तृतीय मंडल
आंगिरस महर्षि ऋतुर्वितक सुविशाल पर्णकुटीमे पाँच दिनुक लेल अनुष्ठित अग्निष्टोम यग्यक प्रथम दिनक सभटा कृत्य समाप्त भ' गेल छलै । साहदेव्य सोमक प्रपौत्र,कुरुराज,एकराट अतिध्रितक द्वितीय पुत्र राजकुमार असंगाक दिससँ यज्ञक लेल विशेषतः आगत महर्षि लोकनिक सम्मानमे उपहारस्वरूप अनेक अज(छागर)आओर मेष(भेड़ी) बलि निमित्त आयल छल । बलिप्रदान कृत्यक पश्चात सन्निकट पाकशालामे प्रिषद(भोज्य पदार्थ) प्रस्तुत भ' रहल छल जाकर सुगंध वातावरणकें मादक बना रहल छलै
अग्निष्टोम यज्ञक प्रथम दिनक सहभोजक लेल ऋषिग्रामक समस्त नर-नारी निमंत्रित छला जे एहि समय यज्ञवेदी पर उपस्थित छथि । ई व्यवस्था महर्षि ऋतुर्वितक दिससँ नहि अपितु राजकुमार असंगाक दिस सँ छल ।
राजकुमार असंग प्रातहि आबि महर्षि लोकनिकें प्रणिपात आओर क्षमा याचना कए सभटा व्यवस्था क' गेल छलाह । अर्बा (चाउर) सेहो राजहर्म्य सँ आयल छल
पाक बनि रहल छल । राजकुमारक प्रतीक्षा भ' रहल छल । ओ यथासमय आयबाक वचन द' क' आओर महर्षि लोकनिसँ आदेश ल' क' गेल छलाह ।
हिनकहि इच्छा सँ आई विशेष प्रिषद प्रस्तुत भ' रहल छल -मांस आ ओदन (भात) ।
मांस-भात महर्षि लोकनिकें विशेष रूपसँ प्रिय लागल छल एम्हर। ओम्हर सरस्वतीसँ उत्तर ब्रीहि नहि होइत छल । ई आगत महर्षि लोकनिक लेल अपरिचित प्रिषद (भोजन) अछि ।
सरस्वती तट पर सेहो ब्रिहि द्रिषद्वतीक कर्मान्तसँ अबैत अछि । सुनल जाइत अछि जे द्रिषद्वतीक पूब दिस ब्रीहिक कृषि अधिक होइत अछि जे अजास शिशु आदि दस्यु करैत अछि ।
यैह सुनि क' राजा अतिधृति अपन द्रिषद्वतीक कर्मान्तक लोक सभके ब्रीहि-शिल्प सिखबाक आदेश देने छलाह । ओकरा बादहि सँ हर्म्यमे ब्रीहि आब'लागल छल । आओर विशेष अवसर पर ओकर उपयोग होम'लागल छल ।
सरस्वती तटक आर्य लोकनिकें ओदन(भात)रुचिकर लाग' लागल छलनि । किन्तु,एखनहुँ मुख्य भोजन गोधुमहि अछि ।
शतुद्रिक उत्तर सँ आब' बलाकें ओदन नीक लगैत अछि,यैह जानि राजकुमार,मंत्राक्ष परामर्श पर ई व्यवस्था व्यवस्था कयने छलाह ।
गत रात्रि महर्षिलोकनि यैह भोजन कयने छलाह आओर तृप्तिपूर्वक प्रशंसो कयने छलाह । यैह बात जानि राजकुमार ई व्यवस्था छल । राजकुमारक एहि व्यवस्था तथा हुनक विनय भावसँ सभ आगत महर्षिलोकनि प्रसन्न छलाह। प्रसन्न छल ऋषिग्रामक समस्त नर-नारी एहि सहभोजक आयोजनसँ ।
प्रसन्न छलाह महर्षि ऋतुर्वित सेहो,राजकुमारक एहि दान-भाव आओर उदारतासँ । प्रसन्न छलाह एहि बातसँ सेहो जे समितेय लोकनि अभिषेकक आयोजनमे लागि गेल छथि ।
अभिषेकक पर सप्त-सैन्धवक आगत महर्षिलोकनिक आशीर्वाद अति महत्वपूर्ण होयत ।
आगत महर्षिगण,महर्षि ऋतुर्वितक आतिथ्य-सत्कारसँ तृप्त छथि,प्रसन्न छथि ।
यज्ञ सम्पादनक पश्चात फलाहारक उत्तम आओर संपन्न व्यवस्था ऋतुर्विक कयने छलाह । दधि,कंद आओर सुपक्व पर्याप्त कदलि आ अन्तमे यथेच्छ उष्ण दुग्ध तथा अंत में सोम रस ।
सभ ऋषि महर्षि तृप्त भाव सँ अपन-अपन आसन पर विराजमान छलाह। भोजन प्रस्तुत भ' रहल छल ।
ऋषि-ग्राममे एक भुक्तक परम्परा अछि । प्रातः सँ अपराह्न धरि विभिन्न नियमित यज्ञ संपादन तत्पश्चात फलाहार,श्रुति अभ्यास,अध्ययन,सूर्यास्त कालमे भोजन,क्षणिक विश्राम आओर पुनः सांध्य कृत्य । रात्रि में दुग्धपान । आओर शयन ।
एकरा अतिरिक्त ऋषिग्रामक अन्य कृत्य नहि अछि । आ ने दुइ बेर भोजनक व्यवस्थे अछि । ने समय अछि आ ने ओतेक अन्ने अछि एक अहिर्निश्मे दुइ बेर भोजन कायल सकय । जाहि ऋषि-महर्षि लग,दानमे दास भेटल अछि,हुनकहि लोकनिकें अधिक अन्न उत्पादनक सुविधा अछि । किन्तु ओहो दिन आ रातिमे एकहि बेर भोजन करैत छथि । आ एक बेर मात्र फलाहार । येह परंपरा अछि ।
एहि परंपरा कारणहि अधिक अन्नक आवश्यकता नहि होइत अछि आ अधिक समय यज्ञक लेल तथा अध्ययन-अध्यापनक लेल भेटि जाइत अछि ।
आइ अनाध्याय अछि । ऋषि तथा महर्षि लोकनिक आगमन पर यैह होइत अछि । गोष्ठी आयजित होइत अछि । लोक सुनैत अछि । विचार विमर्श चालित अछि |
राजकुमार असंगाक प्रतीक्षा भ' रहल छल । हुनक अबिते गोष्ठी गोष्ठी प्रारम्भ भ' जायत ।
सभ अपना-अपना आसन पर बैसल छथि ।
यज्ञवेदीक एकदिस कुशासन परआगत आगतमहार्शिगन महर्षिगण तथा मुख्य यजमान महर्षि ऋतुर्वित । एहि पंक्तिक पाँछा में छोट आसंदी (काष्ठ चौकी) पर अग्निष्टोम यज्ञक ब्रह्महा,सर्वाधिक वयोवृद्ध सुवास्तु तटवासी गृत्समदेय महर्षि अरिष्टनेमि अतिशांत भावें आ सौम्य रूप सँ विराजमान छथि
पर्णकुटीक बाहर उत्साहमे डूबल शिशु किशोर रौदमे खेलि रहल अछि ।
शिशिरक भगवान् भगवान सविता अपन मध्यमपथसँ नीचाँ आबि आधा आधासँ अधिक पर्णकुटीमे अपन मद्धिम रश्मि विकीर्ण क' रहल छथि ।
कि एहि काल शाश्वती अओर रिजिश्वा आँगनसँ बाहर भ' क' यज्ञवेदीक सोझाँ द' क' आब' लागलि ।
सबहक ध्यान चल गेल
स्वस्थ्य युवा देह-दृष्टि ।
कटिमे मृग चर्म ।
ऊपरमे कर्पास-वसत्रक उन्नत उद्व्ल्कल ।
ग्रीवामे निष्कग्रीव ।
पुष्प खचित नागवेणी ।
अंगद । वाले
ऋजिश्वा,अपेक्षाकृत मांसल ।
शाश्वती, मसृण किन्तु उच्चाकार ।
दुनु अनुभव कयलानि जे हुनका लोकनिके विलम्ब भेलि अ छि । दुनु आबि क' बैसि गेलि । असंग सेहो आबि बैसि रहलाह ।
गोष्ठीमे सामयिक विषय पर विचार विमर्श चलैत रहल ।
ओहि समय वशिष्ठ भासुर स्वयं उपस्थित भेलाह आ सहभोजनक लेल आह्वान कयलानि ।
सभ उठलाह ।
भगवान सविता नीचाँ झुकी क' समस्त पर्णकुटीकें अपन किरणसँ पवित्र बना रहल छलाह ।
सहभोजन संपन्न भेल । आगत महर्षि लोकनिक संग सभ गोटा त्रिप्तिपूर्वक भोजन कयलानि । राजकुमार असंग,सोमाश्व मंत्राक्ष तथा किछु ब्रह्मचारी बटुक उत्साहसँ परसैत,आग्रहक संग खुअबैत छलाह ।
ब्रह्मचारी बटुक श्रुति अभ्यासमे बैसि गेल छलाह ।
आगाँ-आगाँ महर्षि ऋतुर्वित छलाह आ हुनका पाँछा आगत महर्षिगण तथा सभसँ पाँछा वशिष्ठ -भासुर ।
ऋषिग्राम ठीक सरस्वती तट पर, किछु हँटि क' बसल अछि तटक समानान्तरे ।
सरस्वती नदी उत्तर पूर्वसँ आबि दक्षिण दक्षिण पश्चिमक दिस चल गेल अछि ।
एकरहि दुनू तट पर बसल अछि ऋषिग्राम ।
पूर्वी तट पर ऋषिगणक अतिरिक्त किछु अन्य लोक सेहो अछि जे मुख्यतः कृषिसँ सम्बद्ध अछि ।मुदा पश्चिमी तट पर मात्र ऋषि महर्षि लोकनिक आवास छनि ।
आवासक प्रत्येक कुलक चारू भर पर्याप्त भूमि सेहो अछि आ चारू दिस पथरक व्यवस्था अछि जाहिमे कंद तथा कदलि लगाओल जाइत अछि । जनिका लग जतैक दास तथा वृषभ अछि हुनका लोकनिक ओतेक अधिक कृषि होइत छनि ।
कृषि-कार्य करैत अछि दास । दास,दानेसँ प्राप्त होइत अछि ।
एहि ऋषिग्रामक सभ व्यवस्था महर्षि वशिष्ठक समयसँ चल आबि रहल अछि । वैह सर्वप्रथम अपन स्वजन लोकनिक तथा किछु अन्य ऋषिक संग एतय आबि बसल छलाह ।
बसल छलाह,दिवोदासक पुत्र राज सुदासक पुरोहित बनला पर। राज सुदास महर्षि विश्वामित्रकें पुरोहितक पदसँ हँटा क' महर्षि वशिष्ठकें अपन पुरोहित बनौने छलाह आओर एहिठाम सरस्वतीक तट पर बसौने छलाह । सरस्वतीक तट पर एहि लेल जे कृषि-सिंचंमें ऋषिलोकनिककें अधिक सुविधा हो एही सुविधाकें ध्यान में राखि राजा अतिधृति अपन अभिषेकक प्रारंभिक दिनमे सरस्वतीसँ दुइ नहर बाहर कयने छलाह,एक पूर्वमें आ दोसर पश्चिममे |
एहि प्रकारें तीन दिससँ घेरल रहने ऋषिग्राम तथा ग्रामांचल वन्य पशु सभसँ एवं दस्यु-उपद्रवसँ सुरक्षित भ' गेल आ अभिसिंचनसँ कृषि-सम्पन्नता सेहो आयल ।
राज अतिध्रितक बहुत प्रशंसा भेल छलनि । विजित दास सभकें दुनू नहरिक पार बसओने छलाह । दुनू दिस आदिवासी दस्यु सेहो छलैक जे एहि व्यवस्थासँ कालांतर मे स्वतः दास बनि गेल छल । नहरक दुनु दिसक गाम सभकेँ एखनहुँ लोक दस्युग्रामे कहैत अछि ।
एही ऋषिग्रामक दुनु दिस,सामानांतर पथ अछि, एक ग्रामक उत्तरसँ ,दोसर दक्षिणसँ ।
दक्षिणमे सरस्वती नदी अछि आओर उत्तरमे गोचर भूमि आ गोचर भूमिक बाद ऊतरमे सर्वप्रथम राजहर्म्य तथा राजहर्म्यकें घेरिकें तीनू दिससँ ग्रामांचल ।
एकर बाद गोचर भूमि,गोचर भूमिक बाद चारु दिससँ कृषि भूमि ।
ऋषि-कार्य ऋषिग्राममे बेसी नहि होइत अछि। ऋषि ओ महर्षि लोकनिकें दैनिक नियमित यज्ञ तथा श्रुति अभ्याससँ अवसर नहि भेटि पबैत अछि । एहूमे जाहि कुलमे गुरुकुल चलैत अछि ओहि कुलमे कृषिक आवश्यकता सेहो नहि रहैत अछि ।
ग्रामंचालक दान आओर ब्रम्हचारी बटुक लोकनिक भिक्षाटनहिसँ कार्य चलि जाइत अछि । ऋषिग्राममे एकभुक्तक प्रथा अछिये । ई अति प्राचीन प्रथा थिक ।
किछुए कुल अछि जाहिमे वृषभ अछि । आओर हुनकहि लोकनिमे थोड़-बहुत कृषि कार्य भ' जाइत अछि जे एक भुक्तक लेल पर्याप्त मानल जाइत अछि ।
पर्याप्त उत्पादन होइत अछि महर्षि ऋतुर्विकें । राज-पुरोहित होयबाक कारणे दास-दासी सेहो अधिक छनि आओर पशु सेहो। दान सेहो अबैत रहैत अछि । दान अबैत अछि, भैषज ज्ञानक कारणें सेहो । उपकारक उपलक्षमे ग्रामांचलक लोक दान दैते रहैत अछि ।
एखन एहि ऋषिग्राममे तीससँ अधिक कुल-गृह अछि, सबसँ उत्तरमे ऋषि कक्षीवान कुलोद्भवक ऋषि कक्षसेनिक गृह तथा सबसँ दक्षिणमे आंगिरस महर्षि ऋतुर्वितक कुलगृह ।
अधिकांश कुल संयुक्त परिवारक रूपमे अछि । कुलक स्त्रीगण परिपालन तथा लगपासक भूमिमे विभिन्न कंद एवं फलादिक वृक्ष लगबैत छथि आओर ओकर देखरेख करैत छथि । ओ आब थोड़-बहुत कर्पास वस्त्रक सेहो उत्पादन करब सीखि गेल छलि । सीखि रहलि छथि ।
सिखलनि अछि दासी लोकनिकसँ । अनार्य दासी एही कार्यमे बहुत पटु होइत अछि । जनिका लग अधिक दासी छनि,हुनका वस्त्रक अभाव नहि रहैत छनि । अधिकांशआर्य आर्य स्त्रीगण आब वस्त्रहि पहिर'लागलि अछि । मात्र पुरुष वर्गहि चर्म धारण करैत छथि । इहो प्रथा आब शनैः शनैः घट' लागल अछि । चर्मक गृह सेहो आब नहि बनैत छै। आब ऋषिग्राममे सेहो लोक बांस,काष्ठ तथा तृणाच्छादित गृह निर्माण कर'लागल अछि । ई गृह शिल्प सेहो दासहि लोकनिसँ सीखलनी अछि ।
किन्तु आर्यग्राम सभमे दास लोकनिकें अलगसँ गृह बनयबाक अनुमति नहि छै, ओ पशु गृह में रहैत अछि । अधिक सँ अधिक गृहदासकें एक गृह बनयबाक अनुमति यदाकदा भेटि जाइत अछि,ओहो परिवार बढ़ गेला पर ।
गृहदास सभकें स्वतंत्र रूपसँ कृषिक सेहो अधिकार नहीं अछि । ने ऋषिग्राममे आओर ने ग्रामांचलहिमे । अपन आर्यस्वामीक लेल कृषि कार्य कर' पडैत अछि ।
महर्षि ऋतुर्वित आगत महर्षि लोकनिकें सभ बात बुझबैत चलि रहल छथि ।
जहि ऋषि कुलक सन्निकट पहुँचैत छथि समस्त सदस्यगण प्रणिपात क'रहल अछि तथा आशीर्वाद ग्रहण क' रहल अछि ।
ऋषिग्रामक उत्तरी अंत पर पहुंची क' महर्षिगण सरस्वती नदीक दिस घूमि जाइत छथि । वास-व्यवस्था देखि क' सभ आगत अतिथि छथि । गृह पैघ-पैघ आ अनेक ओ सुन्दर आ सीटल ।
सूर्यास्त होयबाक हेतु जा रहल अछि, सांध्य यज्ञक समय भ' रहल अछि ।
ब्रह्मचारी बटुक लोकनिक श्रुति अभ्यासक सम्मिलित स्वर-प्रवाह ऋषिग्राममे पसरि रहल अछि । अपन अंतिम स्तिथिमे पहुँचिकें अभ्यासक स्वर-भंडार उच्च आ तीव्र तीव्रतर भ' रहल अछि ।
सांध्य-कृत्यसमाप्त भ' गेल छल ।
पर्णकुटीमे चारू दिससँ तृणक अवरोधक (टाट) लगा देल गेल छल जाहिसँ बाहरि शीत-वायुक आयब बंद भ' गेल छल ।
यज्ञाग्नि कुण्डक ऊष्मासँ वातावरण मधुर भ' रहल छल । बीच-बीचमे समिधा पड़लासँ अग्नि बहिसँ कुटी आलोकित भ' उठैत छल । एहि समय कुटिमे आगत महर्षि लोकनिक अतिरिक्त ऋषिग्रामक मात्र ऋषिवर्ग उपस्थित छलाह । उपस्थित छलाह असंगक संग मंत्राक्ष ।
शाश्वती आ रिजिश्वा सेहो सांध्य कृत्यक समिधा प्रदान क' ओतहि बैसल छलीह । सभ अपन-अपन कम्बलमे लपेटल छल । राजकुमार असंग मध्याह्न पूर्वहीसँ ऋषिग्राममे छथि अतः हुनकहु ऋतुर्वित तत्काल ओढ़बाक लेल द' देने छलाह ।
अवसर पाबि क' राजकुमार उठि क' ठाढ़ भेलाह आओर विनीत भावसँ अंजलिबद्ध भ' बजलाह-'आगत महर्षि वरेण्यलोकनि सँ याचना अछि ।' …
सभ हुनका दिस ताकय लगलाह ।
महर्षि ऋतुर्वित यज्ञ कुण्डमे बहुत रास समिधा द' देलनि। प्रकाश बढि गेल ।
-'आज्ञा अछि वत्स।' महर्षि अरिष्टनेमि कहलनि ।
-'ई -राजकुमार असंग बजलाह-अपने सन महानुभाव लोकनिकें ज्ञात होयत जे एक अज्ञात कुचक्रक कारणे समितिक दिससँ हमर अग्रज राजा वितिहोत्रकें राज्यच्युती तथा निष्कासनक आदेश भेटल अछि । ओ निष्क्रमण क' गेल छथि । एक दिस हुनक संधान-कार्य चलि रहल अछि तथा दिस हम ओहि आदेश पर पुनर्विचार करबाक आग्रह करैत समितेय लोकनि सँ अभिषेकक लेल सहमति-संग्रह क' रहल छी । जँ राजा वीतिहोत्र आबि गेलाह आ ओहि दिन धरि पुनराभिषेक पर सर्वसम्मति भ' गेल तँ हुनक अन्यथा हमर अभिषेक कार्य संपन्न होयत ।'...
एक निमिष रुकि क' राजकुमार पुनः बजलाह-'जनपदमे किछु एहन आवश्यकता भ' गेल अछि जे अतिशीघ्र अभिषेक प्रयोजनीय अछि । हमर सौभाग्य थिक जे एही समय एहि सरस्वतीक तट पर तथा एहि कुरु जनपदमे सप्त सैन्धवक प्रायः सभ गणमान्य महर्षि वरेण्यगन उपस्थित छथि । हमरा लेल ई अति गौरवक बात होइत जे वैह अभिषेकक तिथि निर्धारित करैत आशीर्वाद द' क' कृतार्थ करबाक कृपा करथि ।' -'राजकुमारसँ हमरा लोकनि प्रसन्न छी । हुनक कामना पूर्ण होयतनि ।' महर्षि अरिष्टनेमि कहलनि । विचार-विमर्शक पश्चात एहि अग्निष्टोमक पूर्णाहुतिक प्रातः केर दिन निर्धारित भेल ।
-'प्रथा सभ-कुभा तटक महर्षि वामदेव्य श्रुतिधृति कहलनि-बहुत त्वरित गतिसँ बदलि रहल अछि , ओम्हर एखनहुँ राजाक निर्वाचनमे वैह पुरना प्रथा अछि,एम्हर कौलिक भेल जा रहल अछि,ओम्हर एखनहुँ मृगचर्महि धारण करैत अछि ,एम्हर वस्त्रक प्रयोग बढ़ैत जाइत अछि ...सबसँ पैघ बात अछि,भाषा परिवर्तन… वितस्ताक दक्षिण भाषामे बहुत रास नव-नव शब्द आबैत जा रहल अछि ,कदाचित पुरना शब्दक लोप होइत जा रहल अछि ।'
'भगवन !-मंत्राक्ष कहलनि-एही लेल हम शब्दक पर्याय-संकलनमें लागल छी ...किन्तु भगवन एम्हर मिश्रणक प्रक्रिया एतेक तीव्र अछि जे शब्द सभक आदान प्रदानकें रोकब कठिन बूझि पडैत अछि ।
'...किन्तु-महर्षि श्रुतिधृति कहलनि -कठिन जानिक' छोडब सेहो उचित नहि अछि ...एही लेल तँ हमरा लोकनिक यात्रा भेल अछि ...दक्षिणी कश्यप तटसँ वितस्ता धरिक भाषामे अधिक परिवर्तन नहि भेल अछि ... ओहि अपरिवर्तित रूपकं सुरक्षा अति आवश्यक अछि,भाषा भेदक द्रिष्टीसँ सेहो तथा उच्चारण भेदक दृष्टिसँ सेहो । अतः हमरा लोकनि निर्णय ल' नें छी जे एहि कार्यक लेल सुवास्तु तथा कुभा तटक लगपास कतहु एक केन्द्रक निर्माण कयल जा सकय जतय समस्त ब्रम्हर्षि देशक बटुक आबि आबि क' उचित ज्ञान प्राप्त करथि तथा मंत्रादि एवं भाषा आ उच्चारणक रक्षा करथि कालान्तरक तक्षशिला ।'-'ई केंद्र एतय सरस्वतीक तट पर नहि भ' सकैत अछि ?' मंत्राक्ष पुछलनि ।
-'नही महर्षि अरिष्टनेमि गंभीर स्वरमे बजलाह-एतय प्राचीन भाषा अपन मूल रूपमे सुरक्षित नहि अछि , मिश्रणसँ परिवर्तन आबि गेल अछि,आओर हमरा अपन मूल रूपक सुरक्षाक चिंता अछि ... एही लेल केंद्र स्थापना ओम्हऱहि उचित होयत… प्रयोजन अछि जे एम्हरसँ अधिकाधिक ब्रम्हचारी बटुक ओतय पहुँची क' उचित शिक्षा ग्रहण करथि आओर अपन भाषा एवं संस्कृतिक रक्षा करथि ।
-'अहिना होयत महर्षि,सरस्वती तटसँ बटुक जयताह ओम्हर,ई अति आवश्यक अछि ... अपने सन महर्षि लोकनिक सेवा सप्त सैन्धव सर्वदा मोन राखत, अपने लोकनि धन्य छी ।'
महर्षि ऋतुर्विक गंभीरतासँ कहलनि । राजकुमार असंग सेहो एकर समर्थन कयलानि ।
तखनहि किछु बटुक दुग्ध पात्र ल' क' उपस्थित भेलाह। सबसँ पहिने महर्षि अरिष्टनेमि दिस दुग्ध पात्र बढौलनि ।
-'इहो पीब' पड़त ? दिनहुमे अति भोजन भ' गेल छल । प्रिषद बनलो छल अति-स्वादिष्ट ।'
महर्षि अरिष्टनेमि हंसी क' बजलाह आ दुग्ध पात्र ल' लेलनि ।
-जँ-महर्षि श्रुतिधृति कहलनि-किछु दिन आओर एम्हर रहय पड़ल तँ रात्रि दुग्ध-पानक नियमित अभ्यास कल' क' जाय पड़त… ओम्हर एहन नियम नहि अछि ...
किन्तु महर्षि !- क्रुमु तटवासी कश्यप महर्षि विविस्वान हँसैत कहलानि-रात्रि बहुत पैघ होइत अछि,आओर एहि नमहर रात्रिक लेल एम्हुरका ई लोकाचार उप्युकते लगैत अछि । -'लगैत अछि महर्षिक मन सरस्वती तट सँ रमि गेल अछि ।-'महर्षि अरिष्टनेमि कहलनि ।
-'हमरा लोकनि ओहि दिनक प्रतीक्षा करब। महर्षि ऋतुर्वित बजलाह । ओ हँसैत छथि । गप्प चलैत रहल ।
शास्वती आ रिजिश्वा उठि गेलि । गृहाग्नि लग आयलि ।
एही काल पदचाप भेल आओर मंत्राक्ष तथा राजकुमार असंग प्रवेश कयलनि । -'भगवती ! राजकुमार असंग कहलनि-एक याचना अछि।'-'याचना बिना बैसने नहि होइत अछि ।'ऋजिश्वा हँसलि' बाजलि आ कम्बल पर घुसिक गेलि ।
दुनु बैसि गेला । मंत्राक्ष कहलनि-'भगवतीक आदेश शिरोधार्य अछि ।'
-'याचनाक सिद्धिक हेतु बैसबे की,सुतलो जा सकैत अछि ।' असंग हँसैत कहलनि ।
शास्वतीकें असंगक हँसब नीक लगलनि । बाजलि-'की याचना अछि?'
-'अभिषेक केर तिथि-निर्धारण भ' गेल अछि । हनर कामना अछि जे भगवतीक पदार्पण ओहि अवसर पर निश्चित रूपसँ होयत।'
-'राजकुमारक याचना पर हमरालोकनि निश्चित रूपसँ विचार करब ।' ऋजिश्वा बाजलि ।
-'हम धन्य भेलहुँ । एहने आशा छल ।'
-'आशा करब पुरुषक कर्तव्य थिक,कदाचित धर्म सेहो।' ऋजिश्वा हँसैत बाजलि ।
-'हम ओहि धर्मक पालन करब।'राजकुमार कटाक्ष केलनि ।
-'राजकुमार जँ अपन धर्मक पालन करताह तँ ओकर फलो निश्चिते भेटतनि ।'
-'ऋजिश्वा !-शाश्वती टोकलनि-अहाँ परिहासमे मर्यादाकें बिसरी जाइत छी ...ऋषि-पुत्र!'
-'आदेश भगवती ?' मंत्राक्ष हुनका दिस तकलनि ।
-'ई निष्कगीव कत' सँ ल' अनलहुँ ? एकर आवश्यकता तँ ऋषिग्राममे नहि अछि ?
-'किएक नहि राजकुमार अहाँकें नीक नहि लागल ?'
-'लागल किएक नहि ? एहिसँ तँ भगवतीक सौन्दर्य द्विगुणित-त्रिगुणित भ' गेलनि,लगैत अछि जेना स्वयं भगवती उषा धरित्री पर उतरि आयलि अछि । लागल जेना …।
-'सौन्दर्य सभ किछु नहि थिक राजकुमार । मर्यादा आओर परंपरा सेहो किछु वस्तु थिक।' शाश्वती कह्लानी बीचमे आ हँसलीह ।
-'तखन तँ कर्पास वस्त्रो छोड़ी देबाक चाही,चर्मे ठीक छल जे आब संभव नहि अछि ।
भगवती,देश कालक अनुसार प्रथादि बदलैत अछि ,यैह पाँछा परंपरा बनि जाइत अछि । एक दिन समस्त आर्य ललना स्वर्णाभूषण पहिरय लागि जायत ई निश्चित अछि, ओहि प्रकारें जाहि प्रकारें वस्त्र । एही कुरु ग्रामांचलमे तँ कतोक मधवन गृहक ललना लोकनि धारण कर'लागि गेल छथि,एकरा क्रय करबामे बहुत धेनु चल जाइत अछि । एही लेल सर्व सामान्य नहि ल' पबैत अछि ....।'
मंत्राक्ष बजिए रहल छलाह,बीचहिमे शाश्वती पुछलनि-'ऋषिपुत्रकें कतेक धेनु लगलनि ?'
मंत्राक्ष तत्काल कोनो उत्तर नहि देलनि। मात्र एकटा दीर्घ निश्वास छोड़ीक' चुप रहि गेलाह ।
-'एकरा अनलहुँ कत' सँ मंत्राक्ष?' असंग प्रश्न कयलनि ।
-'बब्लूथ दाससँ ओ लेबाक हेतु हठ क' देलनि ।
-'किएक?'
-'अकारण,ओ तँ एकमात्र मैत्री चाहैत छथि ने।'
-तँ ई कहु जे दान में भेटल ?' असंग पुछलनि ।
-'दान नहि राजकुमार,विनिमय ।'
-'विनिमय केहन ?'
-'ओ देमय चाहैत छल आ हम लेमय नहि चाहैत छलहुँ,आखिर कतेक दान ली बिना प्रतिदानक ? एही लेल…।'
-'एही लेल?'
-'एही लेल हम अपन रोहित हुनका द' देलियनि…।'
सभ चौंकी उठल ।
सभकें ज्ञात छलनि जे रोहित अश्व हुनका अटक प्रिय छनि, एकरा बिना ओ रहिये नहि सकैत छथि । ओकरहि पीठपर हुनक अधिकांश समय बितैत अछि ।
-'अहाँ अपन रोहित बब्लुथ दासकें द' देलियनि ? कहलहुँ नहि । आ ओ ल' लेलनि? आओर रोहित ओतय रहियो गेल?' चकित भावसँ राजकुमार असंग पुछलनि । सभकें इहो ज्ञात छनि जे रोहित,मंत्राक्षकेँ छोड़ी कतहु रहितो नहि अछि । एही लेल कहियो हटयबो नहि कयल। एकबेर तँ तटसँ एसगरे चल आयल छल ।
-'ओ लेलनि नहि । मंत्राक्ष कहलनि -ओ लेब'चाहितो नहि छला, ओ लोकनि अश्वकें अशुभ मानैत छथि । हुनका लोकनिक धारणा छनि जे यैह अश्व पूर्वज लोकनिकें पराजित क' क' भगओने छल । किन्तु एकबेर रोहितक ओ प्रशंसो कयने छलाह, एही लेल वैह द' देलियनि, किछु देब परम आवश्यक भ' गेल छल ।
-'किएक ?'
-'एही लेल जे एम्हर कटक बेर,हुनकासँ काटो उपहार ग्रहण कयने छलहुँ । आ प्रतिदानमें किछु द' नहि सकलियनि । हुनक मात्र आर्य-यज्ञक अभिलाषा पूर्ण नहि क' सकलियनि। हम अति लज्जित छलहुँ ।'
'एहू बेर एतेक रास कम्बल एही महर्षि लोकनिक हेतु लेने छलियनि, ओहि पर निष्कग्रीव लेबाक हेतु बाध्य क' रहल छलाह । हमरो तँ किछु ने किछु तँ देबाके छल, रोहिते द' देलियनि ।
मंत्राक्ष चुप भ' गेलाह आओर अग्नि-कुण्ड दिस ताक' लगलाह । लागल जेन कने उदास भ' गेल होथि ।
सभ चुप रहि गेल। सभ उदास भ' उठल ।
शाश्वती सोचलनि मंत्राक्ष वस्तुतः महान छथि ।
ऋजिश्वा गदगद भ'गेलि छलि जेना । राजकुमार असंग एक क्षण तक श्मश्रुहीन युवा मंत्राक्ष दिस देखैत बजलाह-'एही बेर हुनक आर्य यज्ञक अभिलाषा अवश्य पूर्ण होयतनि .... अहाँके शीघ्रबब्लूथ दासक ओतय जयबाक अछि, कहि देबनि । आ हमर अश्वशालासँ एक रोहितक बदलामे तीन अश्व ल' लेब आओर हुनका द' देबनि, रोहितकें ल' आनब कोनो स्थितिमे । -'हमरा शीघ्र किएक जयबाक अछि ?'
-गविष्ठी युद्धक लेल यमुना पर आक्रमण हेतु हुनक सहायताक आवश्यकता अछि, विस्तारसँ पछाति गप्प करब… आब भगवतीकें सुत' दियनु,
रस्तामे किछु गप्प करैत चलब । भगवती! प्रणिपात स्वीकार करु।'
दुनु उठिक ठाढ़ भ' गेलाह ।
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अग्निष्टोम यज्ञक प्रथम दिनक सहभोजक लेल ऋषिग्रामक समस्त नर-नारी निमंत्रित छला जे एहि समय यज्ञवेदी पर उपस्थित छथि । ई व्यवस्था महर्षि ऋतुर्वितक दिससँ नहि अपितु राजकुमार असंगाक दिस सँ छल ।
राजकुमार असंग प्रातहि आबि महर्षि लोकनिकें प्रणिपात आओर क्षमा याचना कए सभटा व्यवस्था क' गेल छलाह । अर्बा (चाउर) सेहो राजहर्म्य सँ आयल छल
पाक बनि रहल छल । राजकुमारक प्रतीक्षा भ' रहल छल । ओ यथासमय आयबाक वचन द' क' आओर महर्षि लोकनिसँ आदेश ल' क' गेल छलाह ।
हिनकहि इच्छा सँ आई विशेष प्रिषद प्रस्तुत भ' रहल छल -मांस आ ओदन (भात) ।
मांस-भात महर्षि लोकनिकें विशेष रूपसँ प्रिय लागल छल एम्हर। ओम्हर सरस्वतीसँ उत्तर ब्रीहि नहि होइत छल । ई आगत महर्षि लोकनिक लेल अपरिचित प्रिषद (भोजन) अछि ।
सरस्वती तट पर सेहो ब्रिहि द्रिषद्वतीक कर्मान्तसँ अबैत अछि । सुनल जाइत अछि जे द्रिषद्वतीक पूब दिस ब्रीहिक कृषि अधिक होइत अछि जे अजास शिशु आदि दस्यु करैत अछि ।
यैह सुनि क' राजा अतिधृति अपन द्रिषद्वतीक कर्मान्तक लोक सभके ब्रीहि-शिल्प सिखबाक आदेश देने छलाह । ओकरा बादहि सँ हर्म्यमे ब्रीहि आब'लागल छल । आओर विशेष अवसर पर ओकर उपयोग होम'लागल छल ।
सरस्वती तटक आर्य लोकनिकें ओदन(भात)रुचिकर लाग' लागल छलनि । किन्तु,एखनहुँ मुख्य भोजन गोधुमहि अछि ।
शतुद्रिक उत्तर सँ आब' बलाकें ओदन नीक लगैत अछि,यैह जानि राजकुमार,मंत्राक्ष परामर्श पर ई व्यवस्था व्यवस्था कयने छलाह ।
गत रात्रि महर्षिलोकनि यैह भोजन कयने छलाह आओर तृप्तिपूर्वक प्रशंसो कयने छलाह । यैह बात जानि राजकुमार ई व्यवस्था छल । राजकुमारक एहि व्यवस्था तथा हुनक विनय भावसँ सभ आगत महर्षिलोकनि प्रसन्न छलाह। प्रसन्न छल ऋषिग्रामक समस्त नर-नारी एहि सहभोजक आयोजनसँ ।
प्रसन्न छलाह महर्षि ऋतुर्वित सेहो,राजकुमारक एहि दान-भाव आओर उदारतासँ । प्रसन्न छलाह एहि बातसँ सेहो जे समितेय लोकनि अभिषेकक आयोजनमे लागि गेल छथि ।
अभिषेकक पर सप्त-सैन्धवक आगत महर्षिलोकनिक आशीर्वाद अति महत्वपूर्ण होयत ।
आगत महर्षिगण,महर्षि ऋतुर्वितक आतिथ्य-सत्कारसँ तृप्त छथि,प्रसन्न छथि ।
यज्ञ सम्पादनक पश्चात फलाहारक उत्तम आओर संपन्न व्यवस्था ऋतुर्विक कयने छलाह । दधि,कंद आओर सुपक्व पर्याप्त कदलि आ अन्तमे यथेच्छ उष्ण दुग्ध तथा अंत में सोम रस ।
सभ ऋषि महर्षि तृप्त भाव सँ अपन-अपन आसन पर विराजमान छलाह। भोजन प्रस्तुत भ' रहल छल ।
ऋषि-ग्राममे एक भुक्तक परम्परा अछि । प्रातः सँ अपराह्न धरि विभिन्न नियमित यज्ञ संपादन तत्पश्चात फलाहार,श्रुति अभ्यास,अध्ययन,सूर्यास्त कालमे भोजन,क्षणिक विश्राम आओर पुनः सांध्य कृत्य । रात्रि में दुग्धपान । आओर शयन ।
एकरा अतिरिक्त ऋषिग्रामक अन्य कृत्य नहि अछि । आ ने दुइ बेर भोजनक व्यवस्थे अछि । ने समय अछि आ ने ओतेक अन्ने अछि एक अहिर्निश्मे दुइ बेर भोजन कायल सकय । जाहि ऋषि-महर्षि लग,दानमे दास भेटल अछि,हुनकहि लोकनिकें अधिक अन्न उत्पादनक सुविधा अछि । किन्तु ओहो दिन आ रातिमे एकहि बेर भोजन करैत छथि । आ एक बेर मात्र फलाहार । येह परंपरा अछि ।
एहि परंपरा कारणहि अधिक अन्नक आवश्यकता नहि होइत अछि आ अधिक समय यज्ञक लेल तथा अध्ययन-अध्यापनक लेल भेटि जाइत अछि ।
आइ अनाध्याय अछि । ऋषि तथा महर्षि लोकनिक आगमन पर यैह होइत अछि । गोष्ठी आयजित होइत अछि । लोक सुनैत अछि । विचार विमर्श चालित अछि |
राजकुमार असंगाक प्रतीक्षा भ' रहल छल । हुनक अबिते गोष्ठी गोष्ठी प्रारम्भ भ' जायत ।
सभ अपना-अपना आसन पर बैसल छथि ।
यज्ञवेदीक एकदिस कुशासन परआगत आगतमहार्शिगन महर्षिगण तथा मुख्य यजमान महर्षि ऋतुर्वित । एहि पंक्तिक पाँछा में छोट आसंदी (काष्ठ चौकी) पर अग्निष्टोम यज्ञक ब्रह्महा,सर्वाधिक वयोवृद्ध सुवास्तु तटवासी गृत्समदेय महर्षि अरिष्टनेमि अतिशांत भावें आ सौम्य रूप सँ विराजमान छथि
पर्णकुटीक बाहर उत्साहमे डूबल शिशु किशोर रौदमे खेलि रहल अछि ।
शिशिरक भगवान् भगवान सविता अपन मध्यमपथसँ नीचाँ आबि आधा आधासँ अधिक पर्णकुटीमे अपन मद्धिम रश्मि विकीर्ण क' रहल छथि ।
कि एहि काल शाश्वती अओर रिजिश्वा आँगनसँ बाहर भ' क' यज्ञवेदीक सोझाँ द' क' आब' लागलि ।
सबहक ध्यान चल गेल
स्वस्थ्य युवा देह-दृष्टि ।
कटिमे मृग चर्म ।
ऊपरमे कर्पास-वसत्रक उन्नत उद्व्ल्कल ।
ग्रीवामे निष्कग्रीव ।
पुष्प खचित नागवेणी ।
अंगद । वाले
ऋजिश्वा,अपेक्षाकृत मांसल ।
शाश्वती, मसृण किन्तु उच्चाकार ।
दुनु अनुभव कयलानि जे हुनका लोकनिके विलम्ब भेलि अ छि । दुनु आबि क' बैसि गेलि । असंग सेहो आबि बैसि रहलाह ।
गोष्ठीमे सामयिक विषय पर विचार विमर्श चलैत रहल ।
ओहि समय वशिष्ठ भासुर स्वयं उपस्थित भेलाह आ सहभोजनक लेल आह्वान कयलानि ।
सभ उठलाह ।
भगवान सविता नीचाँ झुकी क' समस्त पर्णकुटीकें अपन किरणसँ पवित्र बना रहल छलाह ।
सहभोजन संपन्न भेल । आगत महर्षि लोकनिक संग सभ गोटा त्रिप्तिपूर्वक भोजन कयलानि । राजकुमार असंग,सोमाश्व मंत्राक्ष तथा किछु ब्रह्मचारी बटुक उत्साहसँ परसैत,आग्रहक संग खुअबैत छलाह ।
ब्रह्मचारी बटुक श्रुति अभ्यासमे बैसि गेल छलाह ।
आगाँ-आगाँ महर्षि ऋतुर्वित छलाह आ हुनका पाँछा आगत महर्षिगण तथा सभसँ पाँछा वशिष्ठ -भासुर ।
ऋषिग्राम ठीक सरस्वती तट पर, किछु हँटि क' बसल अछि तटक समानान्तरे ।
सरस्वती नदी उत्तर पूर्वसँ आबि दक्षिण दक्षिण पश्चिमक दिस चल गेल अछि ।
एकरहि दुनू तट पर बसल अछि ऋषिग्राम ।
पूर्वी तट पर ऋषिगणक अतिरिक्त किछु अन्य लोक सेहो अछि जे मुख्यतः कृषिसँ सम्बद्ध अछि ।मुदा पश्चिमी तट पर मात्र ऋषि महर्षि लोकनिक आवास छनि ।
आवासक प्रत्येक कुलक चारू भर पर्याप्त भूमि सेहो अछि आ चारू दिस पथरक व्यवस्था अछि जाहिमे कंद तथा कदलि लगाओल जाइत अछि । जनिका लग जतैक दास तथा वृषभ अछि हुनका लोकनिक ओतेक अधिक कृषि होइत छनि ।
कृषि-कार्य करैत अछि दास । दास,दानेसँ प्राप्त होइत अछि ।
एहि ऋषिग्रामक सभ व्यवस्था महर्षि वशिष्ठक समयसँ चल आबि रहल अछि । वैह सर्वप्रथम अपन स्वजन लोकनिक तथा किछु अन्य ऋषिक संग एतय आबि बसल छलाह ।
बसल छलाह,दिवोदासक पुत्र राज सुदासक पुरोहित बनला पर। राज सुदास महर्षि विश्वामित्रकें पुरोहितक पदसँ हँटा क' महर्षि वशिष्ठकें अपन पुरोहित बनौने छलाह आओर एहिठाम सरस्वतीक तट पर बसौने छलाह । सरस्वतीक तट पर एहि लेल जे कृषि-सिंचंमें ऋषिलोकनिककें अधिक सुविधा हो एही सुविधाकें ध्यान में राखि राजा अतिधृति अपन अभिषेकक प्रारंभिक दिनमे सरस्वतीसँ दुइ नहर बाहर कयने छलाह,एक पूर्वमें आ दोसर पश्चिममे |
एहि प्रकारें तीन दिससँ घेरल रहने ऋषिग्राम तथा ग्रामांचल वन्य पशु सभसँ एवं दस्यु-उपद्रवसँ सुरक्षित भ' गेल आ अभिसिंचनसँ कृषि-सम्पन्नता सेहो आयल ।
राज अतिध्रितक बहुत प्रशंसा भेल छलनि । विजित दास सभकें दुनू नहरिक पार बसओने छलाह । दुनू दिस आदिवासी दस्यु सेहो छलैक जे एहि व्यवस्थासँ कालांतर मे स्वतः दास बनि गेल छल । नहरक दुनु दिसक गाम सभकेँ एखनहुँ लोक दस्युग्रामे कहैत अछि ।
एही ऋषिग्रामक दुनु दिस,सामानांतर पथ अछि, एक ग्रामक उत्तरसँ ,दोसर दक्षिणसँ ।
दक्षिणमे सरस्वती नदी अछि आओर उत्तरमे गोचर भूमि आ गोचर भूमिक बाद ऊतरमे सर्वप्रथम राजहर्म्य तथा राजहर्म्यकें घेरिकें तीनू दिससँ ग्रामांचल ।
एकर बाद गोचर भूमि,गोचर भूमिक बाद चारु दिससँ कृषि भूमि ।
ऋषि-कार्य ऋषिग्राममे बेसी नहि होइत अछि। ऋषि ओ महर्षि लोकनिकें दैनिक नियमित यज्ञ तथा श्रुति अभ्याससँ अवसर नहि भेटि पबैत अछि । एहूमे जाहि कुलमे गुरुकुल चलैत अछि ओहि कुलमे कृषिक आवश्यकता सेहो नहि रहैत अछि ।
ग्रामंचालक दान आओर ब्रम्हचारी बटुक लोकनिक भिक्षाटनहिसँ कार्य चलि जाइत अछि । ऋषिग्राममे एकभुक्तक प्रथा अछिये । ई अति प्राचीन प्रथा थिक ।
किछुए कुल अछि जाहिमे वृषभ अछि । आओर हुनकहि लोकनिमे थोड़-बहुत कृषि कार्य भ' जाइत अछि जे एक भुक्तक लेल पर्याप्त मानल जाइत अछि ।
पर्याप्त उत्पादन होइत अछि महर्षि ऋतुर्विकें । राज-पुरोहित होयबाक कारणे दास-दासी सेहो अधिक छनि आओर पशु सेहो। दान सेहो अबैत रहैत अछि । दान अबैत अछि, भैषज ज्ञानक कारणें सेहो । उपकारक उपलक्षमे ग्रामांचलक लोक दान दैते रहैत अछि ।
एखन एहि ऋषिग्राममे तीससँ अधिक कुल-गृह अछि, सबसँ उत्तरमे ऋषि कक्षीवान कुलोद्भवक ऋषि कक्षसेनिक गृह तथा सबसँ दक्षिणमे आंगिरस महर्षि ऋतुर्वितक कुलगृह ।
अधिकांश कुल संयुक्त परिवारक रूपमे अछि । कुलक स्त्रीगण परिपालन तथा लगपासक भूमिमे विभिन्न कंद एवं फलादिक वृक्ष लगबैत छथि आओर ओकर देखरेख करैत छथि । ओ आब थोड़-बहुत कर्पास वस्त्रक सेहो उत्पादन करब सीखि गेल छलि । सीखि रहलि छथि ।
सिखलनि अछि दासी लोकनिकसँ । अनार्य दासी एही कार्यमे बहुत पटु होइत अछि । जनिका लग अधिक दासी छनि,हुनका वस्त्रक अभाव नहि रहैत छनि । अधिकांशआर्य आर्य स्त्रीगण आब वस्त्रहि पहिर'लागलि अछि । मात्र पुरुष वर्गहि चर्म धारण करैत छथि । इहो प्रथा आब शनैः शनैः घट' लागल अछि । चर्मक गृह सेहो आब नहि बनैत छै। आब ऋषिग्राममे सेहो लोक बांस,काष्ठ तथा तृणाच्छादित गृह निर्माण कर'लागल अछि । ई गृह शिल्प सेहो दासहि लोकनिसँ सीखलनी अछि ।
किन्तु आर्यग्राम सभमे दास लोकनिकें अलगसँ गृह बनयबाक अनुमति नहि छै, ओ पशु गृह में रहैत अछि । अधिक सँ अधिक गृहदासकें एक गृह बनयबाक अनुमति यदाकदा भेटि जाइत अछि,ओहो परिवार बढ़ गेला पर ।
गृहदास सभकें स्वतंत्र रूपसँ कृषिक सेहो अधिकार नहीं अछि । ने ऋषिग्राममे आओर ने ग्रामांचलहिमे । अपन आर्यस्वामीक लेल कृषि कार्य कर' पडैत अछि ।
महर्षि ऋतुर्वित आगत महर्षि लोकनिकें सभ बात बुझबैत चलि रहल छथि ।
जहि ऋषि कुलक सन्निकट पहुँचैत छथि समस्त सदस्यगण प्रणिपात क'रहल अछि तथा आशीर्वाद ग्रहण क' रहल अछि ।
ऋषिग्रामक उत्तरी अंत पर पहुंची क' महर्षिगण सरस्वती नदीक दिस घूमि जाइत छथि । वास-व्यवस्था देखि क' सभ आगत अतिथि छथि । गृह पैघ-पैघ आ अनेक ओ सुन्दर आ सीटल ।
सूर्यास्त होयबाक हेतु जा रहल अछि, सांध्य यज्ञक समय भ' रहल अछि ।
ब्रह्मचारी बटुक लोकनिक श्रुति अभ्यासक सम्मिलित स्वर-प्रवाह ऋषिग्राममे पसरि रहल अछि । अपन अंतिम स्तिथिमे पहुँचिकें अभ्यासक स्वर-भंडार उच्च आ तीव्र तीव्रतर भ' रहल अछि ।
सांध्य-कृत्यसमाप्त भ' गेल छल ।
पर्णकुटीमे चारू दिससँ तृणक अवरोधक (टाट) लगा देल गेल छल जाहिसँ बाहरि शीत-वायुक आयब बंद भ' गेल छल ।
यज्ञाग्नि कुण्डक ऊष्मासँ वातावरण मधुर भ' रहल छल । बीच-बीचमे समिधा पड़लासँ अग्नि बहिसँ कुटी आलोकित भ' उठैत छल । एहि समय कुटिमे आगत महर्षि लोकनिक अतिरिक्त ऋषिग्रामक मात्र ऋषिवर्ग उपस्थित छलाह । उपस्थित छलाह असंगक संग मंत्राक्ष ।
शाश्वती आ रिजिश्वा सेहो सांध्य कृत्यक समिधा प्रदान क' ओतहि बैसल छलीह । सभ अपन-अपन कम्बलमे लपेटल छल । राजकुमार असंग मध्याह्न पूर्वहीसँ ऋषिग्राममे छथि अतः हुनकहु ऋतुर्वित तत्काल ओढ़बाक लेल द' देने छलाह ।
अवसर पाबि क' राजकुमार उठि क' ठाढ़ भेलाह आओर विनीत भावसँ अंजलिबद्ध भ' बजलाह-'आगत महर्षि वरेण्यलोकनि सँ याचना अछि ।' …
सभ हुनका दिस ताकय लगलाह ।
महर्षि ऋतुर्वित यज्ञ कुण्डमे बहुत रास समिधा द' देलनि। प्रकाश बढि गेल ।
-'आज्ञा अछि वत्स।' महर्षि अरिष्टनेमि कहलनि ।
-'ई -राजकुमार असंग बजलाह-अपने सन महानुभाव लोकनिकें ज्ञात होयत जे एक अज्ञात कुचक्रक कारणे समितिक दिससँ हमर अग्रज राजा वितिहोत्रकें राज्यच्युती तथा निष्कासनक आदेश भेटल अछि । ओ निष्क्रमण क' गेल छथि । एक दिस हुनक संधान-कार्य चलि रहल अछि तथा दिस हम ओहि आदेश पर पुनर्विचार करबाक आग्रह करैत समितेय लोकनि सँ अभिषेकक लेल सहमति-संग्रह क' रहल छी । जँ राजा वीतिहोत्र आबि गेलाह आ ओहि दिन धरि पुनराभिषेक पर सर्वसम्मति भ' गेल तँ हुनक अन्यथा हमर अभिषेक कार्य संपन्न होयत ।'...
एक निमिष रुकि क' राजकुमार पुनः बजलाह-'जनपदमे किछु एहन आवश्यकता भ' गेल अछि जे अतिशीघ्र अभिषेक प्रयोजनीय अछि । हमर सौभाग्य थिक जे एही समय एहि सरस्वतीक तट पर तथा एहि कुरु जनपदमे सप्त सैन्धवक प्रायः सभ गणमान्य महर्षि वरेण्यगन उपस्थित छथि । हमरा लेल ई अति गौरवक बात होइत जे वैह अभिषेकक तिथि निर्धारित करैत आशीर्वाद द' क' कृतार्थ करबाक कृपा करथि ।' -'राजकुमारसँ हमरा लोकनि प्रसन्न छी । हुनक कामना पूर्ण होयतनि ।' महर्षि अरिष्टनेमि कहलनि । विचार-विमर्शक पश्चात एहि अग्निष्टोमक पूर्णाहुतिक प्रातः केर दिन निर्धारित भेल ।
-'प्रथा सभ-कुभा तटक महर्षि वामदेव्य श्रुतिधृति कहलनि-बहुत त्वरित गतिसँ बदलि रहल अछि , ओम्हर एखनहुँ राजाक निर्वाचनमे वैह पुरना प्रथा अछि,एम्हर कौलिक भेल जा रहल अछि,ओम्हर एखनहुँ मृगचर्महि धारण करैत अछि ,एम्हर वस्त्रक प्रयोग बढ़ैत जाइत अछि ...सबसँ पैघ बात अछि,भाषा परिवर्तन… वितस्ताक दक्षिण भाषामे बहुत रास नव-नव शब्द आबैत जा रहल अछि ,कदाचित पुरना शब्दक लोप होइत जा रहल अछि ।'
'भगवन !-मंत्राक्ष कहलनि-एही लेल हम शब्दक पर्याय-संकलनमें लागल छी ...किन्तु भगवन एम्हर मिश्रणक प्रक्रिया एतेक तीव्र अछि जे शब्द सभक आदान प्रदानकें रोकब कठिन बूझि पडैत अछि ।
'...किन्तु-महर्षि श्रुतिधृति कहलनि -कठिन जानिक' छोडब सेहो उचित नहि अछि ...एही लेल तँ हमरा लोकनिक यात्रा भेल अछि ...दक्षिणी कश्यप तटसँ वितस्ता धरिक भाषामे अधिक परिवर्तन नहि भेल अछि ... ओहि अपरिवर्तित रूपकं सुरक्षा अति आवश्यक अछि,भाषा भेदक द्रिष्टीसँ सेहो तथा उच्चारण भेदक दृष्टिसँ सेहो । अतः हमरा लोकनि निर्णय ल' नें छी जे एहि कार्यक लेल सुवास्तु तथा कुभा तटक लगपास कतहु एक केन्द्रक निर्माण कयल जा सकय जतय समस्त ब्रम्हर्षि देशक बटुक आबि आबि क' उचित ज्ञान प्राप्त करथि तथा मंत्रादि एवं भाषा आ उच्चारणक रक्षा करथि कालान्तरक तक्षशिला ।'-'ई केंद्र एतय सरस्वतीक तट पर नहि भ' सकैत अछि ?' मंत्राक्ष पुछलनि ।
-'नही महर्षि अरिष्टनेमि गंभीर स्वरमे बजलाह-एतय प्राचीन भाषा अपन मूल रूपमे सुरक्षित नहि अछि , मिश्रणसँ परिवर्तन आबि गेल अछि,आओर हमरा अपन मूल रूपक सुरक्षाक चिंता अछि ... एही लेल केंद्र स्थापना ओम्हऱहि उचित होयत… प्रयोजन अछि जे एम्हरसँ अधिकाधिक ब्रम्हचारी बटुक ओतय पहुँची क' उचित शिक्षा ग्रहण करथि आओर अपन भाषा एवं संस्कृतिक रक्षा करथि ।
-'अहिना होयत महर्षि,सरस्वती तटसँ बटुक जयताह ओम्हर,ई अति आवश्यक अछि ... अपने सन महर्षि लोकनिक सेवा सप्त सैन्धव सर्वदा मोन राखत, अपने लोकनि धन्य छी ।'
महर्षि ऋतुर्विक गंभीरतासँ कहलनि । राजकुमार असंग सेहो एकर समर्थन कयलानि ।
तखनहि किछु बटुक दुग्ध पात्र ल' क' उपस्थित भेलाह। सबसँ पहिने महर्षि अरिष्टनेमि दिस दुग्ध पात्र बढौलनि ।
-'इहो पीब' पड़त ? दिनहुमे अति भोजन भ' गेल छल । प्रिषद बनलो छल अति-स्वादिष्ट ।'
महर्षि अरिष्टनेमि हंसी क' बजलाह आ दुग्ध पात्र ल' लेलनि ।
-जँ-महर्षि श्रुतिधृति कहलनि-किछु दिन आओर एम्हर रहय पड़ल तँ रात्रि दुग्ध-पानक नियमित अभ्यास कल' क' जाय पड़त… ओम्हर एहन नियम नहि अछि ...
किन्तु महर्षि !- क्रुमु तटवासी कश्यप महर्षि विविस्वान हँसैत कहलानि-रात्रि बहुत पैघ होइत अछि,आओर एहि नमहर रात्रिक लेल एम्हुरका ई लोकाचार उप्युकते लगैत अछि । -'लगैत अछि महर्षिक मन सरस्वती तट सँ रमि गेल अछि ।-'महर्षि अरिष्टनेमि कहलनि ।
-'हमरा लोकनि ओहि दिनक प्रतीक्षा करब। महर्षि ऋतुर्वित बजलाह । ओ हँसैत छथि । गप्प चलैत रहल ।
शास्वती आ रिजिश्वा उठि गेलि । गृहाग्नि लग आयलि ।
एही काल पदचाप भेल आओर मंत्राक्ष तथा राजकुमार असंग प्रवेश कयलनि । -'भगवती ! राजकुमार असंग कहलनि-एक याचना अछि।'-'याचना बिना बैसने नहि होइत अछि ।'ऋजिश्वा हँसलि' बाजलि आ कम्बल पर घुसिक गेलि ।
दुनु बैसि गेला । मंत्राक्ष कहलनि-'भगवतीक आदेश शिरोधार्य अछि ।'
-'याचनाक सिद्धिक हेतु बैसबे की,सुतलो जा सकैत अछि ।' असंग हँसैत कहलनि ।
शास्वतीकें असंगक हँसब नीक लगलनि । बाजलि-'की याचना अछि?'
-'अभिषेक केर तिथि-निर्धारण भ' गेल अछि । हनर कामना अछि जे भगवतीक पदार्पण ओहि अवसर पर निश्चित रूपसँ होयत।'
-'राजकुमारक याचना पर हमरालोकनि निश्चित रूपसँ विचार करब ।' ऋजिश्वा बाजलि ।
-'हम धन्य भेलहुँ । एहने आशा छल ।'
-'आशा करब पुरुषक कर्तव्य थिक,कदाचित धर्म सेहो।' ऋजिश्वा हँसैत बाजलि ।
-'हम ओहि धर्मक पालन करब।'राजकुमार कटाक्ष केलनि ।
-'राजकुमार जँ अपन धर्मक पालन करताह तँ ओकर फलो निश्चिते भेटतनि ।'
-'ऋजिश्वा !-शाश्वती टोकलनि-अहाँ परिहासमे मर्यादाकें बिसरी जाइत छी ...ऋषि-पुत्र!'
-'आदेश भगवती ?' मंत्राक्ष हुनका दिस तकलनि ।
-'ई निष्कगीव कत' सँ ल' अनलहुँ ? एकर आवश्यकता तँ ऋषिग्राममे नहि अछि ?
-'किएक नहि राजकुमार अहाँकें नीक नहि लागल ?'
-'लागल किएक नहि ? एहिसँ तँ भगवतीक सौन्दर्य द्विगुणित-त्रिगुणित भ' गेलनि,लगैत अछि जेना स्वयं भगवती उषा धरित्री पर उतरि आयलि अछि । लागल जेना …।
-'सौन्दर्य सभ किछु नहि थिक राजकुमार । मर्यादा आओर परंपरा सेहो किछु वस्तु थिक।' शाश्वती कह्लानी बीचमे आ हँसलीह ।
-'तखन तँ कर्पास वस्त्रो छोड़ी देबाक चाही,चर्मे ठीक छल जे आब संभव नहि अछि ।
भगवती,देश कालक अनुसार प्रथादि बदलैत अछि ,यैह पाँछा परंपरा बनि जाइत अछि । एक दिन समस्त आर्य ललना स्वर्णाभूषण पहिरय लागि जायत ई निश्चित अछि, ओहि प्रकारें जाहि प्रकारें वस्त्र । एही कुरु ग्रामांचलमे तँ कतोक मधवन गृहक ललना लोकनि धारण कर'लागि गेल छथि,एकरा क्रय करबामे बहुत धेनु चल जाइत अछि । एही लेल सर्व सामान्य नहि ल' पबैत अछि ....।'
मंत्राक्ष बजिए रहल छलाह,बीचहिमे शाश्वती पुछलनि-'ऋषिपुत्रकें कतेक धेनु लगलनि ?'
मंत्राक्ष तत्काल कोनो उत्तर नहि देलनि। मात्र एकटा दीर्घ निश्वास छोड़ीक' चुप रहि गेलाह ।
-'एकरा अनलहुँ कत' सँ मंत्राक्ष?' असंग प्रश्न कयलनि ।
-'बब्लूथ दाससँ ओ लेबाक हेतु हठ क' देलनि ।
-'किएक?'
-'अकारण,ओ तँ एकमात्र मैत्री चाहैत छथि ने।'
-तँ ई कहु जे दान में भेटल ?' असंग पुछलनि ।
-'दान नहि राजकुमार,विनिमय ।'
-'विनिमय केहन ?'
-'ओ देमय चाहैत छल आ हम लेमय नहि चाहैत छलहुँ,आखिर कतेक दान ली बिना प्रतिदानक ? एही लेल…।'
-'एही लेल?'
-'एही लेल हम अपन रोहित हुनका द' देलियनि…।'
सभ चौंकी उठल ।
सभकें ज्ञात छलनि जे रोहित अश्व हुनका अटक प्रिय छनि, एकरा बिना ओ रहिये नहि सकैत छथि । ओकरहि पीठपर हुनक अधिकांश समय बितैत अछि ।
-'अहाँ अपन रोहित बब्लुथ दासकें द' देलियनि ? कहलहुँ नहि । आ ओ ल' लेलनि? आओर रोहित ओतय रहियो गेल?' चकित भावसँ राजकुमार असंग पुछलनि । सभकें इहो ज्ञात छनि जे रोहित,मंत्राक्षकेँ छोड़ी कतहु रहितो नहि अछि । एही लेल कहियो हटयबो नहि कयल। एकबेर तँ तटसँ एसगरे चल आयल छल ।
-'ओ लेलनि नहि । मंत्राक्ष कहलनि -ओ लेब'चाहितो नहि छला, ओ लोकनि अश्वकें अशुभ मानैत छथि । हुनका लोकनिक धारणा छनि जे यैह अश्व पूर्वज लोकनिकें पराजित क' क' भगओने छल । किन्तु एकबेर रोहितक ओ प्रशंसो कयने छलाह, एही लेल वैह द' देलियनि, किछु देब परम आवश्यक भ' गेल छल ।
-'किएक ?'
-'एही लेल जे एम्हर कटक बेर,हुनकासँ काटो उपहार ग्रहण कयने छलहुँ । आ प्रतिदानमें किछु द' नहि सकलियनि । हुनक मात्र आर्य-यज्ञक अभिलाषा पूर्ण नहि क' सकलियनि। हम अति लज्जित छलहुँ ।'
'एहू बेर एतेक रास कम्बल एही महर्षि लोकनिक हेतु लेने छलियनि, ओहि पर निष्कग्रीव लेबाक हेतु बाध्य क' रहल छलाह । हमरो तँ किछु ने किछु तँ देबाके छल, रोहिते द' देलियनि ।
मंत्राक्ष चुप भ' गेलाह आओर अग्नि-कुण्ड दिस ताक' लगलाह । लागल जेन कने उदास भ' गेल होथि ।
सभ चुप रहि गेल। सभ उदास भ' उठल ।
शाश्वती सोचलनि मंत्राक्ष वस्तुतः महान छथि ।
ऋजिश्वा गदगद भ'गेलि छलि जेना । राजकुमार असंग एक क्षण तक श्मश्रुहीन युवा मंत्राक्ष दिस देखैत बजलाह-'एही बेर हुनक आर्य यज्ञक अभिलाषा अवश्य पूर्ण होयतनि .... अहाँके शीघ्रबब्लूथ दासक ओतय जयबाक अछि, कहि देबनि । आ हमर अश्वशालासँ एक रोहितक बदलामे तीन अश्व ल' लेब आओर हुनका द' देबनि, रोहितकें ल' आनब कोनो स्थितिमे । -'हमरा शीघ्र किएक जयबाक अछि ?'
-गविष्ठी युद्धक लेल यमुना पर आक्रमण हेतु हुनक सहायताक आवश्यकता अछि, विस्तारसँ पछाति गप्प करब… आब भगवतीकें सुत' दियनु,
रस्तामे किछु गप्प करैत चलब । भगवती! प्रणिपात स्वीकार करु।'
दुनु उठिक ठाढ़ भ' गेलाह ।
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