चतुर्थ मण्डल
राजकुमार असंगक अभिषेकक प्रारम्भिक विधि-विधान संपन्न भ' गेल छलनि ।
अभिषेक कार्य प्रारंभ होयबासँ पूर्वहि राजहर्म्य प्रशालसँ बाहर प्रांगणमे नव बनल पर्णकुटीमे अभिषेक यज्ञ समाप्त भ' गेल छल । ब्रह्माक पद स्वीकार कयने छलाह आगत महर्षि अरिष्टनेमि ।
आगत महर्षिगण तथा ऋषिग्रामक समस्त ऋषि,महर्षि अपन आसन पर विराजमान छलाह । दोसर दिस जन्पदक ग्रामणी, रथकार, कर्म्मार, सूत तथा सेनानी, जिनका तीन दिन पूर्वहि धेनु,अज,मेष तथा आन द' क' प्रथानुसार सहयोग अनुमति ल' लेल गेल छल ,बैसल छलाह ।
ई राजकृतः लोकनि अपन सहमति स्वरुप वृक्ष-पल्लव,जकरा पर्ण कहल जाइत अछि राजदरबारमे सभ सभी लोकनिक तथा समितेय लोकनि-समक्ष राजाकें नियमानुसार द' देने छलाह ।
बीचक रिक्त स्थानमे विभिन्न ब्रह्मचारी बटुकगण जनपदक विशिष्ट मधवन ग्रामंचलक गोपाल,अजपाल,मेषपाल,शिल्पी तथा वृद्धजन बैसि गेल छथि ।
एक दिस बीचमे एक पैघ सन काष्ठ आसंदी पर एकटा छोट सन काष्ठ सिंघासन राखल अछि ।
सभक आकृति पर एक प्रतीक्षा भाव अछि ।
एही बीच लोक देखलनि जे राजपुरोहित आंगिरस महर्षि ऋतूर्वितक संग राजकुमार असंग हर्म्यक अंतःपुरसँ अयलाह आओर आसंदी लग ठाढ़ भ' गेलाह ।
पाँछा -पाँछा शाश्वती आ ऋजिश्वा सेहो छलि जे वृद्ध राजमाताकें पकड़ने छलि-आयलि आ अपन नियत आसन पर बैसि गेलि |
राजपुरोहित विभिन्न जलाशय,कूप तथा सरस्वतीक जलसँ भरल कलशसँ आम्र-पल्लवसँ जल ल' क' ठाढ़ राजकुमारकें अभिसिक्त करैत कहलनि-'हे राजन ! समस्त विशः अपनेक वरण करैत अछि ... अपने ध्रुव रूपमे हमरा बीच स्थित रही तथा समस्त जन द्वारा मानी भ' जाइ ।'
'अपनेक निरंतर उत्कर्ष हो । राज वरुण,देवराज इंद्र,देवाधिदेव वैश्वानर तथा मित्र नासत्यो आदि देव अपने पर कृपा करथि,आशीष आ शक्ति देथि ।'
तत्पश्चात राज असंग ओहि आसंदी पर पड़ल मृगचर्म पर ठाढ़ भेलाह तथा दृष्टि नमित क' पृथ्वीसँ अनुमति लैल बजलाह-'हे पृथ्वी ! अहाँ हमर जननी छी, अहाँकें हम कहियो कष्ट नहि दी, अहाँसँ सदैव सुख प्राप्त करी ।' एकर बाद ओ चारू भर ताकि क' कहलनि -'हे पर्ण ! (स्वीकृति प्रतीक वृक्ष शाखा ) हे राजकृतः जे एखन चारू दिस उपस्थित छथि,हमर सहायता करथि ।'
ओकरा बाद प्रधान पुरोहित महर्षि ऋतुर्वित राजाकें उष्णीश (पगरी) देलनि तथा मस्तक पर किरीट धारण करबौलनि ।
प्रधान सेनानी आटव्य आबि एक गोट असि तथा एकटा धनुष तथा तुणीर प्रदान कयलनि जाहिमे तीन तीर छलैक । राज ओकरा धारण कयलानि ।
तत्पश्चात प्रधान पुरोहित लगमे राखल एक दण्ड कें उठौलनि आ राजाक पीठ पर कने-कने आघात कयलनि तथा आसंदी पर राखल सिंहासन पर बैसि गेलाह ।
प्रधान पुरोहित वृद्ध राजसत्ताक हाथसँ दधि पात्र ल'क' राजकें तिलक लगौलनि आओर आबि क' महर्षि पंक्तिमे अपना स्थान पर बैसि गेलाह।
राजा असंग ठाढ़ भेलाह, ओ कहलनि -'हम राजा कुरुजनपदक अन्तरभू: तथा स्वजन छी । हे देवराज वरुण आओर इंद्र ! समस्त जनपद अनुकूल रहथि, हम सभक रक्षा करी तथा समस्त सभी एवं सामितेय हमर रक्षा करथि । हम प्रतिज्ञा करैत छी, जँ कहियो विशः सँ द्रोह करी तँ अपन जीवन,सुकृत्य तथा संतानदिसँ वंचित कायल जाइ ।'
राज असंग पुनः सिंहासन पर बैसि गेलाह।
प्रधान पुरोहित महर्षि ऋतुर्वित अपन आसनसँ उठि क' घोषणा कयलनि-'आइसँ राजा असंग कुरु जनपदक मान्य नेता भेलाह, भूमिक स्वामी नहियो होइत, समस्त जनपदसँ बलि (उपहार) लेबाक अधिकारी भेलाह । आइसँ सम्पूर्ण विशः जनक रक्षार्थ राज असंग छत्र धारण करैत छथि । महादेव वरुण,इंद्र ,मित्र,वैश्वानर तथा समस्त देवलोक हिनक रक्षा करथि, हिनका पर कृपा राखथि, हिनका शक्ति देथनु,हिनका सप्त सैन्धवक समस्त आगत महर्षि वरेण्य लोकनिक तथा सरस्वती तटक ऋषि महर्षि लोकनिक आशीर्वाद प्राप्त छनि ।'
महर्षि ऋतुर्वित अपन आसन ग्रहण कयलनि ।
आगाँमे बैसल ब्रह्मचारी बटुकगण उठलाह आओर पंक्तिबद्ध भ' क' हस्तसंचालनक संग, एकहि सुरताल-लय सामगान प्रस्तुत कर'लगलाह-
'पृथ्वी जे पूर्व कालमे समुद्रमे जल रूपमे छल, आओर जाकर ऋषि लोकनि अपन अद्भुत शक्तिसँ बाहर कयलनि ।
'पृथ्वी,जकरा अश्विनी कुमार लोकनि नपने छलाह और जाकर विष्णु (सूर्य)तथा इंद्रा रिपुहीन कयने छलाह । हमर छथि ।
आइ हमरा लोकनि सम्राट वरुणक स्तुति करी, जे पृथ्वीकें ,सूतक लेल मृगचर्म जकाँ ओछा देने छलाह । हे वरुणदेव ! हमरा पर कृपा करु।'
किशोर ब्रह्मचारी बटुक लोकनिक मुखसँ निसृत साम-गानक मन्त्र,वातावरणकें अति भव्य बना रहल छल । गीतक ले-ताल-सुर समस्त उपस्थितिक मनकें संगीतमय बना रहल छल ।
सभ मग्न-भावसँ देखि-सुनि रहल छलाह ।
राज असंग बीच बीचमें अति गंभीर भावसँ वृद्ध राजमाता लग बैसली ऋजिश्वा आओर शाश्वतीकें देखि लैत छलाह ।
शाश्वातीक गोरलावण्यमय मुखमंडल दमकि रहल छल । हुनक नील नेत्र चमकि रहल छलनि । यद्यपि ओ कम्बल ओढने छलीह,तथापि असंग अपन कल्पनाक आँखिसँ हुनक सौन्दर्यक वैभवकें देखि रहल छलाह, हुनक युवा देहक एक-एक मृदुल प्रवाहमें डूबि जकाँ रहल छलाह । पुलकित भ' रहल छलाह । पुलकित भ' रहल छलि सवयं शाश्वती सेहो । बीच-बीचमे राज असंगाक दृष्टि पकड़ी लेत छलि । आओर काँपि उठैत छलि । धड़कन तीव्र भ' उठैत छलनि । राजा असंग दिव्य लागि रहल छलाह । उच्चाकार शरीर, गोर श्मश्रुहीन गोल मुख-मंडल,किरीट आओर कुण्डल । । सुपुष्ट आओर स्वस्थ युवा वक्षस्थल, बलिष्ट भुजा,स्कंध्मे धनुष आओर तुणीर,कटिक चरम-खोलमे असि । मृगचर्म । हुनका स्मरण आबि रहल छलनि प्रातःकालक ओ याचना भरल निरीह दृष्टि जाहिमे गहीर ममत्व छलैक । असीम अपनत्व छलैक । प्रातःकाल, अभिषेक पूर्व यज्ञ क्रियामे महर्षि लोकनि क्षणिक बाधा उपस्थित क' देने छलथिन जे एही अवसर पर राजसूय यज्ञ सेहो होयबाक चाही, यैह प्रथा, परंपरा अछि ।
-'भगवन ! असंग कहने छलाह-हम बहुत चेष्टा कयलहुँ अग्रज वीतिहोत्र कतहु नहि भेटलाह,हमर संधान कार्य चलि रहल अछि, स्वयं शोमश्व मंत्राक्ष बहरायल छथि, हुनक आबि गेला पर हम निश्चित रूपसँ राजसूय करब… एकरा अतिरिक्त राजसूयमे एक बाधा आओर अछि ....।'
ई कहिक'ओ महर्षि लोकनिक दिस भेद भरल दृष्टिसँ देखने छलाह ।
महर्षि ऋतुर्वित बुझि गेल छलाह, ओ कहने छलाह चारू दिस ताकि क'-'महर्षि वरेण्य ! अपने लोकनिकें ज्ञात होयत जे राजकुमार असंगे नहि, निष्काषित राज वीतिहोत्र सेहो अविवाहिते छथि । जँ मंत्राक्ष एसगरो घुमि अबैत छथि तँ राजकुमारक विवाह संपन्न करा देल जायत । तखनहि ने राजसूय यज्ञक अधिकारी होयताह ? यजमान पत्नीक अभावमे राजसूय यज्ञ संभवो तँ नहि अछि ?
-'कोना विवाह होयत?'
-ब्रह्मविवाह महर्षि वरेण्य,एम्हर यैह प्रथा चल' लागल अछि ।'
-'वधू निश्चित छथि ? बात निश्चित अछि ?'
महर्षि क्षणकाल लेल असमंजसमें पड़ी गेलाह । बात निश्चित नहि छल ।
तखनहि राजकुमार असंग अत्यंत याचना भरल दृष्टिसँ शाश्वती दिस देखने छलाह । दुनूक मिलल छल । हुनक दृष्टि झुकी गेलि ,श्वास तीव्र भ' उठल छल । ओ काँपि उठल छलि ।
महर्षि ऋतुर्वित सेहो देखने छलाह राजकुमार असंगकें शाश्वती दिस तकैत । हुनका मन में हठात एकता बात सहसा आबिक' रुकी गेल । बाजल छलाह -'निश्चिते भुझबाक चाही महर्षिवरेण्य आगत महर्षिलोकनि सेहो एही दृष्टि विनिमयकें देखने छलाह । सभ बुझी गेलाह । महर्षि अरिष्टनेमि हँसैत कहनो छलाह-'तँ इहो भ' जाय हमरालोकनि आब आशिर्वादे द' क' जायब… भगवती शाश्वती सदा सौभाग्यवती रहतीह ।'
आओर अति प्रसन्न भावसँ अभिषेक यज्ञ संपन्न भेल छल ।
शाश्वती तखनहिसँ सोचैत छलि जे ई सब की भ' रहल अछि । कोन भ' गेल सब? की निश्चिते बुझबाक चाही ? महर्षिक की आशय?
ओ बेर बेर काँपि उठैत छलि ।
किएक हुनक भौजी धारिणी प्रति प्रातः देरीसँ उठैत छथि ? किएक थाकल-थाकल लागैत छथि ? किएक एतेक प्रसन्न रहैत छथि ? की थिक ई ?
ऋजिश्वा कानमें कहलनि-'देखू राज असंग कतेक पौरुषमय लगैत छथि ।'
शाश्वती हुनका हल्लुके धकेली देलनि आ दृष्टि झुका लेलनि ।
ब्रह्मचारी बटुक लोकनिक साम-गान चलि रहल छल -
' जे जन्म लैते अपने बुद्धि आओर बल सँ सब देवता लोकनि में सर्वोपरि भ' गेलाह,जनिका प्रभुता आओर पौरुषसँ सभ काँपैत अछि ;वैह हमर इंद्र छथि ।
हमर तँ मात्र एक देव छथि : ओ छथि अग्निदेव । वैह पुरोहित, ऋत्विक,होता, उद्गाता छथि ।
हे अग्निदेव।
हमर मन, वाचन,कर्म सभ अपन अहाँक ज्वालामे उज्जवल भ' उठय ।'
एकरा पाश्चात बटुक सभ परम्परानुकूल दान-स्तुतिक गायन कयलक-
भूख
भूखकें देवतागण, निर्धनकें मारबाक लेल नहि बनौलनि अछि ।
संपन्न जानो तँ मरिते अछि
सत्य अछि जे दानवीरक कोष कहिओ खाली नहि होइछ
कृपण पर ककरो दया नहि होइछ
वास्तविक दानवीर ओ थिक जे
क्षुधित सभक चिंता करैत अछि
आ अपन भूख बिसरी जाइत अछि
निर्धनक सहायता करैत अछि
एकसरेमे खायबलाक लेल
रोटी सद्यः विष थिक ।'
ई ह'र !
जे धरती पर चलैत अछि , अवश्यमे रोटी आनत
जे चरण कहिओ थाकैत नहि अछि अवश्य अपन गंतव्य धरि पहुँचत ।
शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!! ऋग्वेद अनुवाद !
ब्रह्मचारी बटुकलोकनि गायन समाप्त क' अपन स्थान बार बैसि गेल।
वशिष्ठ ऋषि भासुर उठलाह आ पाकशाला दिस चलि गेलाह। आब बैसलासँ काज नहि चलत । अभिषेकक कार्य समाप्त भेल । आब फलाहार कृत्य चलत, फेर प्रथम न्याय कार्य होयत आ तकरा बादे सहभोज । निश्चित समय धरि प्रिषद प्रस्तुत भ' जयबाक चाहि ।
ओ पाकशालामें प्रवेश करबासँ पूर्वे भगवान् सविता दिस तकलनि । किछुए क्षणमे मध्याह्न भ' जायत । फलाहार कृत्यक पश्चात् सभक्यो अप-अपन स्थान पर बैसलाह । राज असंग पुनः राज सिंहासन पर आसीन भेलाह। प्रधान सूत ऋषि भाव्य उठलाह, चारुकात देखलनि,एक बेर सिंहासन दिस ताकि क' दृष्टि नमित कयलनि, आ बजलाह -'राजाक जय हो, विजय हो, राज ध्रुव रूप में प्रतिष्ठित होथि, सर्वमान्य होथि, समस्त विशः केर रक्षा करथि आ न्यायपूर्वक अचल शासन करथि । समस्त जन सुख-सम्पदासँ भरि जाथि,शत्रु सभक नाश करथि ।
वरुणदेव, सरस्वती तथा सरोवर सभकें पूर्ण राखथि । देव सविता धरित्रीमे अन्न देथि \ देवराज इंद्र शत्रुसभक नाश करथि । देव पूषण धेनु में दुग्ध आ अश्वमें गति तथा पशु में विकास देथि । देव वैश्वानर कल्याण करथि \ अश्विन यौवन तथा शक्ति देथि । द्यावा,चिर सम्पदा देथि । उषा माधुर्य देथि \ महार्शिगण आशीष देथि । गुरुजन श्रुति देथि । राज रक्षक होथि । जन,कर्मण्य होथि । जय हो । विजय हो ।
अति प्राचीन काल में श्रृष्टि जलमय छल । देवतालोकनि पृथिवीकें बाहर केलनि, ऋषिलोकनि आवास-योग्य बनौलनि आ हमरा सभक पूर्वज,एक सुविशाल जलाशय (कश्यप सागर) क निकट अपन पशु सभक रक्षा करैत,सुखपूर्वक रहय लगलाह । हमरा सभक पूर्वज, अति प्राचीन कालमे, सुखपूर्वक, साम गान गबैत रहे लगलाह आ पशु सभक लेल परस्पर युद्ध करय लगलाह । कालांतरमें ओ सभ विभिन्न दिशामे चललाह।
हमरा सभक पूर्वज बहुत दिन धरि असुर, पार्शव तथा भद्र सभक संग रहलाह । किन्तु कालांतरमे बहुत दिन धरि परस्पर युद्ध करैत रहलाह परप्सपर वैमनस्य कारणे ।
अति प्राचीन कालमे राज नहि होइत छल तखन स्वयं देवराज इंद्र राजाक पद स्वीकार कयलनि ।
देवराज इंद्र आ वरुणक कृपासँ भारतलोकनिक त्रित्सु नेता राजा दिवोदास पक्थ,पणि तथा दस्युराज शम्बरकें पराजित कयलनि । ऋषिलोकनि प्रसन्न भ' क' हुनक आशीष देलनि।
ओहि दिवोदासक पुत्र,राजा सुदामा, महान प्रतापी भेलाह जे भरत,त्रित्सु , तथा सृंजय सभक संगठन कयलनि आ पुरु सभकें पराजित कयलनि । कालांतर में सभ एक भ' क' कुरुजन कहाबय लगलाह
राजा सुदास गधिराजक पुत्र महर्षि विश्वमित्रक स्थान पर महर्षि वशिष्ठकें अपन प्रधान पुरोहित बनौलनि आ परुष्णीक तट पर दशराज्ञ युद्धमे विजयी भेलाह । ओहि महायुद्धमें, आर्य पंचजनाः अर्थात यदु अनु,द्रुह्यु,तुर्वश तथा पुरुक संग, अनार्य अलिन,पक्थ,भलानस,विषाण तथा शिवि देने छल । किन्तु महान सुदासे विजयी भेलाह । विजयी राज सुदास कालांतरमे अनार्य दस्युसभकें पराजित कयलनि आ अपन कीर्ति-पताका सप्त सैन्धव में फहरौलनि । एहि आक्रमणसँ अनेक दास-दासी,धेनु तथा भूमि प्राप्त भेल जे समस्त जनमे वितरित भेल । जनपद सुखी आ संपन्न भेल तथा एही सरस्वती तटकें उर्वर बनौलनि ।
ओहि समय यदुजन दक्षिण दिस तथा तुर्वशजन पश्चिमोत्तर दिस चलि गेल | राजा सुदासक वंशमे एक महान प्रतापी राज भेलाह, साहदेव्य सोमक जे बहुत पैघ दानी तथा जनरक्षक भेलाह। हुनके प्रपौत्र भेलाह विशःरक्षक महान यशस्वी राजा अतिधृति ।
राजा सुदासक वंशमे एक महान प्रतापी राज भेलाह, साहदेव्य सोमक जे बहुत पैघ दानी तथा जनरक्षक भेलाह। हुनके प्रपौत्र भेलाह विशःरक्षक महान यशस्वी राजा अतिधृति । महान राजा अतिधृति कृषि विकास पर अत्यधिक ध्यान देलनि आ तकरा लेल जनपदमे अनेक जलाशयक निर्माण करैत सरस्वती आ शतुद्रि नदीकें नहरिक द्वारा एक कए दलनि । कुरु जनपद सुरक्षितो भेल आ संपन्न सेहो। सर्वत्र राजा अतिधृतिक गुणगान होमय लागल । वैह सर्वप्रथम दृषद्वती नदीक तटपर आर्य तथा दास सभकें बसौलनि आ एहि प्रकारें जनपदक लेल भूमिक विस्तार कयलनि।'एक क्षणक लेल सूत ऋषि भाव्य चुप भेलाह ।
समस्त उपस्थिति बहुत मनोयोगसँ अपन पूर्वजलोकनिक आख्यान सुनी रहल छल । आगत महर्षिगण बीचमे स्वीकृतिमे माथ डोला रहल छलाह ।
सूत ऋषि आगाँ कहलनि -'वृद्ध राजा अतिधृतिकबहुत इच्छा रहनि यमुना तटक अनार्य सभकें दास बनयबाक । एहि बीच देवाधिदेव वैश्वानर हुनका अपन शरणमे ल' लेलथिन । समस्त विशः शोक संतप्त भ' गेल ।
किन्तु ओ अपन जनपदक सेवा करबाक लेल दूटा पुत्र रत्न देलनि । प्रथम वीतिहोत्र,जनिक विधिवत अभिषेक भेलनि तिन्तु धेनु हरण भेल पर ओ गविश्ठी युद्ध नहि कयलनि, तें सभ्य एवं समितेय राज्यच्युति तथा निष्कासनक आज्ञा द' देलक । ओ निष्क्रमण भ' गेलाह आ कोनो गुप्त स्थान पर वास क' रहल छथि । देव वरुण हुनका प्रसन्न राखथि । ओहि महान यशस्वी राजन अतिधृतिक द्वितीय तान्वपुत्र, महान योद्धा तथा पराक्रमी राजकुमार असंग,सर्वसम्मतिसँ कुरु जनपदक नेता निर्वाचित भेलाह तथा एखन राजाक रूपमे हिनक शुभ अभिषेक संपन्न भेलनि। महान राजा असंग,अपन महान पूर्वजलोकनिक अपूर्ण आकांक्षाक पूर्ती करैत समस्त विष केर रक्षा करताह तथा न्यायार्थ दंड धारण करताह ।
प्रथानुसार हम पूर्व कथा प्रस्तुत कायल अछि, हमरा सभक समस्त शुभकामना, महान राजाक लेल तथा कुरु जनपदक लेल समर्पित अछि ।'
सूत ऋषि भाव्यक अपन नियत स्थान पर बैसलाक पश्चात राजा स्वयं उठलाह ।
राजा असंग, कौशेय पीताम्बरक अधोवस्त्र,कौशेय ऊपरिवस्त्र,कौशेय उष्णीष पर किरीट तथा कुंडलमे अति भव्य, अति दिव्य लागि रहल छलाह ।
गंभीर स्वर में बजलाह-'आगत अतिथि महर्षि वरेण्य सभक आशीष प्रकाशमे तथा अभ्यागत ऋषि महर्षि लोकनिक एवं सभी समितेय सभक मंगल भावनाक पवित्रतामे अभिषेक कृत्य संपन्न भेल । हम कृतार्थ भेलहुँ । सप्त सैन्धवक महान महर्षि वरेण्यक शुभागमनसँ सरस्वती तट धन्य भेल तथा कुरु जनपद हुनक आशीर्वाद पाबि अनुगृहीत भेल। हम पुनः पुनः सभक अभिनन्दन करैत छी तथा कृतज्ञता ज्ञापित करैत छी । आब, ईशान (वयोवृद्ध सभापति )अपन कार्यारम्भ क' सकैत छथि । ईशान उठलाह,कहलनि -'प्रथानुसार एहि अवसर पर न्याय कार्य संपन्न होइत अछि , जाहिसँ राजाक न्याय बुद्धिक परीक्षा होइत अछि, प्रस्तुत अछि वादी आ प्रतिवादी ।'
ओ संकेत कयलानि ।
एकटा व्यक्ति उठल आ बाजल-'राजन ! एकटा न्याय याचना अछि ...।'
-'प्रस्तुत करु।' राजा गंभीर स्वरमे आज्ञा देलनि ।
-'राजन! ओ कहलक-हमरा आवास गृहक निकट जे भूमि अछि ,ओहि पर हम कृषि-कार्य कराय चाहैत छी ...।'
-'करू-राजा कहलनि-आर्यजन तँ आब कतहु कृषि कार्य क' सकैत छथि ।'
-'किन्तु राजन, ओतय बाधो अछि आ विपत्तियों ।'
-'स्पष्ट करू।'
-'ई -ओ संकेत करैत कहलक- नहि कराय दैत छथि ।'
-'कारण?' राजा प्रतिवादी दिस तकलनि । '
ओ ठाढ़ भS गेल, बाजल -'राजन ओ भूमि हाम्रो गृहक निकट पड़ैत अछि ...।'
-'पड़ी सकैत अछि , किन्तु अहाँक स्वामित्व तँ मात्र गृह पर अछि -राजा कहलनि -भूमि पर तँ ककरो स्वामित्व नहि होइत अछि ,जेना वायु पर तथा सरस्वतीक जल पर ककरो स्वामित्व नहि होइत अछि, तहिना भूमियोक क्यो स्वामी नहि होइत अछि, जे ओकर उपयोग करैत अछि , ओकरे होइत अछि , यैह तँ मान्यता अछि आर्य जनक…।
ओ प्रधान पुरोहित दिस देखलनि ।
ओ उठलाह आ बजलाह -' राजन उचित कहलनि । भूमि तँ देवताक होइत अछि, वैह अपन कृपा स्वरुप ओहि कर्मण्यक प्रदान करैत छ्ठी जे ओहि पर कृषि कार्य करैत छथि।महर्षि ऋतुर्वित बैसि गेलाह।
राजा वृद्ध ईशान दिस देखलनि -'वृद्ध ईशान ?'
ओ उठलाह आ कहलनि -'राजन! प्रधान पुरोहित उचिते कहलनि अछि । भूमि व्यक्तिगत नहि होइत अछि ओ तँ सार्वजनिक उपयोगे लेल अछि, जे देवता दिससँ कृपा रूपमे प्राप्त होइत अछि । यैह परंपरा अछि ।'
ओ बैसि रहलाह ।
राजा विनीत भावसँ एहिबेर स्वयं उठलाह आ कहलनि -ई सौभाग्यक विषय थिक जे एही प्रथम न्यायक अवसर पर सप्त-सैन्धावक वरेण्य महर्षिगण उपस्थित छथि, हम सभ हुनक विचार सुनि कृतार्थ होयब।' आजुक दैव यज्ञक ब्रह्म,वयोवृद्ध सुवास्तु तटवासी महर्षि श्रेष्ठ अरिष्टनेमि उठिक' कहलनि -'भूमि व्यक्तिगत नहि होइत अछि ,वर्षा आ प्रकाशक भांति सभक होइत अछि जे ओकर उपयोग करैत अछि । भूमिक स्वामी,पृथ्वी परक राजा सेहो नहि होइत छथि, ओकर स्वामी छथि सम्राट वरुणदेव । एहि व्यवस्थासँ देवगण प्रसन्न रहैत छथि । ब्रह्मर्षि देशक समस्त आर्यजनमे यैह मान्यता अछि,यैह प्रथा परंपरा अछि ।' महर्षि बैसि गेलाह।
राजा असंगो बैसि गेलाह आ प्रतिवादीसँ पूछलनि -'अहाँ एहि तथ्यसँ परिचित छी ?'
-'परिचित छी आ मान्यो अछि ।'
-'तखन बाधा देबाक कारण ?'
-'राजन ! बहुत पूर्वसँ हम ओहि पर कृषि कार्य-करैत आबि रहल छी ,हमर पूर्वज ओहिपर कृषि करैत छलाह,किन्तु एहि धेनुहरणमे हमरो वृषभ हरि लेल गेल आ हमर दासी मरि गेल… हम वृषभ आ दासक व्यवस्थामे छी । किन्तु जाधरि ई व्यवस्था नहि भ' जाइत अछि ,गृहक स्त्री लोकनि ओहिपर कन्द-मूल लगबैत छथि ओ सभ तँ अनार्य दास-दासीक संग दूर कृषि-अंचलमे कंद-मूल लगाबय नहि जा सकैत छथि ...तें ओहि भूमि पर गृह-स्त्रीक लोभ अछि राजन ....।' ओ अति दीनभावसँ कहलक । सभकें सहानुभूति भ' आयल।
-'की ई सत्य अछि ?' राजा वादीसँ पुछलनि ।
-सत्य अछि राजन '।
-'अहाँ लग वृषभ आ दास दुनू अछि ?'
-'अछि राजन।'
-'हिनका संग धेनुहरणक विशेष परिस्थिति छनि, मानवियताक दृष्टिसँ सेहो अहाँकें कृषि कार्यक लेल कृषि अंचले जयबाक चाही, भूमिक तँ अभाव अछिए नहि । ई निश्चित रहल।'
-'निश्चित रहल राजन।'-'अहाँ प्रारंभमे विपत्तिक बात कहने छलहुँ ।'
-'राजन। हिनक तान्व ओहिदिन युद्धक लेल ललकारने छल ...?'
-'ई सत्य थिक ?'
-'सत्य थिक राजन… हमहुँ सुनलहुँ,हम ओहि समय आखेटमे गेल छलहुँ ...किन्तु राजन ! ओ एखन किशोर अछि । किछु उद्धतो अछि ,हम एकरा लेल क्षमाप्रार्थी छी ,फेर कहियो एना नहि होयत ।'
-'जनपदमे परस्पर वैमनस्य नहि हेबाक चाही,ई ध्यान रहय । आ एक-दोसरक सुविधा असुविधा देखब कर्तव्य थिक ।'
सब धन्य-धन्य कहि उठल । ईशान प्रसन्न छलाह ।
ओ दुनु संतुष्ट भ' गेलाह ।
राजा चारुकात देखि क' कहे लगलाह-'विदथ वरिष्ठ अछि, ओकर इच्छा अनतिलंध्य अछि । एकरे इच्छानुकूल हमर अभिषेक भेल अछि आ ओकरे इच्छासँ राजा वितिहोत्रक निष्कासन भेलनि अछि । किन्तु हम विदथकें सूचित कराय चाहैत छी जे राजा वीतिहोत्र सर्वथा निर्दोष छलाह । -'निर्दोष ?-एकटा सामितेय उठिक' पुछलनि कोना? जनपदक धेनुहरण भेल,गविश्ठी युद्ध द्वारा शत्रु पर आक्रमण करब.ओकरा पराजित करब तथा दण्ड देब अति आवश्यक छल यैह हमर आर्य परम्परा थिक । किन्तु राजा वीतिहोत्र एहिसँ विमुख रहि गेलाह । ओ आर्य परम्पराकें तोड़िक' जनपद कें कलंकित कयलनि,फेर ओ निर्दोष कोन भेलाह।'
-'एहिमे एकटा षडयंत्र अछि ।'
-'षडयंत्र कहां?'
-'धेनुहरण एकटा आर्य ग्रामीणक आज्ञासँ भेल छलै,अपितु धेनुहरणक लेल एकटा दासकें बाध्य कायल गेल छल .... ।'
राजा असंग एकबेर ग्रामीण नग्नजित दिस देखलनि ।
नग्नजित चंचल भ' उठल । -'आर्यक धेनुहरण होई आर्यक आज्ञासँ ,एहन त कहिओ नहि सुनल गेल,ओहो एकटा अनार्य दासक द्वारा?'
-'ओकरा दंड कियैक नहि देल गेल?' दोसर सभ्य पुछलनि । समस्त जनपदक लोक आश्चर्यचकित छल ।
-'ईहो एकटा रहस्य थिक जे प्रकट नहि भ' सकल । आ राजा वीतिहोत्र प्रकट नहि क' सकलाह आ निश्काषण आज्ञा मानिक' निष्क्रमण क' गेलाह ।'
-'जे हो, जखन षड्यंत्र प्रकट भ' गेल आ अपराधी ज्ञात भ' गेल तँ ओकरा अवश्ये दण्ड देबाक चाही ।'
सभ कहय लागल-'अपराधीकें दण्ड भेटय ।'
-'एकर प्रमाण ?' एकटा वृद्ध पुछलनि ।
राजा, प्रधान सेनानी आटव्य दिस देखलनि । आटव्य अपन एकटा सेनानी दिस तकलनि ।
तीनटा दास उपस्थित भेल । ओ सभटा बात अपन भाषामे कहलक । आब बहुत रास आर्यजन,बहुत किछु अनार्य भाषा बुझय लागल छथि ।
अपराधीकें छूबिक' देखयबा लेल कहल गेल। ओ सभ जाक' नग्नजातिकें छूबि लेलक ।
राजा अपन नग्न आसिक संग चलि रहल छलाह । जहिना ओ नग्नजातिकें छूबि के हँटल,राजा विद्युत गतिसँ अपन आसिसँ प्रहार कयलनि आ नग्नजातिक मस्तक भूलुंठित भ' गेल।
समस्त प्रशाल स्तंभित रहि गेल । आश्चर्यचकित ।
जा लोक किछु बुझितय ता सबकिछु समाप्त भ' गेल छल ।
एकटा दास राजाक असि धोबाक लेल चलि जा रहल छल ।
किछु दास मृत नाग्न्जातीकें हँटाबयमे तथा किछु ओहि स्थानकें साफ़ करबामे लागि गेल छल ।
लोक स्तब्ध रहि गेल । जेन सभक साँसे अटकि गेल हो । सभ किंकर्तव्यविमूढ़ भ' गेल । अवाक।
एही समय एकटा आरो घटना घटल ।
एहन ने आइधरि क्यो देखने छल आ ने सुनने छल ।
सभ चौंकि उठल । विस्मित रहि गेल।
की भ' रहल अछि ?एकदिस मृत नग्नजातिक स्वजन शोक रूदन क' रहल छल । लोक अवाक भेल एक-दोसराकें देखिए रहल छल की ओहि समय, किछु दास सैनिक प्रशालमे घेरिक' चारुकातसँ ठाढ़ भ' गेल । सभक हाथमे भाला छल ।
समस्त प्रशाल आतंकित भ' उठल । सभ क्षुब्ध भ' उठल ।
ई दोसर अकल्पनीय घटना छल । लोक चौंकि उठल । प्रधान सेनानी आटव्य बहुत सतर्कतासँ राज सिंहासनक पाछाँ ठाढ़ छलाह । महर्षिगण मूकदर्शक बनल बैसल छलाह ।
शास्वती आ ऋजिश्वा काँपि उठलि छलि ।
राजा असंग सिंहासन पर स्थिर भावसँ बैसल छलाह ।
दासराज युद्धक पश्चात राजा सुदासमे एकटा अद्भुत अपरिचित महत्वाकांक्षाक जन्म भेल रहनि एकराट राज्यक कल्पना । आ तेंओ भारत, त्रित्सु ,क्रिवि तथा सृंजय सभक संगठन कयलनि जे पुरुजनक संग मीलि,कुरु कहाबय लागल ।
ओहि समय धरि स्थायी सेनाक कोनो परंपरा नहि छल । ग्राम बसिक' उजडैत रहैत छल । आ दोसर ठाम बसैत रहैत छल । जनकेर जीवन सहजीवन छल । संग-संग रहैत छल, संग-संग युद्ध करैत छल । जननेता स्वयं प्रधान सेनानियों होइत छल ।
साहदेव्य सोमकक समय धरि स्थिति बदलि गेल छल । एक वर्ग श्रुतिकार्यमे लागि गेल, ओ युद्धसँ विमुख भ' गेल । दोसर वर्ग कृषिमे लागि गेल, ओकरा युद्धसँ उदासीनता होब' लागल। राजा अतिधृति एकरा गंभीरतासँ विचारलनि । ता बहुतरास दस्यु दास भ' गेल छल । ओ पुरान शत्रुता बिसरी,विश्वासपूर्वक आर्यक लेल कृषि आ शिल्पकार्य करय लागल छल । राजा अतिधृति ओहि दासमे सँ किछुकें स्थायी सैनिक बना लेलनि आ ओकरा सभकें जनपदक उत्तरी छोर पर शतुद्रिक दिशामे बसाक'स्वतंत्र रूपसँ कृषिक अधिकार द' देलनि । एहि समयधरि प्रधान सेनानिक पद निर्मित भ' गेल छल ।
प्रधान सेनानी ओकरा सभकें तीर-धनुषक व्यवहारमे निपुण बना देने छलाह ।
यैह दास भ' गेल राज सैनिक आ स्थायी सैनिक। आर्यजन स्थायी सैनिक नहि भ' सकैत छल ओ अस्थायी सैनिक बनल रहल आ पशुपालन तथा कृषिक संगहि समय पर युद्धों करैत छल । पाँछा किछु आर्योजन स्थायी सैनिकाक रूपमे रहे लागल किन्तु ई सभ रहित छल आर्येग्राममे ।
दास सैनिकक ग्रामकें सैनिक ग्राम कहल जाय लागल,जकरा अपना लेल गृह बनयबाक तथा कृषि करबाक अधिकार भेटि गेल छल ,शेष गृह-दासकें , आर्य ग्रामांचलमे ने तँ गृह बनयबाक अधिकार छल, ने स्वतंत्र रूपसँ कृषिये करबाक ।
पूर्वी नहरिक पूर्व तथा पश्चिमी नहरिक पश्चिममे जे दास रहैत अछि, तकरा एखनधरि दस्युग्रामे कहल जाइत अछि । ओकरा सभकें गृह बनयबाक अधिकार तँ छैक किन्तु कृषिक नहि । ओकरा आर्ये सभक लेल कृषि कार्य करय पड़ैत छैक । शिल्प सँ जे अन्न तथा पशुक आय होइत अछि , से ओकरा सभक व्यक्तिगत आय मानल जाइत अछि ।
सैनिक ग्रामक दास परिवारसँ , जकरा स्वतंत्र रूपसँ कृषि अधिकार अछि-प्रत्येक युवाकें स्थायी सैनिकक रूपमे अपन सेवा प्रदान करब आवश्यक छल ।
वृद्ध राजा अतिधृति अपन प्रधान सेनानी भार्गव बज्रधरक संग मिली एहन व्यवस्था कयने छलाह आ राज-शक्तिकें बढौने छलाह । भार्गव बज्रधर किछु सैनिको शिक्षाक व्यवस्था कयने छलाह,जाहि परम्पराक पालन हुनक पुत्र प्रधान सेनानी आटव्य सेहो कयलनि । ओ नियमित सैन्य-शिक्षाक प्रचलन कयलनि ।
प्रधान सेनानी आटव्य स्वयं अश्वारोहन, असिसंचालन तथा युद्धपरियोजनमे विख्यात छथि । हुनक युद्ध-कौशल अद्भुत छनि, स्वयं श्रेष्ठ योद्धा छथि, उच्चाकार स्वस्थ शरीर, मांसल भुज, परिपुष्ट वक्षस्थल । ओ गदा चालनोमे अति पटु छथि ।
आर्य सैनिक अश्वारोही अछि किन्तु अनार्य सैनिक मात्र पदाति । ओ अश्वसँ डरितों अछि आ घ्रिणो करैत अछि । ओकर सभक धारणा अछि जे येह अश्व ओकर पूर्वजसभक घातक शत्रु थिक ।
प्रधान सेनानी आटव्य वैह पदाति सैनिक अपन-अपन भाला लेने प्रशालमे चारुकात सँ घेरिक ठाढ़ भ' गेल छलै ।
ई सैनिक सभ एखनधरि, युद्धस्थले टा में देखल जाइत छल । जनस्थानमे विशेषतः आर्य ग्रामांचलक एहन अवसर पर नहि ।
एकरे सभकें एखन समस्त सभी तथा समितेय एवं ऋषि-महर्षिगण देखिकें चौंकि उठल छलाह । स्तंभित रहि गेल छलाह । अवाक रही गेल छलाह ।
राजा असंग बुझि गेलाह ।
नग्नजातिक मृत शरीर ओकर स्वजन लग पठबा देल गेल छल । ओ स्थान पवित्र क' देल गेल छल ।
प्रशालक वातावरण क्षणिक अस्तव्यस्तता तथा कौलाहलक पश्चात शांत भ' गेल छल ।
किन्तु सभ क्यों चकित छल । आतंकित ।
ई की थिक ? ई कहां नब प्रथा थिक ? राजा असंग अभिषेकक संगहि की कराय बला छथि आदि प्रश्न सभक माथमे घूमि रहल छल ।
वातावरणकें शांत तथा उपद्रवहीन जानिक' राजा असंग पाछाँ घूमिक' प्रधान सेनानी आटव्यकें संकेत कयलनि । आटव्य सैनिक सभकें संकेत कयलनि ।
ओ सभ प्रशालसँ बहराक' त्वरित गतिसँ चलि गेल।
प्रधान सेनानी आटव्य अपन स्थान पर आबि बैसि रहलाह ।
राजा उठिक' ठाढ़ भेलाह आ चारुकात स्थिर दृष्टिएँ ताकि बजलाह-'वरिष्ट विदथ तथा उपस्थित समस्त जनक इच्छा छल जे अपराधीकें दण्ड भेटय ... हम ओहि आज्ञाक पालन कयलहुँ आ अपराधीकें दण्ड भेटि गेल।'-'किन्तु अति आकस्मिकतामे आ सेहो सद्यः प्राणदंड ।'-नग्नजातिक एकटा वृद्ध स्वजन उठिक' किछु रुष्ट भावसँ कहलक।
-'माननीय वृद्ध सभ्य !राजा गंभीर भावसँ कहलनि -विदथक इच्छा छल आ हम तकर पालन कयलहुँ, फेर एहिमे आकस्मिकताक प्रश्ने की उठैत अछि ?
कखनो तँ एकर पालन हमरे करबाक छल .... मृत नाग्नजातिक तें एहुसँ एकटा महान अपराध अछि , जाकर सम्बन्ध हमरा सभक राष्ट्रीय अखंडतासँ अछि ...।
-'राष्ट्रीय अखंडतासँ? से की?' अनेक लोक प्रश्न केलक ।
-'हमरा सभक पूर्वज-राजा कहलनि -जाहिमे भारत,त्रित्सु ,सृंजय,क्रिवि तथा पुरु सभ मिलल छथि -एक संगठन बनौने छलाह, ओहि समयक दस्यु-उपद्रवकें देखैत ई आर्यक लेल अति आवश्यक छल । ई घटना पुरुराज संवरण-पुत्र, कुरु श्रवण कालेक थिक । पूर्व कालमे आर्यजन परस्पर युद्ध करैत छलाह, किन्तु वितस्ता तटक बादेसँ हुनका एहि ठामक अनार्य,अनास, शिश्नदेवाः ,अदेवयु तथा मृधवाक् आदि दस्यु सभसँ निरंतर युद्ध कर' पड़ैत छलनि । आर्य संगठनक प्रयोजनीयता छल, जाहि कारणे हम सभ मीलिक' कुरुजन कहाबय लगलहुँ। एखनो हमरा सभमे एकता अछि ,सौमनस्य अछि आ हम एकराष्ट्र छी । की ई सत्य नहि थिक ?'
-'सत्य थिक राजन ।'
-ग्रामणी नग्नजित-राजा कहलनि --एहि एकताकेन तोड़ी रहल छल, ओ ताकि-ताकि क' पुरान पुरु सभकें राष्ट्रद्रोह,करबाक लेल भड़का रहल छल । ओकरा सभकें उत्तेजित क' रहल छल । आइ हम सभ एक थिकहुँ,एकराष्ट्र थिकहुँ। आब ने क्यो भारत अछि ने त्रित्सु अछि,ने क्रिवि,ने सृंजय अछि आ ने पुरु अछि । आइ हम सब एक जन, एक जनपद कुरु जनपद थिकहुँ ।
एकरा विरुद्ध जे आचरण करैत अछि ओ राष्ट्रद्रोही अछि । ओ राष्ट्रीय अखंडताकें तोडैत अछि आ ई असह्य थिक , महान अपराध थिक । नग्नजित यैह अपराध क' रहल छल ।
-राष्ट्रीय अखंडता विरुद्ध आचरण करयबला महान अपराधी थिक , ओकरा लेल एकमात्र दंड थिक -प्राणदंड ।' महर्षि ऋतुर्वित उठिक' कहलनि आ पुनः बैसि रहलाह ।
सभ एकर समर्थन कयलक
-'एकर प्रमाण ?'-वैह वृद्ध प्रश्न केलनि । -'एकर प्रमाण माननीय वृद्ध सभ्य ! '-राजा पुनः आटव्यकें संकेत कयलनि ।
आटव्यस्वयं एकर साक्ष्य देलनि आ दू टा अन्य जनकें, जे पूर्वक पुरुए छल, साक्ष्य दिलोअनि । उपस्थित जन संतुष्ट भेल ।
राजा असंग किछु बातकें तत्काल गुप्ते राखब उचित बुझलनि । ओ एहि तथ्यकें जनैत छलाह जे नग्नजित पूर्व सभकें भड़काकें स्वयं राजा बनय चाहैत छल । किन्तु आब कौलिकताक प्रथा बद्धमूल भेल जा रहल छल । सरस्वतीक तट पर राजा अतिध्रितक एक पीढ़ी पूर्वेसँ ई मान्यता बनैत जा रहल छल । ओ नग्नजितक अतिशीघ्र अंत चाहैत छलाह तथा अपन अभिषेको । ई राष्ट्रहितमे छल ।
ओ कहलनि -' सभसँ पैघ ई बात थिक , जेन हमरा ज्ञात भेल अछि, नग्नजित आर्यधर्मकें सेहो छोड़ी देने छल , ओ एमहर किछु दिनसँ अपन गृहमे कुलाग्नि राखब तथा दैनिक देव-यज्ञ करबो छोड़ी देने छलह… ।'
उपस्थित सभ्य, समितेय तथा ऋषि-महर्षि सभ एकर निंदा कयलनि ।
किछु कालधरि परस्पर गप होइत रहल । आ लोकसभ प्राणदंडकें उचित मानि ललक । लोक सभक उत्तेजना शांत भेल।
राजा शांतिपूर्वक बैसल रहलाह ।
किछु कालक पश्चात ओ उठिक' ठाढ़ भेलाह आ बजलाह-'मृत नग्नजितक उपद्रवी प्रवृतिकें देखैत प्रधान सेनानी सैन्य-व्यवस्था क' लेने छलाह, प्रशालक शांति अहाँलोकनिक सुरक्षाक लेल । किन्तु ओकर आवश्यकता नहि छल ।
अतः ओ सभ चलि गेल । तैयो जँ किनको कष्ट भेल होनि तँ हम क्षमाप्रार्थी छी । एकटा बात हम मृत नग्नजितक स्वजनसँ कहिदेब चाहैत छी जे जँ हुनका सभकें कोनो कष्ट होनि अथवा ओ सभ युद्ध चाहैत होथि तँ हम तकरा लेल प्रस्तुत छी । काल्हि प्रातः या तँ ओ आबि क' हमरासँ युद्ध करथि अन्यथा प्रातः कालक दैव-यज्ञमे एतय आबिक' आगत महर्षिलोकनिक समक्ष देवकें समिधा समर्पण करथि ,
जे सौमनस्य आ सामंजस्यक प्रतीक मानल जायत।'
राजा असंग ई कहिक' चारूकात देखलनि । उपस्थित,राजाक विनयभाव तथा स्पष्टताक सराहन कयलक । साधुवाद देलक । राजा असंग अति भव्य आ गंभीर लागि रहल छलाह ।
ऋजिश्वा शाश्वतिक कानमे कहलक-'कतेक दिव्य तेजश्वी लगैत छथि राजा असंग !
शास्वती कम्बलक भीतर हाथ पैसाक' ओकरा चुट्टी काटि लेलक । किन्तु असंग परसँ दृष्टि नहि हटा सकलि । ओकरा, रहि-रहिक प्रातः कालक हुनक याचना भरल दृष्टिक स्मरण आबि रहल छलैक । आ स्मरण होइते कांपि-कांपि उठैत छलि ।
राजा असंग पुनः किछु क्षणक पश्चात राज सिंहासनसँ उठलाह आ बजलाह-'अहाँसभ हमरा अपन राजाक रूपमे निर्वाचित कयलहुँ अछि, ई हमरा लेल परम सौभाग्यक विषय थिक, किन्तु हमरा सोझाँ हमर कर्तव्य अछि -अपन धेनुसभकें छोड़ा आनब । धेनु सभ अछि यमुना तटक दस्यु सभक बंधन मे । ओकर संख्या बहुत अधिक अछि । ओकरा सभसँ भयंकर गविष्ठी युद्ध कराय पड़त आ अपन धेनु सभकें छोडाक' अपन कलंकके धोब' पड़त । एकरा लेल सभकें प्रस्तुत रहबाक अछि । हम शीघ्रे आक्रमण तिथिक घोषणा करयबला छी । आर्यलोकनिक पुनीत कर्तव्य थिक गविष्ठी युद्ध । हमरा ओहि कर्तव्यक पालन करबाक अछि । एहिबेरक युद्धमे ओहि दस्यु सभकें खेहारिक' ओकरा सभकें थकुचि क' ओकरा सभकें लूटिक' जनपदकेन संपन्न बनयबाक अछि ,राष्ट्र्भूमिक विस्तार करबाक अछि ।
अनेक स्वर उठल -' हम युद्ध करब, दस्युसँ प्रतिशोध लेब।'
-' हम एकर प्रस्तुति क' रहल छी । शीघ्र युद्धक तिथि घोषित करब ।
अहाँ सभकें ज्ञात हो जे राष्ट्रक अनन्य शुभचिन्तक सोमाश्व मंत्राक्ष, हमर दास-मित्र, राजा बब्लूथसँ एकटा संधि करबाक लेल गेल छथि, हमरा सभकें हुनक सहायता एहि आक्रमणक लेल चाही । जँ हुनका सँ संधि भ' गेल, जेहन आशा अछि, तँ हुनकासँ काष्ठ लेब आ ताहिसँ यमुना तट पर एकटा विशाल दुर्ग बनायब । दुर्गसँ युद्ध करबामें हमसभ सुरक्षित रहब ।'
राजा असंग बाजिकें बैसि गेलाह । हुनक आकृति एकटा अलौकिक तेज़सँ चमकि रहल छल ।
उपस्थित सभ्य, सामितेय,महर्षि, जन-वृद्ध,महाशाल तथा अन्य लोकसभ राजा असंगाक दृष्टि तथा निष्ठाक प्रशंसा कयलनि एवं साधुवाद देलनि ।
प्रधान पुरोहित उठिक' कहलनि-'सह्भोजक पश्चात अभिषेकक अवसर पर होमयबला अन्य उत्सव यथा,अश्वारोहन तथा द्युत-क्रीडा आदि यथानियम होयत एवं रात्रिमें अनास उत्सव।'ओ बैसिए रहल छलाह कि बाहरमे किछु कोलाहल भेल । वशिस्ठ ऋषि भासुरक उत्तेजित स्वर स्पष्ट सुनबामे आयल ।
एकटा बटुक आबिक' सूचना देलक जे ऋषि पाकशास्त्री भासुर कोनो बात पर रुसि गेलाह अछि ।
सह्भोजक अवसर पर हुनक रूसब सभकें ज्ञाटी अछि ।
आगत महर्षिगण सेहो हुनक स्वाभावसँ परिचित भ' गेल छलाह ।
सभ हँसे लागल ।
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अभिषेक कार्य प्रारंभ होयबासँ पूर्वहि राजहर्म्य प्रशालसँ बाहर प्रांगणमे नव बनल पर्णकुटीमे अभिषेक यज्ञ समाप्त भ' गेल छल । ब्रह्माक पद स्वीकार कयने छलाह आगत महर्षि अरिष्टनेमि ।
आगत महर्षिगण तथा ऋषिग्रामक समस्त ऋषि,महर्षि अपन आसन पर विराजमान छलाह । दोसर दिस जन्पदक ग्रामणी, रथकार, कर्म्मार, सूत तथा सेनानी, जिनका तीन दिन पूर्वहि धेनु,अज,मेष तथा आन द' क' प्रथानुसार सहयोग अनुमति ल' लेल गेल छल ,बैसल छलाह ।
ई राजकृतः लोकनि अपन सहमति स्वरुप वृक्ष-पल्लव,जकरा पर्ण कहल जाइत अछि राजदरबारमे सभ सभी लोकनिक तथा समितेय लोकनि-समक्ष राजाकें नियमानुसार द' देने छलाह ।
बीचक रिक्त स्थानमे विभिन्न ब्रह्मचारी बटुकगण जनपदक विशिष्ट मधवन ग्रामंचलक गोपाल,अजपाल,मेषपाल,शिल्पी तथा वृद्धजन बैसि गेल छथि ।
एक दिस बीचमे एक पैघ सन काष्ठ आसंदी पर एकटा छोट सन काष्ठ सिंघासन राखल अछि ।
सभक आकृति पर एक प्रतीक्षा भाव अछि ।
एही बीच लोक देखलनि जे राजपुरोहित आंगिरस महर्षि ऋतूर्वितक संग राजकुमार असंग हर्म्यक अंतःपुरसँ अयलाह आओर आसंदी लग ठाढ़ भ' गेलाह ।
पाँछा -पाँछा शाश्वती आ ऋजिश्वा सेहो छलि जे वृद्ध राजमाताकें पकड़ने छलि-आयलि आ अपन नियत आसन पर बैसि गेलि |
राजपुरोहित विभिन्न जलाशय,कूप तथा सरस्वतीक जलसँ भरल कलशसँ आम्र-पल्लवसँ जल ल' क' ठाढ़ राजकुमारकें अभिसिक्त करैत कहलनि-'हे राजन ! समस्त विशः अपनेक वरण करैत अछि ... अपने ध्रुव रूपमे हमरा बीच स्थित रही तथा समस्त जन द्वारा मानी भ' जाइ ।'
'अपनेक निरंतर उत्कर्ष हो । राज वरुण,देवराज इंद्र,देवाधिदेव वैश्वानर तथा मित्र नासत्यो आदि देव अपने पर कृपा करथि,आशीष आ शक्ति देथि ।'
तत्पश्चात राज असंग ओहि आसंदी पर पड़ल मृगचर्म पर ठाढ़ भेलाह तथा दृष्टि नमित क' पृथ्वीसँ अनुमति लैल बजलाह-'हे पृथ्वी ! अहाँ हमर जननी छी, अहाँकें हम कहियो कष्ट नहि दी, अहाँसँ सदैव सुख प्राप्त करी ।' एकर बाद ओ चारू भर ताकि क' कहलनि -'हे पर्ण ! (स्वीकृति प्रतीक वृक्ष शाखा ) हे राजकृतः जे एखन चारू दिस उपस्थित छथि,हमर सहायता करथि ।'
ओकरा बाद प्रधान पुरोहित महर्षि ऋतुर्वित राजाकें उष्णीश (पगरी) देलनि तथा मस्तक पर किरीट धारण करबौलनि ।
प्रधान सेनानी आटव्य आबि एक गोट असि तथा एकटा धनुष तथा तुणीर प्रदान कयलनि जाहिमे तीन तीर छलैक । राज ओकरा धारण कयलानि ।
तत्पश्चात प्रधान पुरोहित लगमे राखल एक दण्ड कें उठौलनि आ राजाक पीठ पर कने-कने आघात कयलनि तथा आसंदी पर राखल सिंहासन पर बैसि गेलाह ।
प्रधान पुरोहित वृद्ध राजसत्ताक हाथसँ दधि पात्र ल'क' राजकें तिलक लगौलनि आओर आबि क' महर्षि पंक्तिमे अपना स्थान पर बैसि गेलाह।
राजा असंग ठाढ़ भेलाह, ओ कहलनि -'हम राजा कुरुजनपदक अन्तरभू: तथा स्वजन छी । हे देवराज वरुण आओर इंद्र ! समस्त जनपद अनुकूल रहथि, हम सभक रक्षा करी तथा समस्त सभी एवं सामितेय हमर रक्षा करथि । हम प्रतिज्ञा करैत छी, जँ कहियो विशः सँ द्रोह करी तँ अपन जीवन,सुकृत्य तथा संतानदिसँ वंचित कायल जाइ ।'
राज असंग पुनः सिंहासन पर बैसि गेलाह।
प्रधान पुरोहित महर्षि ऋतुर्वित अपन आसनसँ उठि क' घोषणा कयलनि-'आइसँ राजा असंग कुरु जनपदक मान्य नेता भेलाह, भूमिक स्वामी नहियो होइत, समस्त जनपदसँ बलि (उपहार) लेबाक अधिकारी भेलाह । आइसँ सम्पूर्ण विशः जनक रक्षार्थ राज असंग छत्र धारण करैत छथि । महादेव वरुण,इंद्र ,मित्र,वैश्वानर तथा समस्त देवलोक हिनक रक्षा करथि, हिनका पर कृपा राखथि, हिनका शक्ति देथनु,हिनका सप्त सैन्धवक समस्त आगत महर्षि वरेण्य लोकनिक तथा सरस्वती तटक ऋषि महर्षि लोकनिक आशीर्वाद प्राप्त छनि ।'
महर्षि ऋतुर्वित अपन आसन ग्रहण कयलनि ।
आगाँमे बैसल ब्रह्मचारी बटुकगण उठलाह आओर पंक्तिबद्ध भ' क' हस्तसंचालनक संग, एकहि सुरताल-लय सामगान प्रस्तुत कर'लगलाह-
'पृथ्वी जे पूर्व कालमे समुद्रमे जल रूपमे छल, आओर जाकर ऋषि लोकनि अपन अद्भुत शक्तिसँ बाहर कयलनि ।
'पृथ्वी,जकरा अश्विनी कुमार लोकनि नपने छलाह और जाकर विष्णु (सूर्य)तथा इंद्रा रिपुहीन कयने छलाह । हमर छथि ।
आइ हमरा लोकनि सम्राट वरुणक स्तुति करी, जे पृथ्वीकें ,सूतक लेल मृगचर्म जकाँ ओछा देने छलाह । हे वरुणदेव ! हमरा पर कृपा करु।'
किशोर ब्रह्मचारी बटुक लोकनिक मुखसँ निसृत साम-गानक मन्त्र,वातावरणकें अति भव्य बना रहल छल । गीतक ले-ताल-सुर समस्त उपस्थितिक मनकें संगीतमय बना रहल छल ।
सभ मग्न-भावसँ देखि-सुनि रहल छलाह ।
राज असंग बीच बीचमें अति गंभीर भावसँ वृद्ध राजमाता लग बैसली ऋजिश्वा आओर शाश्वतीकें देखि लैत छलाह ।
शाश्वातीक गोरलावण्यमय मुखमंडल दमकि रहल छल । हुनक नील नेत्र चमकि रहल छलनि । यद्यपि ओ कम्बल ओढने छलीह,तथापि असंग अपन कल्पनाक आँखिसँ हुनक सौन्दर्यक वैभवकें देखि रहल छलाह, हुनक युवा देहक एक-एक मृदुल प्रवाहमें डूबि जकाँ रहल छलाह । पुलकित भ' रहल छलाह । पुलकित भ' रहल छलि सवयं शाश्वती सेहो । बीच-बीचमे राज असंगाक दृष्टि पकड़ी लेत छलि । आओर काँपि उठैत छलि । धड़कन तीव्र भ' उठैत छलनि । राजा असंग दिव्य लागि रहल छलाह । उच्चाकार शरीर, गोर श्मश्रुहीन गोल मुख-मंडल,किरीट आओर कुण्डल । । सुपुष्ट आओर स्वस्थ युवा वक्षस्थल, बलिष्ट भुजा,स्कंध्मे धनुष आओर तुणीर,कटिक चरम-खोलमे असि । मृगचर्म । हुनका स्मरण आबि रहल छलनि प्रातःकालक ओ याचना भरल निरीह दृष्टि जाहिमे गहीर ममत्व छलैक । असीम अपनत्व छलैक । प्रातःकाल, अभिषेक पूर्व यज्ञ क्रियामे महर्षि लोकनि क्षणिक बाधा उपस्थित क' देने छलथिन जे एही अवसर पर राजसूय यज्ञ सेहो होयबाक चाही, यैह प्रथा, परंपरा अछि ।
-'भगवन ! असंग कहने छलाह-हम बहुत चेष्टा कयलहुँ अग्रज वीतिहोत्र कतहु नहि भेटलाह,हमर संधान कार्य चलि रहल अछि, स्वयं शोमश्व मंत्राक्ष बहरायल छथि, हुनक आबि गेला पर हम निश्चित रूपसँ राजसूय करब… एकरा अतिरिक्त राजसूयमे एक बाधा आओर अछि ....।'
ई कहिक'ओ महर्षि लोकनिक दिस भेद भरल दृष्टिसँ देखने छलाह ।
महर्षि ऋतुर्वित बुझि गेल छलाह, ओ कहने छलाह चारू दिस ताकि क'-'महर्षि वरेण्य ! अपने लोकनिकें ज्ञात होयत जे राजकुमार असंगे नहि, निष्काषित राज वीतिहोत्र सेहो अविवाहिते छथि । जँ मंत्राक्ष एसगरो घुमि अबैत छथि तँ राजकुमारक विवाह संपन्न करा देल जायत । तखनहि ने राजसूय यज्ञक अधिकारी होयताह ? यजमान पत्नीक अभावमे राजसूय यज्ञ संभवो तँ नहि अछि ?
-'कोना विवाह होयत?'
-ब्रह्मविवाह महर्षि वरेण्य,एम्हर यैह प्रथा चल' लागल अछि ।'
-'वधू निश्चित छथि ? बात निश्चित अछि ?'
महर्षि क्षणकाल लेल असमंजसमें पड़ी गेलाह । बात निश्चित नहि छल ।
तखनहि राजकुमार असंग अत्यंत याचना भरल दृष्टिसँ शाश्वती दिस देखने छलाह । दुनूक मिलल छल । हुनक दृष्टि झुकी गेलि ,श्वास तीव्र भ' उठल छल । ओ काँपि उठल छलि ।
महर्षि ऋतुर्वित सेहो देखने छलाह राजकुमार असंगकें शाश्वती दिस तकैत । हुनका मन में हठात एकता बात सहसा आबिक' रुकी गेल । बाजल छलाह -'निश्चिते भुझबाक चाही महर्षिवरेण्य आगत महर्षिलोकनि सेहो एही दृष्टि विनिमयकें देखने छलाह । सभ बुझी गेलाह । महर्षि अरिष्टनेमि हँसैत कहनो छलाह-'तँ इहो भ' जाय हमरालोकनि आब आशिर्वादे द' क' जायब… भगवती शाश्वती सदा सौभाग्यवती रहतीह ।'
आओर अति प्रसन्न भावसँ अभिषेक यज्ञ संपन्न भेल छल ।
शाश्वती तखनहिसँ सोचैत छलि जे ई सब की भ' रहल अछि । कोन भ' गेल सब? की निश्चिते बुझबाक चाही ? महर्षिक की आशय?
ओ बेर बेर काँपि उठैत छलि ।
किएक हुनक भौजी धारिणी प्रति प्रातः देरीसँ उठैत छथि ? किएक थाकल-थाकल लागैत छथि ? किएक एतेक प्रसन्न रहैत छथि ? की थिक ई ?
ऋजिश्वा कानमें कहलनि-'देखू राज असंग कतेक पौरुषमय लगैत छथि ।'
शाश्वती हुनका हल्लुके धकेली देलनि आ दृष्टि झुका लेलनि ।
ब्रह्मचारी बटुक लोकनिक साम-गान चलि रहल छल -
' जे जन्म लैते अपने बुद्धि आओर बल सँ सब देवता लोकनि में सर्वोपरि भ' गेलाह,जनिका प्रभुता आओर पौरुषसँ सभ काँपैत अछि ;वैह हमर इंद्र छथि ।
हमर तँ मात्र एक देव छथि : ओ छथि अग्निदेव । वैह पुरोहित, ऋत्विक,होता, उद्गाता छथि ।
हे अग्निदेव।
हमर मन, वाचन,कर्म सभ अपन अहाँक ज्वालामे उज्जवल भ' उठय ।'
एकरा पाश्चात बटुक सभ परम्परानुकूल दान-स्तुतिक गायन कयलक-
भूख
भूखकें देवतागण, निर्धनकें मारबाक लेल नहि बनौलनि अछि ।
संपन्न जानो तँ मरिते अछि
सत्य अछि जे दानवीरक कोष कहिओ खाली नहि होइछ
कृपण पर ककरो दया नहि होइछ
वास्तविक दानवीर ओ थिक जे
क्षुधित सभक चिंता करैत अछि
आ अपन भूख बिसरी जाइत अछि
निर्धनक सहायता करैत अछि
एकसरेमे खायबलाक लेल
रोटी सद्यः विष थिक ।'
ई ह'र !
जे धरती पर चलैत अछि , अवश्यमे रोटी आनत
जे चरण कहिओ थाकैत नहि अछि अवश्य अपन गंतव्य धरि पहुँचत ।
शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!! ऋग्वेद अनुवाद !
ब्रह्मचारी बटुकलोकनि गायन समाप्त क' अपन स्थान बार बैसि गेल।
वशिष्ठ ऋषि भासुर उठलाह आ पाकशाला दिस चलि गेलाह। आब बैसलासँ काज नहि चलत । अभिषेकक कार्य समाप्त भेल । आब फलाहार कृत्य चलत, फेर प्रथम न्याय कार्य होयत आ तकरा बादे सहभोज । निश्चित समय धरि प्रिषद प्रस्तुत भ' जयबाक चाहि ।
ओ पाकशालामें प्रवेश करबासँ पूर्वे भगवान् सविता दिस तकलनि । किछुए क्षणमे मध्याह्न भ' जायत । फलाहार कृत्यक पश्चात् सभक्यो अप-अपन स्थान पर बैसलाह । राज असंग पुनः राज सिंहासन पर आसीन भेलाह। प्रधान सूत ऋषि भाव्य उठलाह, चारुकात देखलनि,एक बेर सिंहासन दिस ताकि क' दृष्टि नमित कयलनि, आ बजलाह -'राजाक जय हो, विजय हो, राज ध्रुव रूप में प्रतिष्ठित होथि, सर्वमान्य होथि, समस्त विशः केर रक्षा करथि आ न्यायपूर्वक अचल शासन करथि । समस्त जन सुख-सम्पदासँ भरि जाथि,शत्रु सभक नाश करथि ।
वरुणदेव, सरस्वती तथा सरोवर सभकें पूर्ण राखथि । देव सविता धरित्रीमे अन्न देथि \ देवराज इंद्र शत्रुसभक नाश करथि । देव पूषण धेनु में दुग्ध आ अश्वमें गति तथा पशु में विकास देथि । देव वैश्वानर कल्याण करथि \ अश्विन यौवन तथा शक्ति देथि । द्यावा,चिर सम्पदा देथि । उषा माधुर्य देथि \ महार्शिगण आशीष देथि । गुरुजन श्रुति देथि । राज रक्षक होथि । जन,कर्मण्य होथि । जय हो । विजय हो ।
अति प्राचीन काल में श्रृष्टि जलमय छल । देवतालोकनि पृथिवीकें बाहर केलनि, ऋषिलोकनि आवास-योग्य बनौलनि आ हमरा सभक पूर्वज,एक सुविशाल जलाशय (कश्यप सागर) क निकट अपन पशु सभक रक्षा करैत,सुखपूर्वक रहय लगलाह । हमरा सभक पूर्वज, अति प्राचीन कालमे, सुखपूर्वक, साम गान गबैत रहे लगलाह आ पशु सभक लेल परस्पर युद्ध करय लगलाह । कालांतरमें ओ सभ विभिन्न दिशामे चललाह।
हमरा सभक पूर्वज बहुत दिन धरि असुर, पार्शव तथा भद्र सभक संग रहलाह । किन्तु कालांतरमे बहुत दिन धरि परस्पर युद्ध करैत रहलाह परप्सपर वैमनस्य कारणे ।
अति प्राचीन कालमे राज नहि होइत छल तखन स्वयं देवराज इंद्र राजाक पद स्वीकार कयलनि ।
देवराज इंद्र आ वरुणक कृपासँ भारतलोकनिक त्रित्सु नेता राजा दिवोदास पक्थ,पणि तथा दस्युराज शम्बरकें पराजित कयलनि । ऋषिलोकनि प्रसन्न भ' क' हुनक आशीष देलनि।
ओहि दिवोदासक पुत्र,राजा सुदामा, महान प्रतापी भेलाह जे भरत,त्रित्सु , तथा सृंजय सभक संगठन कयलनि आ पुरु सभकें पराजित कयलनि । कालांतर में सभ एक भ' क' कुरुजन कहाबय लगलाह
राजा सुदास गधिराजक पुत्र महर्षि विश्वमित्रक स्थान पर महर्षि वशिष्ठकें अपन प्रधान पुरोहित बनौलनि आ परुष्णीक तट पर दशराज्ञ युद्धमे विजयी भेलाह । ओहि महायुद्धमें, आर्य पंचजनाः अर्थात यदु अनु,द्रुह्यु,तुर्वश तथा पुरुक संग, अनार्य अलिन,पक्थ,भलानस,विषाण तथा शिवि देने छल । किन्तु महान सुदासे विजयी भेलाह । विजयी राज सुदास कालांतरमे अनार्य दस्युसभकें पराजित कयलनि आ अपन कीर्ति-पताका सप्त सैन्धव में फहरौलनि । एहि आक्रमणसँ अनेक दास-दासी,धेनु तथा भूमि प्राप्त भेल जे समस्त जनमे वितरित भेल । जनपद सुखी आ संपन्न भेल तथा एही सरस्वती तटकें उर्वर बनौलनि ।
ओहि समय यदुजन दक्षिण दिस तथा तुर्वशजन पश्चिमोत्तर दिस चलि गेल | राजा सुदासक वंशमे एक महान प्रतापी राज भेलाह, साहदेव्य सोमक जे बहुत पैघ दानी तथा जनरक्षक भेलाह। हुनके प्रपौत्र भेलाह विशःरक्षक महान यशस्वी राजा अतिधृति ।
राजा सुदासक वंशमे एक महान प्रतापी राज भेलाह, साहदेव्य सोमक जे बहुत पैघ दानी तथा जनरक्षक भेलाह। हुनके प्रपौत्र भेलाह विशःरक्षक महान यशस्वी राजा अतिधृति । महान राजा अतिधृति कृषि विकास पर अत्यधिक ध्यान देलनि आ तकरा लेल जनपदमे अनेक जलाशयक निर्माण करैत सरस्वती आ शतुद्रि नदीकें नहरिक द्वारा एक कए दलनि । कुरु जनपद सुरक्षितो भेल आ संपन्न सेहो। सर्वत्र राजा अतिधृतिक गुणगान होमय लागल । वैह सर्वप्रथम दृषद्वती नदीक तटपर आर्य तथा दास सभकें बसौलनि आ एहि प्रकारें जनपदक लेल भूमिक विस्तार कयलनि।'एक क्षणक लेल सूत ऋषि भाव्य चुप भेलाह ।
समस्त उपस्थिति बहुत मनोयोगसँ अपन पूर्वजलोकनिक आख्यान सुनी रहल छल । आगत महर्षिगण बीचमे स्वीकृतिमे माथ डोला रहल छलाह ।
सूत ऋषि आगाँ कहलनि -'वृद्ध राजा अतिधृतिकबहुत इच्छा रहनि यमुना तटक अनार्य सभकें दास बनयबाक । एहि बीच देवाधिदेव वैश्वानर हुनका अपन शरणमे ल' लेलथिन । समस्त विशः शोक संतप्त भ' गेल ।
किन्तु ओ अपन जनपदक सेवा करबाक लेल दूटा पुत्र रत्न देलनि । प्रथम वीतिहोत्र,जनिक विधिवत अभिषेक भेलनि तिन्तु धेनु हरण भेल पर ओ गविश्ठी युद्ध नहि कयलनि, तें सभ्य एवं समितेय राज्यच्युति तथा निष्कासनक आज्ञा द' देलक । ओ निष्क्रमण भ' गेलाह आ कोनो गुप्त स्थान पर वास क' रहल छथि । देव वरुण हुनका प्रसन्न राखथि । ओहि महान यशस्वी राजन अतिधृतिक द्वितीय तान्वपुत्र, महान योद्धा तथा पराक्रमी राजकुमार असंग,सर्वसम्मतिसँ कुरु जनपदक नेता निर्वाचित भेलाह तथा एखन राजाक रूपमे हिनक शुभ अभिषेक संपन्न भेलनि। महान राजा असंग,अपन महान पूर्वजलोकनिक अपूर्ण आकांक्षाक पूर्ती करैत समस्त विष केर रक्षा करताह तथा न्यायार्थ दंड धारण करताह ।
प्रथानुसार हम पूर्व कथा प्रस्तुत कायल अछि, हमरा सभक समस्त शुभकामना, महान राजाक लेल तथा कुरु जनपदक लेल समर्पित अछि ।'
सूत ऋषि भाव्यक अपन नियत स्थान पर बैसलाक पश्चात राजा स्वयं उठलाह ।
राजा असंग, कौशेय पीताम्बरक अधोवस्त्र,कौशेय ऊपरिवस्त्र,कौशेय उष्णीष पर किरीट तथा कुंडलमे अति भव्य, अति दिव्य लागि रहल छलाह ।
गंभीर स्वर में बजलाह-'आगत अतिथि महर्षि वरेण्य सभक आशीष प्रकाशमे तथा अभ्यागत ऋषि महर्षि लोकनिक एवं सभी समितेय सभक मंगल भावनाक पवित्रतामे अभिषेक कृत्य संपन्न भेल । हम कृतार्थ भेलहुँ । सप्त सैन्धवक महान महर्षि वरेण्यक शुभागमनसँ सरस्वती तट धन्य भेल तथा कुरु जनपद हुनक आशीर्वाद पाबि अनुगृहीत भेल। हम पुनः पुनः सभक अभिनन्दन करैत छी तथा कृतज्ञता ज्ञापित करैत छी । आब, ईशान (वयोवृद्ध सभापति )अपन कार्यारम्भ क' सकैत छथि । ईशान उठलाह,कहलनि -'प्रथानुसार एहि अवसर पर न्याय कार्य संपन्न होइत अछि , जाहिसँ राजाक न्याय बुद्धिक परीक्षा होइत अछि, प्रस्तुत अछि वादी आ प्रतिवादी ।'
ओ संकेत कयलानि ।
एकटा व्यक्ति उठल आ बाजल-'राजन ! एकटा न्याय याचना अछि ...।'
-'प्रस्तुत करु।' राजा गंभीर स्वरमे आज्ञा देलनि ।
-'राजन! ओ कहलक-हमरा आवास गृहक निकट जे भूमि अछि ,ओहि पर हम कृषि-कार्य कराय चाहैत छी ...।'
-'करू-राजा कहलनि-आर्यजन तँ आब कतहु कृषि कार्य क' सकैत छथि ।'
-'किन्तु राजन, ओतय बाधो अछि आ विपत्तियों ।'
-'स्पष्ट करू।'
-'ई -ओ संकेत करैत कहलक- नहि कराय दैत छथि ।'
-'कारण?' राजा प्रतिवादी दिस तकलनि । '
ओ ठाढ़ भS गेल, बाजल -'राजन ओ भूमि हाम्रो गृहक निकट पड़ैत अछि ...।'
-'पड़ी सकैत अछि , किन्तु अहाँक स्वामित्व तँ मात्र गृह पर अछि -राजा कहलनि -भूमि पर तँ ककरो स्वामित्व नहि होइत अछि ,जेना वायु पर तथा सरस्वतीक जल पर ककरो स्वामित्व नहि होइत अछि, तहिना भूमियोक क्यो स्वामी नहि होइत अछि, जे ओकर उपयोग करैत अछि , ओकरे होइत अछि , यैह तँ मान्यता अछि आर्य जनक…।
ओ प्रधान पुरोहित दिस देखलनि ।
ओ उठलाह आ बजलाह -' राजन उचित कहलनि । भूमि तँ देवताक होइत अछि, वैह अपन कृपा स्वरुप ओहि कर्मण्यक प्रदान करैत छ्ठी जे ओहि पर कृषि कार्य करैत छथि।महर्षि ऋतुर्वित बैसि गेलाह।
राजा वृद्ध ईशान दिस देखलनि -'वृद्ध ईशान ?'
ओ उठलाह आ कहलनि -'राजन! प्रधान पुरोहित उचिते कहलनि अछि । भूमि व्यक्तिगत नहि होइत अछि ओ तँ सार्वजनिक उपयोगे लेल अछि, जे देवता दिससँ कृपा रूपमे प्राप्त होइत अछि । यैह परंपरा अछि ।'
ओ बैसि रहलाह ।
राजा विनीत भावसँ एहिबेर स्वयं उठलाह आ कहलनि -ई सौभाग्यक विषय थिक जे एही प्रथम न्यायक अवसर पर सप्त-सैन्धावक वरेण्य महर्षिगण उपस्थित छथि, हम सभ हुनक विचार सुनि कृतार्थ होयब।' आजुक दैव यज्ञक ब्रह्म,वयोवृद्ध सुवास्तु तटवासी महर्षि श्रेष्ठ अरिष्टनेमि उठिक' कहलनि -'भूमि व्यक्तिगत नहि होइत अछि ,वर्षा आ प्रकाशक भांति सभक होइत अछि जे ओकर उपयोग करैत अछि । भूमिक स्वामी,पृथ्वी परक राजा सेहो नहि होइत छथि, ओकर स्वामी छथि सम्राट वरुणदेव । एहि व्यवस्थासँ देवगण प्रसन्न रहैत छथि । ब्रह्मर्षि देशक समस्त आर्यजनमे यैह मान्यता अछि,यैह प्रथा परंपरा अछि ।' महर्षि बैसि गेलाह।
राजा असंगो बैसि गेलाह आ प्रतिवादीसँ पूछलनि -'अहाँ एहि तथ्यसँ परिचित छी ?'
-'परिचित छी आ मान्यो अछि ।'
-'तखन बाधा देबाक कारण ?'
-'राजन ! बहुत पूर्वसँ हम ओहि पर कृषि कार्य-करैत आबि रहल छी ,हमर पूर्वज ओहिपर कृषि करैत छलाह,किन्तु एहि धेनुहरणमे हमरो वृषभ हरि लेल गेल आ हमर दासी मरि गेल… हम वृषभ आ दासक व्यवस्थामे छी । किन्तु जाधरि ई व्यवस्था नहि भ' जाइत अछि ,गृहक स्त्री लोकनि ओहिपर कन्द-मूल लगबैत छथि ओ सभ तँ अनार्य दास-दासीक संग दूर कृषि-अंचलमे कंद-मूल लगाबय नहि जा सकैत छथि ...तें ओहि भूमि पर गृह-स्त्रीक लोभ अछि राजन ....।' ओ अति दीनभावसँ कहलक । सभकें सहानुभूति भ' आयल।
-'की ई सत्य अछि ?' राजा वादीसँ पुछलनि ।
-सत्य अछि राजन '।
-'अहाँ लग वृषभ आ दास दुनू अछि ?'
-'अछि राजन।'
-'हिनका संग धेनुहरणक विशेष परिस्थिति छनि, मानवियताक दृष्टिसँ सेहो अहाँकें कृषि कार्यक लेल कृषि अंचले जयबाक चाही, भूमिक तँ अभाव अछिए नहि । ई निश्चित रहल।'
-'निश्चित रहल राजन।'-'अहाँ प्रारंभमे विपत्तिक बात कहने छलहुँ ।'
-'राजन। हिनक तान्व ओहिदिन युद्धक लेल ललकारने छल ...?'
-'ई सत्य थिक ?'
-'सत्य थिक राजन… हमहुँ सुनलहुँ,हम ओहि समय आखेटमे गेल छलहुँ ...किन्तु राजन ! ओ एखन किशोर अछि । किछु उद्धतो अछि ,हम एकरा लेल क्षमाप्रार्थी छी ,फेर कहियो एना नहि होयत ।'
-'जनपदमे परस्पर वैमनस्य नहि हेबाक चाही,ई ध्यान रहय । आ एक-दोसरक सुविधा असुविधा देखब कर्तव्य थिक ।'
सब धन्य-धन्य कहि उठल । ईशान प्रसन्न छलाह ।
ओ दुनु संतुष्ट भ' गेलाह ।
राजा चारुकात देखि क' कहे लगलाह-'विदथ वरिष्ठ अछि, ओकर इच्छा अनतिलंध्य अछि । एकरे इच्छानुकूल हमर अभिषेक भेल अछि आ ओकरे इच्छासँ राजा वितिहोत्रक निष्कासन भेलनि अछि । किन्तु हम विदथकें सूचित कराय चाहैत छी जे राजा वीतिहोत्र सर्वथा निर्दोष छलाह । -'निर्दोष ?-एकटा सामितेय उठिक' पुछलनि कोना? जनपदक धेनुहरण भेल,गविश्ठी युद्ध द्वारा शत्रु पर आक्रमण करब.ओकरा पराजित करब तथा दण्ड देब अति आवश्यक छल यैह हमर आर्य परम्परा थिक । किन्तु राजा वीतिहोत्र एहिसँ विमुख रहि गेलाह । ओ आर्य परम्पराकें तोड़िक' जनपद कें कलंकित कयलनि,फेर ओ निर्दोष कोन भेलाह।'
-'एहिमे एकटा षडयंत्र अछि ।'
-'षडयंत्र कहां?'
-'धेनुहरण एकटा आर्य ग्रामीणक आज्ञासँ भेल छलै,अपितु धेनुहरणक लेल एकटा दासकें बाध्य कायल गेल छल .... ।'
राजा असंग एकबेर ग्रामीण नग्नजित दिस देखलनि ।
नग्नजित चंचल भ' उठल । -'आर्यक धेनुहरण होई आर्यक आज्ञासँ ,एहन त कहिओ नहि सुनल गेल,ओहो एकटा अनार्य दासक द्वारा?'
-'ओकरा दंड कियैक नहि देल गेल?' दोसर सभ्य पुछलनि । समस्त जनपदक लोक आश्चर्यचकित छल ।
-'ईहो एकटा रहस्य थिक जे प्रकट नहि भ' सकल । आ राजा वीतिहोत्र प्रकट नहि क' सकलाह आ निश्काषण आज्ञा मानिक' निष्क्रमण क' गेलाह ।'
-'जे हो, जखन षड्यंत्र प्रकट भ' गेल आ अपराधी ज्ञात भ' गेल तँ ओकरा अवश्ये दण्ड देबाक चाही ।'
सभ कहय लागल-'अपराधीकें दण्ड भेटय ।'
-'एकर प्रमाण ?' एकटा वृद्ध पुछलनि ।
राजा, प्रधान सेनानी आटव्य दिस देखलनि । आटव्य अपन एकटा सेनानी दिस तकलनि ।
तीनटा दास उपस्थित भेल । ओ सभटा बात अपन भाषामे कहलक । आब बहुत रास आर्यजन,बहुत किछु अनार्य भाषा बुझय लागल छथि ।
अपराधीकें छूबिक' देखयबा लेल कहल गेल। ओ सभ जाक' नग्नजातिकें छूबि लेलक ।
राजा अपन नग्न आसिक संग चलि रहल छलाह । जहिना ओ नग्नजातिकें छूबि के हँटल,राजा विद्युत गतिसँ अपन आसिसँ प्रहार कयलनि आ नग्नजातिक मस्तक भूलुंठित भ' गेल।
समस्त प्रशाल स्तंभित रहि गेल । आश्चर्यचकित ।
जा लोक किछु बुझितय ता सबकिछु समाप्त भ' गेल छल ।
एकटा दास राजाक असि धोबाक लेल चलि जा रहल छल ।
किछु दास मृत नाग्न्जातीकें हँटाबयमे तथा किछु ओहि स्थानकें साफ़ करबामे लागि गेल छल ।
लोक स्तब्ध रहि गेल । जेन सभक साँसे अटकि गेल हो । सभ किंकर्तव्यविमूढ़ भ' गेल । अवाक।
एही समय एकटा आरो घटना घटल ।
एहन ने आइधरि क्यो देखने छल आ ने सुनने छल ।
सभ चौंकि उठल । विस्मित रहि गेल।
की भ' रहल अछि ?एकदिस मृत नग्नजातिक स्वजन शोक रूदन क' रहल छल । लोक अवाक भेल एक-दोसराकें देखिए रहल छल की ओहि समय, किछु दास सैनिक प्रशालमे घेरिक' चारुकातसँ ठाढ़ भ' गेल । सभक हाथमे भाला छल ।
समस्त प्रशाल आतंकित भ' उठल । सभ क्षुब्ध भ' उठल ।
ई दोसर अकल्पनीय घटना छल । लोक चौंकि उठल । प्रधान सेनानी आटव्य बहुत सतर्कतासँ राज सिंहासनक पाछाँ ठाढ़ छलाह । महर्षिगण मूकदर्शक बनल बैसल छलाह ।
शास्वती आ ऋजिश्वा काँपि उठलि छलि ।
राजा असंग सिंहासन पर स्थिर भावसँ बैसल छलाह ।
दासराज युद्धक पश्चात राजा सुदासमे एकटा अद्भुत अपरिचित महत्वाकांक्षाक जन्म भेल रहनि एकराट राज्यक कल्पना । आ तेंओ भारत, त्रित्सु ,क्रिवि तथा सृंजय सभक संगठन कयलनि जे पुरुजनक संग मीलि,कुरु कहाबय लागल ।
ओहि समय धरि स्थायी सेनाक कोनो परंपरा नहि छल । ग्राम बसिक' उजडैत रहैत छल । आ दोसर ठाम बसैत रहैत छल । जनकेर जीवन सहजीवन छल । संग-संग रहैत छल, संग-संग युद्ध करैत छल । जननेता स्वयं प्रधान सेनानियों होइत छल ।
साहदेव्य सोमकक समय धरि स्थिति बदलि गेल छल । एक वर्ग श्रुतिकार्यमे लागि गेल, ओ युद्धसँ विमुख भ' गेल । दोसर वर्ग कृषिमे लागि गेल, ओकरा युद्धसँ उदासीनता होब' लागल। राजा अतिधृति एकरा गंभीरतासँ विचारलनि । ता बहुतरास दस्यु दास भ' गेल छल । ओ पुरान शत्रुता बिसरी,विश्वासपूर्वक आर्यक लेल कृषि आ शिल्पकार्य करय लागल छल । राजा अतिधृति ओहि दासमे सँ किछुकें स्थायी सैनिक बना लेलनि आ ओकरा सभकें जनपदक उत्तरी छोर पर शतुद्रिक दिशामे बसाक'स्वतंत्र रूपसँ कृषिक अधिकार द' देलनि । एहि समयधरि प्रधान सेनानिक पद निर्मित भ' गेल छल ।
प्रधान सेनानी ओकरा सभकें तीर-धनुषक व्यवहारमे निपुण बना देने छलाह ।
यैह दास भ' गेल राज सैनिक आ स्थायी सैनिक। आर्यजन स्थायी सैनिक नहि भ' सकैत छल ओ अस्थायी सैनिक बनल रहल आ पशुपालन तथा कृषिक संगहि समय पर युद्धों करैत छल । पाँछा किछु आर्योजन स्थायी सैनिकाक रूपमे रहे लागल किन्तु ई सभ रहित छल आर्येग्राममे ।
दास सैनिकक ग्रामकें सैनिक ग्राम कहल जाय लागल,जकरा अपना लेल गृह बनयबाक तथा कृषि करबाक अधिकार भेटि गेल छल ,शेष गृह-दासकें , आर्य ग्रामांचलमे ने तँ गृह बनयबाक अधिकार छल, ने स्वतंत्र रूपसँ कृषिये करबाक ।
पूर्वी नहरिक पूर्व तथा पश्चिमी नहरिक पश्चिममे जे दास रहैत अछि, तकरा एखनधरि दस्युग्रामे कहल जाइत अछि । ओकरा सभकें गृह बनयबाक अधिकार तँ छैक किन्तु कृषिक नहि । ओकरा आर्ये सभक लेल कृषि कार्य करय पड़ैत छैक । शिल्प सँ जे अन्न तथा पशुक आय होइत अछि , से ओकरा सभक व्यक्तिगत आय मानल जाइत अछि ।
सैनिक ग्रामक दास परिवारसँ , जकरा स्वतंत्र रूपसँ कृषि अधिकार अछि-प्रत्येक युवाकें स्थायी सैनिकक रूपमे अपन सेवा प्रदान करब आवश्यक छल ।
वृद्ध राजा अतिधृति अपन प्रधान सेनानी भार्गव बज्रधरक संग मिली एहन व्यवस्था कयने छलाह आ राज-शक्तिकें बढौने छलाह । भार्गव बज्रधर किछु सैनिको शिक्षाक व्यवस्था कयने छलाह,जाहि परम्पराक पालन हुनक पुत्र प्रधान सेनानी आटव्य सेहो कयलनि । ओ नियमित सैन्य-शिक्षाक प्रचलन कयलनि ।
प्रधान सेनानी आटव्य स्वयं अश्वारोहन, असिसंचालन तथा युद्धपरियोजनमे विख्यात छथि । हुनक युद्ध-कौशल अद्भुत छनि, स्वयं श्रेष्ठ योद्धा छथि, उच्चाकार स्वस्थ शरीर, मांसल भुज, परिपुष्ट वक्षस्थल । ओ गदा चालनोमे अति पटु छथि ।
आर्य सैनिक अश्वारोही अछि किन्तु अनार्य सैनिक मात्र पदाति । ओ अश्वसँ डरितों अछि आ घ्रिणो करैत अछि । ओकर सभक धारणा अछि जे येह अश्व ओकर पूर्वजसभक घातक शत्रु थिक ।
प्रधान सेनानी आटव्य वैह पदाति सैनिक अपन-अपन भाला लेने प्रशालमे चारुकात सँ घेरिक ठाढ़ भ' गेल छलै ।
ई सैनिक सभ एखनधरि, युद्धस्थले टा में देखल जाइत छल । जनस्थानमे विशेषतः आर्य ग्रामांचलक एहन अवसर पर नहि ।
एकरे सभकें एखन समस्त सभी तथा समितेय एवं ऋषि-महर्षिगण देखिकें चौंकि उठल छलाह । स्तंभित रहि गेल छलाह । अवाक रही गेल छलाह ।
राजा असंग बुझि गेलाह ।
नग्नजातिक मृत शरीर ओकर स्वजन लग पठबा देल गेल छल । ओ स्थान पवित्र क' देल गेल छल ।
प्रशालक वातावरण क्षणिक अस्तव्यस्तता तथा कौलाहलक पश्चात शांत भ' गेल छल ।
किन्तु सभ क्यों चकित छल । आतंकित ।
ई की थिक ? ई कहां नब प्रथा थिक ? राजा असंग अभिषेकक संगहि की कराय बला छथि आदि प्रश्न सभक माथमे घूमि रहल छल ।
वातावरणकें शांत तथा उपद्रवहीन जानिक' राजा असंग पाछाँ घूमिक' प्रधान सेनानी आटव्यकें संकेत कयलनि । आटव्य सैनिक सभकें संकेत कयलनि ।
ओ सभ प्रशालसँ बहराक' त्वरित गतिसँ चलि गेल।
प्रधान सेनानी आटव्य अपन स्थान पर आबि बैसि रहलाह ।
राजा उठिक' ठाढ़ भेलाह आ चारुकात स्थिर दृष्टिएँ ताकि बजलाह-'वरिष्ट विदथ तथा उपस्थित समस्त जनक इच्छा छल जे अपराधीकें दण्ड भेटय ... हम ओहि आज्ञाक पालन कयलहुँ आ अपराधीकें दण्ड भेटि गेल।'-'किन्तु अति आकस्मिकतामे आ सेहो सद्यः प्राणदंड ।'-नग्नजातिक एकटा वृद्ध स्वजन उठिक' किछु रुष्ट भावसँ कहलक।
-'माननीय वृद्ध सभ्य !राजा गंभीर भावसँ कहलनि -विदथक इच्छा छल आ हम तकर पालन कयलहुँ, फेर एहिमे आकस्मिकताक प्रश्ने की उठैत अछि ?
कखनो तँ एकर पालन हमरे करबाक छल .... मृत नाग्नजातिक तें एहुसँ एकटा महान अपराध अछि , जाकर सम्बन्ध हमरा सभक राष्ट्रीय अखंडतासँ अछि ...।
-'राष्ट्रीय अखंडतासँ? से की?' अनेक लोक प्रश्न केलक ।
-'हमरा सभक पूर्वज-राजा कहलनि -जाहिमे भारत,त्रित्सु ,सृंजय,क्रिवि तथा पुरु सभ मिलल छथि -एक संगठन बनौने छलाह, ओहि समयक दस्यु-उपद्रवकें देखैत ई आर्यक लेल अति आवश्यक छल । ई घटना पुरुराज संवरण-पुत्र, कुरु श्रवण कालेक थिक । पूर्व कालमे आर्यजन परस्पर युद्ध करैत छलाह, किन्तु वितस्ता तटक बादेसँ हुनका एहि ठामक अनार्य,अनास, शिश्नदेवाः ,अदेवयु तथा मृधवाक् आदि दस्यु सभसँ निरंतर युद्ध कर' पड़ैत छलनि । आर्य संगठनक प्रयोजनीयता छल, जाहि कारणे हम सभ मीलिक' कुरुजन कहाबय लगलहुँ। एखनो हमरा सभमे एकता अछि ,सौमनस्य अछि आ हम एकराष्ट्र छी । की ई सत्य नहि थिक ?'
-'सत्य थिक राजन ।'
-ग्रामणी नग्नजित-राजा कहलनि --एहि एकताकेन तोड़ी रहल छल, ओ ताकि-ताकि क' पुरान पुरु सभकें राष्ट्रद्रोह,करबाक लेल भड़का रहल छल । ओकरा सभकें उत्तेजित क' रहल छल । आइ हम सभ एक थिकहुँ,एकराष्ट्र थिकहुँ। आब ने क्यो भारत अछि ने त्रित्सु अछि,ने क्रिवि,ने सृंजय अछि आ ने पुरु अछि । आइ हम सब एक जन, एक जनपद कुरु जनपद थिकहुँ ।
एकरा विरुद्ध जे आचरण करैत अछि ओ राष्ट्रद्रोही अछि । ओ राष्ट्रीय अखंडताकें तोडैत अछि आ ई असह्य थिक , महान अपराध थिक । नग्नजित यैह अपराध क' रहल छल ।
-राष्ट्रीय अखंडता विरुद्ध आचरण करयबला महान अपराधी थिक , ओकरा लेल एकमात्र दंड थिक -प्राणदंड ।' महर्षि ऋतुर्वित उठिक' कहलनि आ पुनः बैसि रहलाह ।
सभ एकर समर्थन कयलक
-'एकर प्रमाण ?'-वैह वृद्ध प्रश्न केलनि । -'एकर प्रमाण माननीय वृद्ध सभ्य ! '-राजा पुनः आटव्यकें संकेत कयलनि ।
आटव्यस्वयं एकर साक्ष्य देलनि आ दू टा अन्य जनकें, जे पूर्वक पुरुए छल, साक्ष्य दिलोअनि । उपस्थित जन संतुष्ट भेल ।
राजा असंग किछु बातकें तत्काल गुप्ते राखब उचित बुझलनि । ओ एहि तथ्यकें जनैत छलाह जे नग्नजित पूर्व सभकें भड़काकें स्वयं राजा बनय चाहैत छल । किन्तु आब कौलिकताक प्रथा बद्धमूल भेल जा रहल छल । सरस्वतीक तट पर राजा अतिध्रितक एक पीढ़ी पूर्वेसँ ई मान्यता बनैत जा रहल छल । ओ नग्नजितक अतिशीघ्र अंत चाहैत छलाह तथा अपन अभिषेको । ई राष्ट्रहितमे छल ।
ओ कहलनि -' सभसँ पैघ ई बात थिक , जेन हमरा ज्ञात भेल अछि, नग्नजित आर्यधर्मकें सेहो छोड़ी देने छल , ओ एमहर किछु दिनसँ अपन गृहमे कुलाग्नि राखब तथा दैनिक देव-यज्ञ करबो छोड़ी देने छलह… ।'
उपस्थित सभ्य, समितेय तथा ऋषि-महर्षि सभ एकर निंदा कयलनि ।
किछु कालधरि परस्पर गप होइत रहल । आ लोकसभ प्राणदंडकें उचित मानि ललक । लोक सभक उत्तेजना शांत भेल।
राजा शांतिपूर्वक बैसल रहलाह ।
किछु कालक पश्चात ओ उठिक' ठाढ़ भेलाह आ बजलाह-'मृत नग्नजितक उपद्रवी प्रवृतिकें देखैत प्रधान सेनानी सैन्य-व्यवस्था क' लेने छलाह, प्रशालक शांति अहाँलोकनिक सुरक्षाक लेल । किन्तु ओकर आवश्यकता नहि छल ।
अतः ओ सभ चलि गेल । तैयो जँ किनको कष्ट भेल होनि तँ हम क्षमाप्रार्थी छी । एकटा बात हम मृत नग्नजितक स्वजनसँ कहिदेब चाहैत छी जे जँ हुनका सभकें कोनो कष्ट होनि अथवा ओ सभ युद्ध चाहैत होथि तँ हम तकरा लेल प्रस्तुत छी । काल्हि प्रातः या तँ ओ आबि क' हमरासँ युद्ध करथि अन्यथा प्रातः कालक दैव-यज्ञमे एतय आबिक' आगत महर्षिलोकनिक समक्ष देवकें समिधा समर्पण करथि ,
जे सौमनस्य आ सामंजस्यक प्रतीक मानल जायत।'
राजा असंग ई कहिक' चारूकात देखलनि । उपस्थित,राजाक विनयभाव तथा स्पष्टताक सराहन कयलक । साधुवाद देलक । राजा असंग अति भव्य आ गंभीर लागि रहल छलाह ।
ऋजिश्वा शाश्वतिक कानमे कहलक-'कतेक दिव्य तेजश्वी लगैत छथि राजा असंग !
शास्वती कम्बलक भीतर हाथ पैसाक' ओकरा चुट्टी काटि लेलक । किन्तु असंग परसँ दृष्टि नहि हटा सकलि । ओकरा, रहि-रहिक प्रातः कालक हुनक याचना भरल दृष्टिक स्मरण आबि रहल छलैक । आ स्मरण होइते कांपि-कांपि उठैत छलि ।
राजा असंग पुनः किछु क्षणक पश्चात राज सिंहासनसँ उठलाह आ बजलाह-'अहाँसभ हमरा अपन राजाक रूपमे निर्वाचित कयलहुँ अछि, ई हमरा लेल परम सौभाग्यक विषय थिक, किन्तु हमरा सोझाँ हमर कर्तव्य अछि -अपन धेनुसभकें छोड़ा आनब । धेनु सभ अछि यमुना तटक दस्यु सभक बंधन मे । ओकर संख्या बहुत अधिक अछि । ओकरा सभसँ भयंकर गविष्ठी युद्ध कराय पड़त आ अपन धेनु सभकें छोडाक' अपन कलंकके धोब' पड़त । एकरा लेल सभकें प्रस्तुत रहबाक अछि । हम शीघ्रे आक्रमण तिथिक घोषणा करयबला छी । आर्यलोकनिक पुनीत कर्तव्य थिक गविष्ठी युद्ध । हमरा ओहि कर्तव्यक पालन करबाक अछि । एहिबेरक युद्धमे ओहि दस्यु सभकें खेहारिक' ओकरा सभकें थकुचि क' ओकरा सभकें लूटिक' जनपदकेन संपन्न बनयबाक अछि ,राष्ट्र्भूमिक विस्तार करबाक अछि ।
अनेक स्वर उठल -' हम युद्ध करब, दस्युसँ प्रतिशोध लेब।'
-' हम एकर प्रस्तुति क' रहल छी । शीघ्र युद्धक तिथि घोषित करब ।
अहाँ सभकें ज्ञात हो जे राष्ट्रक अनन्य शुभचिन्तक सोमाश्व मंत्राक्ष, हमर दास-मित्र, राजा बब्लूथसँ एकटा संधि करबाक लेल गेल छथि, हमरा सभकें हुनक सहायता एहि आक्रमणक लेल चाही । जँ हुनका सँ संधि भ' गेल, जेहन आशा अछि, तँ हुनकासँ काष्ठ लेब आ ताहिसँ यमुना तट पर एकटा विशाल दुर्ग बनायब । दुर्गसँ युद्ध करबामें हमसभ सुरक्षित रहब ।'
राजा असंग बाजिकें बैसि गेलाह । हुनक आकृति एकटा अलौकिक तेज़सँ चमकि रहल छल ।
उपस्थित सभ्य, सामितेय,महर्षि, जन-वृद्ध,महाशाल तथा अन्य लोकसभ राजा असंगाक दृष्टि तथा निष्ठाक प्रशंसा कयलनि एवं साधुवाद देलनि ।
प्रधान पुरोहित उठिक' कहलनि-'सह्भोजक पश्चात अभिषेकक अवसर पर होमयबला अन्य उत्सव यथा,अश्वारोहन तथा द्युत-क्रीडा आदि यथानियम होयत एवं रात्रिमें अनास उत्सव।'ओ बैसिए रहल छलाह कि बाहरमे किछु कोलाहल भेल । वशिस्ठ ऋषि भासुरक उत्तेजित स्वर स्पष्ट सुनबामे आयल ।
एकटा बटुक आबिक' सूचना देलक जे ऋषि पाकशास्त्री भासुर कोनो बात पर रुसि गेलाह अछि ।
सह्भोजक अवसर पर हुनक रूसब सभकें ज्ञाटी अछि ।
आगत महर्षिगण सेहो हुनक स्वाभावसँ परिचित भ' गेल छलाह ।
सभ हँसे लागल ।
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