मैथिली कविता ।। प्रलय-रहस्य ।।
(यह कविता कोशी के भीषण जल-प्रलय २००८ के बारे में है। जिन इलाकों को कोशी बरसों पहले छोड चुकी थी,वहां उसके फिर से प्रकट होने का यहां सन्दर्भ है। इसमें कोशी के कई सांस्कृतिक गीत तथा मिथकों का उपयोग किया गया है। कोशी के पर्यावरण से जुडी शब्दावली भी जहां-तहां प्रयुक्त हुई है।)
घरही जे जयबें रे सहुआ सहुनियां-बुधी रचबें
बिसरि जयबें कोसिका के नाम(१)
और, साहुजी सचमुच बिसर गए।
सौ बरस हुए, दो सौ बरस हुए
कोशी के साथ हुआ था करार,
यूं कोशी को सन्देह था तब भी
कि जैसे ही सकुशल पाएंगे अपने-आपको साहुजी,
सहुआइन-संग मिलकर रचेंगे बुद्धि
और कोशी को बिसर जाएंगे,
मगर वचनबद्ध हुए थे साहुजी–
जीबो मोरा जयतै कोसी माय
परानो किछु जे बचतै
तैयो ने बिसरबह तोहर नाम(२)
जीव भी बचे
काहे को जाएगी उनकी जान?
मगर बडे आराम से बिसर गए कोशी का नाम।
बिसर गए कि कोशी की माटी से बनी उनकी काया
बिसर गए कि कोशी के पानी से पाया सदाबहार संस्कार
कोशी के लास्य से सीखा यदि जीवन-राग
तो उसी के ताण्डव से आविष्कृत किया धर्म।
गिरता है जब आदमी
तो गिरता ही चला जाता है !
देखिए !
इनके बच्चे तैरना तक बिसर गए
सोंस-नकार-बोछ(३) को अगर देखा कहीं
तो बस ज्योग्राफिक चैनल पर।
देखिए !
ये बेचारे साहुजी हंसते रहे सब दिन
कोसिकन्हा(४) के लोगों पर,
जिनका दोष सिर्फ यही कि दो तटबंधों में बन्द थे वो,
उनपे हंसते रहे सब दिन
कि पनहग्गा(५) होते हैं ये सब।
कहा न !
गिरता है जब आदमी
तो गिरता ही चला जाता है !
किसकी बुद्धि पर थे इतने निश्चिन्त साहुजी?
किसके बहलाने पर इतनी हुई हिम्मत
कि जहां कोशी की धार न पाती थी कभी थाह,
ठीक वहां बनाया तिनमहला(६)
जहां रानू सरदार के साथ हुई थी कोशी की मुलाकात,
ठीक उसी जगह खोल ली फैक्टरी !
किसकी बुद्धि पर थे इतने निश्चिन्त?
इस आजाद मुल्क में
किसकी अपनी हुई सहुआइन
कि इनकी होती?
और, उसकी बुद्धि पर इतना इतराना !
एक सहुआइन गईं तो दूसरी हाजिर
दूसरी गईं तो तीसरी हाजिर
बिक गया देश महाराज, इन्हीं सहुआइन के कुचक्र में।
कह लें भले सब उन्हें ‘नेताजी नेताजी’
मगर असल में तो ठहरी वो साहुजी की औरत
जो हमेशा चुनाव के बाद सांढ बनकर देश चरती।
जकरा दुअरिया हो रानू कोशी बहे धरबा
सेहो कइसे सूतत निचिन्त?(७)
मगर साहुजी निचिन्त सोए रहे
इतना भरोसा था उन्हें नेताजी के आश्वासन पर।
बनैले सूअर और नीलगाय पर जो किया होता,
हुराड और बनबिलाड पर,
गदहे और महिष पर जो किया होता भरोसा
तो आज यह दिन न देखना पडता !
चींटी से पिपडी तक, गडइ और चेंगा तक
होते हैं इतने जागन्त
कि अगर उन्होंने आपको आश्वासन दिया होता
तो क्या मजाल कि तटबन्ध के भीतर जमा हो जाए
इतने का इतना सिल्ट !
सिंगही उसे अपने कांटों से खरोंच बहा देती
हारिल और बटेर उसे अपने लोल से तौल लेते।
क्या मजाल !
कि जहां बना था साहुजी का तिनमहला,
उससे पांच मरद ऊपर बहती कोशी
बालू के टीले पर रोती फफक-फफक।
निचिन्त सोए रहे किसके भरोसे ओ बाबू साहुजी?
–नेताजी की टीम के भरोसे।
नेताजी अगर कहें ‘आम’
तो मुल्क-भर के इंजीनियर चिल्लाएंगे–’आम आम’
और अगर नेताजी कह दें ‘जाम’(८)
तो सुन लीजिए तमाम विशेषज्ञों का शृगाल-स्वर–’जाम जाम जाम’
और, इन-जैसे लोगों पर भरोसा?
इतना इतना भरोसा?
कथी ले’ रोपलियै कोसी माय आमुन-जामुन गछिया
कथी ले’ रोपलियै बीट बांस?(९)
–यह भी कोई पूछने की बात हुई?
रोपा तो होगा भोग के ही लिए।
मगर किसने नहीं करने दिया भोग?
कौन बहा ले गया सौ बरस दो सौ बरस की प्रगति?
कौन था जिसने गड्ढे गिराकर मारा?
सोचें साहुजी
अब भी तो सोचें
कम-से-कम सोचें तो।
मगर किस बुद्धि से सोचेंगे साहुजी?
किस मुंह से बोलेंगे?
छोडी कहीं कुछ कहने-सुनने की गुंजाइश?
रही कभी मन में मोह-ममता
कि जिसकी सखा-सन्तान थे,
जिसके नाभि-नाल से पाया था जीवन-तत्त्व
वो कोशी इतने दिन किस हाल में रही?
सोचा कभी?
–पछिमहि राज सं एलै एक मोगलबा
बान्हि जे देलकै कोसिका-धार
ऐसन बान्ह जे बान्हलक मोगलबा
सिकियो ने पसीझै मोगला के बान्ह
हिन्दुओ ने बूझै मोगला तुरुको ने बूझै
सब जन सं चकरी ढोआबै
राजा शिवसिंह बैठल छल मचोलबा
तेकरो सं चकरी ढोआबै(१०)
इस तरह से बांधी गई थी कोशी।
कलप-कलपकर चिट्ठी लिखती थी
अपनी एक-एक बहना को
–दे न गे गंगा बहिनो साथ
–दे न गे जमुना बहिनो साथ
–दे न गे कमला बहिनो साथ
सभी बहना पढती थीं चिट्ठी, रोती थीं जार-बेजार
आंसुओं से बह-बह जाते उनके दायें-बायें तट
उस आह से, जो बहन की दुर्दशा पर निकलती
मगर, एक न चली किसी की
मोगलबा का बांध ऐसा ठहरा वज्र
कि उसमें सींकी भी पसीझ न सकती थी
कोशी की धारा तो खैर बडी बात थी।
साल-दर-साल चीत्कार करती रही कोशी
–गे बहन गंगा, आसमान चढ बालू पर हकरती(११) हूं गे।
–गे बहन जमुना, सारी ताकत बिलाती है
रेगिस्तान-पर की इस तिलमिली मे गे।
याद करती थी कोशी
अपने वे पुराने दिन, पुरानी राहें,
और, सुबक-सुबक रोती
उसके लोर जो झहरते ताबडतोड,
उसी से टूटता था कभी पूर्वी कभी पश्चिमी तटबंध
साल-दर-साल।
मगर बताइए
कब सुना साहुजी ने उसका रुदन?
या, सर्वनियन्ता सहुआइन ने ही कभी सुना हो
तो वह भी बताइए।
उलटे कविता रचते रहे कविगण–
उपद्रवी दुष्टा कोसी कें भेटलै खूब सजाय
बान्हि क’ मूसुक बान्ह भाय सब जेल मे देल ढुकाय
बोलो भैया रामे-राम हो भाय
कोसी-सन बेदरदी जग मे कोय नै।(१२)
ठीक है, मान लिया
कि ऐसी बेदरदी जग में और कोई नहीं
मगर कैसी?
कोशी- जैसी?
या कि सहुआइन-जैसी?
अब भी तो सोचें साहुजी
कम-से-कम सोचें
और, भेदन करें प्रलय-रहस्य।।
।।पाद-टिप्पणी।।
(१)==जैसे ही तुम अपने घर लौटोगे ए साहुजी, सहुआइन के साथ मिलकर उलटी बुद्धि रचोगे और कोशी का नाम भूल जाओगे।
(२)==हे कोशी माई, भले ही मेरे सारे जीव खत्म हो जाएं, सिर्फ मेरे ही प्राण बच जाएं, फिर भी मैं तुम्हारा नाम कभी नहीं भूलूंगा।
(३)==सोंस-नकार-बोछ=कोशी में पाए जानेवाले विशालकाय जल-जीव।
(४)==कोशिकन्हा= कोशी के दोनों तटबंधों के बीच घिरा विशाल क्षेत्र, जिसमें एक बडी आबादी बसती है।
(५)==पनहग्गा= जिन्हें मल-त्याग करने के लिए भी धरती मयस्सर नहीं है, फलतः पानी में ही मल-त्याग करते हैं। बाढ के दिनों में यह आम बात होती है।
(६)==तिनमहला= बहुमंजिली इमारतें।
(७)==ए रानू, जिनके दुआरे साक्षात कोशी बह रही हो, वह निश्चिन्त होकर कैसे सो सकता है?
(८)==जाम= जामुन।
(९)==हे कोशी माई, आम और जामुन के ये वृक्ष मैंने क्यों लगाए? बांस के ये बीट मैंने किसके लिए रोपे? यह सब करके हमें क्या मिला?
(१०)==पच्छिम राज से एक दुर्दान्त मोगल(मुगल?) आया और उसने कोशी को बांध दिया।मोगल ने ऐसा जबर्दस्त बांध बांधा कि उसमें होकर एक तिनका भी पार न उतर सकता था। जन-भावना की उसने तनिक परवाह न की। उसने न हिन्दुओं को बख्शा न मुस्लिमों को। सबको उसने मिट्टी ढोने के लिए मजबूर किया। हमारे राजा शिवसिंह अपने मचोले पर विराजमान थे, उन्हें भी उसने मिट्टी ढोने के लिए मजबूर किया।
(११)==हकरना=अति व्याकुल होकर रोना। प्राणान्तक रुदन।
(१२)==उपद्रवी और दुष्टा कोशी को अच्छी सजा मिली कि भाइयों ने उसके हाथ-पांव बांधकर उसे जेल में डाल दिया। अब राम का नाम लो भाइयो, कोशी-जैसी बेदरदी दुनिया में कोई न थी।
अनुवाद- अविनाश
घरही जे जयबें रे सहुआ सहुनियां-बुधी रचबें
बिसरि जयबें कोसिका के नाम(१)
और, साहुजी सचमुच बिसर गए।
सौ बरस हुए, दो सौ बरस हुए
कोशी के साथ हुआ था करार,
यूं कोशी को सन्देह था तब भी
कि जैसे ही सकुशल पाएंगे अपने-आपको साहुजी,
सहुआइन-संग मिलकर रचेंगे बुद्धि
और कोशी को बिसर जाएंगे,
मगर वचनबद्ध हुए थे साहुजी–
जीबो मोरा जयतै कोसी माय
परानो किछु जे बचतै
तैयो ने बिसरबह तोहर नाम(२)
जीव भी बचे
काहे को जाएगी उनकी जान?
मगर बडे आराम से बिसर गए कोशी का नाम।
बिसर गए कि कोशी की माटी से बनी उनकी काया
बिसर गए कि कोशी के पानी से पाया सदाबहार संस्कार
कोशी के लास्य से सीखा यदि जीवन-राग
तो उसी के ताण्डव से आविष्कृत किया धर्म।
गिरता है जब आदमी
तो गिरता ही चला जाता है !
देखिए !
इनके बच्चे तैरना तक बिसर गए
सोंस-नकार-बोछ(३) को अगर देखा कहीं
तो बस ज्योग्राफिक चैनल पर।
देखिए !
ये बेचारे साहुजी हंसते रहे सब दिन
कोसिकन्हा(४) के लोगों पर,
जिनका दोष सिर्फ यही कि दो तटबंधों में बन्द थे वो,
उनपे हंसते रहे सब दिन
कि पनहग्गा(५) होते हैं ये सब।
कहा न !
गिरता है जब आदमी
तो गिरता ही चला जाता है !
किसकी बुद्धि पर थे इतने निश्चिन्त साहुजी?
किसके बहलाने पर इतनी हुई हिम्मत
कि जहां कोशी की धार न पाती थी कभी थाह,
ठीक वहां बनाया तिनमहला(६)
जहां रानू सरदार के साथ हुई थी कोशी की मुलाकात,
ठीक उसी जगह खोल ली फैक्टरी !
किसकी बुद्धि पर थे इतने निश्चिन्त?
इस आजाद मुल्क में
किसकी अपनी हुई सहुआइन
कि इनकी होती?
और, उसकी बुद्धि पर इतना इतराना !
एक सहुआइन गईं तो दूसरी हाजिर
दूसरी गईं तो तीसरी हाजिर
बिक गया देश महाराज, इन्हीं सहुआइन के कुचक्र में।
कह लें भले सब उन्हें ‘नेताजी नेताजी’
मगर असल में तो ठहरी वो साहुजी की औरत
जो हमेशा चुनाव के बाद सांढ बनकर देश चरती।
जकरा दुअरिया हो रानू कोशी बहे धरबा
सेहो कइसे सूतत निचिन्त?(७)
मगर साहुजी निचिन्त सोए रहे
इतना भरोसा था उन्हें नेताजी के आश्वासन पर।
बनैले सूअर और नीलगाय पर जो किया होता,
हुराड और बनबिलाड पर,
गदहे और महिष पर जो किया होता भरोसा
तो आज यह दिन न देखना पडता !
चींटी से पिपडी तक, गडइ और चेंगा तक
होते हैं इतने जागन्त
कि अगर उन्होंने आपको आश्वासन दिया होता
तो क्या मजाल कि तटबन्ध के भीतर जमा हो जाए
इतने का इतना सिल्ट !
सिंगही उसे अपने कांटों से खरोंच बहा देती
हारिल और बटेर उसे अपने लोल से तौल लेते।
क्या मजाल !
कि जहां बना था साहुजी का तिनमहला,
उससे पांच मरद ऊपर बहती कोशी
बालू के टीले पर रोती फफक-फफक।
निचिन्त सोए रहे किसके भरोसे ओ बाबू साहुजी?
–नेताजी की टीम के भरोसे।
नेताजी अगर कहें ‘आम’
तो मुल्क-भर के इंजीनियर चिल्लाएंगे–’आम आम’
और अगर नेताजी कह दें ‘जाम’(८)
तो सुन लीजिए तमाम विशेषज्ञों का शृगाल-स्वर–’जाम जाम जाम’
और, इन-जैसे लोगों पर भरोसा?
इतना इतना भरोसा?
कथी ले’ रोपलियै कोसी माय आमुन-जामुन गछिया
कथी ले’ रोपलियै बीट बांस?(९)
–यह भी कोई पूछने की बात हुई?
रोपा तो होगा भोग के ही लिए।
मगर किसने नहीं करने दिया भोग?
कौन बहा ले गया सौ बरस दो सौ बरस की प्रगति?
कौन था जिसने गड्ढे गिराकर मारा?
सोचें साहुजी
अब भी तो सोचें
कम-से-कम सोचें तो।
मगर किस बुद्धि से सोचेंगे साहुजी?
किस मुंह से बोलेंगे?
छोडी कहीं कुछ कहने-सुनने की गुंजाइश?
रही कभी मन में मोह-ममता
कि जिसकी सखा-सन्तान थे,
जिसके नाभि-नाल से पाया था जीवन-तत्त्व
वो कोशी इतने दिन किस हाल में रही?
सोचा कभी?
–पछिमहि राज सं एलै एक मोगलबा
बान्हि जे देलकै कोसिका-धार
ऐसन बान्ह जे बान्हलक मोगलबा
सिकियो ने पसीझै मोगला के बान्ह
हिन्दुओ ने बूझै मोगला तुरुको ने बूझै
सब जन सं चकरी ढोआबै
राजा शिवसिंह बैठल छल मचोलबा
तेकरो सं चकरी ढोआबै(१०)
इस तरह से बांधी गई थी कोशी।
कलप-कलपकर चिट्ठी लिखती थी
अपनी एक-एक बहना को
–दे न गे गंगा बहिनो साथ
–दे न गे जमुना बहिनो साथ
–दे न गे कमला बहिनो साथ
सभी बहना पढती थीं चिट्ठी, रोती थीं जार-बेजार
आंसुओं से बह-बह जाते उनके दायें-बायें तट
उस आह से, जो बहन की दुर्दशा पर निकलती
मगर, एक न चली किसी की
मोगलबा का बांध ऐसा ठहरा वज्र
कि उसमें सींकी भी पसीझ न सकती थी
कोशी की धारा तो खैर बडी बात थी।
साल-दर-साल चीत्कार करती रही कोशी
–गे बहन गंगा, आसमान चढ बालू पर हकरती(११) हूं गे।
–गे बहन जमुना, सारी ताकत बिलाती है
रेगिस्तान-पर की इस तिलमिली मे गे।
याद करती थी कोशी
अपने वे पुराने दिन, पुरानी राहें,
और, सुबक-सुबक रोती
उसके लोर जो झहरते ताबडतोड,
उसी से टूटता था कभी पूर्वी कभी पश्चिमी तटबंध
साल-दर-साल।
मगर बताइए
कब सुना साहुजी ने उसका रुदन?
या, सर्वनियन्ता सहुआइन ने ही कभी सुना हो
तो वह भी बताइए।
उलटे कविता रचते रहे कविगण–
उपद्रवी दुष्टा कोसी कें भेटलै खूब सजाय
बान्हि क’ मूसुक बान्ह भाय सब जेल मे देल ढुकाय
बोलो भैया रामे-राम हो भाय
कोसी-सन बेदरदी जग मे कोय नै।(१२)
ठीक है, मान लिया
कि ऐसी बेदरदी जग में और कोई नहीं
मगर कैसी?
कोशी- जैसी?
या कि सहुआइन-जैसी?
अब भी तो सोचें साहुजी
कम-से-कम सोचें
और, भेदन करें प्रलय-रहस्य।।
।।पाद-टिप्पणी।।
(१)==जैसे ही तुम अपने घर लौटोगे ए साहुजी, सहुआइन के साथ मिलकर उलटी बुद्धि रचोगे और कोशी का नाम भूल जाओगे।
(२)==हे कोशी माई, भले ही मेरे सारे जीव खत्म हो जाएं, सिर्फ मेरे ही प्राण बच जाएं, फिर भी मैं तुम्हारा नाम कभी नहीं भूलूंगा।
(३)==सोंस-नकार-बोछ=कोशी में पाए जानेवाले विशालकाय जल-जीव।
(४)==कोशिकन्हा= कोशी के दोनों तटबंधों के बीच घिरा विशाल क्षेत्र, जिसमें एक बडी आबादी बसती है।
(५)==पनहग्गा= जिन्हें मल-त्याग करने के लिए भी धरती मयस्सर नहीं है, फलतः पानी में ही मल-त्याग करते हैं। बाढ के दिनों में यह आम बात होती है।
(६)==तिनमहला= बहुमंजिली इमारतें।
(७)==ए रानू, जिनके दुआरे साक्षात कोशी बह रही हो, वह निश्चिन्त होकर कैसे सो सकता है?
(८)==जाम= जामुन।
(९)==हे कोशी माई, आम और जामुन के ये वृक्ष मैंने क्यों लगाए? बांस के ये बीट मैंने किसके लिए रोपे? यह सब करके हमें क्या मिला?
(१०)==पच्छिम राज से एक दुर्दान्त मोगल(मुगल?) आया और उसने कोशी को बांध दिया।मोगल ने ऐसा जबर्दस्त बांध बांधा कि उसमें होकर एक तिनका भी पार न उतर सकता था। जन-भावना की उसने तनिक परवाह न की। उसने न हिन्दुओं को बख्शा न मुस्लिमों को। सबको उसने मिट्टी ढोने के लिए मजबूर किया। हमारे राजा शिवसिंह अपने मचोले पर विराजमान थे, उन्हें भी उसने मिट्टी ढोने के लिए मजबूर किया।
(११)==हकरना=अति व्याकुल होकर रोना। प्राणान्तक रुदन।
(१२)==उपद्रवी और दुष्टा कोशी को अच्छी सजा मिली कि भाइयों ने उसके हाथ-पांव बांधकर उसे जेल में डाल दिया। अब राम का नाम लो भाइयो, कोशी-जैसी बेदरदी दुनिया में कोई न थी।
अनुवाद- अविनाश