पंचम मंडल
गोचर मैदान में जेराज हर्म्यक दक्षिण अछि अश्वारोन प्रतियोगिताक प्रस्तुति चलि रहल अछि । कुरु जनपदक सबसँ दक्षिण अछि सरस्वती नदी जे उत्तर-पूर्वसँ आबि क' दक्षिणाभिमुख पश्चिम मुहें बहि रहल अछि
ओहि उत्तरी तट पर बसल अछि ऋषिग्राम ।
ऋषिग्रामक उत्तर विस्तृत गोचरभूमि अछि । एही गोचरभूमिक उत्तरी छोर पर राजहर्म्य अछि । काष्ठ निर्मित, तृणाच्छादित । राजहर्म्यक उत्तर,पश्चिम तथा पूबमे ग्रामांचल बसल अछि ।
गोचर मैदानमे अपनापन अश्व पर चढ़ल अश्ववाहक प्रतियोगी एम्हार-ओम्हर दौड़ी रहल अछि । अश्व सब हिनहिना रहल अछि ।
समस्त वातावरण जन कोलाहलसँ भरल अछि । शिशु-किशोर उछल-कूद क' रहल अछि । जनपदक समस्त जन हर्म्यक आगुमे प्रायः पंक्तिबद्ध रूपमे ठाढ़ अछि । मात्र बीचक स्थान जाहि ठाम आसंदी आ मृगचर्म लागल अछि ,रिक्त अछि । राजा तथा ऋषि-महर्षि लोकनिक आगमन-संबाद आबि गेल अछि । आबितहि प्रतियोगिता प्रारम्भ भ' जायत । जनमे अपार उल्लास आ आनंदक वातावरण अछि ।
अश्व चालन प्रतियोगिता आर्य जनक मुख्य मनोरंजन साधन थिक । ई बीच-बीचमे आयोजित होइत रहैत अछि । किन्तु अभिषेकान्त आयोजन विशिस्ट मानल जाइत अछि । सूर्यास्त हेबामे एखन विलम्ब अछि । एहि कुरुजनपदक पूब आ पश्चिम दुनू छोर पर सरस्वती नदीसँ नहरि चलल अछि जे उत्तर दिशामे शतुद्रि दिस चल गेल अछि ।
राज अतिधृति उत्तरक शतुद्रिसँ सेहो दुइटा नहरि व्यवस्था कयने छलाह जे एहि दुनूमे आबि क' मीलि गेल अछि। आ तें एहि दुनू नहरिमे शतुद्रि तथा सरस्वतीसँ निरंतर जल बनल रहैत अछि।
कृषि सिंचनक कार्य नीक जकाँ चलैत अछि। उत्पादनो अधिक होइत अछि आ सुरक्षो अधिक रहैत अछि। कुरु जनपदक जन-जीवन सुखी अछि, समृद्ध अछि।
कुरु जनपदक सुख समृद्धिक ख्याति समस्त सप्तसैन्धवमे अछि।
समस्त सप्त सैन्धवमे सरस्वती नदी पवित्र मानल जाइत अछि। सरस्वती दर्शनक लेल समस्त सैन्धवक लोक उत्सुक रहैत अछि।
उत्सुक रहैत अछि ऋषि दर्शन लेल सोहे। एखन समस्त सप्त सैन्धवमे श्रुति दर्शन तथा श्रुति अभ्यासक कार्यमे सरस्वती तट अग्रणी अछि।
ऋषि टोलक अनेक ऋषि-महर्षि श्रुति कर्ममे निमग्न रहैत छथि।
राजाक संग महर्षिलोकनि प्रकट भेलाह।
रंस्थालीमे एहि पारसँ ओहि पार धरि उत्सुक प्रसन्न्ताक लहरि व्यापि गेल। आब शिघ्रे प्रतियोजिता आरंभ भ' जायत।
कि बीच रंस्थालीमे एक वाहककें एकटा अश्व पटकि देलक। रंस्थाली मुदित हास्यसँ मुखरित भ' उठल।
राजा आ महर्षिगण आसन्दीक मृगचर्म पर आबि क' बैसलाह।
सेनानी आटव्यक संकेत भेल कि अश्व्वाहक सब पवन वेगसँ पूर्व दिशा दिस गत्वर भेल। पहिने पूर्व नहिर जायत, तखिन घूमि क' जे अश्व्वाहक प्रथम-प्रथम एहिठाम उपस्थित होयत वैह प्रथम आओत।
गत वर्ष मंत्राक्ष प्रथम आयल छ्लाक। हुनक प्रथम आयब सेहो कलापूर्ण छल। सबकें धावन कर' देने छलाह तखन अंतमे ओ अपन अश्वकें गतिमान कयने छलाह आ प्रथम-प्रथम आबि क' उपस्थित भ' गेल छलाह।
ऋजिश्वाकें ओहिना मोन छैक। ओ आइ बीच-बीचमे चारूकात ताकि लैत अछि। मंत्राक्षक अनुपस्थितिक कचोट अछि।
-'मंत्राक्ष सम्भव नहि आयल छथि ?' ऋजिश्वा, शाश्वतीक कानमे पुछलक।
-'सम्भव नहि ।'
शाश्वती कानेमे उत्तर देलक।
दुनूक कान मुहँ एक भ' जाइत अछि बीच-बीच मे।
महर्षि लोकनि अश्व चालंनपर गप्प क' रहल छथि । ऋषि काक्षसेनि,प्रख्यात अश्व शिक्षक, विभिन्न अश्वक विशेषतापर प्रकाश द' रहल चथि । किंवदन्ती अछि जे अश्व,ऋषि काक्षसेनिक भाषा बुझैत अछि । वन्यसँ वन्य अश्व, ऋषि लग शांत भ' जाइत अछि ।
समस्त जनपद प्रसन्न अछि ।
एकर बाद सायंमे होयत अभिषेक नृत्य-गीत आ ध्युत-क्रीड़ा ।
द्युत-क्रीडाप्रेमी एखनहिंसँ उत्सुक भ' रहल अछि । आइ ओ अवश्य विजय-लाभ करत । आइ किछु क्षण राजा सेहो द्युत-क्रीड़ा करताह । यैह प्रथा अछि ।
आइ रातिमे एकटा अदभुत अनास दास-रंजक नाट्य-वृति अछि। दास सब एहि कार्यक्रम उल्लसित भ' उठैत अछि।
नहरि पारक दस्युग्राममे अधिकखन होइत रहैत अछि। ग्रामांचलक दास सब रातिकें जाइत रहैत अछि, आ उषाकाल धरि धुमि अबैत अछि।
जकरा अनुमति नहि भेटैल अछि ओ आकुल भ' उठैत अछि। आइ मुदा सब दास प्रसन्न अछि।
पूर्वमे ई कार्यक्रम आर्य ग्रामांचलम नहि होइत छल। राजा अतिघृति एकर स्वीकृति देने छलाह।
स्वीकृति देने छ्लाह अनेक कारणे। आ से देने छलाह मात्र उत्तरांचालक सैनिक ग्राम लेल जाहिमे दासेक संख्या अछि। ओकर स्वजन परिजन बड उत्सुकतासँ देखैत अछि।
उत्सुक एखन समस्त दास वर्ग अछि रातुक कार्यक्रमक लेल।
राजा वीतिहोत्र एकरा अपन अभिषेक समारोहमे सम्मिलित क' नेने छलाह, जकर विरोधी भेल छल आर्यजनमे।
किन्तु जै ल' राजा वीतिहोत्रक प्रति समस्त जन्पदकें असीम श्रधा आ भक्ति छल तें लोक एकरा स्वीकार क' लेलक। ओही अभिषेक रत्रिमे प्रथम-प्रथम दास उत्सव होइत जे आकस्मिक वर्षाक कारणे सम्भव नहि भ' सकल। दास जन उदास रहि गेल छल, ओहिना दासजनकें मोन अछि।
आइ मुदा उत्सुको अछि आ प्रसन्नो अछि। वातावरण अनुकूल अछि। मेघ साफ़ अछि।
रत्रिमे प्रथम-प्रथम भेल आर्य उत्सव।
वीणापर साम गायनक पश्चात आगत महर्षिलोकनिमे सँ किछु राजभवनक अतिथिशालामे रात्रि विश्रामक हेतु चल गेलाह।
ऋषि टोलक स्थानीय ऋषि-महर्षि लोकनिक संग राजा असंग दास रंजनक कार्यक्रममे बैसल रहलाह। कार्यक्रम चल' लागल।
ता आबि गेलाह मंत्राक्ष।
मंत्राक्ष आ राजा असंग दुनू राजहर्म्य दिस चलि देलनि।
-'की समाचार ?' राजा असंग बैसैत पुछलनि । -'सबटा अनुकूल राजन !' मंत्राक्ष उत्साहित उत्तर देलनि । -'की अनुकूल ? यमुना युद्ध लेल अपन सैन्य देब स्वीकार केलक बब्लूथ ?' -'स्वीकार केलक, ओकरा लग कृष्ण असयक बहुत भेदक(भाला) अछि , एकर अतिरिक्त ओ सब एम्हर आर्यजन जकाँ कृपाण सँ युद्ध सेहो सीखि गेल अछि । कृपाणों अछि कृष्णे अयसक ।'
-ई तँ आरो उत्तम । एही लेल ओ को मंगैत अछि ?' - किछु नहि ।'
-'किछु नहि ? अर्थात ?'-'अर्थात वैह पूर्व आकांक्षा ...'-'पूर्व आकांक्षा ? अर्थात आर्ययज्ञ ?'-'आर्य यज्ञक अति तीव्र आकांक्षा ओकरा अची आ से अनेक समयसँ ....हमरा लग अनेक समयसँ याचना करैत आबि रहल अछि ।'-'ई कोना संभव अछि ?'-'कियो ऋषि महर्षि अनार्य अनास दासक ओहिठाम आर्य यज्ञ करेबाक लेल प्रस्तुते नहि होइत छथि ... किन्तु हमरा एक बेर आरो चेष्टा कर' देल जाय ।'-'से ओकरहि कियैक नहि बुझबैत छियैक जे ऋषि लोकनि अनार्यक ओहिठाम जाकें आर्य यज्ञक लेल प्रस्तुत नहि होइत छथि ?'-'से अनेक बेर बुझौने छियैक ।'
-'तखन?'
-'तखन ओ उदास भ' जाइत अछि , आ अति दीं भावें मुँह दिस ताक' लगैत अछि ... आ तैयो जे कहैत छियैक तुरत मानि लैत अछि,
ओइ दिन ओतेक कम्बल मंगलियेक उपस्थित क' देलक आ प्रतिदानमें रोहित अश्व स्वीकारे नहि करैत छल, हम बलात राखि आयल छलियैक…एहि बेर एतेक अंतरवासक (धोती) मंगलियैक, तुरत उपस्थित क' देलक, प्रतिदानमे अहाँबला ओ तीनू अश्व लैते नहि छल ...आ ताहुमे…'
-'की ताहुमे ?'
-'जखन सुनलक जे ई टीनू अश्व अहाँक थिक तखन आरो नहि लैत छल । हम जखन अपन निश्चय व्यक्त केलहुँ जे तखन अंतरवासक नहि लेब तखन अश्व राखब स्वीकार केलक।'-'वस्तुतः राजा बब्लूथ अनार्य, अनास,शिश्नदेवाः होइतहुँ अति नीक लोक अछि ,मित्रभावक लोक ।'-'निस्संदेह । बस ओकर एक्के टा इच्छा अछि, आर्य यज्ञक इच्छा । अन्य कोनो वस्तुक अभाव नहि अछि । अनेक कार्मांत (कामत) अछि, अम्बार लागल अन्न अछि अनेक-अनेक वृषभ युगल अछि , असंख्य दासदासी अछि दूर-दूर धरि पण्य कार्य (वाणिज्य) चलैत अछि अनेक पीत अछि जे मुख्य सिन्धुमे चलिते रहित अछि , अतुल वैभव अछि असीम संपत्ति अछि । एकटा वास्तु आरो अति अद्भुत अछि ...।'-'से की?'
-' ओ सब भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व मानैत अछि ।'
-'स्वामित्व? भूमि पर ? आ सेहो व्यक्तिगत? सामूहिक नहि ?' राजा असंग चौंकि उठलाह । -'हमरहु ज्ञात नहि छल, भूमि पर व्यक्तिगत बात सुनिकें हमहुँ,प्रथम-प्रथम अहीं जकाँ चौकिं उठल छलहुँ,क्षण कालक लेल स्तंभित रहि गेल छलहुँ ।' मंत्राक्ष अति गंभीर होइत बाजल । -'वस्तुतः ई अद्भुत कथा कहल अछि-राजा असंग किछु सोचैत बजलाह -ई कोना संभव अछि ?'
-'ओकरा राजमे संभव अछि,अनासमे एहने प्रथा अछि ।'
-'प्रथा बड़ विचित्र अछि ...ओ सब भूमि, देवक नहि मनैत अछि ?'
-'नहि ।'
-'तखन?'
-'मात्र व्यक्तिगत ।' -'ओ जकरा कृषि करबाक आज्ञा देत,वैह टा ओहि भूमि पर कृषि कार्य क' सकैछ, अन्य नहि । हम विस्तारसँ ई प्रसंग पूछल आ बूझल अछि ।'
-'ओ चाहय तँ ककरहुसँ भूमि छीनि सकैत अछि ?' राजा पुछलनि ।
-'छीनि सकैछ । ककरहु द' सकैछ अथवा स्वयं क' सकैछ ।'
-'ई कोना संभव अछि ? भूमि तँ देवक थिक…।'
राजा असंग चिंतनशील भ' उठलाह । किछु उदग्र,किछु व्यग्र । जेन दृष्टि कतहु अति दूर जाकें शून्यमे अटकि गेल होनि ।
मंत्राक्षकें राजाक एहि अन्यमनस्कताक कोनो अर्थ तत्काल नहि लागि सकलनि ।
-'चिंतनक विषय ?' मंत्राक्ष पुछलथिन ।
-'राजाक दृष्टि ओहिना सुदूर शून्यमे हेरायल रहल।
-'अहाँ अन्यमनस्क भS उठल छी ?' पुनः मंत्राक्ष पुछलथिन ।
-'ऐं ...ऐं । ओ सब,भूमि देवक नहि मानैत अछि ?'
-'कहल ने ।…नहि ।'
-'तखन मात्र अपन ? आ लोक विरोध नहि करैत अछि ?'
-'नहि करैत अछि, नहि करैत अछि तकर दुई गोत कारण अछि ...'
-' कारण? दुइटा ? से की?'
राजा चकित भ' उठलाह । लागलै जेन मंत्राक्ष उत्तर सुनबाक लेल शरीरक समस्त अंग प्रत्यंग एकमात्र काने भ' गेल,होइनि ।
-'प्रथम तँ विशः जनमे एही प्रकारक भावना भरल गेल, ओकरामे विशवास उत्पन्न कयल गेल जे भूमि राजाक थिक ... दोसर… दोसर ओकरामे भय उत्पन्न कयल गेल…।
-'भय ? भय की?' राजा किछु बुझि नहि सकल ।'
राजाहर्म्यक अन्तःपुरक कक्षमे दुनु व्यक्ति बैसल छथि । वातावरण निस्तब्ध अछि । राजमाता वृद्धा टा एकमात्र स्वजन परिवार सदस्य जे सुतलि छथि । गृह-दास दासी, रंजक कार्यक्रममे दरबार-प्रशालक आगूक प्रांगणमे छल, से भ' रहल अछि ।
बोलक स्वर मद्धिम रूपें आबि रहल अछि जे कौखन तीव्र भ' उठैत अछि ।
राजा पुनः पुछलनि -'की दुई प्रकारक भय ?'
-'प्रथम तेन-मंत्राक्ष उत्तर देलक-लोककें कहल जाइत अछि जे राजा सद्यः देव द्वारा उत्पन्न हुनक प्रतिनिधि छथि , ओ अप्रसन्न हेताह तँ देव अप्रसन्न भ' जेताह….'
-'बड़ विचित्र प्रथा अछि , किन्तु की ओ सब अपन देवसँ भयभीत रहैत अछि ?'-'बहुत अधिक । ओहि देव भयक आधार पर राजाक प्रति आस्था, निष्ठा तथा विश्वास उत्पन्न कराओल जाइत अछि ।'
-'ई के करैत अछि ? स्वयं राजा बब्लूथ ?'
-'ई कार्य करैत अछि ओकर सभक देव-पुरोहित।'
-'देव-पुरोहित?'
-'देवे पुरोहित कहैत अछि जे राजा देव प्रतिनिधि थिक, एकर आज्ञा नहि मानलासँ अथवा असंतुष्ट केला पर देव क्रुद्ध होइत अछि । विशः जन भयभीत रहैत अछि ।'-'अद्भुत बात अछि !'
-'ओहुसँ अद्भुत बात अछि सुदूर उत्तर-पश्चिमक ।' मंत्राक्ष कीछु उत्साहमे बजलाह ।
-से की?' राजा पुछलनि ।
-'ओम्हर कहाँदन पूर्व कालमे पुरोहिते राजा सेहो होइत छल । एम्हर आबि क' दुनु एक नहि दुइ व्यक्ति होम' लागल अछि । तथापि दुनूक मन एक्के रहैत अछि ।'
-'कियैक एक्के रहैत अछि ?'
-'दुनु, दुनूक हित चिंतन करैत अछि, दुनु दुनूक सहायय करैत अछि ।'
-'की सहायय ?'
-'राजा पुरोहितकें बहुत सुविधा दैत अछि , अन्न दैत अछि पशु दैत अछि , दास-दासी दैत अछि । सबसँ ऊपर सम्मान दैत अछि। दंडसँ मुक्तो राखैत अछि ।'
-'अन्यसँ भिन्न, एक जनकें एतेक सुविधा ?'
-'सुविधा आ सम्मान ।' मंत्राक्ष उत्तर देलक । -'आ तकर प्रतिदानमे ओ जन-भावनाक निर्माण करैत अछि, कि ने ?
एकर अर्थ थिक…अर्थ ठीक ओकर सभक विशःजनमे देवक प्रति बहुत भयक भाव रहैत अछि आ पुरोहित प्रति निष्ठा-भाव?'
-'निश्चितरूपेण ।'
-'अद्भुत बात अछि, हम तत्काल स्पष्ट रूपें नहि बुझि पाबि रहल छी पुनः एहि प्रसंग विस्तारसँ चर्चा करब आ एक-एक पक्षपर विस्तृत रूपें विचार-विमर्श करब ।'
-'किन्तु कियैक ? एकर प्रयोजन ? ई सब तँ ओकर प्रथा थिक ?' मंत्राक्ष चौंकि उठलाह ।
-'देखू-राजा असंग किछु सोचैत उत्तर देलनि दृशव्दतीक पार;यमुना तट पर जे दुर्ग बनत तथा ग्राम बसत जाहिठाम संभव अनार्येसंख्या अधिक रहत ...ताहि ठाम तँ अनार्य प्रथाक प्रयोग कायल जा सकैछ ?'
-'एही अनार्य प्रथाक प्रयोग ? यमुना तट पर ? मंत्राक्ष किछु चिंतन कर'लगलाह । बजलाह-किन्तु ओहिठाम तँ मात्र अनार्ये दासजन नहि रहत । … ओहि ठाम… ओहिठाम तँ आर्यजन सेहो रहत ...?' -'ई प्रश्न तँ अछि --राजा असंग उत्तर देलनि --किन्तु एखनहुँ तँ एहिठाम अपना सबमे एक्के विशःजनमे दुइ प्रकारक प्रथा अछिये आर्यजन स्वयं व्यक्तिगत उपयोग लेल कृषि कार्य करैत अछि , अथवा दास जनसँ करबैत अछि । किन्तु अनार्य जनकें तँ अपना लेल कृषि करबाक नहि अछि ?'
-'अछि कोन नहि ? राजा अतिधृति जे उत्तरांचल में सैन्य दासग्राम बसौलनि ताहिमे तँ व्यक्तिगत उपयोग लेल कृषि अधिकार देबे कैलनि अछि ।'
-'देल गेल अछि । किन्तु, एक तँ सब दासकें नहि,मात्र किछु सीमित दास वर्गकें आ…दोसर ओकर प्रतिदान तँ सब दासकें स्थायी सैन्य रूपमे लेल जाइत अछि ?'... तँ विशेष परिस्थितिक विशेष प्रथा थिक । ई तँ नियम नहि,अपवाद थिक ।'
-'एकटा विलक्षण तथ्य स्वयं प्रकट भ' गेल…।' मंत्राक्ष बजलाह ।
-'कोन तथ्य ?' राजा असंग प्रश्नवाचक दृष्टिसँ तकलनि ।
-'यमुना तटक ग्राममे दुनु विशःजनकें सामान रूपें व्यक्तिगत उपयोग लेल कृषिक अधिकार द' देल जाय… आर्यजनकें तँ अछिये,समग्र दास वर्गकें सेहो द' देल जाय… ।
-'दास-वर्गकें कृषि अधिकार? ई की कहैत छी ? कोन संभव अछि ?'
राजा असंग चकित रहि गेलाह । -'आ वृद्ध राजा अतिधृति कोन संभव केलनि?'
-'ओ तँ मात्र सैन्यग्राम लेल ताहुमे प्रतिदान…'
-'प्रतिदान एकरहुसँ लेल जाय?'
-'की प्रतिदान ?' राजा पुछलनि ।
-'जे आअर्य जनसँ लेल जाइत अछि ?'
-'बलि ? उपहार?'-'निश्चय राजन । एखनि धरि बलि स्वेच्छा पर अछि , आब ओहि ग्राममे राजेच्छा पर रहत…राजा भूमि वितरण करत आ राजा बलि लेत, सबसँ लेत आ सामान रुपें लेत...। ओहि कुरुग्रामक नामे आर्यावर्त राखी देल जाय!...'
-'किन्तु राजा भूमि तँ नहि दैत अछि ? जन स्वयं उपयुक्त भूमि ताकि ओकर उपयोग कर' लगैत अछि,जे प्रथम-प्रथम उपयोग करैत अछि ,करैत रहैत अछि छोड़ि दैछ,दोसर स्वयं कर' लागैछ ... एहिमे राजा कत' अछि । -'अछि नहि ...किन्तु आबसँ रहत ।… सैन्यग्रामक सैन्य तथा राजा बब्लूथक संधिक अनुसारें ओकर सैन्य अथवा अन्य साधने जे अहाँ यमुना तटक अनार्य दस्युसँ गविष्ठ युद्ध करब,ओकरा पराजित करब, ओकरा दास बनायब,ओकर भुमिक अपहरण करब…करब भूमिक अपहरण?' -'करब,किन्तु देवक इच्छासँ,देवक सहाययसँ, देवक लेल… । तें ओ भुमिक देवक रहत…।'-'रहत,देखू सुदूर पश्चिमोत्तरमे, भूमि देवेक रहित छल किन्तु देवेच्छासँ ओकर प्रतिनिधि,पूर्वमे पुरोहित स्वयं,पश्चात् राजा अपन विशःजनमे वितरित करैत छल आ देवक लेल बलि लैत छल ,'ओत' आइयो एहिना अछि । तहिना अहाँ देवक सहाय्यसँ भूमि अर्जित करब, आ देवक इच्छासँ ओहि भुमिक वितरण सामान रूपें,परिवार अथवा कृषि साम्न्यर्क आधार पर करब…'
-'अहाँ अति नवीन बात सब कहि रहल छी…'। राजा असंग सतर्क होइत बज्लाह।'
-'नवीन किछु नहि मात्र अभिव्यक्ति अंतर अछि । हम नवीन एकेटा तथ्य कहि रहल छी…'
-'जे आर्य अनार्य दुनुकें सामान रुपें कृषि अधिकार देल जाय। यैह ने?'
-'राजन स्पष्ट बूझि गेलाह…जखन दुनु एक्के विशःमे रहैत अछि तँ एक रंग न्याय कियैक नहि हो? एक रंग अधिकार कियैक नहि भेटैक ?'
-'आर्यजन मानताह ?'
-'मानताह कियैक नहि ? ओहिठाम तँ अहाँ स्वयं भूमि वितरण करब, अपन इच्छानुसारें,देवक आदेश पर…'
-'देवक आदेश?'
-'से पुरोहित प्रकट करताह …'
-'के पुरोहित ?'
-'एही प्रसंग पुनः गप्प करब, पहिने दृढ़ निश्चय करु।'
-'आ जँ आर्यजन अथवा विदथ एहि नवीन प्रथाक विरोध कराय?'
-'ओकर व्यवस्था भ' जायत । एतेक जे दास के अधिकार देने रहबैक ओ अहाँक मित्र रहत।अहाँक संग देत, अहाँक सहयोग करत,समय पर अस्त्र उठाओत ।'-'अस्त्र उठओत ? आर्य रजाक आदेश पर अनार्य अस्त्र उठाओत आ सेहो आर्यजन पर? ई आर्य द्रोह नहि थिक ? तखन हमरा आ नग्नजितमे की अंतर?'
-'अंतर? मंत्राक्ष बाजि उठलाह-महान अंतर अछि ।' ओ जनपदकें तोड़ैत छल,अहाँ जोड़ैत छी ; ओ अराष्ट्रीय छल ,अहाँ राष्ट्रीय कार्य करैत छी ।'
-'आर्य अनार्यकें एक करब,एकात्मकता थिक ? राष्ट्रीयता थिक ?'
-'निस्सन्देह। समस्त विशःजनकें एक मानव,एक रूप समानता देब,एक प्रकारक अधिकार देब, एक सामान न्याय देब राष्ट्रीयता नहि थिक तँ,की थिक ? एहि सँ पैघ महानता आर की भ' सकैत अछि ?'
-'तखन दास के बनत ?'
-'जे एखन अछि,से तखनहु रहत । विशःजन एक रहत, अधिकार सभक एक रहल किन्तु कार्य भिन्न-भिन्न रहत, कर्मविभाजन रहत!'
-'आ जँ दास विरोध क' दिअय ?'
-'ओकरा समान अधिकार भेटत तँ ओ मित्र बनत, दस्यु नहि बनल रहत,विरोध-विद्रोह नहि करत । आ जँ करत तँ ताहि लेल सैन्य अछिये । सैन्यबल तँ एकमात्र अहाँक अधीन रहत ! सेनानी अहाँक अधीन रहत, समस्त जनपद अहाँक अधीन रहत ।
समस्त जनपद अहाँके बलि देत , जाहि बलिक आधार पर अहाँ राज्य व्यवस्था करब, शासन करब, ओहिसँ अनुशासन आओत । येह अनुशासन जनपदकें सुख देत , समृद्धि देत , शांति देत ...।'
-'सोमाश्व !' राजा असंग किछु उत्तेजित स्वयंमे किंचित प्रसन्न भावें बाजि उठलाह ।
-'राजन!' मंत्राक्ष विहुँसैत उत्तर देलनि ।
-'अहाँक वार्ता ओ विचार हम स्पष्ट रूपें ग्रहण नहि क' पाबि रहल छी , किन्तु अहाँक वक्तव्य एकटा नवीन क्षितिजक उद्घाटन करैत अछि ।'राजा बजलाह ।
-'स्थिति आओत तँ एहि विचारक परस्थिति हम बना लेब…हम स्पष्ट छी ।' -'वाह ! स्तिथिसँ परस्तिथि आ परिस्तिथिसँ स्तिथि…अद्भुत ।' राजा बजलाह ।
दुनु हंसी देलक । काष्ट प्रकोष्ठमें ओ हास्य एक प्रकारक आघात केलक । जाकर प्रशाल प्रांगनसँ अबैत ढोलक स्वयं दाबी देलक । चन्द्र ज्योत्स्नासँ हठात प्रखर भ' उठल ।
-'अन्तर्वासक भेल?' राज पुछलथिन । -'भेल।'
-'सब ऋषि महर्षिक लेल? कौशेय वस्त्रक?'
--'भेल सबटा कौशेय वस्त्र भेल।'
-'काष्ठ लेल की कहलक ?' राजा पुछलथिन ।
-'यथा इच्छा भेटत । आ पहुंचा देत।' मंत्राक्ष उत्तर देलनि ।
-'काष्ठ विनिमयमे की लेत ? अन्न?'
-'अन्न ओकरा स्वयं पर्याप्त अछि ।'
-'तखन पशु ?'
-'अश्व छोडि सब पशु ओकरा स्वयं पर्याप्त अछि ।'
-'तखन विनिमयमे की लेट? धेनु? वृषभ ? की?'
-'ओ जे चाहैत अछि ओकर कोनो मूल्ये नहि अछि, बहुमूल्य अछि ।'
-'से की?'
-'वैह आर्य-यग्य…।'
दुनु एक क्षण धरि निशब्द बैसल रहलाह । मंत्राक्ष बजलाह -'हम एकबेर पुनः भरद्वाज ऋषि लग चेष्टा करैत छी , आशा अछि एहिबेर राजा बब्लूथक आकांक्षा पूर्ती अवश्ये होयत… काल्हि तँ महाबैराजी यग्य प्रारम्भ भ' रहल अछि ने? -'महर्षि ऋतुर्वित तँ प्रस्तुत छथि ।'
-ब्रह्मा किनका बनेबाक विचार भेलनि ?'
-'संभव आगत महर्षि सुवास्तु तटवासी वामदेव अरिष्ट्नेमिकें ।'
-'ओ आगत सभागतमे सर्वाधिक वृद्ध छथिहो…हुनका लेल एकटा विशिष्टे प्रकारक कौशेय अंतर्वासक अनने छी… तँ काल्हिये सबकें यज्ञकालमे वस्त्र प्रदान क' देल जाय,जाधरि एहि क्षेत्रमे रहताह, वैह वस्त्र पहिरताह…'
...'आब तँ संभव भगवती शाश्वतीक बहुत अनुकूलता प्राप्त क' गेल होयब? ओहि दिन ऋषिटोलमे मांस परोस' मे ततेक असंतुलित भ' गेल छलीह जे हम बहुत आशान्वित भेलहुँ ; ई असंतुलन आकाराणे नहि होइत अछि ...'
मंत्राक्ष हँसलाह । -'सोमाशव -राजा असंग किछु गम्भीर भ' गेलाह, बजलाह-देवक ज्ञान सम्भव अछि, मानव-मनक अनुमान सुलाभ अछि किन्तु नारीक चेष्ठा प्रचेष्टाक परिज्ञान, रात्रिका तमिस्र सदृश अभेध्य अछि, अगम अछि।...तहुमे भगवती भगवती शाश्वती शाश्वती ! ओह !! कठिन, जटिल, अज्ञेय, अति अज्ञेय।'-'आइ रात्रि विश्राम हमर्यमे स्वीकृत क' लेलनि ?'
-'केलनि, महर्षि महर्षि ऋतुवीरतक आग्रहपर तथा ऋजिश्वाक सानिध्य-लोभसँ, ऋजिश्वाक दुराग्रहपर रातुक अनार्य उत्सवक प्रेक्षण-उत्सुक्ताक कारणे। नहि तँ रात्रि उत्सव छोडी क' जाय चाहैत छलीह।'-'महर्षि आग्रहमे तीव्रता छलनि?'
-'छलनि।'
-'ई तँ ब्रह्मा विवाहक अनुकूलता थिक, पितृ सहमति। की अनुमान अछि ?'
-'सम्भव... महर्षि अनुकूल छथि।'
-'अरे ! एकटा तँ बिसरिये गेलहुँ...अभिषेक कालमे राजसूय यज्ञक प्रश्न उटल होयत ?'
-'उटल छल, तत्काल दैव यज्ञ द्वारा अभिषेक सम्पन्न भेल। हमरा बचन देमय पडल जे यमुना तटक गविष्ठी युद्धक पश्चात राजसूय करब आ ताधरि हम विवाहित भ' गेल रहब, अपितु ई आश्वासने स्वयं महर्षि ऋतुव्रिते देने छलथिन।'
-'ई तँ आरो उत्तम-मंत्राक्ष बजलाह-राजन ! अहाँ सन भाग्यवान एहि सप्तसन्धमे केओ दोसर अन्य नहि अछि, कारण भगवती शाश्वती सन नारी एही सप्त सैन्धवमे नहि अछि, लावण्य शब्द स्वयं अपन अर्थक वास्तविकता हुनके मुखमंडलसँ प्राप्त करैत अछि।'हठात बाधा पड़ल ।
मंत्राक्षक रोहित अश्व जोरसँ हिहिया उठल ।
मंत्राक्ष बिहुँसैत उठलाह आ बज्लाज -'राजन आज्ञा देल जाय, अश्व बहुत दिन पर घुमल अछि ,अपन स्थान लेल उताहुल अछि ।'
आ ओ चल गेलाह ।
राजा अन्यमनस्क भावें,गृहाग्निक अग्निकुंड लग बैसल रहलाह । गृहाग्नि पैघ छल,जाकर एक कातमे अग्निकुण्ड अछि,उपवर्हण (तकिया) राखल अछि । शाश्वती आ ऋजिश्वाक रात्रि विश्रामक व्यवस्था एहि पर अछि । किन्तु दास-रंजनक कार्यक्रम चलिए रहल अछि ।
आसन्दी लग गवाशक एक पट लागल अछि । सोम-ज्योत्सना ओछाओनक एक अंशके आलोकित क' रहल अछि ।
अंधकार मे डूबल अछि, राजा असंगक मन:लोक । जेना कोनो मार्ग नहि भेटि रहल हो । मंत्राक्ष, मानसमे एकटा अकल्पनिक वात्याचक्रक सृष्टि कए चलि गेलाह अछि ।
...दासकें स्वतन्त्र कृषि अधिकार ? गृह-दासोकें ? कृषि-दासोकें ?
...आर्यजनकें मान्य हेतैक ? विदथ एकर स्वीकृति देतैक ? आ जँ आर्यजन विद्रोह क' दैक ? सैन्य प्रयोग ? दासजन द्वारा आर्यजनक पराभव ?...
...दशराज्ञ युद्धो तँ सैह थिक ! ओहू मे आर्य-अनार्य दुनू मीलिकें एक आर्य राजा पर आक्रमण स्वयं राजर्षि विश्वामित्रक अयोजन छल तँ की मंत्राक्ष ठीक कहैत छथि ...?
...दुनू जन समान थिक ? आर्य आ अनार्य समान ? आ ई समानताक आधिकार राजाकें देव' पड़तैक ? विद्थक इछाक विरुद्ध ? तें की राजा विदथसँ ऊपर अछि ? पैघ अछि ? सर्वोपरि ?...
...राजा निरंकुश भ' जायत ? भूमि देवक थिकै, आ ओ देवक प्रतिनिधि थिक ? भूमि, देव-प्रतिनिधिक ? वैह देव इछासँ वितरित करत ? एकमात्र वैह ?...मंत्राक्ष की कर' चाहैत छथि ? की? सुदूर पश्चिमोत्तरमे एहिना होइत अछि ?...मुदा ई तँ ब्रह्मर्षि देश थिक ! एतय कोन ई संभव अछि ? अछि संभव?...
...नग्नजितक बधक पश्चात् की भेल छल । किछु जनक आकृति उत्तेजित कियैक भ' गेल? अराजकताक सम्भावना कियैक भ' आयल छल ?
आटव्यक व्यवस्था कतेक विलक्षण छल ? केहन शान्त भ' गेल? तँ की शान्ति लेल सैन्य प्रयोजनीय ? कहां अद्भुत बात थिक । केहन अकल्पनीय प्रथ…।
...की ई प्रथा आवश्यक अछि ? मंत्राक्षक बात सत्य थिक ? समान न्याय प्रयोजन थिक ? समस्त विशःजनकें समानं अधिकार चाही? आर्य अनार्य दुनुकें कृषि अधिकार,अनिवार्य अछि ?...
राजा असंगाक मानसमे प्रश्नक जटिल वात्याचक्र उठि गेल छल ।
झंझावात चलि रहल छल । ओहिमे ओ उड़िया रहल छलाह ।
अग्निकुंड,समिधाक अभावमे मंद पड़ी रहल छल तकर ध्यान नहि रहल । प्रशाल-प्रांगणक दास-रंजनक कार्यक्रम समाप्त भ' गेल छल-तकर ध्यान नहि रहल । रात्रि अधिक भ' गेल-तकर ध्यान नहि रहल । शीतप्रकोप बढि गेल-तकर ध्यान नहि रहल।
किछु ध्यान नहि रहल। ओ असमंजसे में उठलाह ।
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ओहि उत्तरी तट पर बसल अछि ऋषिग्राम ।
ऋषिग्रामक उत्तर विस्तृत गोचरभूमि अछि । एही गोचरभूमिक उत्तरी छोर पर राजहर्म्य अछि । काष्ठ निर्मित, तृणाच्छादित । राजहर्म्यक उत्तर,पश्चिम तथा पूबमे ग्रामांचल बसल अछि ।
गोचर मैदानमे अपनापन अश्व पर चढ़ल अश्ववाहक प्रतियोगी एम्हार-ओम्हर दौड़ी रहल अछि । अश्व सब हिनहिना रहल अछि ।
समस्त वातावरण जन कोलाहलसँ भरल अछि । शिशु-किशोर उछल-कूद क' रहल अछि । जनपदक समस्त जन हर्म्यक आगुमे प्रायः पंक्तिबद्ध रूपमे ठाढ़ अछि । मात्र बीचक स्थान जाहि ठाम आसंदी आ मृगचर्म लागल अछि ,रिक्त अछि । राजा तथा ऋषि-महर्षि लोकनिक आगमन-संबाद आबि गेल अछि । आबितहि प्रतियोगिता प्रारम्भ भ' जायत । जनमे अपार उल्लास आ आनंदक वातावरण अछि ।
अश्व चालन प्रतियोगिता आर्य जनक मुख्य मनोरंजन साधन थिक । ई बीच-बीचमे आयोजित होइत रहैत अछि । किन्तु अभिषेकान्त आयोजन विशिस्ट मानल जाइत अछि । सूर्यास्त हेबामे एखन विलम्ब अछि । एहि कुरुजनपदक पूब आ पश्चिम दुनू छोर पर सरस्वती नदीसँ नहरि चलल अछि जे उत्तर दिशामे शतुद्रि दिस चल गेल अछि ।
राज अतिधृति उत्तरक शतुद्रिसँ सेहो दुइटा नहरि व्यवस्था कयने छलाह जे एहि दुनूमे आबि क' मीलि गेल अछि। आ तें एहि दुनू नहरिमे शतुद्रि तथा सरस्वतीसँ निरंतर जल बनल रहैत अछि।
कृषि सिंचनक कार्य नीक जकाँ चलैत अछि। उत्पादनो अधिक होइत अछि आ सुरक्षो अधिक रहैत अछि। कुरु जनपदक जन-जीवन सुखी अछि, समृद्ध अछि।
कुरु जनपदक सुख समृद्धिक ख्याति समस्त सप्तसैन्धवमे अछि।
समस्त सप्त सैन्धवमे सरस्वती नदी पवित्र मानल जाइत अछि। सरस्वती दर्शनक लेल समस्त सैन्धवक लोक उत्सुक रहैत अछि।
उत्सुक रहैत अछि ऋषि दर्शन लेल सोहे। एखन समस्त सप्त सैन्धवमे श्रुति दर्शन तथा श्रुति अभ्यासक कार्यमे सरस्वती तट अग्रणी अछि।
ऋषि टोलक अनेक ऋषि-महर्षि श्रुति कर्ममे निमग्न रहैत छथि।
राजाक संग महर्षिलोकनि प्रकट भेलाह।
रंस्थालीमे एहि पारसँ ओहि पार धरि उत्सुक प्रसन्न्ताक लहरि व्यापि गेल। आब शिघ्रे प्रतियोजिता आरंभ भ' जायत।
कि बीच रंस्थालीमे एक वाहककें एकटा अश्व पटकि देलक। रंस्थाली मुदित हास्यसँ मुखरित भ' उठल।
राजा आ महर्षिगण आसन्दीक मृगचर्म पर आबि क' बैसलाह।
सेनानी आटव्यक संकेत भेल कि अश्व्वाहक सब पवन वेगसँ पूर्व दिशा दिस गत्वर भेल। पहिने पूर्व नहिर जायत, तखिन घूमि क' जे अश्व्वाहक प्रथम-प्रथम एहिठाम उपस्थित होयत वैह प्रथम आओत।
गत वर्ष मंत्राक्ष प्रथम आयल छ्लाक। हुनक प्रथम आयब सेहो कलापूर्ण छल। सबकें धावन कर' देने छलाह तखन अंतमे ओ अपन अश्वकें गतिमान कयने छलाह आ प्रथम-प्रथम आबि क' उपस्थित भ' गेल छलाह।
ऋजिश्वाकें ओहिना मोन छैक। ओ आइ बीच-बीचमे चारूकात ताकि लैत अछि। मंत्राक्षक अनुपस्थितिक कचोट अछि।
-'मंत्राक्ष सम्भव नहि आयल छथि ?' ऋजिश्वा, शाश्वतीक कानमे पुछलक।
-'सम्भव नहि ।'
शाश्वती कानेमे उत्तर देलक।
दुनूक कान मुहँ एक भ' जाइत अछि बीच-बीच मे।
महर्षि लोकनि अश्व चालंनपर गप्प क' रहल छथि । ऋषि काक्षसेनि,प्रख्यात अश्व शिक्षक, विभिन्न अश्वक विशेषतापर प्रकाश द' रहल चथि । किंवदन्ती अछि जे अश्व,ऋषि काक्षसेनिक भाषा बुझैत अछि । वन्यसँ वन्य अश्व, ऋषि लग शांत भ' जाइत अछि ।
समस्त जनपद प्रसन्न अछि ।
एकर बाद सायंमे होयत अभिषेक नृत्य-गीत आ ध्युत-क्रीड़ा ।
द्युत-क्रीडाप्रेमी एखनहिंसँ उत्सुक भ' रहल अछि । आइ ओ अवश्य विजय-लाभ करत । आइ किछु क्षण राजा सेहो द्युत-क्रीड़ा करताह । यैह प्रथा अछि ।
आइ रातिमे एकटा अदभुत अनास दास-रंजक नाट्य-वृति अछि। दास सब एहि कार्यक्रम उल्लसित भ' उठैत अछि।
नहरि पारक दस्युग्राममे अधिकखन होइत रहैत अछि। ग्रामांचलक दास सब रातिकें जाइत रहैत अछि, आ उषाकाल धरि धुमि अबैत अछि।
जकरा अनुमति नहि भेटैल अछि ओ आकुल भ' उठैत अछि। आइ मुदा सब दास प्रसन्न अछि।
पूर्वमे ई कार्यक्रम आर्य ग्रामांचलम नहि होइत छल। राजा अतिघृति एकर स्वीकृति देने छलाह।
स्वीकृति देने छ्लाह अनेक कारणे। आ से देने छलाह मात्र उत्तरांचालक सैनिक ग्राम लेल जाहिमे दासेक संख्या अछि। ओकर स्वजन परिजन बड उत्सुकतासँ देखैत अछि।
उत्सुक एखन समस्त दास वर्ग अछि रातुक कार्यक्रमक लेल।
राजा वीतिहोत्र एकरा अपन अभिषेक समारोहमे सम्मिलित क' नेने छलाह, जकर विरोधी भेल छल आर्यजनमे।
किन्तु जै ल' राजा वीतिहोत्रक प्रति समस्त जन्पदकें असीम श्रधा आ भक्ति छल तें लोक एकरा स्वीकार क' लेलक। ओही अभिषेक रत्रिमे प्रथम-प्रथम दास उत्सव होइत जे आकस्मिक वर्षाक कारणे सम्भव नहि भ' सकल। दास जन उदास रहि गेल छल, ओहिना दासजनकें मोन अछि।
आइ मुदा उत्सुको अछि आ प्रसन्नो अछि। वातावरण अनुकूल अछि। मेघ साफ़ अछि।
रत्रिमे प्रथम-प्रथम भेल आर्य उत्सव।
वीणापर साम गायनक पश्चात आगत महर्षिलोकनिमे सँ किछु राजभवनक अतिथिशालामे रात्रि विश्रामक हेतु चल गेलाह।
ऋषि टोलक स्थानीय ऋषि-महर्षि लोकनिक संग राजा असंग दास रंजनक कार्यक्रममे बैसल रहलाह। कार्यक्रम चल' लागल।
ता आबि गेलाह मंत्राक्ष।
मंत्राक्ष आ राजा असंग दुनू राजहर्म्य दिस चलि देलनि।
-'की समाचार ?' राजा असंग बैसैत पुछलनि । -'सबटा अनुकूल राजन !' मंत्राक्ष उत्साहित उत्तर देलनि । -'की अनुकूल ? यमुना युद्ध लेल अपन सैन्य देब स्वीकार केलक बब्लूथ ?' -'स्वीकार केलक, ओकरा लग कृष्ण असयक बहुत भेदक(भाला) अछि , एकर अतिरिक्त ओ सब एम्हर आर्यजन जकाँ कृपाण सँ युद्ध सेहो सीखि गेल अछि । कृपाणों अछि कृष्णे अयसक ।'
-ई तँ आरो उत्तम । एही लेल ओ को मंगैत अछि ?' - किछु नहि ।'
-'किछु नहि ? अर्थात ?'-'अर्थात वैह पूर्व आकांक्षा ...'-'पूर्व आकांक्षा ? अर्थात आर्ययज्ञ ?'-'आर्य यज्ञक अति तीव्र आकांक्षा ओकरा अची आ से अनेक समयसँ ....हमरा लग अनेक समयसँ याचना करैत आबि रहल अछि ।'-'ई कोना संभव अछि ?'-'कियो ऋषि महर्षि अनार्य अनास दासक ओहिठाम आर्य यज्ञ करेबाक लेल प्रस्तुते नहि होइत छथि ... किन्तु हमरा एक बेर आरो चेष्टा कर' देल जाय ।'-'से ओकरहि कियैक नहि बुझबैत छियैक जे ऋषि लोकनि अनार्यक ओहिठाम जाकें आर्य यज्ञक लेल प्रस्तुत नहि होइत छथि ?'-'से अनेक बेर बुझौने छियैक ।'
-'तखन?'
-'तखन ओ उदास भ' जाइत अछि , आ अति दीं भावें मुँह दिस ताक' लगैत अछि ... आ तैयो जे कहैत छियैक तुरत मानि लैत अछि,
ओइ दिन ओतेक कम्बल मंगलियेक उपस्थित क' देलक आ प्रतिदानमें रोहित अश्व स्वीकारे नहि करैत छल, हम बलात राखि आयल छलियैक…एहि बेर एतेक अंतरवासक (धोती) मंगलियैक, तुरत उपस्थित क' देलक, प्रतिदानमे अहाँबला ओ तीनू अश्व लैते नहि छल ...आ ताहुमे…'
-'की ताहुमे ?'
-'जखन सुनलक जे ई टीनू अश्व अहाँक थिक तखन आरो नहि लैत छल । हम जखन अपन निश्चय व्यक्त केलहुँ जे तखन अंतरवासक नहि लेब तखन अश्व राखब स्वीकार केलक।'-'वस्तुतः राजा बब्लूथ अनार्य, अनास,शिश्नदेवाः होइतहुँ अति नीक लोक अछि ,मित्रभावक लोक ।'-'निस्संदेह । बस ओकर एक्के टा इच्छा अछि, आर्य यज्ञक इच्छा । अन्य कोनो वस्तुक अभाव नहि अछि । अनेक कार्मांत (कामत) अछि, अम्बार लागल अन्न अछि अनेक-अनेक वृषभ युगल अछि , असंख्य दासदासी अछि दूर-दूर धरि पण्य कार्य (वाणिज्य) चलैत अछि अनेक पीत अछि जे मुख्य सिन्धुमे चलिते रहित अछि , अतुल वैभव अछि असीम संपत्ति अछि । एकटा वास्तु आरो अति अद्भुत अछि ...।'-'से की?'
-' ओ सब भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व मानैत अछि ।'
-'स्वामित्व? भूमि पर ? आ सेहो व्यक्तिगत? सामूहिक नहि ?' राजा असंग चौंकि उठलाह । -'हमरहु ज्ञात नहि छल, भूमि पर व्यक्तिगत बात सुनिकें हमहुँ,प्रथम-प्रथम अहीं जकाँ चौकिं उठल छलहुँ,क्षण कालक लेल स्तंभित रहि गेल छलहुँ ।' मंत्राक्ष अति गंभीर होइत बाजल । -'वस्तुतः ई अद्भुत कथा कहल अछि-राजा असंग किछु सोचैत बजलाह -ई कोना संभव अछि ?'
-'ओकरा राजमे संभव अछि,अनासमे एहने प्रथा अछि ।'
-'प्रथा बड़ विचित्र अछि ...ओ सब भूमि, देवक नहि मनैत अछि ?'
-'नहि ।'
-'तखन?'
-'मात्र व्यक्तिगत ।' -'ओ जकरा कृषि करबाक आज्ञा देत,वैह टा ओहि भूमि पर कृषि कार्य क' सकैछ, अन्य नहि । हम विस्तारसँ ई प्रसंग पूछल आ बूझल अछि ।'
-'ओ चाहय तँ ककरहुसँ भूमि छीनि सकैत अछि ?' राजा पुछलनि ।
-'छीनि सकैछ । ककरहु द' सकैछ अथवा स्वयं क' सकैछ ।'
-'ई कोना संभव अछि ? भूमि तँ देवक थिक…।'
राजा असंग चिंतनशील भ' उठलाह । किछु उदग्र,किछु व्यग्र । जेन दृष्टि कतहु अति दूर जाकें शून्यमे अटकि गेल होनि ।
मंत्राक्षकें राजाक एहि अन्यमनस्कताक कोनो अर्थ तत्काल नहि लागि सकलनि ।
-'चिंतनक विषय ?' मंत्राक्ष पुछलथिन ।
-'राजाक दृष्टि ओहिना सुदूर शून्यमे हेरायल रहल।
-'अहाँ अन्यमनस्क भS उठल छी ?' पुनः मंत्राक्ष पुछलथिन ।
-'ऐं ...ऐं । ओ सब,भूमि देवक नहि मानैत अछि ?'
-'कहल ने ।…नहि ।'
-'तखन मात्र अपन ? आ लोक विरोध नहि करैत अछि ?'
-'नहि करैत अछि, नहि करैत अछि तकर दुई गोत कारण अछि ...'
-' कारण? दुइटा ? से की?'
राजा चकित भ' उठलाह । लागलै जेन मंत्राक्ष उत्तर सुनबाक लेल शरीरक समस्त अंग प्रत्यंग एकमात्र काने भ' गेल,होइनि ।
-'प्रथम तँ विशः जनमे एही प्रकारक भावना भरल गेल, ओकरामे विशवास उत्पन्न कयल गेल जे भूमि राजाक थिक ... दोसर… दोसर ओकरामे भय उत्पन्न कयल गेल…।
-'भय ? भय की?' राजा किछु बुझि नहि सकल ।'
राजाहर्म्यक अन्तःपुरक कक्षमे दुनु व्यक्ति बैसल छथि । वातावरण निस्तब्ध अछि । राजमाता वृद्धा टा एकमात्र स्वजन परिवार सदस्य जे सुतलि छथि । गृह-दास दासी, रंजक कार्यक्रममे दरबार-प्रशालक आगूक प्रांगणमे छल, से भ' रहल अछि ।
बोलक स्वर मद्धिम रूपें आबि रहल अछि जे कौखन तीव्र भ' उठैत अछि ।
राजा पुनः पुछलनि -'की दुई प्रकारक भय ?'
-'प्रथम तेन-मंत्राक्ष उत्तर देलक-लोककें कहल जाइत अछि जे राजा सद्यः देव द्वारा उत्पन्न हुनक प्रतिनिधि छथि , ओ अप्रसन्न हेताह तँ देव अप्रसन्न भ' जेताह….'
-'बड़ विचित्र प्रथा अछि , किन्तु की ओ सब अपन देवसँ भयभीत रहैत अछि ?'-'बहुत अधिक । ओहि देव भयक आधार पर राजाक प्रति आस्था, निष्ठा तथा विश्वास उत्पन्न कराओल जाइत अछि ।'
-'ई के करैत अछि ? स्वयं राजा बब्लूथ ?'
-'ई कार्य करैत अछि ओकर सभक देव-पुरोहित।'
-'देव-पुरोहित?'
-'देवे पुरोहित कहैत अछि जे राजा देव प्रतिनिधि थिक, एकर आज्ञा नहि मानलासँ अथवा असंतुष्ट केला पर देव क्रुद्ध होइत अछि । विशः जन भयभीत रहैत अछि ।'-'अद्भुत बात अछि !'
-'ओहुसँ अद्भुत बात अछि सुदूर उत्तर-पश्चिमक ।' मंत्राक्ष कीछु उत्साहमे बजलाह ।
-से की?' राजा पुछलनि ।
-'ओम्हर कहाँदन पूर्व कालमे पुरोहिते राजा सेहो होइत छल । एम्हर आबि क' दुनु एक नहि दुइ व्यक्ति होम' लागल अछि । तथापि दुनूक मन एक्के रहैत अछि ।'
-'कियैक एक्के रहैत अछि ?'
-'दुनु, दुनूक हित चिंतन करैत अछि, दुनु दुनूक सहायय करैत अछि ।'
-'की सहायय ?'
-'राजा पुरोहितकें बहुत सुविधा दैत अछि , अन्न दैत अछि पशु दैत अछि , दास-दासी दैत अछि । सबसँ ऊपर सम्मान दैत अछि। दंडसँ मुक्तो राखैत अछि ।'
-'अन्यसँ भिन्न, एक जनकें एतेक सुविधा ?'
-'सुविधा आ सम्मान ।' मंत्राक्ष उत्तर देलक । -'आ तकर प्रतिदानमे ओ जन-भावनाक निर्माण करैत अछि, कि ने ?
एकर अर्थ थिक…अर्थ ठीक ओकर सभक विशःजनमे देवक प्रति बहुत भयक भाव रहैत अछि आ पुरोहित प्रति निष्ठा-भाव?'
-'निश्चितरूपेण ।'
-'अद्भुत बात अछि, हम तत्काल स्पष्ट रूपें नहि बुझि पाबि रहल छी पुनः एहि प्रसंग विस्तारसँ चर्चा करब आ एक-एक पक्षपर विस्तृत रूपें विचार-विमर्श करब ।'
-'किन्तु कियैक ? एकर प्रयोजन ? ई सब तँ ओकर प्रथा थिक ?' मंत्राक्ष चौंकि उठलाह ।
-'देखू-राजा असंग किछु सोचैत उत्तर देलनि दृशव्दतीक पार;यमुना तट पर जे दुर्ग बनत तथा ग्राम बसत जाहिठाम संभव अनार्येसंख्या अधिक रहत ...ताहि ठाम तँ अनार्य प्रथाक प्रयोग कायल जा सकैछ ?'
-'एही अनार्य प्रथाक प्रयोग ? यमुना तट पर ? मंत्राक्ष किछु चिंतन कर'लगलाह । बजलाह-किन्तु ओहिठाम तँ मात्र अनार्ये दासजन नहि रहत । … ओहि ठाम… ओहिठाम तँ आर्यजन सेहो रहत ...?' -'ई प्रश्न तँ अछि --राजा असंग उत्तर देलनि --किन्तु एखनहुँ तँ एहिठाम अपना सबमे एक्के विशःजनमे दुइ प्रकारक प्रथा अछिये आर्यजन स्वयं व्यक्तिगत उपयोग लेल कृषि कार्य करैत अछि , अथवा दास जनसँ करबैत अछि । किन्तु अनार्य जनकें तँ अपना लेल कृषि करबाक नहि अछि ?'
-'अछि कोन नहि ? राजा अतिधृति जे उत्तरांचल में सैन्य दासग्राम बसौलनि ताहिमे तँ व्यक्तिगत उपयोग लेल कृषि अधिकार देबे कैलनि अछि ।'
-'देल गेल अछि । किन्तु, एक तँ सब दासकें नहि,मात्र किछु सीमित दास वर्गकें आ…दोसर ओकर प्रतिदान तँ सब दासकें स्थायी सैन्य रूपमे लेल जाइत अछि ?'... तँ विशेष परिस्थितिक विशेष प्रथा थिक । ई तँ नियम नहि,अपवाद थिक ।'
-'एकटा विलक्षण तथ्य स्वयं प्रकट भ' गेल…।' मंत्राक्ष बजलाह ।
-'कोन तथ्य ?' राजा असंग प्रश्नवाचक दृष्टिसँ तकलनि ।
-'यमुना तटक ग्राममे दुनु विशःजनकें सामान रूपें व्यक्तिगत उपयोग लेल कृषिक अधिकार द' देल जाय… आर्यजनकें तँ अछिये,समग्र दास वर्गकें सेहो द' देल जाय… ।
-'दास-वर्गकें कृषि अधिकार? ई की कहैत छी ? कोन संभव अछि ?'
राजा असंग चकित रहि गेलाह । -'आ वृद्ध राजा अतिधृति कोन संभव केलनि?'
-'ओ तँ मात्र सैन्यग्राम लेल ताहुमे प्रतिदान…'
-'प्रतिदान एकरहुसँ लेल जाय?'
-'की प्रतिदान ?' राजा पुछलनि ।
-'जे आअर्य जनसँ लेल जाइत अछि ?'
-'बलि ? उपहार?'-'निश्चय राजन । एखनि धरि बलि स्वेच्छा पर अछि , आब ओहि ग्राममे राजेच्छा पर रहत…राजा भूमि वितरण करत आ राजा बलि लेत, सबसँ लेत आ सामान रुपें लेत...। ओहि कुरुग्रामक नामे आर्यावर्त राखी देल जाय!...'
-'किन्तु राजा भूमि तँ नहि दैत अछि ? जन स्वयं उपयुक्त भूमि ताकि ओकर उपयोग कर' लगैत अछि,जे प्रथम-प्रथम उपयोग करैत अछि ,करैत रहैत अछि छोड़ि दैछ,दोसर स्वयं कर' लागैछ ... एहिमे राजा कत' अछि । -'अछि नहि ...किन्तु आबसँ रहत ।… सैन्यग्रामक सैन्य तथा राजा बब्लूथक संधिक अनुसारें ओकर सैन्य अथवा अन्य साधने जे अहाँ यमुना तटक अनार्य दस्युसँ गविष्ठ युद्ध करब,ओकरा पराजित करब, ओकरा दास बनायब,ओकर भुमिक अपहरण करब…करब भूमिक अपहरण?' -'करब,किन्तु देवक इच्छासँ,देवक सहाययसँ, देवक लेल… । तें ओ भुमिक देवक रहत…।'-'रहत,देखू सुदूर पश्चिमोत्तरमे, भूमि देवेक रहित छल किन्तु देवेच्छासँ ओकर प्रतिनिधि,पूर्वमे पुरोहित स्वयं,पश्चात् राजा अपन विशःजनमे वितरित करैत छल आ देवक लेल बलि लैत छल ,'ओत' आइयो एहिना अछि । तहिना अहाँ देवक सहाय्यसँ भूमि अर्जित करब, आ देवक इच्छासँ ओहि भुमिक वितरण सामान रूपें,परिवार अथवा कृषि साम्न्यर्क आधार पर करब…'
-'अहाँ अति नवीन बात सब कहि रहल छी…'। राजा असंग सतर्क होइत बज्लाह।'
-'नवीन किछु नहि मात्र अभिव्यक्ति अंतर अछि । हम नवीन एकेटा तथ्य कहि रहल छी…'
-'जे आर्य अनार्य दुनुकें सामान रुपें कृषि अधिकार देल जाय। यैह ने?'
-'राजन स्पष्ट बूझि गेलाह…जखन दुनु एक्के विशःमे रहैत अछि तँ एक रंग न्याय कियैक नहि हो? एक रंग अधिकार कियैक नहि भेटैक ?'
-'आर्यजन मानताह ?'
-'मानताह कियैक नहि ? ओहिठाम तँ अहाँ स्वयं भूमि वितरण करब, अपन इच्छानुसारें,देवक आदेश पर…'
-'देवक आदेश?'
-'से पुरोहित प्रकट करताह …'
-'के पुरोहित ?'
-'एही प्रसंग पुनः गप्प करब, पहिने दृढ़ निश्चय करु।'
-'आ जँ आर्यजन अथवा विदथ एहि नवीन प्रथाक विरोध कराय?'
-'ओकर व्यवस्था भ' जायत । एतेक जे दास के अधिकार देने रहबैक ओ अहाँक मित्र रहत।अहाँक संग देत, अहाँक सहयोग करत,समय पर अस्त्र उठाओत ।'-'अस्त्र उठओत ? आर्य रजाक आदेश पर अनार्य अस्त्र उठाओत आ सेहो आर्यजन पर? ई आर्य द्रोह नहि थिक ? तखन हमरा आ नग्नजितमे की अंतर?'
-'अंतर? मंत्राक्ष बाजि उठलाह-महान अंतर अछि ।' ओ जनपदकें तोड़ैत छल,अहाँ जोड़ैत छी ; ओ अराष्ट्रीय छल ,अहाँ राष्ट्रीय कार्य करैत छी ।'
-'आर्य अनार्यकें एक करब,एकात्मकता थिक ? राष्ट्रीयता थिक ?'
-'निस्सन्देह। समस्त विशःजनकें एक मानव,एक रूप समानता देब,एक प्रकारक अधिकार देब, एक सामान न्याय देब राष्ट्रीयता नहि थिक तँ,की थिक ? एहि सँ पैघ महानता आर की भ' सकैत अछि ?'
-'तखन दास के बनत ?'
-'जे एखन अछि,से तखनहु रहत । विशःजन एक रहत, अधिकार सभक एक रहल किन्तु कार्य भिन्न-भिन्न रहत, कर्मविभाजन रहत!'
-'आ जँ दास विरोध क' दिअय ?'
-'ओकरा समान अधिकार भेटत तँ ओ मित्र बनत, दस्यु नहि बनल रहत,विरोध-विद्रोह नहि करत । आ जँ करत तँ ताहि लेल सैन्य अछिये । सैन्यबल तँ एकमात्र अहाँक अधीन रहत ! सेनानी अहाँक अधीन रहत, समस्त जनपद अहाँक अधीन रहत ।
समस्त जनपद अहाँके बलि देत , जाहि बलिक आधार पर अहाँ राज्य व्यवस्था करब, शासन करब, ओहिसँ अनुशासन आओत । येह अनुशासन जनपदकें सुख देत , समृद्धि देत , शांति देत ...।'
-'सोमाश्व !' राजा असंग किछु उत्तेजित स्वयंमे किंचित प्रसन्न भावें बाजि उठलाह ।
-'राजन!' मंत्राक्ष विहुँसैत उत्तर देलनि ।
-'अहाँक वार्ता ओ विचार हम स्पष्ट रूपें ग्रहण नहि क' पाबि रहल छी , किन्तु अहाँक वक्तव्य एकटा नवीन क्षितिजक उद्घाटन करैत अछि ।'राजा बजलाह ।
-'स्थिति आओत तँ एहि विचारक परस्थिति हम बना लेब…हम स्पष्ट छी ।' -'वाह ! स्तिथिसँ परस्तिथि आ परिस्तिथिसँ स्तिथि…अद्भुत ।' राजा बजलाह ।
दुनु हंसी देलक । काष्ट प्रकोष्ठमें ओ हास्य एक प्रकारक आघात केलक । जाकर प्रशाल प्रांगनसँ अबैत ढोलक स्वयं दाबी देलक । चन्द्र ज्योत्स्नासँ हठात प्रखर भ' उठल ।
-'अन्तर्वासक भेल?' राज पुछलथिन । -'भेल।'
-'सब ऋषि महर्षिक लेल? कौशेय वस्त्रक?'
--'भेल सबटा कौशेय वस्त्र भेल।'
-'काष्ठ लेल की कहलक ?' राजा पुछलथिन ।
-'यथा इच्छा भेटत । आ पहुंचा देत।' मंत्राक्ष उत्तर देलनि ।
-'काष्ठ विनिमयमे की लेत ? अन्न?'
-'अन्न ओकरा स्वयं पर्याप्त अछि ।'
-'तखन पशु ?'
-'अश्व छोडि सब पशु ओकरा स्वयं पर्याप्त अछि ।'
-'तखन विनिमयमे की लेट? धेनु? वृषभ ? की?'
-'ओ जे चाहैत अछि ओकर कोनो मूल्ये नहि अछि, बहुमूल्य अछि ।'
-'से की?'
-'वैह आर्य-यग्य…।'
दुनु एक क्षण धरि निशब्द बैसल रहलाह । मंत्राक्ष बजलाह -'हम एकबेर पुनः भरद्वाज ऋषि लग चेष्टा करैत छी , आशा अछि एहिबेर राजा बब्लूथक आकांक्षा पूर्ती अवश्ये होयत… काल्हि तँ महाबैराजी यग्य प्रारम्भ भ' रहल अछि ने? -'महर्षि ऋतुर्वित तँ प्रस्तुत छथि ।'
-ब्रह्मा किनका बनेबाक विचार भेलनि ?'
-'संभव आगत महर्षि सुवास्तु तटवासी वामदेव अरिष्ट्नेमिकें ।'
-'ओ आगत सभागतमे सर्वाधिक वृद्ध छथिहो…हुनका लेल एकटा विशिष्टे प्रकारक कौशेय अंतर्वासक अनने छी… तँ काल्हिये सबकें यज्ञकालमे वस्त्र प्रदान क' देल जाय,जाधरि एहि क्षेत्रमे रहताह, वैह वस्त्र पहिरताह…'
...'आब तँ संभव भगवती शाश्वतीक बहुत अनुकूलता प्राप्त क' गेल होयब? ओहि दिन ऋषिटोलमे मांस परोस' मे ततेक असंतुलित भ' गेल छलीह जे हम बहुत आशान्वित भेलहुँ ; ई असंतुलन आकाराणे नहि होइत अछि ...'
मंत्राक्ष हँसलाह । -'सोमाशव -राजा असंग किछु गम्भीर भ' गेलाह, बजलाह-देवक ज्ञान सम्भव अछि, मानव-मनक अनुमान सुलाभ अछि किन्तु नारीक चेष्ठा प्रचेष्टाक परिज्ञान, रात्रिका तमिस्र सदृश अभेध्य अछि, अगम अछि।...तहुमे भगवती भगवती शाश्वती शाश्वती ! ओह !! कठिन, जटिल, अज्ञेय, अति अज्ञेय।'-'आइ रात्रि विश्राम हमर्यमे स्वीकृत क' लेलनि ?'
-'केलनि, महर्षि महर्षि ऋतुवीरतक आग्रहपर तथा ऋजिश्वाक सानिध्य-लोभसँ, ऋजिश्वाक दुराग्रहपर रातुक अनार्य उत्सवक प्रेक्षण-उत्सुक्ताक कारणे। नहि तँ रात्रि उत्सव छोडी क' जाय चाहैत छलीह।'-'महर्षि आग्रहमे तीव्रता छलनि?'
-'छलनि।'
-'ई तँ ब्रह्मा विवाहक अनुकूलता थिक, पितृ सहमति। की अनुमान अछि ?'
-'सम्भव... महर्षि अनुकूल छथि।'
-'अरे ! एकटा तँ बिसरिये गेलहुँ...अभिषेक कालमे राजसूय यज्ञक प्रश्न उटल होयत ?'
-'उटल छल, तत्काल दैव यज्ञ द्वारा अभिषेक सम्पन्न भेल। हमरा बचन देमय पडल जे यमुना तटक गविष्ठी युद्धक पश्चात राजसूय करब आ ताधरि हम विवाहित भ' गेल रहब, अपितु ई आश्वासने स्वयं महर्षि ऋतुव्रिते देने छलथिन।'
-'ई तँ आरो उत्तम-मंत्राक्ष बजलाह-राजन ! अहाँ सन भाग्यवान एहि सप्तसन्धमे केओ दोसर अन्य नहि अछि, कारण भगवती शाश्वती सन नारी एही सप्त सैन्धवमे नहि अछि, लावण्य शब्द स्वयं अपन अर्थक वास्तविकता हुनके मुखमंडलसँ प्राप्त करैत अछि।'हठात बाधा पड़ल ।
मंत्राक्षक रोहित अश्व जोरसँ हिहिया उठल ।
मंत्राक्ष बिहुँसैत उठलाह आ बज्लाज -'राजन आज्ञा देल जाय, अश्व बहुत दिन पर घुमल अछि ,अपन स्थान लेल उताहुल अछि ।'
आ ओ चल गेलाह ।
राजा अन्यमनस्क भावें,गृहाग्निक अग्निकुंड लग बैसल रहलाह । गृहाग्नि पैघ छल,जाकर एक कातमे अग्निकुण्ड अछि,उपवर्हण (तकिया) राखल अछि । शाश्वती आ ऋजिश्वाक रात्रि विश्रामक व्यवस्था एहि पर अछि । किन्तु दास-रंजनक कार्यक्रम चलिए रहल अछि ।
आसन्दी लग गवाशक एक पट लागल अछि । सोम-ज्योत्सना ओछाओनक एक अंशके आलोकित क' रहल अछि ।
अंधकार मे डूबल अछि, राजा असंगक मन:लोक । जेना कोनो मार्ग नहि भेटि रहल हो । मंत्राक्ष, मानसमे एकटा अकल्पनिक वात्याचक्रक सृष्टि कए चलि गेलाह अछि ।
...दासकें स्वतन्त्र कृषि अधिकार ? गृह-दासोकें ? कृषि-दासोकें ?
...आर्यजनकें मान्य हेतैक ? विदथ एकर स्वीकृति देतैक ? आ जँ आर्यजन विद्रोह क' दैक ? सैन्य प्रयोग ? दासजन द्वारा आर्यजनक पराभव ?...
...दशराज्ञ युद्धो तँ सैह थिक ! ओहू मे आर्य-अनार्य दुनू मीलिकें एक आर्य राजा पर आक्रमण स्वयं राजर्षि विश्वामित्रक अयोजन छल तँ की मंत्राक्ष ठीक कहैत छथि ...?
...दुनू जन समान थिक ? आर्य आ अनार्य समान ? आ ई समानताक आधिकार राजाकें देव' पड़तैक ? विद्थक इछाक विरुद्ध ? तें की राजा विदथसँ ऊपर अछि ? पैघ अछि ? सर्वोपरि ?...
...राजा निरंकुश भ' जायत ? भूमि देवक थिकै, आ ओ देवक प्रतिनिधि थिक ? भूमि, देव-प्रतिनिधिक ? वैह देव इछासँ वितरित करत ? एकमात्र वैह ?...मंत्राक्ष की कर' चाहैत छथि ? की? सुदूर पश्चिमोत्तरमे एहिना होइत अछि ?...मुदा ई तँ ब्रह्मर्षि देश थिक ! एतय कोन ई संभव अछि ? अछि संभव?...
...नग्नजितक बधक पश्चात् की भेल छल । किछु जनक आकृति उत्तेजित कियैक भ' गेल? अराजकताक सम्भावना कियैक भ' आयल छल ?
आटव्यक व्यवस्था कतेक विलक्षण छल ? केहन शान्त भ' गेल? तँ की शान्ति लेल सैन्य प्रयोजनीय ? कहां अद्भुत बात थिक । केहन अकल्पनीय प्रथ…।
...की ई प्रथा आवश्यक अछि ? मंत्राक्षक बात सत्य थिक ? समान न्याय प्रयोजन थिक ? समस्त विशःजनकें समानं अधिकार चाही? आर्य अनार्य दुनुकें कृषि अधिकार,अनिवार्य अछि ?...
राजा असंगाक मानसमे प्रश्नक जटिल वात्याचक्र उठि गेल छल ।
झंझावात चलि रहल छल । ओहिमे ओ उड़िया रहल छलाह ।
अग्निकुंड,समिधाक अभावमे मंद पड़ी रहल छल तकर ध्यान नहि रहल । प्रशाल-प्रांगणक दास-रंजनक कार्यक्रम समाप्त भ' गेल छल-तकर ध्यान नहि रहल । रात्रि अधिक भ' गेल-तकर ध्यान नहि रहल । शीतप्रकोप बढि गेल-तकर ध्यान नहि रहल।
किछु ध्यान नहि रहल। ओ असमंजसे में उठलाह ।
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