यात्रीजी की वैचारिकता
हाल में प्रकाशित अपने एक लेख में मोहन भारद्वाज ने यात्रीजी के लेखन पर अपनी निष्पत्ति स्पष्ट करते हुए कहा है — ”यात्री जी अपनी वैचारिकता तथा मान्यता के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी वैचारिकता तथा मान्यता को मार्क्सवाद की पुस्तकें पढकर अथवा वामपंथी राजनीतिक दलों की गतिविधियां देखकर समझना संभव नहीं है। इसके लिए उनकी रचनाओं मे पैठना जरूरी है।’
श्री भारद्वाज स्वयं एक मार्क्सवादी समीक्षक हैं। मैथिली में मार्क्सवादी ढंग की व्यावहारिक समीक्षा पर काम करने वाले दो आलोचकों– कुलानन्द मिश्र एवं मोहन भारद्वाज — में वह एक हैं। और, वह व्यक्ति कहते हैं कि मार्क्सवाद की पुस्तकें पढकर जानना संभव नहीं है, तो जरूर यह एक विचारणीय बात बन जाती है।
हिन्दी में यात्रीजी के लिए जो विशेषण सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआ वह है- ‘जनकवि’। इस शब्द का परम्परा-प्रसूत अर्थ है-जनता का कवि। यात्रीजी स्वयं को इसी अर्थ मे सब दिन जनकवि समझते रहे। लेकिन इसका दूसरा अर्थ है–जनवादी कवि। वामपंथी विचारधारा के लिए लोकप्रसिद्ध शब्द है-जनवाद। इसे जिसने बखूबी अपनी रचनाओं में उतारा– ‘बखूबी’ इस अर्थ मे कि आमजन तक पहुंचने की संप्रेषणीयता उसकी रचनाओं में भरी-पूरी हो, वह हुआ- जनवादी कवि।
यह एक दिलचस्प स्थिति है कि मार्क्सवादियों ने तो उन्हें ‘जनवादी कवि’ के अर्थ में ‘जनकवि’ कहा लेकिन यात्री जी ने ‘जनता के कवि’ के अर्थ में इसे ग्रहण किया। थोपने-जैसा दबाव यदि कभी आया भी तो उन्होंने साफ-साफ कहा कि ‘मैं जनकवि हूं तो अपनी जनता का कवि हूं।’
मगर, मोहन भारद्वाज कहते हैं कि उनकी वैचारिकता को पुस्तक से जानना असंभव है, तो इसका क्या अर्थ हे्? अगर किसी की मान्यता मार्क्सवादी होगी तो मार्क्सवाद की पुस्तकों से क्या उसका इतना विरोध हो सकता है कि उसका जानना ही असंभव हो। यह तो हो सकता है कि पूरापूरी जानना संभव न हो, पर अपर्याप्तता और असंभवता, दोनों एक ही चीजें तो नहीं हैं। क्या मार्क्सवाद एक ऐसा शैतान बालक है,जिससे यात्रीजी के घर का पता पूछो तो वह हमें गलत रास्ता बतला देगा? या फिर, वह एक ऐसा परदेसी व्यक्ति है जिसे खुद ही उनके गांव का पता नहीं मालूम, तो वह हमें क्या बताएगा? लेकिन हम देखते हैं कि यात्रीजी के जीते-जी उनका जिन्दाबाद भी खूब हुआ और मुर्दाबाद भी। मुद्दा हमेशा मार्क्सवाद रहा। विरोधियों ने मार्क्सवादी होने के लिए उनका मुर्दाबाद किया और मार्क्सवादियों ने मार्क्सवाद से उनके विचलन के लिए। और, मुद्दे का यह केन्द्र-विन्दु क्या इस लायक भी नहीं कि उसकी सहायता लेकर उन्हें जाना जा सके। प्रश्न तो यह वाकई महाभीषण है।
इस स्थिति में जब हम मोहन भारद्वाज की इस पंक्ति को पढते हैं कि ‘यात्रीजी अपनी वैचारिकता तथा मान्यता के लिए प्रसिद्ध हैं’–तो यह जानने की आतुरता होती है कि जिसके लिए वह प्रसिद्ध थे वह वैचारिकता तथा मान्यता कौन-सी थी। उसके क्या गुणधर्म हैं? और नाम-गोत्र? और, शास्त्र? इन प्रश्नों का कोई उत्तर भारद्वाज नहीं देते और ‘नेति-नेति’ वाली शैली में बस इतना ही कहते हैं कि जानने के लिए उनकी रचनाओं में डुबकी लगाना जरूरी है। उन्होंने ‘समझदार को इशारा काफी’ वाली शैली में बात कही है, लेकिन कहना चाहिए कि एक सही बात कही है।
हम सभी जानते हैं कि यात्रीजी अपनी वैचारिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। मैथिली लेखकों के लिए कलम-कागज-दावात के साथ-साथ वैचारिकता के होने का भी, एक जरूरी चीज में शुमार यात्रीजी के जमाने में ही हुआ। सभी जानते हैं कि पुरातनवादी स्कूल को उनकी यह वैचारिकता सख्त नापसंद थी। इसकी वजह से उनकी जितनी निन्दा हो सकती थी, हुई। उनके रास्ते कठिन किए गए। उसपर जगह-जगह कांटे रोपे गए। मैथिली को छोडकर वह भाग जाएं, ऐसी परिस्थिति बनाई गई। जो लोग कहते हैं कि आर्थिक कारणों से ही उन्हें मैथिली छोडनी पडी,वे यथार्थ को सरलीकृत करते हैं।
यात्रीजी ने स्वयं मैथिली छोडी हो या मठाधीशों ने छुडवा दिया हो, यह पक्का है कि उसकी वजह यह वैचारिकता ही थी। हिन्दी मे प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पा लेने के बाद जब वह एक बार फिर से मैथिली मे सक्रिय हुए, तो हम पाते हैं कि उस वक्त तक पुरातन-स्कूल की आभा थोडी मद्धिम पडने लगी थी। आधुनिकता और विज्ञान-बुद्धि के हक में, मैथिली के बींसवीं सदी के इतिहास की यह एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसे लोग ‘चित्रा’ के प्रकाशन (१९४९) के रूप में भी याद करते हैं।
जब यह कहा जाता है कि यात्रीजी अपनी वैचारिकता और मान्यता के लिए प्रसिद्ध हैं, पर उनकी वैचारिकता के बारे में अलग से कुछ भी नहीं बताया जाता है. तब भी इतना स्पष्ट हो ही जाता है कि उनकी वैचारिकता वामपंथ है। ऐसा स्पष्ट होने के पीछे उनका प्रभामंडल है, उनकी स्थापित छवि है। जीवन-जगत को देखने का उनका दृष्टिकोण, व्यवस्था के प्रति उनका रुख, उनकी प्राथमिकताएं, प्राथमिकता-निर्धारण के उनके सूत्र और संघर्ष के प्रति उनका रुझान–ये सब चीजें हैं, जो मार्क्सवादी मतों से मेल खाते हैं। केवल मेल खाने की बात नहीं, यह सब इतना जगजाहिर है कि अलग से उनकी वैचारिकता के बारे में सोचे जाने की जरूरत भी दिखाई नहीं पडती। यह हुआ है।
प्रश्न है कि उनकी वैचारिकता को मार्क्सवाद की पुस्तक पढकर क्यो नहीं समझा जा सकता? इसका कोई उत्तर हमें मोहान भारद्वाज के लेख में तो नहीं ही मिलता है, यात्री जी के निधन के बाद जो अनेकानेक पत्रिकाओं के विशेषांक निकले उनमें छपे लेखों से भी नहीं होता। जिन लोगों ने भी उन्हें नजदीक से देखा है,उन्हें पता है कि यात्रीजी हद दरजे के प्रगतिशील थे। कोई व्यक्ति अपनी चेतना के आखिरी छोड पर जाकर जितना प्रगतिशील हो सकता है, उतना। किसी राजनीतिक दल से हम इस स्तर की प्रगतिशीलता की उम्मीद नहीं कर सकते, और न यह कि वे इस दरजे के व्यक्तियों को हजम कर पाएं। पुस्तकें तो यूं भी जड होती हैं जबकि जीवन चेतन और स्पन्दनशील। शास्त्र को देखकर जीवन का आकलन करना एक खतरनाक धंधा हो सकता है जो, हम देखते हैं कि मार्क्सवादियों ने खूब किया है।
दरअसल मार्क्सवाद जीवन और जगत को व्याख्यायित करने एक सटीक दृष्टिकोण है। एक दृष्टिकोण का होना ही इसकी अधिकतम संभाव्यता है। और, साहित्य, यदि वह मौलिक रूप से साहित्य के गुण-धर्मों से पुष्ट है, तो वह किसी दृष्टिकोण की व्याख्या-मात्र नहीं हो सकता। शास्त्रों का जड होना ही उसकी सीमा है। कि वह चेतन जीवन को जानने का उत्तेजन तो जरूर हो सकता है पर स्वयं जीवन या उसका दर्पण नहीं बन सकता। साहित्य का लेखन हृदय से हृदय तक पहुचने की प्रक्रिया है, जिसमें खुद ही परिवर्तन के त्तत्व समाए हुए हैं।
१९७५ में छपी उनकी एक प्रसिद्ध कविता है–’प्रतिबद्ध हूं’ । इस कविता का शीर्षक तो जरूर है–’प्रतिबद्ध हूं’ लेकिन कविता के आरंभ में ही उन्होंने साफ कर दिया है कि वह केवल प्रतिबद्ध ही नहीं हैं,सम्बद्ध और आबद्ध भी हैं। यह कविता उनकी प्रतिबद्धता, सम्बद्धता और आबद्धता की विस्तृत सूची प्रस्तुत करती है। एक जगह वह कहते हैं कि बहुजन-समाज की अनुपल प्रगति के लिए वह प्रतिबद्ध हैं, तो फिर वहीं यह भी कह जाते हैं कि अविवेकी भीड के भेडियाधसान के प्रति भी वह प्रतिबद्ध हें और स्वयं को अपने व्यामोह से बारंबार उबारने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं। वामपंथी राजनीति में इस प्रकार की प्रतिबद्धता बडी उकडू ढंग की चीज मानी जाएगी। और जब अपनी सम्बद्धता और आबद्धता की सूची वह पेश करते हैं तब तो पुस्तकों से और भी दूर चले जाते हैं। ऐसे में, और कोई रास्ता जब बचा नहीं दीखता तो डा० नामवर सिंह को इस कविता पर अन्ततः यह कहना पडता है कि ‘नागार्जुन के ये विचार आचार से पुष्ट हैं, इसीलिए इनमें सच्चाई की ताकत है।’
और, क्योंकि यात्रीजी की वैचारिकता प्रतिबद्धता, सम्बद्धता और आबद्धता– इन तीनों की ही समाहारी वैचारिकता है, इसलिए भी शास्त्रीय पद्धति-मात्र से उन्हें जानना संभव नहीं है।
फिर, यह बात भी है कि भीषण रूप से प्रतिभाशाली होना जिसे कहा जाता है, वैसे प्रतिभाशाली यात्रीजी थे। उनकी नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि कदम-कदम पर अपनी स्फूर्ति दिखा सकती थी। दूसरी बात यह थी कि वह अपने गांव-घर, लोक-वेद, देस-कोस से बडी ही गहराई से जुडे हुए थे। उनकी यह संलग्नता इतनी गहरी थी कि सात-तह नींद में भी वह इससे अलग नहीं हो सकते थे। और, संलिप्तता इतनी विचित्र कि दूसरी किसी भी चीज को इसके लिए त्याग सकते थे। यही वह जगह थी जहां वह शास्त्र को भी ठेंगा दिखा सकते थे, पार्टी को भी।
मैं जैसा समझता हूं, प्रगतिशीलता का सहज गुण-धर्म है–सतत जागरूकता। जागरूक हुए बगैर शायद प्रगतिशील नहीं बने रहा जा सकता। और, जहां सतत जागरूकता रहेगी, वहां सतत परिवर्तनशीलता का गुण भी जरूर पाया जाएगा। हम बचपन से ही सुनते आए कि परिवर्तन ही प्रकृति का प्रधान नियम है। मार्क्सवाद जिस प्रधान वस्तु की कामना करता है, उसका नाम भी परिवर्तन ही है। परिवर्तन तो एक सहज ब्रह्माण्डीय घटना है, जिसे हर हाल में घटित होना है, चाहे हम उसकी कामना करें चाहे न करें। हां, श्रेयस्कर कामना हर कोई करना चाहता है, उस नाते ठीक। लेकिन हमें अचरज भी कम नहीं होता जब हरसू परिवर्तन के पैरोकार वामपंथियों को भी हम यात्री जी के परिवर्तन-धर्म पर सीदित होते देखते हैं। हर युग में शायद यही होता आया है। जो जीवन के पक्ष में खडा होता है और जीवन के लिए शास्त्र से विद्रोह करता है, शास्त्र उसके साथ यही करता है। ऐसे मौकों पर ब्राह्मणवादी कर्मकाण्ड जिस तरह प्रतिक्रियायित होता है, मार्क्सवादी कर्मकाण्ड भी शायद उससे अलग होता नहीं दीखता।
जीवन के आखिरी दिनों में यात्रीजी ने एक पत्रकार से कहा था– ‘हम गांव जाएंगे तो बूढे लोग अब भी बुलाएंगे—‘अरे ठक्कन ! नागार्जुन कहने से वे नहीं चीन्हेंगे।’ –आप क्या इसे मामूली बात समझते हैं? जीवन और जीवन्तता के कितना करीब था वह आदमी, देखिए–अपनी परिचिति तक के आत्मतोष में।
प्रगतिशील थे यात्रीजी, वह भी हद दरजे के। मगर, इसके अतिरिक्त वह और भी बहुत कुछ थे। इनमें से कुछ चीजें मार्क्सवादियों को सूट करती थीं। मगर, कुछ ऐसी चीजें भी थीं जो उन्हें सूट नहीं करतीं थीं। इसके लिए वे उन्हें ‘हूट’ करते थे।यह सूटिंग और यह हूटिंग, उनके मनोरंजन के साधन थे। इसपर वह हंसा करते। बहुतों ने उन्हें हंसते देखा होगा। मैंने भी देखा है।
इसलिए मोहन भारद्वाज की यह बात मुझे ठीक लगती है कि मार्क्सवाद की पुस्तकें पढकर और वामपंथी राजनीति की गतिविधियां देखकर यात्रीजी को नहीं समझा जा सकता। फिर भी, अगर समझने की जिद करें तो निष्कर्ष गलत आएंगे। मगर उन्हें समझने की जरूरत है भी किसको? यदि कोई संकल्पित हो कि हर हाल में उसे यात्रीजी को जानना ही जानना है, तभी तो यह बात लागू होती है। वरना, ब्रह्माण्ड में ऐसी कौन-सी चीज है जिसे मार्क्सवाद के नजरिये से समझा नहीं जा सकता। यात्रीजी तो महज एक मामूली चीज हैं। लेकिन तब जो निष्कर्ष आएंगे, वे उन्हें अतिभावुक, खब्ती, नौटकिया, ढुलमुल,सिद्धान्तहीन, समझौतावादी आदि-आदि मानने को बाध्य करेंगे। (ये विशेषतावाची शब्द मेरे नहीं, मार्क्सवादियों के हैं, जो उन्हें समय-समय पर बख्शे गए हैं।) महान आलोचकों की बात तो छोडें, विश्वविद्यालय से पी-एच०डी० करनेवाला ‘युवक विद्वान’ भी जब मार्क्सवाद के नजरिये से उन्हें देखता है, तो उसके निष्कर्ष कुछ इस तरह होते हैं–’नागार्जुन को जनकवि मानने में एतराज तो नहीं है, किन्तु एक शंका बार-बार मन में खटकती है। कवि भावुकता के वशीभूत जनता के साथ कहीं-कहीं भटक जाता है। इस प्रकार उसके जनवाद पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। जनता के साथ उसका मोह कभी-कभी इतना गहरा हो जाता है कि उसकी सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना पर भी पुनर्विचार करना पडता है।’ (‘नागार्जुन की काव्ययात्रा’ में डा० रतन) पुनर्विचार की मांग से ज्यादा किसी के खिलाफ और आप क्या मांग कर सकते हैं? मुझे तो लगता है कि पहली बार जिसने उन्हें जनकवि कहा होगा, उस मार्क्सवादी की समूची जिन्दगी पछतावे में कटी होगी।
यह बात जरूर है कि हममें से अनेक उदार लोगों ने उनके लिए जगह बनाने की मंशा से उन्हें ‘किसानी चेतना के कवि’ और ‘राष्ट्रवादी मार्क्सवाद के उद्गाता’ आदि विशेषणों से विभूषित किया। लेकिन ये निष्पत्तियां भी अन्ततः पद्धतिहीन निष्पत्तियां थीं। इनके निषेध के लिए शास्त्र के पास हजार तर्क थे। यह तो मानो उद्दाम जीवन्त प्रगतिशीलता और जनपक्षधरता को शास्त्र के कठघरे में खडे कर न्याय देने की कोशिश थी, जैसे कोई सुबह की पहली किरण को बक्से में बन्द कर संसदभवन ले जाए–माननीयों के अवलोकनार्थ।
यात्रीजी की ओर से देखा जाए तो यह साफ-साफ दीखता है कि वह सदा-सर्वदा शोषित-दलित-पीडितों के पक्ष में खडे रहे। हमेशा। जब वह विद्यार्थी थे, तब भी। संन्यासी हुए, तब भी। मार्क्सवादी हुए तब भी और उधर से हटे, तब भी। मृत्युशय्या पर थे तब भी उनका पक्ष नहीं बदला था।
जो भी कोई जहां भी कहीं शोषित-पीडित था, वह उसके साथ रहे और जो शोषक थे उनके खिलाफ रहे। वह केवल कांग्रेस और ब्राह्मणवाद के ही खिलाफ नहीं हुए, जरूरत पडी तो आधुनिकता और मार्क्सवाद के भी खिलाफ खडे हुए। सम्प्रदाय के दीपक तले तो अंधेरा जरूर ही पाया जाता है, भले अन्यान्य दीयों के तले रहे या न रहे। मार्क्सवादी होकर भी कोई मार्क्सवादी को ही गद्दार कहे, उन दिनों यह समझ में आनेवाली बात नहीं थी। लेकिन यह तो उन लोगों की समस्या थी, वे उसे सुलझाते। यात्रीजी को तो अपना पक्ष स्पष्ट दीख रहा था–’जो नहीं हो सके पूर्णकाम; मैं करता हूं उनको प्रणाम।’
कभी-कभी तो मुझे लगता है कि जो गहरी चेतना उनके भीतर थी, वह मात्र ‘कवि’ होने से साधित न हो सकती थी। कहा तो जाता है-’जहां न जाय रवि वहां जाय कवि’, लेकिन इस दरजे की गहरी संलग्नता के लिए सिर्फ कवि होना पर्याप्त नहीं हो सकता। मेरा खयाल है कि इतनी गहरी संलग्नता, वह भी इतनी निरन्तरता और एकसूत्रता के साथ, कवि होने भर से शायद साधित नहीं हो सकती। इसके लिए स्वयं भोक्ता होना, दलित-पीडित होना जरूरी है। जिन्होंने यात्रीजी की आरंभिक संघर्षयात्रा देखी है या उनसे सुनी है या जो थोडा-बहुत इस बारे में उन्होंने लिखा है, उसे पढा है, वे जानते हैं कि जिस जगह से वह चले और जिन रास्तों से बढे— जिस तरह से और जिन संघर्षों का सामना करते हुए— उनका स्वयं का मानस भी एक दलित-पीडित की मनोरचना से सृजित हुआ था। यह पीडा उनकी स्वयं की पीडा थी। वह उसमें शामिल थे। दलित-पीडितों के प्रति उनकी पक्षधरता अचूक थी क्योंकि उनके साथ वह स्वयं को शामिल पाते थे। इसी का विस्तार हमें उनके ‘आमजन’ की समझ में दीखता है।
मैं सोच रहा था कि भारतीय साहित्य मैं इन दिनों दलित साहित्य की बडी चर्चा सुनी जाती है। मैथिली में भी हम इसकी धमक सुन ही रहे हैं। जाति से जो दलित हैं, वे तो बडी ही सुविधापूर्वक अपना दलितत्व प्रमाणित कर सकते हैं। लेकिन यह सोच भी कम प्रामाणिक नहीं कि दलितत्व एक मनोनिर्माण है। आपका दलित-मनोनिर्माण कितना सघन हुआ है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कितने जटिल कर्मकाण्डी और जात्याभिमानी समाज में पले-बढे हैं। मिथिला तो एक बेजोड जनपद है, जहां यह भी चलन रहा है कि ब्राह्मणों का छुआ पानी भी दूसरा ब्राह्मण नहीं पीता। जातीय कोटिक्रम इतने जटिल हैं कि एक ब्राह्मण दूसरे को अछूत समझे, इसके लिए हजार तर्क हैं। और, कर्मकाण्डीय जटिलता इतनी जाहिल कि महाराष्ट्र में जो भोग डोम और मेहतरों ने भोगा, मिथिला में वह भोग भोगने को तेली-धानुक-कोइरी आदि मध्यवर्ती जातियां बाध्य होती रहीं। इस बात के विस्तार में जाने की बहुत जरूरत मैं नहीं समझता कि मैथिली साहित्य का बहुलांश, यात्रीजी के बाद भी और उनके बावजूद भी, दुनिया-जहान को देखने की ब्राह्मण-दृष्टि की उपज है। यूं दीखती तो करुणा भी है, दया-ममता भी, मगर कुल मिलाकर वह भी दीन-दलित को देखनेवाले दयालु ब्राह्मण का नजरिया है। मैथिली साहित्य में निरूपित संस्कृति यहां की शास्त्रीय संस्कृति है। समुचित मनोनिर्माण के अभाव में लोक-संस्कृति का पुनर्लेखन भी किस तरह प्रदूषित हो जाता है, इसका दृष्टान्त हमें मणिपद्म के काम में दिखाई पडता है। दरअसल बहुत थोडे-से लोग हुए, जिनमें दलित-दृष्टि है और उसके साथ समुचित मनोनिर्माण की ऊष्मा भी है।
यह चीज हमलोगों ने यात्रीजी में देखी कि ब्राह्मण-दृष्टि के समानान्तर एक दूसरी दृष्टि भी हो सकती है, और, वह है– दलित-दृष्टि। इसकी जड अवश्य ही मिथिला की किसानी चेतना में है, पर स्वानुभूति के ताप से यह उनके भीतर सिद्ध हुआ है। इसकी तर्कसंगति अचूक है, और इसने उनकी आस्था पाई है, इसे उनकी मेधा की आधारशिला प्राप्त है। यही वह चीज है, जिसकी वजह से परंपरागत वैचारिकताओं के साथ उनका टकराव होता रहा है। यह इस तरह उनमें व्याप्त है मानो स्वयं में एक परिपूर्ण वैचारिकता हो। यहां हम , उदाहरण-प्रत्युदाहरण के व्यामोह से मुक्त रहते हुए इस चीज के गुण-धर्मों का एक मोटा आकलन कर सकते हैं--
( १ ) दलित-दृष्टि की यह सामान्य मांग होती है कि सम्पूर्ण मानवीय गरिमा के साथ दलित (तसल्ली के लिए इसके साथ ‘शोषित’ और ‘पीडित’ शब्द भी जोड ले सकते हैं) समुदाय को साहित्य में उठाया जाए। ‘मानवीय गरिमा’ बहुत ही महत्त्वपूर्ण संदर्भ है। यह मौजूद रहे तभी किन्हीं दूसरी बातों पर बात हो सकती है। पर, मैथिली में स्थिति है कि लोग सर्वनामों और संबोधनों तक के चयन में गरिमा का खयाल नहीं रख पाते, और तो बात ही छोडें। ‘मानवीय गरिमा’ जब कहा जाता है तो मैं पाता हूं कि इसका निर्वाह भी द्विस्तरीय है। एक तो दलितों के स्तर पर, कि वे जब पात्र बनकर आते हैं तो ‘पांगे’ हुए शीशम की तरह न आएं। शीशम की जब सारी टहनियां काट दी जाती हैं तो कैसा दीखता है? लेकिन काटनेवालों का तर्क होता है कि शीशम इससे मुटाएगा। यही तर्क ब्राह्मणवाद का भी है कि दलित इससे कायदे में रहेंगे।
मानवीय गरिमा के निर्वाह का दूसरा स्तर कवि से संबंधित है। वह यूं कि पूरी आस्था के साथ वह इसकी कोशिश करे कि उसकी दृष्टि में ब्राह्मण-दृष्ट्यादि विजातीय दृष्टियों का मिश्रण न होने पाए। उसकी, यानी कि अपने पात्र की गरिमा बचाते हुए ही वह अपनी गरिमा भी बचा पाएगा। यात्रीजी के लेखन को देखें तो यह चीज हमें भरपूर दिखाई देती है। दोनों स्तरों के निर्वाह में तो वह बेजोड हैं।
( २ ) दलित-लेखन के रूप में जो साहित्य आज हमारे सामने आ रहा है, उसे अक्सर हम अव्याप्ति का शिकार पाते हैं। ब्राह्मण लोग दलितों पर अत्याचार करते हैं,दलित-जीवन का यह मात्र एक पहलू है। दलित का जीवन सिर्फ इसके लिए नहीं होता कि ब्राह्मणों के द्वारा उनपर अत्याचार किए जाएं और लेखक करुणा या आक्रोश से ओतप्रोत होकर इसका वर्णन करता रहे। उनकी एक उर्वर जीवनशैली भी होती है,सम्पन्न संस्कृति भी होती है,उसके भी हास-परिहास होते हैं,उसके भी रोजी-रोजगार की अपनी बारीकियां होतीं हैं। फिर उसके राग-विराग हैं, उसकी सौन्दर्यदृष्टि है। क्या नहीं है उसके पास, जो ब्राह्मणों के पास है? पता नहीं क्यों हमारे दलित लेखक इन चीजों के विन्यास में रुचि लेते नहीं दीखते, जबकि साहित्य के दूरगामी उद्देश्य के हिसाब से देखें तो यही विन्यास सबसे जरूरी है।
हम देख सकते हैं कि यात्रीजी बहुत सहजता के साथ यह कर सके। उनका ‘दलित’ यानी कि शोषित-पीडित, जाति की घेराबंदी में बंधा हुआ समुदाय नहीं है। वह एक समूह है जो शूद्र, स्त्री और बच्चे– इन तीनों से मिलकर बना है। मनोरचना की भूमिका चूंकि इसमें सबसे प्रधान है, बहुत आसानी से उनकी निष्पत्तियां अन्य समुदाय को भी अपने टारगेट के भीतर ले आती है। ‘ताडक गाछ’ कविता में जब वह कहते हैं–’लगाबथु ग’ केओ कतेको जोर बाप-पित्ती कें करथु ग’ सोर मुदा रोइयां एकोटा ओकर उपाडल नहि हेतन्हि ककरो बुतें’ ( कोई कितना भी जोर आजमाइश कर ले, और इसमें चाहे अपने बाप-चाचों की भी मदद ले ले, पर इसका एक बाल तक वे उखाड नहीं पाएंगे। ) तो वह दरअसल विधाता के विधान को चुनौती देनेवाले दलितों की बात करते हैं। उनके दलित ऐसे हैं। इस कविता की व्याप्ति बडी है। अविवेकी समाज का मारा हुआ, झिंझोडा हुआ जो भी कोई कहीं होगा, इस कविता से वह समर्थन पा सकता है।
( ३ )यात्रीजी देख पाते हैं कि इन बंचितों को प्रताडित करनेवाली चीज केवल परम्परा ही नहीं है, वह आधुनिकता भी है। परम्परा, यानी कि धर्म, जाति, समाज, नैतिकता, आदि। और, आधुनिकता, यानी कि लोकतंत्र, फासिज्म, मार्क्सवाद, बाजार आदि। जब वह कहते हैं–’फटै छी कुसियारक पोर जकां चैतक पछबा मे ठोर जकां’ (जिस तरह ईख का पोर फटता है, वैसे फट रही हूं; जिस तरह चैत की पछुआ हवा में होंठ फटते हैं, उस तरह फट रही हूं। ) तो हम परम्परा की प्रताडना का दृश्य देखते हैं, और जब कहते हैं–’प्रभु पटेल छथि सर्वशक्ति-सम्पन्न कनबथि तैयो चीनिक लेल हकन्न’ (माननीय मंत्री पटेल सर्वशक्ति-सम्पन्न हैं मगर तब भी चीनी के लिए रुला रहे हैं ) तो सत्ता की जटिलताएं प्रताडक की भूमिका में नजर आती है।
लेकिन, याद रखना चाहिए कि दलित-बंचित भी अगर ये हैं, तो यात्रीजी के हैं। सूचीभेद्य अन्धकार में भी इन्हें रोशनी का कोई-न-कोई कतरा दीख ही जाता है। किसी के मुंह में बोल न होना, जीने का अधिकार भी न होने का परिचायक नहीं हो सकता। उद्दाम जिजीविषा है उसके पास और यात्रीजी उसके साथ खडे मिलते हैं। अपनी कविता ‘चें चें चें चें’ में वह यह बताते हुए कि ‘नहि छैक परबाहि एकरा सबहि कें नव घर उठल कि पुरान घर खसल’ ( इन्हें कोई परवाह नहीं है कि किसी का नया घर उठा या पुराना घर गिरा’ ), बडे आराम से वह यह निष्पत्ति दे जाते हैं–’प्रशासकीय विधि-निषेधक बन्धन मानत की कउखन चिडै-चुनमुन’ ( जो चिडियों का-सा जीवन जीनेवाले लोग हैं, वे भला प्रशासकीय विधि-निषेध का बन्धन कब स्वीकार करेंगे? )
सुदूर अतीत से लेकर सद्यः वर्तमान तक जो लोग हाशिये पर ठगे-से खडे रहे हैं और अपने वजूद तक के लिए व्यंग्य सहने की दारुण पीडा से गुजर रहे हैं, यात्रीजी बडे ही आस्था के साथ जाकर उसके समर्थन में खडे होते हैं। याद कीजिए तरौनी ग्रामवासी सरजुग राउत को, जिनपर उन्होंने ‘जोडा मन्दिर’ कविता लिखी है। अपने माता-पिता की स्मृति में सरजुग ने जोडा मन्दिर बनवाया है। यह चीज सामाजिक चलन में नहीं है। तो, स्वाभाविक ही है कि ‘बाभन-गांव में राड पजियार’ वाली नैतिकता के वशीभूत बाबू-भैया लोग सरजुग की हंसी उडाते हैं। और देखें कि इस प्रकरण में यात्रीजी सरजुग को क्या हितोपदेश देते हैं। कहते हैं–’धुः मरदे, इहो केओ बाजय बूझल नहि छह तोरा? तरउनी गामक बाबू-भइया लोकनि हंसी उडबै छथि हमरो।” ( अरे छोडो भी जवान, यह भी कोई बतानेवाली बात हुई? तुम्हें मालूम नहीं कि तरौनी गांव के बाबू-भैया लोग मेरी भी हंसी उडाते हैं। )
प्रसंगवश, यहां प्रयुक्त शब्द ‘हमरो’ (मेरी भी) पर जरा गौर करें। कहने का क्या मतलब है उनका कि हंसी उडाते हैं मेरी भी? क्या वह स्वीकार कर रहे हैं कि वह भी बाबू-भैया समुदाय के ही एक व्यक्ति हैं? या फिर किसी दूसरे कारण, जैसे संन्यासी या वामपंथी होने की वजह से उनकी हंसी उडती है। अन्ततः क्या वह भी बाबू-भैया ठहरे? नहीं। हैं तो वह समवर्गी सरजुग के ही, इसमें उन्हें कोई सन्देह नहीं है। पर, सन्देह है सरजुग को। तभी तो उसने अपनी बात बताने के पहले यात्रीजी की ‘नजर की थाह’ ली थी और तब ‘कनफुसकी आवाज’ में अपनी शिकायत बताई थी। याद कीजिए कि बाबू-भैया के गांव में शूद्रों के शिकायत करने का यही लहजा होता आया है। अब इसे ब्राह्मणवाद का मजबूत शिकंजा कहें या चेतना का अभाव, पहचान की आश्वस्ति यात्रीजी में है पर सरजुग में उसकी कमी पाई जा रही है।
यात्रीजी की आश्वस्ति तो कुछ इस रूप मैं अभिव्यक्त हुई है– ‘यश-अपयश हो हानि-लाभ हो सुख हो अथवा शोक। सबसं पहिने मोन पडइ अछि अपने भूमिक लोक।’ ( प्रसंग चाहे यश का हो या अपयश का, हानि का हो या लाभ का, सुख की बात हो चाहे शोक की, सबसे पहले अपनी ही जमीन पर के लोग याद आते हैं। ) अब, इसमें बहुत तर्क करने की गुंजाइश नहीं है कि यात्रीजी की अपनी जमीन कौन-सी है।
( ४ ) व्यक्ति अथवा वस्तु की अपनी खास निजता में जो सौन्दर्य होता है, यात्रीजी ने हमेशा उसे ही काव्यानुभूति में रूपान्तरित करने की चेष्टा रखी। कवि-समाज के लिए यह बहुत प्रचलित तथ्य की तरह रहा है कि जब वह किसी ‘वस्तु’ को उठाता है तो उसमें बहुत-कुछ जोडता-घटाता है और तब उसे साहित्य में संस्थापन-योग्य बनाता है। भारतीय काव्य-परम्परा में इसे ‘अन्यथा-निवेशन’ कहा गया है। इस प्रक्रिया में वह क्या करता है कि या तो ‘वस्तु’ के स्वरूप में अपना ‘कथ्य’ मिलाकर उसे उदात्त बना लेता है या उसकी अपनी निजता में ही इतना अतिरेक मिला देता है कि वस्तु उदात्तीकृत हो जाती है। मेरे खयाल से अन्यथा-निवेशन के ये दो प्रारूप हैं।
यात्रीजी ने इस मामले में ऐसी प्रयुक्ति अपनाई जो न केवल मैथिली कविता के लिए एक दुर्लभ घटना की तरह है अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के लिए एक रेखांकनीय बात है।
उनकी कितनी ही कविताओं में नितान्त छोटी-छोटी चीजें, तुच्छ नगण्य व्यक्ति और वस्तुएं अपनी सम्पूर्ण निजता में प्रकट होती हैं। गौर करने की बात है कि ये चीजें किसी प्रतीक, दृष्टान्त या उपमान के तौर पर नहीं आतीं। आलंकारिक शोभाख्यान के लिए कारीगरी दिखाने के लिए कवि इन्हें नहीं उठाता। वे अपने में अपनी सम्पूर्ण निजता, परिपूर्णता समेटे हुए आती हैं। ‘विकट प्रान्तर में खडा ताड का वृक्ष’ चला आता है। स्वयं में मस्त ‘चिडिया-चुनमुन’ चली आती हैं। भरे-पूरे थनोंवाली ‘मादा सूअर’ आ जाती है तो कहीं ‘सुन्दर राउत’ खुद में एक परिपूर्ण कविता का रूप धरे प्रकट होते हैं। और, ऐसी ‘क्षुद्र वस्तुओं’ के की चर्चा के मध्य बीच-बीच में कहीं ‘कविता’ पाई जाती हो, ऐसी बात नहीं। कविता कहीं अलग से नहीं होती। किसी उपमान का कोई उपमेय नहीं होता। ये सब स्वयं में एक पूर्ण कविता होते हैं- निजता की सुरभि से महमहाती।
यात्रीजी की अभिव्यक्ति में जो गँवारूपन है, प्रसंगवश उसपर भी एक नजर डालनी चाहिए। गँवारूपन का मतलब है कि किसी बात को जब वह उठाते हैं तो अत्यन्त साधारण आदमी की अभिव्यक्ति-शैली में उठाते हैं और इस क्रम में शिष्टजनानुमोदित अभिव्यक्ति-कला से दूर चले जाते हैं। शास्त्रीय मर्यादा को प्रमाण माननेवाले लोगों के लिए उनका यह ‘विचलन’ कष्टप्रद होता है। अपने शब्दों में मैं इस बात को स्पष्ट करूं, इससे कहीं ज्यादा मुझे वरिष्ठ कवि-गद्यकार पं० चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’ के एक लेख का कुछ अंश उद्धृत करना अच्छा लग रहा है। ‘भारती-मंडन’ के संस्मरण-विशेषांक में अमर जी का लेख है–’यह यथार्थवादिता वांछनीय?’
इस लेख में अमर जी ने बहुत स्पष्टता के साथ अपनी बात रखी है, जो यात्रीजी को समझने में हमारे लिए मददगार हो सकती है। उनके एक कवितांश– ‘अपने छला मूर्ख हमरा चारि अक्षर पढा गेला बाप, जे बौआ कमा क’ लगा देता टाल’ –को उद्धृत करते हुए अमर जी कहते हैं–’सिर्फ स्पष्टतावादी कहलाने लिए ‘बाप’ को ‘मूर्ख’ कहनेवाला पुत्र क्या कभी सुपुत्र कहला सकता है? शब्दशक्ति के मर्मज्ञ यात्रीजी ने जिस दिन ‘निरक्षर’ के बदले ‘मूर्ख’ शब्द का प्रयोग किया, मेरा चित्त उसी दिन भटक गया। सम्बन्धी होने के गौरव को ठेस लगी।(दोनों के बीच मामा-भांजे का सम्बन्ध था।) चालीस वर्ष से अधिक हुआ कि ‘सारिका’ हिन्दी मासिक में ‘आईने के सामने’ स्तंभ में उनका साक्षात्कार छपा था। उसे पढकर उनके अनन्य मित्र, सभी स्थितियों में सामंजस्य रखनेवाले, शान्त, मृदुभाषी श्रीयुत सुमानजी-सदृश व्यक्ति का मन भी वितृष्णा से भर गया था। मुझसे भेंट हुई तो बोले थे–’इससे उपलब्धि क्या? कुछ भी थे पिता, पिता हैं। क्षणिक लोकप्रियता के लिए यह यथार्थवादिता वांछनीय है? या स्पृहनीय? या अनुकरणीय?’
कुल मिलाकर बात यह कि यात्रीजी की इस ‘यथार्थवादिता’ ने इन तीनों के बीच के रिश्ते में दरार पैदा कर दिया।
गौर करने की बात है कि अमर जी जिसे यहां यथार्थवादिता कह रहे हैं, वह वस्तुतः ‘यथार्थवादिता’ नहीं है। यह तो महज अभिव्यक्ति का गँवारूपन है जिसे काव्यशास्त्र ने ग्राम्य-दोषादि की कोटि में रखा है। जब वह यात्रीजी को ‘शब्द-शक्ति का मर्मज्ञ’ बताते हैं तो स्वाभाविक रूप से उनसे यह उम्मीद करते हैं कि वह शिष्ट-जनानुमोदित भाषा-शैली का प्रयोग किया करें। और जब सुमन जी इसे मात्र ‘क्षणिक लोकप्रियता’ का दरजा देते हैं तो क्या प्रकट करते हैं? जिस आम आदमी की अभिव्यक्ति-शैली तक साहित्य में लाना उन्हें पसन्द नहीं, उस आम आदमी के जीवन और सौन्दर्यशास्त्र का भला क्या मूल्य हो सकता है उनकी दृष्टि में?
अमर जी के उपर्युक्त उद्धरण में जो मांग प्रकट हुई है, वह शुद्ध ब्राह्मण-दृष्टि का द्योतक है। ब्राह्मण-दृष्टि, जिसके लिए मैथिली में प्रचलित शब्द है- परम्परावाद अथवा शुद्धतावाद, (दोनों ही नामों में किन्तु अव्याप्ति-दोष है)-इस बात से परहेज नहीं करता कि साहित्य में दीन-दलितों का प्रवेश हो, वह खूब हो, हो लेकिन ब्राह्मणवाद की शर्त पर। जीवन भले आम आदमी का रहे, पर उसमैं श्वास ब्राह्मणवाद का पडना चाहिए।
भले मिथिला के लोग आम बोलचाल की भाषा में भी पिता को ‘बाप’ और निरक्षर को ‘मूर्ख’ कहते हैं तो कहें। वह यहां विचारणीय नहीं है। विचारणीय यहां यह है कि ऐसा साहित्य में कहा जाना चाहिए या नहीं। यानी कि प्रश्न यथार्थ का नहीं, आदर्श का है। ब्राह्मण-दृष्टि को जो यथार्थ चाहिए उसे आदर्श से सराबोर होना चाहिए। इधर यात्रीजी थे कि उनके लिए यह मान्यता दो कौडी की भी नहीं थी। वह शब्द-मर्मज्ञ थे तो इसलिए थे कि कवि को हर कुछ होना चाहिए। लेकिन क्या शब्द-मर्मज्ञता ही कवित्व-बीज है? काव्यैककारण है? और, जो लोग यह खयाल रखते हैं कि यात्रीजी क्षणिक लोकप्रियता के लिए ऐसा लिखते थे, वे दयनीय हैं क्योंकि वे नहीं जानते कि हिन्दी में अपनी जगह बनाने के लिए उन्हें कितना संघर्ष करना पडा था।
कहना चाहिए कि जिस तरह मार्क्सवाद की पुस्तकें पढकर यात्रीजी को नहीं समझा जा सकता उसी तरह ब्राह्मणवादी यथार्थ-दृष्टि रखकर भी उनके साथ न्याय नहीं किया जा सकता। पर, ऐसे न्याय की जरूरत ही उन्हें कहां है?
( ५ )ब्राह्मणवाद को कौन-सा यथार्थ चाहिए, यह बात जिस तरह उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी, उसी तरह यह बात भी कि पोलित ब्यूरो को किस प्रकार का लेखन चाहिए। लेकिन मायने रखे न रखे, वह इन प्रश्नों से निस्तार नहीं पा सकते थे। वह दोनों से जुडे थे। दोनों के बीज उनके भीतर थे या होने की संभाव्यता रखते थे। कुछ तो सांस्कारिक कुलक्रम में उनके भीतर आ विराजा था और कुछ स्वार्जित संबल के रूप में उन्होंने जमा कर रखे थे। शास्त्रीय साहित्य का जो गहरा अवबोध उन्होंने पाया था,उसकी अपनी जटिलताएं भी कम न थीं। मामला यह कि वह दोनों ओर से घिरे थे। दूसरी ओर उनका ‘मध्य मार्ग’ था, जो दिनानुदिन लोकमुखी,बंचितमुखी होते जाने को बाध्य था। यह बाध्यता उनके निजत्व की ही बाध्यता थी। उनका ‘यात्रीजी’ होना ही इस बाध्यता का मूल कारण था।
उनके साहित्य में हम देखते हैं कि वह अक्सर अपने आप पर हंसते हैं। खुद को ही ‘गिदराभकोल’ से लेकर ‘चूतिया’ तक साबित करते रहते हैं। उनके ऐसा करने की आखिर क्या संगति हो सकती है? ऐसा करने की अनुमति तो न ब्राह्मणवाद देता है, न वामपंथ। अरे भाई, चूतिया बनाना है तो अपने प्रतिपक्षी को बनाओ न। लेकिन स्वयं को ही बना रहे हो? यह तो निरा पागलपन हुआ न?
मुझे लगता है कि स्वयं पर व्यंग्य करने की उनकी यह प्रवृत्ति दरअसल उनके निजत्व का विद्रोह है। भीतर जो वास्तविक आदमी है, उसका विद्रोह। लेकिन यह विद्रोह क्यों? विद्रोह होता ही तो है इसीलिए कि कोई किसी को दबा रहा हो, सता रहा हो, उसके वजूद को कमजोर कर रहा हो। लेकिन, यात्रीजी को दबानेवाला, सतानेवाला यह कौन है कि उन्हें विद्रोह पर उतारू होना पडता है? मुझे लगता है कि वे यही दोनों वीर हैं–ब्राह्मण-दृष्टि और मार्क्सवाद। आप चाहें तो इसे ‘परम्परा’ और ‘आधुनिकता’ का नाम दे सकते हैं। आप गौर करेंगे कि जहां कहीं उन्होंने खुद पर व्यंग्य कियाहै, क्रूर प्रहार किया है, वह दरअसल अपने मोह के प्रति विद्रोह है– मोह कहीं ब्राह्मण-दृष्टि का, कहीं वामपंथी निष्पत्तियों का।
मैं यह कहने की अनुमति चाहूंगा कि यात्रीजी अपनी मनोरचना के स्तर पर स्वयं दलित-बंचित समुदाय से थे, दलितों, पीडितों की पीडा इसीलिए उन्हें निजता के हद पर आकर छूती थी और इसीलिए तुच्छ-नगण्यों के प्रति अपनी सघन पक्षधरता वह इतनी निरन्तरतापूर्वक बनाए रख सके। किसी-न-किसी तल पर वह स्वयं बन्धनग्रस्त थे, तभी इतने सातत्यपूर्वक मुक्ति की आकांक्षा को अभिव्यक्त करते रह सके। स्वयं अपनी मावीय कमजोरियों के प्रति आशंकित थे, इसीलिए स्वयं को भी क्षमा न करते हुए व्यंग्य का विषय बनाते रहे।
अन्त में, कुछ बातें, जो उनकी कविताई का स्वभाव बताती हैं और उनकी वैचारिकता के पहलू उजागर करती हैं–
हम पाते हैं कि अपनी साहित्य-यात्रा में यात्रीजी लगातार निम्नतरोन्मुख होते गए हैं। आम तौर पर लोग स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा करते हैं, उन्होंने निम्न से निम्नतर की यात्रा की है। यह चीज हमें उनके काव्य-विषय के चयन में भी दीखती है और क्षुद्र-नगण्यों में जीवन-संवेदना खोजने की कलाकारी में भी। आरम्भ में हम उन्हें गंडकी के कछेर में गाय-भैंस चराते कालिदास और विद्यापति का अवलोकन करते पाते हैं और आगे मादा सूअर के सघन मातृत्व का निरीक्षण करते।
इसी प्रकार, ‘वर्ग’ की अवधारणा को स्वीकार करने के बावजूद वह ‘वर्ण’ की जटिलताओं से भी किनारा नहीं करते। वस्तुतः मिथिला की सामाजिक बुनाबट को समझना ‘वर्ण के भीतर वर्ण’ के परिप्रेक्ष्य को समझे बगैर नहीं हो सकता। भारत जिस दिन आजाद हुआ था, १५ अगस्त १९४७ को उन्होंने आजादी के उमंग में एक कविता लिखी थी-’वंदना’। इसमें हम उन्हें बहुत सारे स्वप्न बुनते और दुआएं करते हुए देखते हैं। देश की आजादी से कई सारी अच्छी चीजें होंगी,उनका क्रमवार विवरण कविता में दिया गया है। सबसे पहली और अच्छी जो बात होगी, यात्रीजी कहते हैं, वह यह होगा कि ब्राह्मण-क्षत्रिय-भूमिहार आदि ऊंची जातियों के साथ-साथ शूद्र और अंत्यज जातियों के लोग भी अब ‘मैथिल’ मान लिए जाएंगे। इन जातियों की एक लंबी सूची उन्होंने इस कविता में दी है। मिथिला के इतिहास से जो अवगत हैं, उन्हें पता है कि आधुनिक युग में मिथिला की अधोगति का मुख्य जिम्मेवार दरभंगा राज की विभेदमूलक और शोषणपरक नीति है। लंबा वृत्तान्त है इसका, कि किस तरह ब्राह्मण और कर्ण कायस्थ को ही ‘मैथिल’ होने की सुविधा प्राप्त थी और नवजागरण के दौर में कैसे अन्य जातियों ने ‘मैथिल’ का दरजा हासिल करने के लिए संघर्ष किया लेकिन उनकी एक न चली और अन्ततः सामाजिक एकता एक स्वप्न बनकर रह गई।
मुझे हमेशा से लगता रहा है कि यात्रीजी एक नायक-विहीन जाग्रत समाज की सोच रखते थे। उनकी कविताओं में और उनके उपन्यासों में नायक तो जरूर हैं पर उनकी वैचारिकता नायकत्व का अन्त चाहती है। याद आता है कि ‘बलचनमा’ के प्रकाशन के तीन दशक बाद जब किसी ने उनसे पूछा था कि ‘आपके बालचन का अब क्या हाल है?’ , तो तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया था–’होगा साला कहीं किसी गांव का मुखिया-सरपंच बना बैठा।’ तो, नायक उन्होंने खडे किए, यह प्रतीकात्मक बात थी, कामचलाऊ बात थी,चाहते तो वह नायक-पूजा का अन्त थे।
नायक का उद्देश्य है–मार्गदर्शन, और उनकी कविता का स्वभाव हम देखते हैं कि वह जनता के सद् विवेक को मात्र उसका असली मार्गदर्शक कबूल करने के पक्ष में हैं।
यहां उनकी कविता ‘सुन्दर राउत’ मुझे याद आ रही है। उस कविता के अन्त में वह सुन्दर को सलाह देते हैं कि तुम अपनी मूछें छोटी करवा लो। क्या कहना चाहते हैं वह? हार मान लेने? समझौता कर लेने? उस कविता की व्याख्या करते हुए और इसे ‘दलित-संघर्ष का ही नहीं, संघर्ष की विजयी मुद्रा का भी पता बताती कविता’ कहते हुए मोहन भारद्वाज इस कूटनीतिक सन्दर्भ का हवाला देते हैं कि ‘दो कदम आगे बढने के लिए एक कदम पीछे खिसकने मैं कोई हर्ज नहीं है।’ भारद्वाज जी इस बात पर खास ध्यान देने का आग्रह करते हैं कि यात्रीजी ने मूंछें छोटी करवाने कही हैं, कटवा लेने नहीं। लेकिन, मुझे लगता है कि जिस निष्पत्ति के अर्थ में उन्होंने कहा है,वहां मूछें छोटी करवाना या कटवा ही डालना, इन दोनों में अन्तर नहीं है। यह यात्रीजी की नमनीयता और नई पीढी के साथ अतिरिक्त स्नेह के कारण ही हो सकता है कि उन्होंने मूछें छोटी करवाने कही है, कटवा लेने नहीं।
मूछें कहां श्लाघ्य, कहां उपेक्षणीय– इसके सद् विवेक का होना मूल बात है। जहां कर्मकाण्डों में उलझकर दलित ब्राह्मणवाद की मौत मर रहे हों, वहां एक जागन्त कवि के लिए कर्मकाण्ड का निषेध नहीं करना चेतना के साथ गद्दारी करना है। तभी तो अपनी आखिरी कविताओं में से एक ‘मायावती’ में उन्होंने कहा था–’मायावती मायावती दलितेन्द्र की छायावती’। मूछों का श्लाघ्य या उपेक्षणीय होना दरअसल असली और नकली के मामले से जुडा है। और उनकी दृष्टि में असली-नकली की पहचान एक सातत्यपूर्ण जागरूकता की मांग करता है। सतत जागरूकता और सद् विवेक–ये ही बंचितों के मार्गदर्शक हैं।
उन्होंने जहां कहीं दलित-बंचितों को अपनी कविता में उठाया, आप पाएंगे कि उनके ‘वर्तमान’ में ‘भविष्य’ का संकेत भी मिला दिया और, इसे उनका यथार्थ बताया। उन दलित-सीदित-पीडितों को आप कहीं भी डरे-छिपे-थरथर कांपते नहीं पाएंगे, चाहे वे शासन की बंदूक के सामने खडे हों चाहे सामन्तों के गिरोह के सामने। अब, यहां यदि आपको ‘अन्यथा-निवेशन’ सिद्धान्त याद आए तो चलिए, यह भी ठीक है। यात्रीजी का तो जैसे जीवन-संकल्प है–’रहि जेतइ अव्यक्त-किए ककरो चित्र? हेतइ नहि लिपिबद्ध किए ककरो बोल?’ ( वह चाहे कितना भी तुच्छ हो, किसी का चित्र अव्यक्त क्यों रह जाए? किसी की भी बोल लिपिबद्ध होने से क्यों बची रह जाए? )
श्री भारद्वाज स्वयं एक मार्क्सवादी समीक्षक हैं। मैथिली में मार्क्सवादी ढंग की व्यावहारिक समीक्षा पर काम करने वाले दो आलोचकों– कुलानन्द मिश्र एवं मोहन भारद्वाज — में वह एक हैं। और, वह व्यक्ति कहते हैं कि मार्क्सवाद की पुस्तकें पढकर जानना संभव नहीं है, तो जरूर यह एक विचारणीय बात बन जाती है।
हिन्दी में यात्रीजी के लिए जो विशेषण सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआ वह है- ‘जनकवि’। इस शब्द का परम्परा-प्रसूत अर्थ है-जनता का कवि। यात्रीजी स्वयं को इसी अर्थ मे सब दिन जनकवि समझते रहे। लेकिन इसका दूसरा अर्थ है–जनवादी कवि। वामपंथी विचारधारा के लिए लोकप्रसिद्ध शब्द है-जनवाद। इसे जिसने बखूबी अपनी रचनाओं में उतारा– ‘बखूबी’ इस अर्थ मे कि आमजन तक पहुंचने की संप्रेषणीयता उसकी रचनाओं में भरी-पूरी हो, वह हुआ- जनवादी कवि।
यह एक दिलचस्प स्थिति है कि मार्क्सवादियों ने तो उन्हें ‘जनवादी कवि’ के अर्थ में ‘जनकवि’ कहा लेकिन यात्री जी ने ‘जनता के कवि’ के अर्थ में इसे ग्रहण किया। थोपने-जैसा दबाव यदि कभी आया भी तो उन्होंने साफ-साफ कहा कि ‘मैं जनकवि हूं तो अपनी जनता का कवि हूं।’
मगर, मोहन भारद्वाज कहते हैं कि उनकी वैचारिकता को पुस्तक से जानना असंभव है, तो इसका क्या अर्थ हे्? अगर किसी की मान्यता मार्क्सवादी होगी तो मार्क्सवाद की पुस्तकों से क्या उसका इतना विरोध हो सकता है कि उसका जानना ही असंभव हो। यह तो हो सकता है कि पूरापूरी जानना संभव न हो, पर अपर्याप्तता और असंभवता, दोनों एक ही चीजें तो नहीं हैं। क्या मार्क्सवाद एक ऐसा शैतान बालक है,जिससे यात्रीजी के घर का पता पूछो तो वह हमें गलत रास्ता बतला देगा? या फिर, वह एक ऐसा परदेसी व्यक्ति है जिसे खुद ही उनके गांव का पता नहीं मालूम, तो वह हमें क्या बताएगा? लेकिन हम देखते हैं कि यात्रीजी के जीते-जी उनका जिन्दाबाद भी खूब हुआ और मुर्दाबाद भी। मुद्दा हमेशा मार्क्सवाद रहा। विरोधियों ने मार्क्सवादी होने के लिए उनका मुर्दाबाद किया और मार्क्सवादियों ने मार्क्सवाद से उनके विचलन के लिए। और, मुद्दे का यह केन्द्र-विन्दु क्या इस लायक भी नहीं कि उसकी सहायता लेकर उन्हें जाना जा सके। प्रश्न तो यह वाकई महाभीषण है।
इस स्थिति में जब हम मोहन भारद्वाज की इस पंक्ति को पढते हैं कि ‘यात्रीजी अपनी वैचारिकता तथा मान्यता के लिए प्रसिद्ध हैं’–तो यह जानने की आतुरता होती है कि जिसके लिए वह प्रसिद्ध थे वह वैचारिकता तथा मान्यता कौन-सी थी। उसके क्या गुणधर्म हैं? और नाम-गोत्र? और, शास्त्र? इन प्रश्नों का कोई उत्तर भारद्वाज नहीं देते और ‘नेति-नेति’ वाली शैली में बस इतना ही कहते हैं कि जानने के लिए उनकी रचनाओं में डुबकी लगाना जरूरी है। उन्होंने ‘समझदार को इशारा काफी’ वाली शैली में बात कही है, लेकिन कहना चाहिए कि एक सही बात कही है।
हम सभी जानते हैं कि यात्रीजी अपनी वैचारिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। मैथिली लेखकों के लिए कलम-कागज-दावात के साथ-साथ वैचारिकता के होने का भी, एक जरूरी चीज में शुमार यात्रीजी के जमाने में ही हुआ। सभी जानते हैं कि पुरातनवादी स्कूल को उनकी यह वैचारिकता सख्त नापसंद थी। इसकी वजह से उनकी जितनी निन्दा हो सकती थी, हुई। उनके रास्ते कठिन किए गए। उसपर जगह-जगह कांटे रोपे गए। मैथिली को छोडकर वह भाग जाएं, ऐसी परिस्थिति बनाई गई। जो लोग कहते हैं कि आर्थिक कारणों से ही उन्हें मैथिली छोडनी पडी,वे यथार्थ को सरलीकृत करते हैं।
यात्रीजी ने स्वयं मैथिली छोडी हो या मठाधीशों ने छुडवा दिया हो, यह पक्का है कि उसकी वजह यह वैचारिकता ही थी। हिन्दी मे प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पा लेने के बाद जब वह एक बार फिर से मैथिली मे सक्रिय हुए, तो हम पाते हैं कि उस वक्त तक पुरातन-स्कूल की आभा थोडी मद्धिम पडने लगी थी। आधुनिकता और विज्ञान-बुद्धि के हक में, मैथिली के बींसवीं सदी के इतिहास की यह एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसे लोग ‘चित्रा’ के प्रकाशन (१९४९) के रूप में भी याद करते हैं।
जब यह कहा जाता है कि यात्रीजी अपनी वैचारिकता और मान्यता के लिए प्रसिद्ध हैं, पर उनकी वैचारिकता के बारे में अलग से कुछ भी नहीं बताया जाता है. तब भी इतना स्पष्ट हो ही जाता है कि उनकी वैचारिकता वामपंथ है। ऐसा स्पष्ट होने के पीछे उनका प्रभामंडल है, उनकी स्थापित छवि है। जीवन-जगत को देखने का उनका दृष्टिकोण, व्यवस्था के प्रति उनका रुख, उनकी प्राथमिकताएं, प्राथमिकता-निर्धारण के उनके सूत्र और संघर्ष के प्रति उनका रुझान–ये सब चीजें हैं, जो मार्क्सवादी मतों से मेल खाते हैं। केवल मेल खाने की बात नहीं, यह सब इतना जगजाहिर है कि अलग से उनकी वैचारिकता के बारे में सोचे जाने की जरूरत भी दिखाई नहीं पडती। यह हुआ है।
प्रश्न है कि उनकी वैचारिकता को मार्क्सवाद की पुस्तक पढकर क्यो नहीं समझा जा सकता? इसका कोई उत्तर हमें मोहान भारद्वाज के लेख में तो नहीं ही मिलता है, यात्री जी के निधन के बाद जो अनेकानेक पत्रिकाओं के विशेषांक निकले उनमें छपे लेखों से भी नहीं होता। जिन लोगों ने भी उन्हें नजदीक से देखा है,उन्हें पता है कि यात्रीजी हद दरजे के प्रगतिशील थे। कोई व्यक्ति अपनी चेतना के आखिरी छोड पर जाकर जितना प्रगतिशील हो सकता है, उतना। किसी राजनीतिक दल से हम इस स्तर की प्रगतिशीलता की उम्मीद नहीं कर सकते, और न यह कि वे इस दरजे के व्यक्तियों को हजम कर पाएं। पुस्तकें तो यूं भी जड होती हैं जबकि जीवन चेतन और स्पन्दनशील। शास्त्र को देखकर जीवन का आकलन करना एक खतरनाक धंधा हो सकता है जो, हम देखते हैं कि मार्क्सवादियों ने खूब किया है।
दरअसल मार्क्सवाद जीवन और जगत को व्याख्यायित करने एक सटीक दृष्टिकोण है। एक दृष्टिकोण का होना ही इसकी अधिकतम संभाव्यता है। और, साहित्य, यदि वह मौलिक रूप से साहित्य के गुण-धर्मों से पुष्ट है, तो वह किसी दृष्टिकोण की व्याख्या-मात्र नहीं हो सकता। शास्त्रों का जड होना ही उसकी सीमा है। कि वह चेतन जीवन को जानने का उत्तेजन तो जरूर हो सकता है पर स्वयं जीवन या उसका दर्पण नहीं बन सकता। साहित्य का लेखन हृदय से हृदय तक पहुचने की प्रक्रिया है, जिसमें खुद ही परिवर्तन के त्तत्व समाए हुए हैं।
१९७५ में छपी उनकी एक प्रसिद्ध कविता है–’प्रतिबद्ध हूं’ । इस कविता का शीर्षक तो जरूर है–’प्रतिबद्ध हूं’ लेकिन कविता के आरंभ में ही उन्होंने साफ कर दिया है कि वह केवल प्रतिबद्ध ही नहीं हैं,सम्बद्ध और आबद्ध भी हैं। यह कविता उनकी प्रतिबद्धता, सम्बद्धता और आबद्धता की विस्तृत सूची प्रस्तुत करती है। एक जगह वह कहते हैं कि बहुजन-समाज की अनुपल प्रगति के लिए वह प्रतिबद्ध हैं, तो फिर वहीं यह भी कह जाते हैं कि अविवेकी भीड के भेडियाधसान के प्रति भी वह प्रतिबद्ध हें और स्वयं को अपने व्यामोह से बारंबार उबारने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं। वामपंथी राजनीति में इस प्रकार की प्रतिबद्धता बडी उकडू ढंग की चीज मानी जाएगी। और जब अपनी सम्बद्धता और आबद्धता की सूची वह पेश करते हैं तब तो पुस्तकों से और भी दूर चले जाते हैं। ऐसे में, और कोई रास्ता जब बचा नहीं दीखता तो डा० नामवर सिंह को इस कविता पर अन्ततः यह कहना पडता है कि ‘नागार्जुन के ये विचार आचार से पुष्ट हैं, इसीलिए इनमें सच्चाई की ताकत है।’
और, क्योंकि यात्रीजी की वैचारिकता प्रतिबद्धता, सम्बद्धता और आबद्धता– इन तीनों की ही समाहारी वैचारिकता है, इसलिए भी शास्त्रीय पद्धति-मात्र से उन्हें जानना संभव नहीं है।
फिर, यह बात भी है कि भीषण रूप से प्रतिभाशाली होना जिसे कहा जाता है, वैसे प्रतिभाशाली यात्रीजी थे। उनकी नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि कदम-कदम पर अपनी स्फूर्ति दिखा सकती थी। दूसरी बात यह थी कि वह अपने गांव-घर, लोक-वेद, देस-कोस से बडी ही गहराई से जुडे हुए थे। उनकी यह संलग्नता इतनी गहरी थी कि सात-तह नींद में भी वह इससे अलग नहीं हो सकते थे। और, संलिप्तता इतनी विचित्र कि दूसरी किसी भी चीज को इसके लिए त्याग सकते थे। यही वह जगह थी जहां वह शास्त्र को भी ठेंगा दिखा सकते थे, पार्टी को भी।
मैं जैसा समझता हूं, प्रगतिशीलता का सहज गुण-धर्म है–सतत जागरूकता। जागरूक हुए बगैर शायद प्रगतिशील नहीं बने रहा जा सकता। और, जहां सतत जागरूकता रहेगी, वहां सतत परिवर्तनशीलता का गुण भी जरूर पाया जाएगा। हम बचपन से ही सुनते आए कि परिवर्तन ही प्रकृति का प्रधान नियम है। मार्क्सवाद जिस प्रधान वस्तु की कामना करता है, उसका नाम भी परिवर्तन ही है। परिवर्तन तो एक सहज ब्रह्माण्डीय घटना है, जिसे हर हाल में घटित होना है, चाहे हम उसकी कामना करें चाहे न करें। हां, श्रेयस्कर कामना हर कोई करना चाहता है, उस नाते ठीक। लेकिन हमें अचरज भी कम नहीं होता जब हरसू परिवर्तन के पैरोकार वामपंथियों को भी हम यात्री जी के परिवर्तन-धर्म पर सीदित होते देखते हैं। हर युग में शायद यही होता आया है। जो जीवन के पक्ष में खडा होता है और जीवन के लिए शास्त्र से विद्रोह करता है, शास्त्र उसके साथ यही करता है। ऐसे मौकों पर ब्राह्मणवादी कर्मकाण्ड जिस तरह प्रतिक्रियायित होता है, मार्क्सवादी कर्मकाण्ड भी शायद उससे अलग होता नहीं दीखता।
जीवन के आखिरी दिनों में यात्रीजी ने एक पत्रकार से कहा था– ‘हम गांव जाएंगे तो बूढे लोग अब भी बुलाएंगे—‘अरे ठक्कन ! नागार्जुन कहने से वे नहीं चीन्हेंगे।’ –आप क्या इसे मामूली बात समझते हैं? जीवन और जीवन्तता के कितना करीब था वह आदमी, देखिए–अपनी परिचिति तक के आत्मतोष में।
प्रगतिशील थे यात्रीजी, वह भी हद दरजे के। मगर, इसके अतिरिक्त वह और भी बहुत कुछ थे। इनमें से कुछ चीजें मार्क्सवादियों को सूट करती थीं। मगर, कुछ ऐसी चीजें भी थीं जो उन्हें सूट नहीं करतीं थीं। इसके लिए वे उन्हें ‘हूट’ करते थे।यह सूटिंग और यह हूटिंग, उनके मनोरंजन के साधन थे। इसपर वह हंसा करते। बहुतों ने उन्हें हंसते देखा होगा। मैंने भी देखा है।
इसलिए मोहन भारद्वाज की यह बात मुझे ठीक लगती है कि मार्क्सवाद की पुस्तकें पढकर और वामपंथी राजनीति की गतिविधियां देखकर यात्रीजी को नहीं समझा जा सकता। फिर भी, अगर समझने की जिद करें तो निष्कर्ष गलत आएंगे। मगर उन्हें समझने की जरूरत है भी किसको? यदि कोई संकल्पित हो कि हर हाल में उसे यात्रीजी को जानना ही जानना है, तभी तो यह बात लागू होती है। वरना, ब्रह्माण्ड में ऐसी कौन-सी चीज है जिसे मार्क्सवाद के नजरिये से समझा नहीं जा सकता। यात्रीजी तो महज एक मामूली चीज हैं। लेकिन तब जो निष्कर्ष आएंगे, वे उन्हें अतिभावुक, खब्ती, नौटकिया, ढुलमुल,सिद्धान्तहीन, समझौतावादी आदि-आदि मानने को बाध्य करेंगे। (ये विशेषतावाची शब्द मेरे नहीं, मार्क्सवादियों के हैं, जो उन्हें समय-समय पर बख्शे गए हैं।) महान आलोचकों की बात तो छोडें, विश्वविद्यालय से पी-एच०डी० करनेवाला ‘युवक विद्वान’ भी जब मार्क्सवाद के नजरिये से उन्हें देखता है, तो उसके निष्कर्ष कुछ इस तरह होते हैं–’नागार्जुन को जनकवि मानने में एतराज तो नहीं है, किन्तु एक शंका बार-बार मन में खटकती है। कवि भावुकता के वशीभूत जनता के साथ कहीं-कहीं भटक जाता है। इस प्रकार उसके जनवाद पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। जनता के साथ उसका मोह कभी-कभी इतना गहरा हो जाता है कि उसकी सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना पर भी पुनर्विचार करना पडता है।’ (‘नागार्जुन की काव्ययात्रा’ में डा० रतन) पुनर्विचार की मांग से ज्यादा किसी के खिलाफ और आप क्या मांग कर सकते हैं? मुझे तो लगता है कि पहली बार जिसने उन्हें जनकवि कहा होगा, उस मार्क्सवादी की समूची जिन्दगी पछतावे में कटी होगी।
यह बात जरूर है कि हममें से अनेक उदार लोगों ने उनके लिए जगह बनाने की मंशा से उन्हें ‘किसानी चेतना के कवि’ और ‘राष्ट्रवादी मार्क्सवाद के उद्गाता’ आदि विशेषणों से विभूषित किया। लेकिन ये निष्पत्तियां भी अन्ततः पद्धतिहीन निष्पत्तियां थीं। इनके निषेध के लिए शास्त्र के पास हजार तर्क थे। यह तो मानो उद्दाम जीवन्त प्रगतिशीलता और जनपक्षधरता को शास्त्र के कठघरे में खडे कर न्याय देने की कोशिश थी, जैसे कोई सुबह की पहली किरण को बक्से में बन्द कर संसदभवन ले जाए–माननीयों के अवलोकनार्थ।
यात्रीजी की ओर से देखा जाए तो यह साफ-साफ दीखता है कि वह सदा-सर्वदा शोषित-दलित-पीडितों के पक्ष में खडे रहे। हमेशा। जब वह विद्यार्थी थे, तब भी। संन्यासी हुए, तब भी। मार्क्सवादी हुए तब भी और उधर से हटे, तब भी। मृत्युशय्या पर थे तब भी उनका पक्ष नहीं बदला था।
जो भी कोई जहां भी कहीं शोषित-पीडित था, वह उसके साथ रहे और जो शोषक थे उनके खिलाफ रहे। वह केवल कांग्रेस और ब्राह्मणवाद के ही खिलाफ नहीं हुए, जरूरत पडी तो आधुनिकता और मार्क्सवाद के भी खिलाफ खडे हुए। सम्प्रदाय के दीपक तले तो अंधेरा जरूर ही पाया जाता है, भले अन्यान्य दीयों के तले रहे या न रहे। मार्क्सवादी होकर भी कोई मार्क्सवादी को ही गद्दार कहे, उन दिनों यह समझ में आनेवाली बात नहीं थी। लेकिन यह तो उन लोगों की समस्या थी, वे उसे सुलझाते। यात्रीजी को तो अपना पक्ष स्पष्ट दीख रहा था–’जो नहीं हो सके पूर्णकाम; मैं करता हूं उनको प्रणाम।’
कभी-कभी तो मुझे लगता है कि जो गहरी चेतना उनके भीतर थी, वह मात्र ‘कवि’ होने से साधित न हो सकती थी। कहा तो जाता है-’जहां न जाय रवि वहां जाय कवि’, लेकिन इस दरजे की गहरी संलग्नता के लिए सिर्फ कवि होना पर्याप्त नहीं हो सकता। मेरा खयाल है कि इतनी गहरी संलग्नता, वह भी इतनी निरन्तरता और एकसूत्रता के साथ, कवि होने भर से शायद साधित नहीं हो सकती। इसके लिए स्वयं भोक्ता होना, दलित-पीडित होना जरूरी है। जिन्होंने यात्रीजी की आरंभिक संघर्षयात्रा देखी है या उनसे सुनी है या जो थोडा-बहुत इस बारे में उन्होंने लिखा है, उसे पढा है, वे जानते हैं कि जिस जगह से वह चले और जिन रास्तों से बढे— जिस तरह से और जिन संघर्षों का सामना करते हुए— उनका स्वयं का मानस भी एक दलित-पीडित की मनोरचना से सृजित हुआ था। यह पीडा उनकी स्वयं की पीडा थी। वह उसमें शामिल थे। दलित-पीडितों के प्रति उनकी पक्षधरता अचूक थी क्योंकि उनके साथ वह स्वयं को शामिल पाते थे। इसी का विस्तार हमें उनके ‘आमजन’ की समझ में दीखता है।
मैं सोच रहा था कि भारतीय साहित्य मैं इन दिनों दलित साहित्य की बडी चर्चा सुनी जाती है। मैथिली में भी हम इसकी धमक सुन ही रहे हैं। जाति से जो दलित हैं, वे तो बडी ही सुविधापूर्वक अपना दलितत्व प्रमाणित कर सकते हैं। लेकिन यह सोच भी कम प्रामाणिक नहीं कि दलितत्व एक मनोनिर्माण है। आपका दलित-मनोनिर्माण कितना सघन हुआ है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कितने जटिल कर्मकाण्डी और जात्याभिमानी समाज में पले-बढे हैं। मिथिला तो एक बेजोड जनपद है, जहां यह भी चलन रहा है कि ब्राह्मणों का छुआ पानी भी दूसरा ब्राह्मण नहीं पीता। जातीय कोटिक्रम इतने जटिल हैं कि एक ब्राह्मण दूसरे को अछूत समझे, इसके लिए हजार तर्क हैं। और, कर्मकाण्डीय जटिलता इतनी जाहिल कि महाराष्ट्र में जो भोग डोम और मेहतरों ने भोगा, मिथिला में वह भोग भोगने को तेली-धानुक-कोइरी आदि मध्यवर्ती जातियां बाध्य होती रहीं। इस बात के विस्तार में जाने की बहुत जरूरत मैं नहीं समझता कि मैथिली साहित्य का बहुलांश, यात्रीजी के बाद भी और उनके बावजूद भी, दुनिया-जहान को देखने की ब्राह्मण-दृष्टि की उपज है। यूं दीखती तो करुणा भी है, दया-ममता भी, मगर कुल मिलाकर वह भी दीन-दलित को देखनेवाले दयालु ब्राह्मण का नजरिया है। मैथिली साहित्य में निरूपित संस्कृति यहां की शास्त्रीय संस्कृति है। समुचित मनोनिर्माण के अभाव में लोक-संस्कृति का पुनर्लेखन भी किस तरह प्रदूषित हो जाता है, इसका दृष्टान्त हमें मणिपद्म के काम में दिखाई पडता है। दरअसल बहुत थोडे-से लोग हुए, जिनमें दलित-दृष्टि है और उसके साथ समुचित मनोनिर्माण की ऊष्मा भी है।
यह चीज हमलोगों ने यात्रीजी में देखी कि ब्राह्मण-दृष्टि के समानान्तर एक दूसरी दृष्टि भी हो सकती है, और, वह है– दलित-दृष्टि। इसकी जड अवश्य ही मिथिला की किसानी चेतना में है, पर स्वानुभूति के ताप से यह उनके भीतर सिद्ध हुआ है। इसकी तर्कसंगति अचूक है, और इसने उनकी आस्था पाई है, इसे उनकी मेधा की आधारशिला प्राप्त है। यही वह चीज है, जिसकी वजह से परंपरागत वैचारिकताओं के साथ उनका टकराव होता रहा है। यह इस तरह उनमें व्याप्त है मानो स्वयं में एक परिपूर्ण वैचारिकता हो। यहां हम , उदाहरण-प्रत्युदाहरण के व्यामोह से मुक्त रहते हुए इस चीज के गुण-धर्मों का एक मोटा आकलन कर सकते हैं--
( १ ) दलित-दृष्टि की यह सामान्य मांग होती है कि सम्पूर्ण मानवीय गरिमा के साथ दलित (तसल्ली के लिए इसके साथ ‘शोषित’ और ‘पीडित’ शब्द भी जोड ले सकते हैं) समुदाय को साहित्य में उठाया जाए। ‘मानवीय गरिमा’ बहुत ही महत्त्वपूर्ण संदर्भ है। यह मौजूद रहे तभी किन्हीं दूसरी बातों पर बात हो सकती है। पर, मैथिली में स्थिति है कि लोग सर्वनामों और संबोधनों तक के चयन में गरिमा का खयाल नहीं रख पाते, और तो बात ही छोडें। ‘मानवीय गरिमा’ जब कहा जाता है तो मैं पाता हूं कि इसका निर्वाह भी द्विस्तरीय है। एक तो दलितों के स्तर पर, कि वे जब पात्र बनकर आते हैं तो ‘पांगे’ हुए शीशम की तरह न आएं। शीशम की जब सारी टहनियां काट दी जाती हैं तो कैसा दीखता है? लेकिन काटनेवालों का तर्क होता है कि शीशम इससे मुटाएगा। यही तर्क ब्राह्मणवाद का भी है कि दलित इससे कायदे में रहेंगे।
मानवीय गरिमा के निर्वाह का दूसरा स्तर कवि से संबंधित है। वह यूं कि पूरी आस्था के साथ वह इसकी कोशिश करे कि उसकी दृष्टि में ब्राह्मण-दृष्ट्यादि विजातीय दृष्टियों का मिश्रण न होने पाए। उसकी, यानी कि अपने पात्र की गरिमा बचाते हुए ही वह अपनी गरिमा भी बचा पाएगा। यात्रीजी के लेखन को देखें तो यह चीज हमें भरपूर दिखाई देती है। दोनों स्तरों के निर्वाह में तो वह बेजोड हैं।
( २ ) दलित-लेखन के रूप में जो साहित्य आज हमारे सामने आ रहा है, उसे अक्सर हम अव्याप्ति का शिकार पाते हैं। ब्राह्मण लोग दलितों पर अत्याचार करते हैं,दलित-जीवन का यह मात्र एक पहलू है। दलित का जीवन सिर्फ इसके लिए नहीं होता कि ब्राह्मणों के द्वारा उनपर अत्याचार किए जाएं और लेखक करुणा या आक्रोश से ओतप्रोत होकर इसका वर्णन करता रहे। उनकी एक उर्वर जीवनशैली भी होती है,सम्पन्न संस्कृति भी होती है,उसके भी हास-परिहास होते हैं,उसके भी रोजी-रोजगार की अपनी बारीकियां होतीं हैं। फिर उसके राग-विराग हैं, उसकी सौन्दर्यदृष्टि है। क्या नहीं है उसके पास, जो ब्राह्मणों के पास है? पता नहीं क्यों हमारे दलित लेखक इन चीजों के विन्यास में रुचि लेते नहीं दीखते, जबकि साहित्य के दूरगामी उद्देश्य के हिसाब से देखें तो यही विन्यास सबसे जरूरी है।
हम देख सकते हैं कि यात्रीजी बहुत सहजता के साथ यह कर सके। उनका ‘दलित’ यानी कि शोषित-पीडित, जाति की घेराबंदी में बंधा हुआ समुदाय नहीं है। वह एक समूह है जो शूद्र, स्त्री और बच्चे– इन तीनों से मिलकर बना है। मनोरचना की भूमिका चूंकि इसमें सबसे प्रधान है, बहुत आसानी से उनकी निष्पत्तियां अन्य समुदाय को भी अपने टारगेट के भीतर ले आती है। ‘ताडक गाछ’ कविता में जब वह कहते हैं–’लगाबथु ग’ केओ कतेको जोर बाप-पित्ती कें करथु ग’ सोर मुदा रोइयां एकोटा ओकर उपाडल नहि हेतन्हि ककरो बुतें’ ( कोई कितना भी जोर आजमाइश कर ले, और इसमें चाहे अपने बाप-चाचों की भी मदद ले ले, पर इसका एक बाल तक वे उखाड नहीं पाएंगे। ) तो वह दरअसल विधाता के विधान को चुनौती देनेवाले दलितों की बात करते हैं। उनके दलित ऐसे हैं। इस कविता की व्याप्ति बडी है। अविवेकी समाज का मारा हुआ, झिंझोडा हुआ जो भी कोई कहीं होगा, इस कविता से वह समर्थन पा सकता है।
( ३ )यात्रीजी देख पाते हैं कि इन बंचितों को प्रताडित करनेवाली चीज केवल परम्परा ही नहीं है, वह आधुनिकता भी है। परम्परा, यानी कि धर्म, जाति, समाज, नैतिकता, आदि। और, आधुनिकता, यानी कि लोकतंत्र, फासिज्म, मार्क्सवाद, बाजार आदि। जब वह कहते हैं–’फटै छी कुसियारक पोर जकां चैतक पछबा मे ठोर जकां’ (जिस तरह ईख का पोर फटता है, वैसे फट रही हूं; जिस तरह चैत की पछुआ हवा में होंठ फटते हैं, उस तरह फट रही हूं। ) तो हम परम्परा की प्रताडना का दृश्य देखते हैं, और जब कहते हैं–’प्रभु पटेल छथि सर्वशक्ति-सम्पन्न कनबथि तैयो चीनिक लेल हकन्न’ (माननीय मंत्री पटेल सर्वशक्ति-सम्पन्न हैं मगर तब भी चीनी के लिए रुला रहे हैं ) तो सत्ता की जटिलताएं प्रताडक की भूमिका में नजर आती है।
लेकिन, याद रखना चाहिए कि दलित-बंचित भी अगर ये हैं, तो यात्रीजी के हैं। सूचीभेद्य अन्धकार में भी इन्हें रोशनी का कोई-न-कोई कतरा दीख ही जाता है। किसी के मुंह में बोल न होना, जीने का अधिकार भी न होने का परिचायक नहीं हो सकता। उद्दाम जिजीविषा है उसके पास और यात्रीजी उसके साथ खडे मिलते हैं। अपनी कविता ‘चें चें चें चें’ में वह यह बताते हुए कि ‘नहि छैक परबाहि एकरा सबहि कें नव घर उठल कि पुरान घर खसल’ ( इन्हें कोई परवाह नहीं है कि किसी का नया घर उठा या पुराना घर गिरा’ ), बडे आराम से वह यह निष्पत्ति दे जाते हैं–’प्रशासकीय विधि-निषेधक बन्धन मानत की कउखन चिडै-चुनमुन’ ( जो चिडियों का-सा जीवन जीनेवाले लोग हैं, वे भला प्रशासकीय विधि-निषेध का बन्धन कब स्वीकार करेंगे? )
सुदूर अतीत से लेकर सद्यः वर्तमान तक जो लोग हाशिये पर ठगे-से खडे रहे हैं और अपने वजूद तक के लिए व्यंग्य सहने की दारुण पीडा से गुजर रहे हैं, यात्रीजी बडे ही आस्था के साथ जाकर उसके समर्थन में खडे होते हैं। याद कीजिए तरौनी ग्रामवासी सरजुग राउत को, जिनपर उन्होंने ‘जोडा मन्दिर’ कविता लिखी है। अपने माता-पिता की स्मृति में सरजुग ने जोडा मन्दिर बनवाया है। यह चीज सामाजिक चलन में नहीं है। तो, स्वाभाविक ही है कि ‘बाभन-गांव में राड पजियार’ वाली नैतिकता के वशीभूत बाबू-भैया लोग सरजुग की हंसी उडाते हैं। और देखें कि इस प्रकरण में यात्रीजी सरजुग को क्या हितोपदेश देते हैं। कहते हैं–’धुः मरदे, इहो केओ बाजय बूझल नहि छह तोरा? तरउनी गामक बाबू-भइया लोकनि हंसी उडबै छथि हमरो।” ( अरे छोडो भी जवान, यह भी कोई बतानेवाली बात हुई? तुम्हें मालूम नहीं कि तरौनी गांव के बाबू-भैया लोग मेरी भी हंसी उडाते हैं। )
प्रसंगवश, यहां प्रयुक्त शब्द ‘हमरो’ (मेरी भी) पर जरा गौर करें। कहने का क्या मतलब है उनका कि हंसी उडाते हैं मेरी भी? क्या वह स्वीकार कर रहे हैं कि वह भी बाबू-भैया समुदाय के ही एक व्यक्ति हैं? या फिर किसी दूसरे कारण, जैसे संन्यासी या वामपंथी होने की वजह से उनकी हंसी उडती है। अन्ततः क्या वह भी बाबू-भैया ठहरे? नहीं। हैं तो वह समवर्गी सरजुग के ही, इसमें उन्हें कोई सन्देह नहीं है। पर, सन्देह है सरजुग को। तभी तो उसने अपनी बात बताने के पहले यात्रीजी की ‘नजर की थाह’ ली थी और तब ‘कनफुसकी आवाज’ में अपनी शिकायत बताई थी। याद कीजिए कि बाबू-भैया के गांव में शूद्रों के शिकायत करने का यही लहजा होता आया है। अब इसे ब्राह्मणवाद का मजबूत शिकंजा कहें या चेतना का अभाव, पहचान की आश्वस्ति यात्रीजी में है पर सरजुग में उसकी कमी पाई जा रही है।
यात्रीजी की आश्वस्ति तो कुछ इस रूप मैं अभिव्यक्त हुई है– ‘यश-अपयश हो हानि-लाभ हो सुख हो अथवा शोक। सबसं पहिने मोन पडइ अछि अपने भूमिक लोक।’ ( प्रसंग चाहे यश का हो या अपयश का, हानि का हो या लाभ का, सुख की बात हो चाहे शोक की, सबसे पहले अपनी ही जमीन पर के लोग याद आते हैं। ) अब, इसमें बहुत तर्क करने की गुंजाइश नहीं है कि यात्रीजी की अपनी जमीन कौन-सी है।
( ४ ) व्यक्ति अथवा वस्तु की अपनी खास निजता में जो सौन्दर्य होता है, यात्रीजी ने हमेशा उसे ही काव्यानुभूति में रूपान्तरित करने की चेष्टा रखी। कवि-समाज के लिए यह बहुत प्रचलित तथ्य की तरह रहा है कि जब वह किसी ‘वस्तु’ को उठाता है तो उसमें बहुत-कुछ जोडता-घटाता है और तब उसे साहित्य में संस्थापन-योग्य बनाता है। भारतीय काव्य-परम्परा में इसे ‘अन्यथा-निवेशन’ कहा गया है। इस प्रक्रिया में वह क्या करता है कि या तो ‘वस्तु’ के स्वरूप में अपना ‘कथ्य’ मिलाकर उसे उदात्त बना लेता है या उसकी अपनी निजता में ही इतना अतिरेक मिला देता है कि वस्तु उदात्तीकृत हो जाती है। मेरे खयाल से अन्यथा-निवेशन के ये दो प्रारूप हैं।
यात्रीजी ने इस मामले में ऐसी प्रयुक्ति अपनाई जो न केवल मैथिली कविता के लिए एक दुर्लभ घटना की तरह है अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के लिए एक रेखांकनीय बात है।
उनकी कितनी ही कविताओं में नितान्त छोटी-छोटी चीजें, तुच्छ नगण्य व्यक्ति और वस्तुएं अपनी सम्पूर्ण निजता में प्रकट होती हैं। गौर करने की बात है कि ये चीजें किसी प्रतीक, दृष्टान्त या उपमान के तौर पर नहीं आतीं। आलंकारिक शोभाख्यान के लिए कारीगरी दिखाने के लिए कवि इन्हें नहीं उठाता। वे अपने में अपनी सम्पूर्ण निजता, परिपूर्णता समेटे हुए आती हैं। ‘विकट प्रान्तर में खडा ताड का वृक्ष’ चला आता है। स्वयं में मस्त ‘चिडिया-चुनमुन’ चली आती हैं। भरे-पूरे थनोंवाली ‘मादा सूअर’ आ जाती है तो कहीं ‘सुन्दर राउत’ खुद में एक परिपूर्ण कविता का रूप धरे प्रकट होते हैं। और, ऐसी ‘क्षुद्र वस्तुओं’ के की चर्चा के मध्य बीच-बीच में कहीं ‘कविता’ पाई जाती हो, ऐसी बात नहीं। कविता कहीं अलग से नहीं होती। किसी उपमान का कोई उपमेय नहीं होता। ये सब स्वयं में एक पूर्ण कविता होते हैं- निजता की सुरभि से महमहाती।
यात्रीजी की अभिव्यक्ति में जो गँवारूपन है, प्रसंगवश उसपर भी एक नजर डालनी चाहिए। गँवारूपन का मतलब है कि किसी बात को जब वह उठाते हैं तो अत्यन्त साधारण आदमी की अभिव्यक्ति-शैली में उठाते हैं और इस क्रम में शिष्टजनानुमोदित अभिव्यक्ति-कला से दूर चले जाते हैं। शास्त्रीय मर्यादा को प्रमाण माननेवाले लोगों के लिए उनका यह ‘विचलन’ कष्टप्रद होता है। अपने शब्दों में मैं इस बात को स्पष्ट करूं, इससे कहीं ज्यादा मुझे वरिष्ठ कवि-गद्यकार पं० चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’ के एक लेख का कुछ अंश उद्धृत करना अच्छा लग रहा है। ‘भारती-मंडन’ के संस्मरण-विशेषांक में अमर जी का लेख है–’यह यथार्थवादिता वांछनीय?’
इस लेख में अमर जी ने बहुत स्पष्टता के साथ अपनी बात रखी है, जो यात्रीजी को समझने में हमारे लिए मददगार हो सकती है। उनके एक कवितांश– ‘अपने छला मूर्ख हमरा चारि अक्षर पढा गेला बाप, जे बौआ कमा क’ लगा देता टाल’ –को उद्धृत करते हुए अमर जी कहते हैं–’सिर्फ स्पष्टतावादी कहलाने लिए ‘बाप’ को ‘मूर्ख’ कहनेवाला पुत्र क्या कभी सुपुत्र कहला सकता है? शब्दशक्ति के मर्मज्ञ यात्रीजी ने जिस दिन ‘निरक्षर’ के बदले ‘मूर्ख’ शब्द का प्रयोग किया, मेरा चित्त उसी दिन भटक गया। सम्बन्धी होने के गौरव को ठेस लगी।(दोनों के बीच मामा-भांजे का सम्बन्ध था।) चालीस वर्ष से अधिक हुआ कि ‘सारिका’ हिन्दी मासिक में ‘आईने के सामने’ स्तंभ में उनका साक्षात्कार छपा था। उसे पढकर उनके अनन्य मित्र, सभी स्थितियों में सामंजस्य रखनेवाले, शान्त, मृदुभाषी श्रीयुत सुमानजी-सदृश व्यक्ति का मन भी वितृष्णा से भर गया था। मुझसे भेंट हुई तो बोले थे–’इससे उपलब्धि क्या? कुछ भी थे पिता, पिता हैं। क्षणिक लोकप्रियता के लिए यह यथार्थवादिता वांछनीय है? या स्पृहनीय? या अनुकरणीय?’
कुल मिलाकर बात यह कि यात्रीजी की इस ‘यथार्थवादिता’ ने इन तीनों के बीच के रिश्ते में दरार पैदा कर दिया।
गौर करने की बात है कि अमर जी जिसे यहां यथार्थवादिता कह रहे हैं, वह वस्तुतः ‘यथार्थवादिता’ नहीं है। यह तो महज अभिव्यक्ति का गँवारूपन है जिसे काव्यशास्त्र ने ग्राम्य-दोषादि की कोटि में रखा है। जब वह यात्रीजी को ‘शब्द-शक्ति का मर्मज्ञ’ बताते हैं तो स्वाभाविक रूप से उनसे यह उम्मीद करते हैं कि वह शिष्ट-जनानुमोदित भाषा-शैली का प्रयोग किया करें। और जब सुमन जी इसे मात्र ‘क्षणिक लोकप्रियता’ का दरजा देते हैं तो क्या प्रकट करते हैं? जिस आम आदमी की अभिव्यक्ति-शैली तक साहित्य में लाना उन्हें पसन्द नहीं, उस आम आदमी के जीवन और सौन्दर्यशास्त्र का भला क्या मूल्य हो सकता है उनकी दृष्टि में?
अमर जी के उपर्युक्त उद्धरण में जो मांग प्रकट हुई है, वह शुद्ध ब्राह्मण-दृष्टि का द्योतक है। ब्राह्मण-दृष्टि, जिसके लिए मैथिली में प्रचलित शब्द है- परम्परावाद अथवा शुद्धतावाद, (दोनों ही नामों में किन्तु अव्याप्ति-दोष है)-इस बात से परहेज नहीं करता कि साहित्य में दीन-दलितों का प्रवेश हो, वह खूब हो, हो लेकिन ब्राह्मणवाद की शर्त पर। जीवन भले आम आदमी का रहे, पर उसमैं श्वास ब्राह्मणवाद का पडना चाहिए।
भले मिथिला के लोग आम बोलचाल की भाषा में भी पिता को ‘बाप’ और निरक्षर को ‘मूर्ख’ कहते हैं तो कहें। वह यहां विचारणीय नहीं है। विचारणीय यहां यह है कि ऐसा साहित्य में कहा जाना चाहिए या नहीं। यानी कि प्रश्न यथार्थ का नहीं, आदर्श का है। ब्राह्मण-दृष्टि को जो यथार्थ चाहिए उसे आदर्श से सराबोर होना चाहिए। इधर यात्रीजी थे कि उनके लिए यह मान्यता दो कौडी की भी नहीं थी। वह शब्द-मर्मज्ञ थे तो इसलिए थे कि कवि को हर कुछ होना चाहिए। लेकिन क्या शब्द-मर्मज्ञता ही कवित्व-बीज है? काव्यैककारण है? और, जो लोग यह खयाल रखते हैं कि यात्रीजी क्षणिक लोकप्रियता के लिए ऐसा लिखते थे, वे दयनीय हैं क्योंकि वे नहीं जानते कि हिन्दी में अपनी जगह बनाने के लिए उन्हें कितना संघर्ष करना पडा था।
कहना चाहिए कि जिस तरह मार्क्सवाद की पुस्तकें पढकर यात्रीजी को नहीं समझा जा सकता उसी तरह ब्राह्मणवादी यथार्थ-दृष्टि रखकर भी उनके साथ न्याय नहीं किया जा सकता। पर, ऐसे न्याय की जरूरत ही उन्हें कहां है?
( ५ )ब्राह्मणवाद को कौन-सा यथार्थ चाहिए, यह बात जिस तरह उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी, उसी तरह यह बात भी कि पोलित ब्यूरो को किस प्रकार का लेखन चाहिए। लेकिन मायने रखे न रखे, वह इन प्रश्नों से निस्तार नहीं पा सकते थे। वह दोनों से जुडे थे। दोनों के बीज उनके भीतर थे या होने की संभाव्यता रखते थे। कुछ तो सांस्कारिक कुलक्रम में उनके भीतर आ विराजा था और कुछ स्वार्जित संबल के रूप में उन्होंने जमा कर रखे थे। शास्त्रीय साहित्य का जो गहरा अवबोध उन्होंने पाया था,उसकी अपनी जटिलताएं भी कम न थीं। मामला यह कि वह दोनों ओर से घिरे थे। दूसरी ओर उनका ‘मध्य मार्ग’ था, जो दिनानुदिन लोकमुखी,बंचितमुखी होते जाने को बाध्य था। यह बाध्यता उनके निजत्व की ही बाध्यता थी। उनका ‘यात्रीजी’ होना ही इस बाध्यता का मूल कारण था।
उनके साहित्य में हम देखते हैं कि वह अक्सर अपने आप पर हंसते हैं। खुद को ही ‘गिदराभकोल’ से लेकर ‘चूतिया’ तक साबित करते रहते हैं। उनके ऐसा करने की आखिर क्या संगति हो सकती है? ऐसा करने की अनुमति तो न ब्राह्मणवाद देता है, न वामपंथ। अरे भाई, चूतिया बनाना है तो अपने प्रतिपक्षी को बनाओ न। लेकिन स्वयं को ही बना रहे हो? यह तो निरा पागलपन हुआ न?
मुझे लगता है कि स्वयं पर व्यंग्य करने की उनकी यह प्रवृत्ति दरअसल उनके निजत्व का विद्रोह है। भीतर जो वास्तविक आदमी है, उसका विद्रोह। लेकिन यह विद्रोह क्यों? विद्रोह होता ही तो है इसीलिए कि कोई किसी को दबा रहा हो, सता रहा हो, उसके वजूद को कमजोर कर रहा हो। लेकिन, यात्रीजी को दबानेवाला, सतानेवाला यह कौन है कि उन्हें विद्रोह पर उतारू होना पडता है? मुझे लगता है कि वे यही दोनों वीर हैं–ब्राह्मण-दृष्टि और मार्क्सवाद। आप चाहें तो इसे ‘परम्परा’ और ‘आधुनिकता’ का नाम दे सकते हैं। आप गौर करेंगे कि जहां कहीं उन्होंने खुद पर व्यंग्य कियाहै, क्रूर प्रहार किया है, वह दरअसल अपने मोह के प्रति विद्रोह है– मोह कहीं ब्राह्मण-दृष्टि का, कहीं वामपंथी निष्पत्तियों का।
मैं यह कहने की अनुमति चाहूंगा कि यात्रीजी अपनी मनोरचना के स्तर पर स्वयं दलित-बंचित समुदाय से थे, दलितों, पीडितों की पीडा इसीलिए उन्हें निजता के हद पर आकर छूती थी और इसीलिए तुच्छ-नगण्यों के प्रति अपनी सघन पक्षधरता वह इतनी निरन्तरतापूर्वक बनाए रख सके। किसी-न-किसी तल पर वह स्वयं बन्धनग्रस्त थे, तभी इतने सातत्यपूर्वक मुक्ति की आकांक्षा को अभिव्यक्त करते रह सके। स्वयं अपनी मावीय कमजोरियों के प्रति आशंकित थे, इसीलिए स्वयं को भी क्षमा न करते हुए व्यंग्य का विषय बनाते रहे।
अन्त में, कुछ बातें, जो उनकी कविताई का स्वभाव बताती हैं और उनकी वैचारिकता के पहलू उजागर करती हैं–
हम पाते हैं कि अपनी साहित्य-यात्रा में यात्रीजी लगातार निम्नतरोन्मुख होते गए हैं। आम तौर पर लोग स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा करते हैं, उन्होंने निम्न से निम्नतर की यात्रा की है। यह चीज हमें उनके काव्य-विषय के चयन में भी दीखती है और क्षुद्र-नगण्यों में जीवन-संवेदना खोजने की कलाकारी में भी। आरम्भ में हम उन्हें गंडकी के कछेर में गाय-भैंस चराते कालिदास और विद्यापति का अवलोकन करते पाते हैं और आगे मादा सूअर के सघन मातृत्व का निरीक्षण करते।
इसी प्रकार, ‘वर्ग’ की अवधारणा को स्वीकार करने के बावजूद वह ‘वर्ण’ की जटिलताओं से भी किनारा नहीं करते। वस्तुतः मिथिला की सामाजिक बुनाबट को समझना ‘वर्ण के भीतर वर्ण’ के परिप्रेक्ष्य को समझे बगैर नहीं हो सकता। भारत जिस दिन आजाद हुआ था, १५ अगस्त १९४७ को उन्होंने आजादी के उमंग में एक कविता लिखी थी-’वंदना’। इसमें हम उन्हें बहुत सारे स्वप्न बुनते और दुआएं करते हुए देखते हैं। देश की आजादी से कई सारी अच्छी चीजें होंगी,उनका क्रमवार विवरण कविता में दिया गया है। सबसे पहली और अच्छी जो बात होगी, यात्रीजी कहते हैं, वह यह होगा कि ब्राह्मण-क्षत्रिय-भूमिहार आदि ऊंची जातियों के साथ-साथ शूद्र और अंत्यज जातियों के लोग भी अब ‘मैथिल’ मान लिए जाएंगे। इन जातियों की एक लंबी सूची उन्होंने इस कविता में दी है। मिथिला के इतिहास से जो अवगत हैं, उन्हें पता है कि आधुनिक युग में मिथिला की अधोगति का मुख्य जिम्मेवार दरभंगा राज की विभेदमूलक और शोषणपरक नीति है। लंबा वृत्तान्त है इसका, कि किस तरह ब्राह्मण और कर्ण कायस्थ को ही ‘मैथिल’ होने की सुविधा प्राप्त थी और नवजागरण के दौर में कैसे अन्य जातियों ने ‘मैथिल’ का दरजा हासिल करने के लिए संघर्ष किया लेकिन उनकी एक न चली और अन्ततः सामाजिक एकता एक स्वप्न बनकर रह गई।
मुझे हमेशा से लगता रहा है कि यात्रीजी एक नायक-विहीन जाग्रत समाज की सोच रखते थे। उनकी कविताओं में और उनके उपन्यासों में नायक तो जरूर हैं पर उनकी वैचारिकता नायकत्व का अन्त चाहती है। याद आता है कि ‘बलचनमा’ के प्रकाशन के तीन दशक बाद जब किसी ने उनसे पूछा था कि ‘आपके बालचन का अब क्या हाल है?’ , तो तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया था–’होगा साला कहीं किसी गांव का मुखिया-सरपंच बना बैठा।’ तो, नायक उन्होंने खडे किए, यह प्रतीकात्मक बात थी, कामचलाऊ बात थी,चाहते तो वह नायक-पूजा का अन्त थे।
नायक का उद्देश्य है–मार्गदर्शन, और उनकी कविता का स्वभाव हम देखते हैं कि वह जनता के सद् विवेक को मात्र उसका असली मार्गदर्शक कबूल करने के पक्ष में हैं।
यहां उनकी कविता ‘सुन्दर राउत’ मुझे याद आ रही है। उस कविता के अन्त में वह सुन्दर को सलाह देते हैं कि तुम अपनी मूछें छोटी करवा लो। क्या कहना चाहते हैं वह? हार मान लेने? समझौता कर लेने? उस कविता की व्याख्या करते हुए और इसे ‘दलित-संघर्ष का ही नहीं, संघर्ष की विजयी मुद्रा का भी पता बताती कविता’ कहते हुए मोहन भारद्वाज इस कूटनीतिक सन्दर्भ का हवाला देते हैं कि ‘दो कदम आगे बढने के लिए एक कदम पीछे खिसकने मैं कोई हर्ज नहीं है।’ भारद्वाज जी इस बात पर खास ध्यान देने का आग्रह करते हैं कि यात्रीजी ने मूंछें छोटी करवाने कही हैं, कटवा लेने नहीं। लेकिन, मुझे लगता है कि जिस निष्पत्ति के अर्थ में उन्होंने कहा है,वहां मूछें छोटी करवाना या कटवा ही डालना, इन दोनों में अन्तर नहीं है। यह यात्रीजी की नमनीयता और नई पीढी के साथ अतिरिक्त स्नेह के कारण ही हो सकता है कि उन्होंने मूछें छोटी करवाने कही है, कटवा लेने नहीं।
मूछें कहां श्लाघ्य, कहां उपेक्षणीय– इसके सद् विवेक का होना मूल बात है। जहां कर्मकाण्डों में उलझकर दलित ब्राह्मणवाद की मौत मर रहे हों, वहां एक जागन्त कवि के लिए कर्मकाण्ड का निषेध नहीं करना चेतना के साथ गद्दारी करना है। तभी तो अपनी आखिरी कविताओं में से एक ‘मायावती’ में उन्होंने कहा था–’मायावती मायावती दलितेन्द्र की छायावती’। मूछों का श्लाघ्य या उपेक्षणीय होना दरअसल असली और नकली के मामले से जुडा है। और उनकी दृष्टि में असली-नकली की पहचान एक सातत्यपूर्ण जागरूकता की मांग करता है। सतत जागरूकता और सद् विवेक–ये ही बंचितों के मार्गदर्शक हैं।
उन्होंने जहां कहीं दलित-बंचितों को अपनी कविता में उठाया, आप पाएंगे कि उनके ‘वर्तमान’ में ‘भविष्य’ का संकेत भी मिला दिया और, इसे उनका यथार्थ बताया। उन दलित-सीदित-पीडितों को आप कहीं भी डरे-छिपे-थरथर कांपते नहीं पाएंगे, चाहे वे शासन की बंदूक के सामने खडे हों चाहे सामन्तों के गिरोह के सामने। अब, यहां यदि आपको ‘अन्यथा-निवेशन’ सिद्धान्त याद आए तो चलिए, यह भी ठीक है। यात्रीजी का तो जैसे जीवन-संकल्प है–’रहि जेतइ अव्यक्त-किए ककरो चित्र? हेतइ नहि लिपिबद्ध किए ककरो बोल?’ ( वह चाहे कितना भी तुच्छ हो, किसी का चित्र अव्यक्त क्यों रह जाए? किसी की भी बोल लिपिबद्ध होने से क्यों बची रह जाए? )