श होइतहि गंगास्नान क• लैत छल। ब्राह्राण यूनानीसँ ल• क• अंगरेज धरि सबकेँ म्लेच्छे मानैत रहल तथा स्पशकेँ वर्जित मानैत रहल। अंगरेज सर्वाधिक एही जातिसँ एह सभक कारणे क्षुब्ध क्रुद्ध रहल। ब्राह्राण अंगरेजी भाषेक अभावमे कहियो राजकार्यमे भाग नहि लेलक, आर्थिक सिथति निरंतर दयनीये भेल गेल। आ जे भागो लेलक तँ विद्रोही वैह प्रकट केलक सर्वप्रथम ।
टवंतारवाद सर्वप्रथम कल्पना शतपथ ब्राह्राणमे देखैत छी। एकर अर्थ भेल जे भारत युद्धक दू सै वर्षक भीतरे त्रिदेवक कल्पना साकार भ• गेल छल।
त्रिवेदक ब्रह्रा पूर्व वैदिकयुगक ब्रह्राा प्रजाति थिकाह। पूर्व वैदिकयुगमे ब्रह्रााक प्रयोग अनेक अर्थमे देखैत छी, यज्ञक र्अगिनक अर्थमे सेहो, मंत्रक अर्थमे सेहो, यज्ञक सर्वज्ञक रूपमे सेहो तथा सृषिटकर्ताक रूपमे सेहो। एही ब्राह्राासँ ब्राह्राण संबा बनल तथा उपनिषद कालक ब्रह्रा यैह पूर्व वैदिकयुगक ब्राह्राा थिक। जहिना पूर्व वैदिकयुगक इन्द्रदेव, राजाक रूपमे प्रकट भेल तहिना ब्रह्राा प्रजापति, यज्ञप्रधान ब्रह्रााक रूपमे। र्इ परम्परा आइयो यज्ञकालमे तथा ब्राह्राणक उपनयन कालमे देखबामे आबि सकैत अछि, जाहिमे ब्राह्राा बनाओल जाइछ।
त्रिवेदक ब्रह्रा प्राय: पूर्व वैदिके युगक ब्रह्राा थिकाह आ जे समस्त तेज, तप, सृषिट आ ज्ञानक प्रतीक बनल रहलाह। दोसर देव भेलाह विष्णु।
पूर्व वैदिकयुगमे विष्णु गौण देव छलाह जे सूर्यक अन्य नाम ओ रूपमे वर्णित अछि। एहि विष्णुमे इन्द्र वरूणक सेहेा समन्वयन भ्ेाल तथा पालनकर्ताक रूप देल गेल। ब्रह्राा, जकर जन्म देननि विष्णु तकरे पालन करताह तेँ विष्णुकेँ ब्राह्रााक अनुगत मानल गेल।
जत• ब्रह्राामे शुुद्ध आर्यतत्व रहल आ निराकार भाव रहल तत• विष्णुमे आर्य आ अनार्य तत्वक समन्वयन भेल आ रंग श्यामल मानल गेल जे अनार्य रंग छल अथवा आकाशक रंग छल। अनार्य निराकारी नहि छल आ समस्या छल समन्वयनक तँ ऋग्वैदिक विष्णुकेँ साकार रूपमे उपसिथत कयल गेल जे कार्य पूर्ण भेल विभिन्न पुराणक द्वारा। पुराणमे जे वामन अवतार भेटैत अछि से वस्तुत: शतपथ आ तेतरीय ब्राह्राणक विकास थिक जे ऋग्वेदक (11543) वर्णनक आधार पर अछि जहिठाम तीन डेगँ (सूर्यक उदय, मध्याहन, अस्त) पृथ्वीकेँ नापबाक बात कहल गेल अछि।
त्रिवेदक ब्रह्राा जतय शुद्ध आर्यदेव रहलाह ततय रूद्र शिव (महेश) शुद्ध अनार्य देव। विष्णुमे दुनू तत्वक भेल। एही समन्वयनक कारणे कालांतकरमे विष्णु सर्वाधिक लोकप्रिय देव भेलाह तथा बहुप्रचारित सेहो तथा अनेक अवतारक कल्पना सेहो विष्णुयेक संग सम्बंद्ध भेल। जतय ब्रह्राा शुद्ध निराकार रहला ततय रूद्र शुद्ध साकार विष्णुमे दूनूक समन्वयन भेल।
ब्रह्राा आ विष्णुये जकाँ रूद्रोक आधार ऋग्वेदे थिक। ऋग्वेदोमे रूद्र मानवे रूपमे वर्णित अछि आ सेहो दशम मंडलक सड.हि दोेसर (23311,6311,338) पाँचम (55314) सातम (75912,463) तथा आठम (8295) मंडलमे सेहो जे प्राचीनतम मंडल थिक। कालांतरक महेशक जतेक रूप नीलकंठी, प्रेतसंग, भस्मलेप, चर्मधारी, वृषभवाहन तथा रोगनाशक अछि, सबटाक आधार ऋग्वेदे थिक। अथर्ववेदमे सर्वप्रथम भूतपति, पशुपति तथा महादेव कहल गेल अछि। वैदिक रूद्र रौद्र रूपक प्रतीक थिक। त्रिदेवक रूपमे रौद्रक सड.हि दयामय शिवरूपक सेहो समन्वयन भेल जे तत्कालीन अनार्य बहुल समाजक अनूकूल छल। अनार्यक संख्या अधिक छल तथा क्रुद्ध भेला पर आर्य पर आक्रमणो क• दैत छल तेँ रूद्रमे औढरदानी दयामय रूपक कल्पना कयल गेल, ओकरहि (अनार्य) पर उत्पादन कार्य मुख्यत: कृषि निर्भर छल तेँ शिवत्वक अधिक आरोपन भेल तथा द्रविड़क शिश्नदेव संग सम्बंध क• देल गेल। तेँ मैथिल ब्राह्राण आइयो महादेव शिवक प्रसाद नहि खाइत अछि आ जे खाइत अछि से भिन्न उपजाति पंडा भ• जाइत अछि जकर वैवाहिक सम्बंध मूल ब्राह्राणसँ छूटि जाइत अछि।
शुक्ल जयुर्वेदक शतरूद्रीय प्रकरण सड.हि त्रिदेवक रूद्र (अथवा षिव) बद्धमूल भ• गेलाह। एहि प्रकारेँ त्रिवेद कल्पना र्इ. पूर्व 1000 र्इ.क आसपास धरि अपन असितत्वमे आबि गेल छल।
कहबाक प्रयोजन नहि जे त्रिवेद कल्पना सामाजिक संगठनक प्रतीक थि तथा ब्राह्राण चिंतक समन्वयवादी दृषिटकोणक प्रतिफलन थिक जे तत्कालीन प्रयोजन छल। ऋण्वेदक आधार पर अथर्ववेदक तथा शुक्ल यजुर्वेद यैह कार्य केलक, जकरा विकसित केलक विभिन्न ब्राह्राणगं्रथ आ जे ख्यात भेल विभिन्न पौराणिक प्रयासेँ।
स्मरणीय जे त्रिवेद विकास आकसिमक नहि, क्रमष: भेल। एहि त्रिवेदक प्रति लोकभकित जागृत भेल उपनिषदक।
उपनिषदेक जाहि परमतत्व, परमसत्ता, परमब्रह्राक कल्पना भेल अछि जे र्इष्वर आदि, अंतहीन, अनन्त असीमत तथा जकरा संकेत पर र्इ सृषिट संचालित अछि एवं जे सर्वव्यापी अछि कालांतरमे यैह तत्व सब त्रिवेदमे आबिकेँ सम्बद्ध भ• गेल आ त्रिदेव हिन्दू जीवनक आराध्यदेव भ• गेलाह।
डा. भंडारकर (अपन वैष्णविज्म शैविज्म पुस्तकमे) कहैत छथि जे उपनिषदमे जतय मोक्षप्रापित लेल ज्ञान, तप आवष्यक छल ओतय एहिठाम भकितभाव। डा. भंडारकरक अनुसारँ श्वेताष्वतरोपनिषदमे अव्यक्त ब्रह्राक स्थान पर सक्रिय व्यक्त देवताक प्रतिष्ठा कयल गेल अछि। सम्यकेतु विधालेकार भकितमार्गक विकास कठोपनिषपदक ओदि पंकितसँ मानैत छथि जाहिमे कहल गेल अछि जे परमात्मा स्वयं जकर क• लैत अछि (जकरा पर हुनक कृपा भ• जाइल अछि) तकरे सम्मुख अपन स्चरूपकेँ प्रकट करैत अछि।1 आ र्इ कृपा, स्मरण, भजन, गुणकीर्तन, अराधना तथा समर्पणक आधार पर सम्भव अछि। एहि लेल आवष्यक अछि आस्था एवं विष्वास।
वस्तुत: भकित आस्था एवं विष्वास पर आधारित अछि जे ब्राह्राणकालक उत्तरार्धक अर्थात र्इ. पूर्व 500 र्इ. क बादक विकास थिक।
निराकार ब्रह्राा केर तँ अधिक परिवर्तन नहि भेल किन्तु वैषणव ओ शैव सम्प्रदायमे अनेक परिवर्तन एवं रूपान्तरण भेल।
राजा वसु केर वासुदेव धर्म जे पशुबलिक विरोधी छल, पांचरात्र केर नर नारायण भकित तथा सात्वतक भागवत धर्म सबटा आविकेँ वैष्णक भकितसँ सम्बद्ध भ• गेल। सात्वत भागवतक आराध्यदेव, महाभारतक कृष्ण। एहि राजनीतिक कृष्णमे एकटा छोट सम्प्रदायक गोपाल कृष्ण तथा एक अन्य बाँसुरीवादक कृष्ण आबिकेँ मीलि गेल। कृष्णक स्वरूपकेँ आरो विराट बनौलक भागवत एंव ब्रह्रावैवर्त पुराण जे कृष्णमे लीलानायकत्व जोडि़ देलक। एहि प्रकारेँ अधिक जोड़तोड़ वैष्णवे धर्ममे भेल, शैव मतमे कम।
महाभारतमे भीष्म, कृष्णकेँ पूज्यं मानने छथि। डा. कीथक अनुसारेँ पाणिनि धरि कृष्ण अवतारमे स्वीकृत भ• गेल छलाह। यैह बात मेगास्थनीज र्इ. पूर्व चारिम शाताब्दीमे, पषिचम भारतमे देखने छल।2
एहि प्रकारेँ र्इ. पूर्व 1000 वर्षेक त्रिदेव, र्इ. पूर्व 500 र्इ. धरि र्इष्वरक रूपमे लोकदेव भ• गेल छलाह तथा शतपथ ब्राह्राणक अवतारवाद लोकजीवनमे प्रवेष क• गेल छल एवं वैदिक विष्णुक राम तथा कृष्ण अवतार रूपमे मान्य भ• गेल छलाह। एहि समयमे रचना प्रक्रियामे गतिषील रामायण तथा महाभारत तदनुकूले परिवर्तन क• रहल छल।
जाहि समयमे पूर्वी भारतमे जैन ओ बौद्ध सम्प्रदायक प्रचार भ• रहल छल, ओही समयमे पषिचमोतर तथा मध्य दक्षिण भारते वैष्णव तथा शैव सम्प्रदायक।
किन्तु र्इ. पूर्व 500 र्इ. धरि जखन आर्य अनाय मीलिकेँ एक भ• गेल छल तथा हिन्दू कहब• लागल तकर बादसँ यज्ञवादक महत्व घट• लागल जे गुप्तकालोत्तर लगभग सामाजिक जीवनसँ समाप्तप्राय भ• गेल मात्र वैयकितक जीवनमे (किछु समूहमे) रहि गेल। एही हिन्दू जनता लेल बहुत पूर्वे ब्राह्राणलोकनि त्रिदेवक कल्पना कयने छलाह से व्यावहारिक दैनिक जीवनमे प्रवेष क• गेल छल। एकर सम्बन्ध यधपि आस्था विष्वाससँ अछि जे भकित थिक किन्तु विद्वार द्वारा एकरा धर्मे कहल गेल।
जे हो, जैन, बौद्ध तथा वैष्णव ओ शैव धर्म कतहुसँ अब्राह्राण धर्म नहि थिक र्इ भ्रम अंगरेजक द्वारा पसारल अछि। र्इ भ्रम अछि उपनिषदक कारणे। कारण, उपनिषदेसँ दुनूक जन्म अछि, किन्तु जैन, बौद्ध वेदकेँ प्रमाण नहि मानलक, उपनिषदक विपरीत जैन, बौद्ध अनीष्वरवादी सेहो भ्ेाल। किन्तु मानैत रहल ओही पूर्वक आर्य सप्तमर्यादाकेँ जे पाछु कुरूधर्म नामे ख्यात भेल। आ एकरे एकाधटा घटा बढ़ाकेँ प्रचार करैत रहल।
जैन, बुद्धक विरोध, गणतंत्रक विरोध राजतंत्रसँ थिक जे वस्तुत: सामाजिक समझौता सिद्धान्तक विरोध दैवीसिद्धान्तसँ थिक जे ब्राह्राण यज्ञवाद द्वारा प्रतिष्ठापिज भ• रहल छल। र्इ दुनू धर्म अहिंसा पर जोर देलक, यज्ञवादक विरोध नहि केलक। जैन, बौद्धक वेद-विरोध धरि क्षम्य छल, अनीष्वरवादी होयब क्षम्य नहि छल तेँ भारतमे टिकि नहि सकल। बाहरोमे आब आडम्बरे टा बनिक• रहि रहल अछि, जीवनीतत्व बनिकेँ नहि।
बौद्ध धर्म, कोनो वृक्ष नहि अमरलती छल जकरा धरतीक जीवनी रस नहि भेटि सकल तेँ गीताक बिहाडि़मे उडि़या गेल जे उपनिषदमे जन्म लेलक तथा गीतामे आबिकेँ मरि गेल। बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्मक ओ शाखा नदी थिक जे निवृतिक गिरिप्रांतरसँ बहराइत अछि तथा वैष्णव सहजयानक बंगसारगरमे आबिकेँ पुन: समाहित भ• जाइत अछि। बौद्ध धर्ममे ने कोनो मौलिक चिंतन छल आ ने जीवनक लेल कोनो व्यापक स्वीकृतिये। ओकर जन्मे मगधक आजीवक लोकनिक विरोध तथा लोकभाषक प्रयोग लेल भेल छल, र्इ कार्य सम्पादित भेल, भारतसँ समाप्त भेल। बौद्ध धर्म एकटा तात्कालिकता छल, एहि दृषिट´े महत्वपूर्ण छल। अगिला भकितमार्गकेँ प्रषस्त केलक।
वैष्णव ओ शैव धर्मक जन्म वैदिक त्रिदेवसँ भेल अछि, र्इ ने वेद विरोधी अछि आ ने अनीष्वरवादिये। तेँ हिन्दू धर्मक मुख्य अंग यैह बलिकेँ आइधरि समाजमे परिव्याप्त अछि। उपनिषदसँ र्इष्वरत्वकेँ प्राप्त करबाक कारणे एहि शंकाक जन्म भेल छल। किन्तु स्वयंं उपनिषद जतय अद्वैतवादी अछि ओतहि र्इ दुनू मत द्वैत वादी अपितु विषुद्धाद्वैतवादी। वैष्णव ओ शैव मत अपन प्रवृति मार्ग, र्इष्वरवादिता तथा सर्वसुलभताक कारणे अत्यन्त व्यापक भेल।
कर्मकांडक यज्ञवाद राजन्य वर्ग अथवा समाजक सम्पन्न लोक लेल छल, उपनिषदक ज्ञानमार्ग सीमित बुद्धिजीवीक लेल छल, सामान्य बृहत जनक लेल वैह पूर्वक त्रिवेदक विष्णु एवं षिवकेँ सामान्य जनदेव बनाओल गेल जे मान्य भेल। सामान्यत: मौर्यकाल धरि अर्थात र्इ. पूर्व चारिम शताब्दी धरि वैष्णव ओ शैव मत व्यापक रूपेँ भारतमे पसरय लागल छल।
कहबाक प्रयोजन नहि जे कोनो क्षेत्रक राजनीतिक विजय कठिन नहि अछि, किन्तु सांस्कृतिक विजय कठिने अपितु अधिकाधिक कालसापेक्ष सेहो होइछ। तेँ र्इ सम्भव नहि अछि जे आर्यीकरण र्इ. पूर्व 800 र्इ. मे प्रारम्भ भेल आ तुरते बोधायन तथा आपस्तम्बक जन्मो भ• गेल।
तेँ अधिक सम्भावना एहि बातक अछि जे दक्षिणक आर्यीकरणक कार्य तीन चरणमे पूर्ण भेल। पहिल, आर्यक यदुषाखा द्वारा, जे सम्भव दाषराज्ञक आसपास अर्थात र्इ. पूर्व 1800-1700क आसपास राजा विदर्भ तथा ऋषि अगस्त्यक नेतृत्वमे भेल छल जकर परिणाम कालांतरक महाकोसल ओ अवन्ती आदि थिक। दोसर थिक मात्र द्वारका (गुजरात) धरि जा सकलाह। एहि तीनू भूमिकाक पश्चात र्इ. पूर्व 800 र्इ.क बाद दक्षिणक आर्यीकरण केर कार्य सम्पन्न भ• सकल आ सांस्कृतिको विजय भेल। एही कारणे बोधायन ओ आपस्तम्बक जन्म भेल।
साम्राज्यक कल्पना सेहो दक्षिणे पषिचमक थिक। आर्यक यदूषाखामे भारतक आदिम महान राजनीतिज्ञ कृष्ण भेलाह जे सर्वप्रथम साम्राज्यक कल्पना कयल। तेँ अजातषत्रु आ अषोककेँ सुगमता भेल। त्रिदेवक षिव सेहो मूलत: दक्षिणेक थिकाह जे उत्तरसँ संषोधित भ• केँ पहुँचल कि स्वीकृत भ• गेल। अपितु जाहि भकित पद्धतिसँ हम आइ परिचित छी तकर जन्म दक्षिणके आलवार (वैष्णव) एव ंनायनार (षैव)मे भेल अछि तथा दक्षिणेक रामानुजम माधवाचार्य द्वारा उत्तरमे पहुँचल अछि सेहो महान दुर्दिनेमे।
उत्तर वैदिकयुगक त्रिदेवकेँ जाहिसँ वैष्णव ओ शैव मत विकसित भेल छल तकरा एकटा सुनिषिचत आधार देलक पुराण साहित्य जकर उपजीव्य ब्राह्राण साहित्य थिक। पुराण साहित्य ब्राह्राण वृत्तक रचना नहि थिक तेँ उपनिषदे जकाँ एकरूपता, व्यवस्था तथा सुनियोजनक अभाव अछि जे एहि पौराणिक त्रिदेवमे देखबामे अबैत अछि, जतय अनेक जोड़तोड़ भेटैत अछि।
जे हो, कालांतरक हिन्दूकेर मानसक हंस यैह वैष्णव ओ शैव मत बनल जे आइधरि विहार विचरण क• रहल अछि तथा संस्कृतिक मोतीकेँ सुरक्षित राखि सकल।
भारतीय आस्था ओ विष्वासक तेसर रूप थिक शाक्तमत जे मूलत: द्रविड़ सभ्यताक देन थिक जे ओकर मातृसत्तात्मक समाजक प्रतिफलन थिक जकर प्रमाण थिक हड़प्पा मोअनजोदड़ोक अनेक मातृमूर्ति। सम्भव थिक द्रविड़ समाजक एक समुदाय विषेषमे, जकर सम्बन्ध भारतीय आदिम समातजक कोनो एहन मातृदेवीक स्मृति रहल हो जे कथारूपमे आय्र धरि पहुँचि गेल हो आ जे काली दुर्गा रूपमे पाछू प्रकट भेल। एकर कोनो प्रमाण नहि देल जा सकैछ किन्तु जैं ल• केँ द्रविड़ समाज भौतिकवादी समाज छल, साकार पूजक छल जकरा लेल कोनो ने कोनो मानवीय आधार आवष्यक होइत अछि, कल्पना कयल जा सकैछ।
द्रविड़ समाजमे आदिमकालमे अभिचार क्रिया सेहो होइत छल, जकर प्रमाण थिक साँपक मंत्र, जाहिमे उरूगल आ आलिगी बिलगी शब्द अछि जे सुमेरी मूलक शब्द थिक आ जे अथर्ववेदमे सेहोा आबि गेल अछि। सम्भव थिक जे अभिचार किया मातृदेवीसँ सम्बद्ध हो जे पाछू बौद्ध बजयानीमे देखबामे आबैत अछि।
प्राग्वैदिक मातृपूजा, महायानसँ सम्बद्ध भेलापर शाक्त मत बनल तथा बजयानक तंत्रमंत्र रहस्यमय बना देलक। तिब्बतसँ आयल चीनाचार एही शाक्त मतसँ सम्बद्ध भ• गेल। आरम्भमे शाक्त ओ शैव मत सम्बद्धे छल किन्तु मंत्र आगमनक पश्चात दुनू अलग भ• गेल। शैवक उíेष्य मुकित भेल किन्तु शाक्तक उíेष्य सिद्धि। एकर एकटा भिन्न मार्ग सेहो भेल जे वामाचार कहौलक।
भारषिव चित्र देखिकेँ लगैत अछि जे भारतीय योग केर जन्म सेहो द्रविड़े समाजमे भेल अछि किन्तु ओकर रूप स्वरूप कोन प्रकारक छल से कहब सम्भव नहि अछि। सम्भव थिक जे ऋग्वैदिक आर्यमे सेहो यौगिक क्रिया कोनो ने कोनो रूपमे रहल हो किन्तु स्वयं योग दर्षनक विकास र्इ. पूर्व दोसर शताब्दीमे पातंजनिक द्वारा भेल।
योगक अर्थ भेल जोड़ब अर्थात शरीर एवं आत्मक एकीकरण। शरीर विज्ञानमे मन अथवा आत्मक कोनेा सिथति नहि अछि। किन्तु एहि दुनूक उपसिथतिसँ शरीर संचालित अछि। र्इ मान्यता सर्वमान्य अछि। आत्मा निर्विकार चैतन्य रूप थिक जे मानवीय थिक । मन समस्त जीवेम अछि। मानवीय मनमे विकारो अछि । योग एही विकारक परिषुद्धि करैत मनकेँ आत्मासँ जोडै़त अछि। एहि प्रकारेँ योगक सम्बन्ध मनोविज्ञान तथा आध्यात्म दूनूसँ अछि। आस संन्यास एकर माध्यम भेल तथा चितवृतिक निरोध एकर लक्ष्य।
एही योगक एक रूप् हठयोग थिक जकर विकास सम्भव मगधक आजीवक लोकनि द्वारा भेल। एहिमे शरीरकेँ यातना देब आ तखन मन पर नियंत्रण प्राप्त करबाक चेष्टा होइछ। र्इ शुष्क कृच्छाचार थिक जे प्राकृतिक नहि थिक। एहि पंथक सिद्धि कठिन, विवादस्पद तथा संदेहास्पद अछि।
जहि समयमे शैव ओ शाक्5त अभिन्न छल, योग समान रूपेँ अवसिथत छल। भिन्न भेला दूनूमे योग ओ हठयोगक विकास अपना -अपना ढड.े भेल।
योग पर सांख्यक पर्याप्त प्रभाव अछि किन्तु योग सांख्य जकाँ अनीष्वरवादी नहि अछि।
महानायक विकास मंत्रयान तथा वज्रयान थिक। परवर्ती दूनू भागमे तंत्र मंत्रक प्रयोग बहुत अधिक भेल जाहिमे हठयोगक प्रधानता अछि। शाक्त दर्षन, अद्वैते दर्षन जकाँ, षिव (पुरूष) आ शकित (प्रकृति) द्वारा सृषिटक सिथति मानैत अछि। तेँ एहि सृषिटमे ने पाप अछि ने पुण्य तथा ने घृणा अछि ने अघृणा। वामाचार एहीठामसँ अलग भ• जाइछ। किन्तु र्इ संसार त्याग नहि करैछ। र्इ समाधि द्वारा महासुख प्राप्त कर• चाहैछ जे मुकितसमान अछि। एहीठामसँ पंचमकारीक विकास भेल।
आश्चर्यक विषय तँ र्इ अछि जे, जे बौद्ध वैराग्यक निवृतिक समर्थक छल तकरे अगिला विकास प्रवृतिमार्गी भ• गेल। लगैत अछि जे निवृति ओ प्रवृतिक संघर्ष चलैत रहल हो। वेद ओ ब्राह्राण प्रवृति मार्गक समर्थक छल तँ उपनिषद ओ बौद्ध जैन निवृतिमार्गक। कृष्ण आ जनक एहि दुनूमे समन्वयन उपसिथत केलनि यधपि प्रवृति ओ निवृतिक क्षीण संघर्ष बादोमे देखबामे अबैत अछि किन्तु ओ जीवनकेँ प्रभावित नहि केलक। कालांतरक हिन्दू जीवन कमूल वैह समन्वयन रहल जाहिमे प्रधानता रहल प्रवृतिये मार्गक जे प्राकृतिक छल तथा स्वाभाविको।
कालांतरमे, जहिना-जहिना कृषिक विकास होइत गेल तथा परिवारमे दृढ़ता अबैत गेल तहिना-तहिना देवता लोकनिक परिवारक कल्पना सेहो कयल गेल, पार्वती, गणेष आदि ओही कल्पनाक प्रतीक थिक।
जे हो, हमरालोकनि आइ जकरा हिन्दू धर्म कहैत छी ओ गुप्तकाल धरि सम्पूर्ण रूपेँ प्रस्तुत भ• गेल छल। कालांतकरक भकित आंदोलन ओकरा सुदृढ़ आधार देलक। एहीठाम आस्था आ विष्वासक प्रष्न उठैत अछि जाहिठाम भारतीय पूर्ण स्वाधीन अछि जे एकर सह असितत्वक भावनाक परिचायक थिक।
हिन्दू धर्म कोनो व्यकित् विषेषक अथवा कोनो ग्रंथ विषेषक निर्देषन नहि थिक, जेना कि विष्वक अन्य धर्म सब अछि, अपितु र्इ काल परम्पराक समन्वय थिक। आगम थिक अनार्य केर तथा निगम थिक आर्य केर। हिन्दू धर्म आचारमे भने संकीण्र हो किन्तू विचारमे अतिषय उदार एवं सहिष्णु अछि। कहबाक प्रयोजन नहि जे, जे धर्म जतेक मौलिक, प्राचीन तथा जीवनानुकूल होयत ओ ततेक सहिष्णु एवं उदार होयत जकर प्रमाण थिक सामंजस्य।
विष्वमे अनेक धर्मक अनेक सम्प्रदाय जतेक बर्बरतापूर्वक परस्पर रक्तपात केलक अछि, भारतक धर्म तथा सम्प्रदाय र्इ देखिकेँ चकित अछि।