जेठ मास का गीत
हेठ बरखा जेठ हे सखि हेठ बरखा–कितनी दूर से स्मृति मे
आ रहे हैं
इस प्राचीन बारहमासे के और भी प्राचीन शब्द…लोक-शब्द
लेकिन मैं किस जगह हूं
जेठ की इस अग्नि-धूसर दोपहरी में
इस वृद्ध जर्जर पाकड-वृक्ष की छांह में क्यों अटका हूं मैं
जेठ हे सखि हेठ बरखा….लेकिन
अब कभी हेठ नहीं होगी, अब कभी नहीं
होगी बरखा
धरती का फटा हृदय
फटा ही रह जाएगा और उस गांव में अब कोई नहीं लेगा
मेरा नाम, कोई नहीं पूछेगी कोनटे के पास
खडी होकर
कबतक आएंगे फूलबाबू
कबतक शुरू होगा फिर से डाकबंगले पर शतरंज का खेल
कबतक…..
लेकिन अब कोई नहीं पूछेगा इस अग्नि-जर्जर
दोपहरी में मेरे हालचाल
धरती का फटा हृदय नहीं जुडाएगा अब कभी।
मुझसे कितना ज्येष्ठ कितना अनुभवी,
कितना ही चतुर-चालाक है
यह जेठ मास
और, मैं कितना तुच्छ कितना छुद्र कितना आन्हर-बताह
कि आषाढ-सावन की प्रतीक्षा
नहीं है मुझे
मुझमें नहीं है इतना भी आन्तरिक आग्रह कि
हेठ हो बरखा
कि तुम कुएं पर तुलसी-गाछ के समीप आकर खडी होओ
मेरे लिए, कि बीत जाए
यह चतुर-चालाक जेठ और बरखा
ऋतु आरंभ होने के उपरान्त
हम गांव लौट आएं।
ऐसा कोई आग्रह नहीं है मुझमें अब
सारे आग्रह स्वप्न व्यथा-कथाएं शेष हुईं।
अब मैं हूं और यह पाकड-वृक्ष है
और कुछ भी नहीं है कहीं नहीं कभी नहीं
किसी भी तरह कोई नहीं
कोई नहीं अभी मेरे लिए
मैं हूं और यह पाकड-वृक्ष है मृत मलिन उन्मन
मेरी तरह।
आ रहे हैं
इस प्राचीन बारहमासे के और भी प्राचीन शब्द…लोक-शब्द
लेकिन मैं किस जगह हूं
जेठ की इस अग्नि-धूसर दोपहरी में
इस वृद्ध जर्जर पाकड-वृक्ष की छांह में क्यों अटका हूं मैं
जेठ हे सखि हेठ बरखा….लेकिन
अब कभी हेठ नहीं होगी, अब कभी नहीं
होगी बरखा
धरती का फटा हृदय
फटा ही रह जाएगा और उस गांव में अब कोई नहीं लेगा
मेरा नाम, कोई नहीं पूछेगी कोनटे के पास
खडी होकर
कबतक आएंगे फूलबाबू
कबतक शुरू होगा फिर से डाकबंगले पर शतरंज का खेल
कबतक…..
लेकिन अब कोई नहीं पूछेगा इस अग्नि-जर्जर
दोपहरी में मेरे हालचाल
धरती का फटा हृदय नहीं जुडाएगा अब कभी।
मुझसे कितना ज्येष्ठ कितना अनुभवी,
कितना ही चतुर-चालाक है
यह जेठ मास
और, मैं कितना तुच्छ कितना छुद्र कितना आन्हर-बताह
कि आषाढ-सावन की प्रतीक्षा
नहीं है मुझे
मुझमें नहीं है इतना भी आन्तरिक आग्रह कि
हेठ हो बरखा
कि तुम कुएं पर तुलसी-गाछ के समीप आकर खडी होओ
मेरे लिए, कि बीत जाए
यह चतुर-चालाक जेठ और बरखा
ऋतु आरंभ होने के उपरान्त
हम गांव लौट आएं।
ऐसा कोई आग्रह नहीं है मुझमें अब
सारे आग्रह स्वप्न व्यथा-कथाएं शेष हुईं।
अब मैं हूं और यह पाकड-वृक्ष है
और कुछ भी नहीं है कहीं नहीं कभी नहीं
किसी भी तरह कोई नहीं
कोई नहीं अभी मेरे लिए
मैं हूं और यह पाकड-वृक्ष है मृत मलिन उन्मन
मेरी तरह।