तुम्हारी उदासी के कितने शेड्स हैं विनायक सेन
जानता हूं विनायक सेन
बीमारी अंधकार और लौहदंडों के घेरे में
दम घुट रहा है तुम्हारा
दम घुट रहा है जनाकांक्षाओं का
पर देखो तो
तुम्हारी उदासी उद्भासित हो रही है कैसी
बज रही है कितने सुरों में
कि कतने शेड्स है इसके
यहां बाजू में घास पर बैठे हैं मंगलेश जी
चुप्पा हकबकाए से
आधा सिर हिलाते
कि नहीं
ठीक ऐसा नहीं है
कि जिगर फिगार अवाम की कीमत पर ली गयी
उधार की यह चमक
मुझे मंजूर नहीं
पास ही घुटनों के बल झुकी हैं भाषा सिंह
विस्फारित नेत्रों में बच्चों सा विस्मय भरे
अपने धैर्य को मृदु हास्य में बदलती
कुछ बतिया रही हैं रंजीत वर्मा से
वहीं उबियाए से बैठे हैं मदन कश्यप,रामजी यादव
कि तमाशा खडा करना हमारा मकसद नहीं
दाएं बाजू सामने चप्प्ल झोला रखे
बैठे हैं अजय प्रकाश
अपनी खिलंदडी मुस्कान के साथ
सरल हास्य में डूबी नजरों से ताकती प्रेमा को दिखलाते
कि वो तो रही नंदिता दास
वही
फिराक वाली नंदिता दास
दीप्ती नवल की खनकती निगाह को
यतीम कर दिए गए बच्चे के दर्द में डुबोकर
जड कर देने वाली नंदिता दास
उधर पीछे खडे हैं अभिषेक
अपनी ही चर्बी के इंकिलाब से अलबलाए
कि भईवा इ पानी है कि गर्म चाय
पास ही मुस्का रहे हैं अंजनी
कितने शेड्स हैं तुम्हारी उदासी के
उधर कितने अनमने से खडे हैं अनिल चमडिया
कि साहित्य अकादमी की धूमिल होती इस सांझ में
शामिल हो रहा है रंग खिलते अमलतास का
कि बजती है एक अंतरराष्ट्रीय धुन
कि सब तुम्हारे ही लिए हैं मेरी कुटुबुटु
कि चलता है रेला लोकधुन का
और फुसफुसते हैं लोग
कि यह राजस्थानी है कि गुजराती
कि भुनभुनाता है एक
कि यहां इस प्रीत के बोल की जरूरत क्या है
जरूरत है साथी
कि प्रीत के बोलों पर
अभिषेक और ऐश्वर्या की ही इजारेदारी नहीं
कि वे अपनी भूरी कांउस आंखों पर भी
कजरारे-कजरारे गवा लें
और पूरा मुलुक ताकता रह जाए
मुलुर-मुलुर
कि इन बोलों पर
फैज – नेरूदा – हिकमत का भी अधिकार है
कि प्रीत के बोलों पर उनका ही अधिकार है
जो अपनी धुन में चले चलते हैं
मौत से हमबिस्तर होने के लिए
हां ये सब
तुम्हारी उदासी के ही शेड्स हैं विनायक सेन
उदासी की ही धुन है यह
जिस पर नाच रहे हैं इतने सारे जन-गन
बौद्धिक-कवि-पत्रकार
सबको लग रहा है कि
यह उदासी है
कि वे हैं।
बीमारी अंधकार और लौहदंडों के घेरे में
दम घुट रहा है तुम्हारा
दम घुट रहा है जनाकांक्षाओं का
पर देखो तो
तुम्हारी उदासी उद्भासित हो रही है कैसी
बज रही है कितने सुरों में
कि कतने शेड्स है इसके
यहां बाजू में घास पर बैठे हैं मंगलेश जी
चुप्पा हकबकाए से
आधा सिर हिलाते
कि नहीं
ठीक ऐसा नहीं है
कि जिगर फिगार अवाम की कीमत पर ली गयी
उधार की यह चमक
मुझे मंजूर नहीं
पास ही घुटनों के बल झुकी हैं भाषा सिंह
विस्फारित नेत्रों में बच्चों सा विस्मय भरे
अपने धैर्य को मृदु हास्य में बदलती
कुछ बतिया रही हैं रंजीत वर्मा से
वहीं उबियाए से बैठे हैं मदन कश्यप,रामजी यादव
कि तमाशा खडा करना हमारा मकसद नहीं
दाएं बाजू सामने चप्प्ल झोला रखे
बैठे हैं अजय प्रकाश
अपनी खिलंदडी मुस्कान के साथ
सरल हास्य में डूबी नजरों से ताकती प्रेमा को दिखलाते
कि वो तो रही नंदिता दास
वही
फिराक वाली नंदिता दास
दीप्ती नवल की खनकती निगाह को
यतीम कर दिए गए बच्चे के दर्द में डुबोकर
जड कर देने वाली नंदिता दास
उधर पीछे खडे हैं अभिषेक
अपनी ही चर्बी के इंकिलाब से अलबलाए
कि भईवा इ पानी है कि गर्म चाय
पास ही मुस्का रहे हैं अंजनी
कितने शेड्स हैं तुम्हारी उदासी के
उधर कितने अनमने से खडे हैं अनिल चमडिया
कि साहित्य अकादमी की धूमिल होती इस सांझ में
शामिल हो रहा है रंग खिलते अमलतास का
कि बजती है एक अंतरराष्ट्रीय धुन
कि सब तुम्हारे ही लिए हैं मेरी कुटुबुटु
कि चलता है रेला लोकधुन का
और फुसफुसते हैं लोग
कि यह राजस्थानी है कि गुजराती
कि भुनभुनाता है एक
कि यहां इस प्रीत के बोल की जरूरत क्या है
जरूरत है साथी
कि प्रीत के बोलों पर
अभिषेक और ऐश्वर्या की ही इजारेदारी नहीं
कि वे अपनी भूरी कांउस आंखों पर भी
कजरारे-कजरारे गवा लें
और पूरा मुलुक ताकता रह जाए
मुलुर-मुलुर
कि इन बोलों पर
फैज – नेरूदा – हिकमत का भी अधिकार है
कि प्रीत के बोलों पर उनका ही अधिकार है
जो अपनी धुन में चले चलते हैं
मौत से हमबिस्तर होने के लिए
हां ये सब
तुम्हारी उदासी के ही शेड्स हैं विनायक सेन
उदासी की ही धुन है यह
जिस पर नाच रहे हैं इतने सारे जन-गन
बौद्धिक-कवि-पत्रकार
सबको लग रहा है कि
यह उदासी है
कि वे हैं।