निर्मला -7
माता- हां, मगर अब तो शास्त्रीजी कहते थो कि दहेज के नाम से चिढ़ते हैं। सुना है यहां विवाह न करने पर पछताते भी थे। रुपये के लिए बात छोड़ी थी और रुपये खूब पाये, स्त्री पसंन्द नहीं।
निर्मला के मन में उस पुरुष को देखने की प्रबल उत्कंठा हुई, जो उसकी अवहेलना करके अब उसकी बहिन का उद्वार करना चाहता हैं प्रायश्चित सही, लेकिन कितने ऐसे प्राणी हैं, जो इस तरह प्रायश्चित करने को तैयार हैं? उनसे बातें करने के लिए, नम्र शब्दों से उनका तिरस्कार करने के लिए, अपनी अनुपम छवि दिखाकर उन्हें और भी जलाने के लिए निर्मला का हृदय अधीर हो उठा। रात को दोनों बहिनें एक ही केमरे में सोई। मुहल्ले में किन-किन लड़कियों का विवाह हो गया, कौन-कौन लड़कोरी हुईं, किस-किस का विवाह धूम-धाम से हुआ। किस-किस के पति कन इच्छानुकूल मिले, कौन कितने और कैस गहने चढ़ावे में लाया, इन्हीं विषयों में दोनों मे बड़ी देर तक बातें होती रहीं। कृष्णा बार-बार चाहती थी कि बहिन के घर का कुछ हाल पूछं, मगर निर्मला उसे पूछने का अवसर न देती थी। जानती थी कि यह जो बातें पूछेगी उसके बताने में मुझे संकोच होगा। आखिर एक बार कृष्णा पूछ ही बैठी-जीजाजी भी आयेंगे न?
निमर्ला- आने को कहा तो है।
कृष्ण- अब तो तुमसे प्रसन्न रहते हैं न या अब भी वही हाल है? मैं तो सुना करती थी दुहाजू पति स्त्री को प्राणों से भी प्रिया समझते हैं, वहां बिलकुल उल्टी बात देखी। आखिर किस बात पर बिगड़ते रहते हैं?
निर्मला- अब मैं किसी के मन की बात क्या जानू?
कुष्णा- मैं तो समझती हूं, तुम्हारी रुखाई से वह चिढ़ते होंगे। तुम हो यहीं से जली हुई गई थी। वहां भी उन्हें कुछ कहा होगा।
निर्मला- यह बात नहीं है, कृष्णा, मैं सौगन्ध खाकर कहती हूं, जो मेरे मन में उनकी ओर से जरा भी मैल हो। मुझसे जहां तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूं, अगर उनकी जगह कोई देवता भी होता, तो भी मैं इससे ज्यादा और कुछ न कर सकती। उन्हें भी मुझसे प्रेम है। बराबर मेरा मुंख देखते रहते हैं, लेकिन जो बात उनक और मेरे काबू के बाहर है, उसके लिए वह क्या कर सकते हैं और मैं क्या कर सकती हूं? न वह जवान हो सकते हैं, न मैं बुढ़िया हो सकती हूं। जवान बनने के लिए वह न जाने कितने रस और भस्म खाते रहते हैं, मैं बुढ़िया बनने के लिए दूध-घी सब छोड़े बैठी हूं। सोचती हूं, मेरे दुबलेपन ही से अवस्था का भेद कुछ कम हो जाय, लेकिन न उन्हें पौष्टिक पदार्थों से कुछ लाभ होता है, न मुझे उपवसों से। जब से मंसाराम का देहान्त हो गया है, तब से उनकी दशा और खराब हो गयी है।
कृष्णा- मंसाराम को तुम भी बहुत प्यार करती थीं?
निर्मला- वह लड़का ही ऐसा था कि जो देखता था, प्यार करता था। ऐसी बड़ी-बड़ी डोरेदार आंखें मैंने किसी की नहीं देखीं। कमल की भांति मुख हरदम खिला रह था। ऐसा साहसी कि अगर अवसर आ पड़ता, तो आग में फांद जाता। कृष्णा, मैं तुमसे कहती हूं, जब वह मेरे पास आकर बैठ जाता, तो मैं अपने को भूल जाती थी। जी चाहता था, वह हरदम सामने बैठा रहे और मैं देखा करुं। मेरे मन में पाप का लेश भी न था। अगर एक क्षण के लिए भी मैंने उसकी ओर किसी और भाव से देखा हो, तो मेरी आंखें फूट जायें, पर न जाने क्यों उसे अपने पास देखकर मेरा हृदय फूला न समाता था। इसीलिए मैंने पढ़ने का स्वांग रचा नहीं तो वह घर में आता ही न था। यह मै। जानती हूं कि अगर उसके मन में पाप होता, तो मैं उसके लिए सब कुछ कर सकती थी।
कृष्णा- अरे बहिन, चुप रहो, कैसी बातें मुंह से निकालती हो?
निर्मला- हां, यह बात सुनने में बुरी मालूम होती है और है भी बुरी, लेकिन मनुष्य की प्रकृति को तो कोई बदल नहीं सकता। तू ही बता- एक पचास वर्ष के मर्द से तेरा विवाह हो जाये, तो तू क्या करेगी?
कृष्णा-बहिन, मैं तो जहर खाकर सो रहूं। मुझसे तो उसका मुंह भी न देखते बने।
निर्मला- तो बस यही समझ ले। उस लड़के ने कभी मेरी ओर आंख उठाकर नहीं देखा, लेकिन बुड्ढे तो शक्की होते ही हैं, तुम्हारे जीजा उस लड़के के दुश्मन हो गए और आखिर उसकी जान लेकर ही छोड़ी। जिसे दिन उसे मालूम हो गया कि पिताजी के मन में मेरी ओर से सन्देह है, उसी दिन के उसे ज्वर चढ़ा, जो जान लेकर ही उतरा। हाय! उस अन्तिम समय का दृश्य आंखों से नहीं उतरता। मैं अस्पताल गई थी, वह ज्वी में बेहोश पड़ा था, उठने की शक्ति न थी, लेकिन ज्यों ही मेरी आवाज सुनी, चौंककर उठ बैठा और ‘माता-माता’ कहकर मेरे पैरों पर गिर पड़ा (रोकर) कृष्णा, उस समय ऐसा जी चाहता था अपने प्राण निकाल कर उसे दे दूं। मेरे पैरां पर ही वह मूर्छित हो गया और फिर आंखें न खोली। डॉक्टर ने उसकी देह मे ताजा खून डालने का प्रस्ताव किया था, यही सुनकर मैं दौड़ी गई थी लेकिन जब तक डॉक्टर लोग वह प्रक्रिया आरम्भ करें, उसके प्राण, निकल गए।
कृष्णा- ताजा रक्त पड़ जाने से उसकी जान बच जाती?
निर्मला- कौन जानता है? लेकिन मैं तो अपने रुधिर की अन्तिम बूंद तक देने का तैयार थी उस दशा में भी उसका मुखमण्डल दीपक की भांति चमकता था। अगर वह मुझे देखते ही दौड़कर मेरे पैरों पर न गिर पड़ता, पहले कुछ रक्त देह में पहुंच जाता, तो शायद बच जाता।
कृष्णा- तो तुमने उन्हें उसी वक्ता लिटा क्यों न दिया?
निर्मला- अरे पगली, तू अभी तक बात न समझी। वह मेरे पैरों पर गिरकर और माता-पुत्र का सम्बन्ध दिखाकर अपने बाप के दिल से वह सन्देह निकाल देना चाहता था। केवल इसीलिए वह उठा थ। मेरा क्लेश मिटाने के लिए उसने प्राण दिये और उसकी वह इच्छा पूरी हो गई। तुम्हारे जीजाजी उसी दिन से सीधे हो गये। अब तो उनकी दशा पर मुझे दया आती है। पुत्र-शाक उनक प्राण लेकर छोड़ेगा। मुझ पर सन्देह करके मेरे साथ जो अन्याय किया है, अब उसका प्रतिशोध कर रहे हैं। अबकी उनकी सूरत देखकर तू डर जायेगी। बूढ़े बाबा हो गये हैं, कमर भी कुछ झुक चली है।
कृष्णा- बुड्ढे लोग इतनी शक्की क्यों होते हैं, बहिन?
निर्मला- यह जाकर बुड्ढों से पूछो।
कृष्णा- मैं समझती हूं, उनके दिल में हरदम एक चोर-सा बैठा रहता होगा कि इस युवती को प्रसन्न नहीं रख सकता। इसलिए जरा-जरा-सी बात पर उन्हें शक होने लगता है।
निर्मला- जानती तो है, फिर मुझसे क्यों पूछती है?
कुष्णा- इसीलिए बेचारा स्त्री से दबता भी होगा। देखने वाले समझते होंगे कि यह बहुत प्रेम करता है।
निर्मला- तूने इतने ही दिनों में इ तनी बातें कहां सीख लीं? इन बातों को जाने दे, बता, तुझे अपना वर पसन्द है? उसकी तस्वीर ता देखी होगी?
कृष्णा- हां, आई तो थी, लाऊं, देखोगी?
एक क्षण में कृष्णा ने तस्वीर लाकर निर्मला के हाथ में रख दी।
निर्मला ने मुस्कराकर कहा-तू बड़ी भाग्यवान् है।
कृष्णा- अम्माजी ने भी बहुत पसन्द किया।
निर्मला- तुझे पसन्द है कि नहीं, सो कह, दूसरों की बात न चला।
कृष्णा- (लजाती हुई) शक्ल-सूरत तो बुरी नहीं है, स्वभाव का हाल ईश्वर जाने। शास्त्रीजी तो कहते थे, ऐसे सुशील और चरित्रवान् युवक कम होंगे।
निर्मला- यहां से तेरी तस्वीर भी गई थी?
कृष्णा- गई तो थी, शास्त्रीजी ही तो ले गए थे।
निर्मला- उन्हें पसन्द आई?
कृष्णा- अब किसी के मन की बात मैं क्या जानूं? शास्त्री जी कहते थे, बहुत खुश हुए थे।
निर्मला- अच्छा, बता, तुझे क्या उपहार दूं? अभी से बता दे, जिससे बनवा रखूं।
कृष्णा- जो तुम्हारा जी चाहे, देना। उन्हें पुस्तकों से बहुत प्रेम है। अच्छी-अच्छी पुस्तकें मंगवा देना।
निर्मला-उनके लिए नहीं पूछती तेरे लिए पूछती हूं।
कृष्णा- अपने ही लिये तो मैं कह रही हूं।
निर्मला- (तस्वीर की तरफ देखती हुई) कपड़े सब खद्दर के मालूम होते हैं।
कृष्णा- हां, खद्दर के बड़े प्रेमी हैं। सुनती हूं कि पीठ पर खद्दर लाद कर देहातों में बेचने जाया करते हैं। व्याख्यान देने में भी चतुर हैं।
निर्मला- तब तो मुझे भी खद्द पहनना पड़ेगा। तुझे तो मोटे कपड़ो से चिढ़ है।
कृष्णा- जब उन्हें मोटे कपड़े अच्छे लगते हैं, तो मुझे क्यों चिढ़ होगी, मैंने तो चर्खा चलाना सीख लिया है।
निर्मला- सच! सूत निकाल लेती है?
कृष्णा- हां, बहिन, थोड़ा-थोड़ा निकाल लेती हूं। जब वह खद्दर के इतने प्रेमी हैं, जो चर्खा भी जरुर चलाते होंगे। मैं न चला सकूंगी, तो मुझे कितना लज्जित होना पड़ेगा।
इस तरह बात करते-करते दोनों बहिनों सोईं। कोई दो बजे रात को बच्ची रोई तो निर्मला की नींद खुली। देखा तो कृष्णा की चारपाई खाली पड़ी थी। निर्मला को आश्चर्य हुआ कि इतना रात गये कृष्णा कहां चली गई। शायद पानी-वानी पीने गई हो। मगरी पानी तो सिरहाने रखा हुआ है, फिर कहां गई है? उसे दो-तीन बार उसका नाम लेकर आवाज दी, पर कृष्णा का पता न था। तब तो निर्मला घबरा उठी। उसके मन में भांति-भांति की शंकाएं होने लगी। सहसा उसे ख्याल आया कि शायद अपने कमरे में न चली गई हो। बच्ची सो गई, तो वह उठकर कृष्णा के के कमरे के द्वार पर आई। उसका अनुमान ठीक था, कृष्णा अपने कमरे में थी। सारा घर सो रहा था और वह बैठी चर्खा चला रही थी। इतनी तन्मयता से शायद उसने थिऐटर भी न देखा होगा। निर्मला दंग रह गई। अन्दर जाकर बोली- यह क्या कर रही है रे! यह चर्खा चलाने का समय है?
कृष्णा चौंककर उठ बैठी और संकोच से सिर झुकाकर बोली- तुम्हारी नींद कैसे खुल गई? पानी-वानी तो मैंने रख दिया था।
निर्मला- मैं कहती हूं, दिन को तुझे समय नहीं मिलता, जो पिछली रात को चर्खा लेकर बैठी है?
कृष्णा- दिन को फुरसत ही नहीं मिलती?
निर्मला- (सूत देखकर) सूत तो बहुत महीन है।
कृष्णा- कहां-बहिन, यह सूत तो मोटा है। मैं बारीक सूतकात कर उनके लिए साफा बनाना चाहती हूं। यही मेरा उपहार होगा।
निर्मला- बात तो तूने खूब सोची है। इससे अधिक मूल्यवसान वस्तु उनकी दृष्टि में और क्या होगी? अच्छा, उठ इस वक्त, कल कातना! कहीं बीमार पड़ जायेगी, तो सब धरा रह जायेगा।
कृष्णा- नहीं मेरी बहिन, तुम चलकर सोओ, मैं अभी आती हूं।
निर्मला ने अधिक आग्रह न किया, लेटने चली गई। मगर किसी तरह नींद न आई। कृष्णा की उत्सुकता और यह उमंग देखकर उसका हृदय किसी अलक्षित आकांक्षा से आन्दोलित हो उठां ओह! इस समय इसका हृदय कितना प्रफुल्लित हो रहा है। अनुराग ने इसे कितना उन्मत्त कर रखा है। तब उसे अपने विवाह की याद आई। जिस दिन तिलक गया था, उसी दिन से उसकी सारी चंचलता, सारी सजीवता विदा हो गेई थी। अपनी कोठरी में बैठी वह अपनी किस्मत को रोती थी और ईश्वर से विनय करती थी कि प्राण निकल जाये। अपराधी जैसे दंड की प्रतीक्षा करता है, उसी भांति वह विवाह की प्रतीक्षा करती थी, उस विवाह की, जिसमें उसक जीवन की सारी अभिलाषाएं विलीन हो जाएंगी, जब मण्डप के नीचे बने हुए हवन-कुण्ड में उसकी आशाएं जलकर भस्म हो जायेंगी। महीना कटते देर न लगी। विवाह का शुभ मुहूर्त आ पहुंचां मेहमानों से घार भार गया। मंशी तोताराम एक दिन पहले आ गये और उसनके साथ निर्मला की सहेली भी आई। निर्मला ने बहुत आग्रह न किया था, वह खुद आने को उत्सुक थी। निर्मला की सबसे बड़ी उत्कंठा यही थी कि वर के बड़े भाई के दर्शन करुंगी और हो सकता तो उसकी सुबुद्वि पर धन्यवाद दूंगी।
सुधा ने हंस कर कहा-तुम उनसे बोल सकोगी?
निर्मला- क्यों, बोलने में क्या हानि है? अब तो दूसरा ही सम्बन्ध हो गया और मैं न बोल सकूंगी, तो तुम तो हो ही।
सुधा-न भाई, मुझसे यह न होगा। मैं पराये मर्द से नहीं बोल सकती। न जाने कैसे आदमी हों।
निर्मला-आदमी तो बुरे नहीं है, और फिर उनसे कुछ विवाह तो करना नहीं, जरा-सा बोलने में क्या हानि है? डॉक्टर साहब यहां होते, तो मैं तुम्हें आज्ञा दिला देती।
सुधा-जो लोग हुदय के उदार होते हैं, क्या चरित्र के भी अच्छे होते है? पराई स्त्री की घूरने में तो किसी मर्द को संकोच नहीं होता।
निर्मला-अच्छा न बोलना, मैं ही बातें कर लूंगी, घूर लेंगे जितना उनसे घूरते बनेगा, बस, अब तो राजी हुई।
इतने में कृष्णा आकर बैठ गई। निर्मला ने मुस्कराकर कहा-सच बता कृष्णा, तेरा मन इस वक्त क्यों उचाट हो रहा है?
कृष्णा-जीजाजी बुला रहे हैं, पहले जाकर सुना आआ, पीछे गप्पें लड़ाना बहुत बिगड़ रहे हैं।
निर्मला- क्या है, तून कुछ पूछा नहीं?
कृष्णा- कुछ बीमार से मालूम होते हैं। बहुत दुबले हो गए हैं।
निर्मला- तो जरा बैठकर उनका मन बहला देती। यहां दौड़ी क्यों चली आई? यह कहो, ईश्वर ने कृपा की, नहीं तो ऐसा ही पुरुषा तुझे भी मिलता। जरा बैठकर बातें करो। बुड्ढे बातें बड़ी लच्छेदार करते हैं। जवान इतने डींगियल नहीं होते।
कृष्णा- नहीं बहिन, तुम जाओ, मुझसे तो वहां बैठा नहीं जाता।
निर्मला चली गई, तो सुधा ने कृष्णा से कहा- अब तो बारात आ गई होगी। द्वार-पूजा क्यों नही होती?
कृष्णा- क्या जाने बहिन, शास्त्रीजी सामान इकट्ठा कर रहे हैं?
सुधा- सुना है, दूल्हा का भावज बड़े कड़े स्वाभाव की स्त्री है।
कृष्णा- कैसे मालूम?
सुधा- मैंने सुना है, इसीलिए चेताये देती हूं। चार बातें गम खाकर रहना होगा।
कृष्णा- मेरी झगड़ने की आदत नहीं। जब मेरी तरफ से कोई शिकायत ही न पायेंगी तो क्या अनायास ही बिगड़ेगी!
सुधा- हां, सुना तो ऐसा ही है। झूठ-मूठ लड़ा कारती है।
कृष्णा- मैं तो सौबात की एक बात जानती हूं, नम्रता पत्थर को भी मोम कर देती है।
सहसा शोर मचा- बारात आ रही है। दोनों रमणियां खिड़की के सामने आ बैठीं। एक क्षण में निर्मला भी आ पहुंची।
वर के बड़े भाई को देखने की उसे बड़ी उत्सुकता हो रही थी।
सुधा ने कहा- कैसे पता चलेगा कि बड़े भाई कौन हैं?
निर्मला- शास्त्रीजी से पूछूं, तो मालूम हो। हाथी पर तो कृष्णा के ससुर महाशय हैं। अच्छा डॉक्टर साहब यहां कैसे आ पहुंचे! वह घोड़े पर क्या
हैं, देखती नहीं हो?
सुधा- हां, हैं तो वही।
निर्मला- उन लोगों से मित्रता होगी। कोई सम्बन्ध तो नहीं है।
सुधा- अब भेंट हो तो पूछूं, मुझे तो कुछ नहीं मालूम।
निर्मला- पालकी मे जो महाशय बैठे हुए हैं, वह तो दूल्हा के भाई जैसे नहीं दीखते।
सुधा- बिलकुल नहीं। मालूम होता है, सारी देहे मे पेछ-ही-पेट है।
निर्मला- दूसरे हाथी पर कौन बैठा है, समझ में नही आता।
सुधा- कोई हो, दूल्हा का भाई नहीं हो सकता। उसकी उम्र नहीं देखती हो, चालीस के ऊपर होंगी।
निर्मला- शास्त्रजी तो इस वक्त द्वार-पूजा कि फिक्र में हैं, नहीं तोा उनसे पूछती।
संयोग से नाई आ गया। सन्दूकों की कुंलियां निर्मला के पास थीं। इस वक्त द्वारचार के लिए कुछ रुपये की जरुरत थी, माता ने भेजा था, यह नाई भी पण्डित मोटेराम जी के साथ तिलक लेकर गया था।
निर्मला ने कहा- क्या अभी रुपये चाहिए?
नाई- हां बहिनजी, चलकर दे दीजिए।
निर्मला- अच्छा चलती हूं। पहले यह बता, तू दूल्हा क बड़े भाई को पहचानता है?
नाई- पहचानता काहे नहीं, वह क्या सामने हैं।
निर्मला- कहां, मैं तो नहीं देखती?
नाई- अरे वह क्या घोड़े पर सवार हैं। वही तो हैं।
निर्मला ने चकित होकर कहा- क्या कहता है, घोड़े पर दूल्हा के भाई हैं! पहचानता है या अटकल से कह रहा है?
नाई- अरे बहिनजी, क्या इतना भूल जाऊंगा अभी तो जलपान का सामान दिये चला आता हूं।
निर्मल- अरे, यह तो डॉक्टर साहब हैं। मेरे पड़ोस में रहते हैं।
नाई- हां-हां, वही तो डॉक्टर साहब है।
निर्मला ने सुधा की ओर देखकर कहा- सुनती ही बहिन, इसकी बातें? सुधा ने हंसी रोककर कहा-झूठ बोलता है।
नाई- अच्छा साहब, झूठ ही सही, अब बड़ों के मुंह कौन लगे! अभी शास्त्रीजी से पूछवा दूंगा, तब तो मानिएगा?
नाई के आने में देर हुई, मोटेराम खुद आंगन में आकर शोर मचाने लगे-इस घर की मर्यादा रखना ईश्वर ही के हाथ है। नाई घण्टे भर से आया हुआ है, और अभी तक रुपये नहीं मिले।
निर्मला- जरा यहां चले आइएगा शास्त्रीजी, कितने रुपये दरकरार हैं, निकाल दूं?
शास्त्रीजी भुनभुनाते और जोर-जारे से हांफते हुए ऊपर आये और एक लम्बी सांस लेकर बोले-क्या है? यह बातों का समय नहीं है, जल्दी से रुपये निकाल दो।
निर्मला- लीजिए, निकाल तो रहीं हूं। अब क्या मुंह के बल गिर पडूं? पहले यह बताइए कि दूलहा के बड़े भाई कौन हैं?
शास्त्रीजी- रामे-राम, इतनी-सी बात के लिए मुझे आकाश पर लटका दिया। नाई क्या न पहचानता था?
निर्मला- नाई तो कहता है कि वह जो घोड़े पर सवार है, वही हैं।
शास्त्रीजी- तो फिर किसे बता दे? वही तो हैं ही।
नाई- घड़ी भर से कह रहा हूं, पर बहिनजी मानती ही नहीं।
निर्मला ने सुधा की ओर स्नेह, ममता, विनोद कृत्रिम तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा- अच्छा, तो तुम्ही अब तक मेरे साथ यह त्रिया-चरित्र खेर रही थी! मैं जानती, तो तुम्हें यहां बुलाती ही नहीं। ओफ्फोह! बड़ा गहरा पेट है तुम्हारा! तुम महीनों से मेरे साथ शरारत करती चली आती हो, और कभी भूल से भी इस विषय का एक शब्द तुम्हारे मुंह से नहीं निकला। मैं तो दो-चार ही दिन में उबल पड़ती।
सुधा- तुम्हें मालूम हो जाता, तो तुम मेरे यहां आती ही क्यों?
निर्मला- गजब-रे-गजब, मैं डॉक्टर साहब से कई बार बातें कर चुकी हूं। तुम्हारो ऊपर यह सारा पाप पड़ेगा। देखा कृष्णा, तूने अपनी जेठानी की शरारत! यह ऐसी मायाविनी है, इनसे डरती रहना।
कृष्णा- मैं तो ऐसी देवी के चरण धो-धोकर माथे चढाऊंगी। धन्य-भाग कि इनके दर्शन हुए।
निर्मला- अब समझ गई। रुपये भी तुम्हें न भिजवाये होंगे। अब सिर हिलाया तो सच कहती हूं, मार बैठूंगी।
सुधा- अपने घर बुलाकर के मेहमान का अपमान नहीं किया जाता। निर्मला- देखो तो अभी कैसी-कैसी खबरे लेती हूं। मैंने तुम्हारा मान रखने को जरा-सा लिख दिया था और तुम सचमुच आ पहुंची। भला वहां वाले क्या कहते होंगे?
सुधा- सबसे कहकर आई हूं।
निर्मला- अब तुम्हारे पास कभी न आऊंगी। इतना तो इशारा कर देतीं कि डॉक्टर साहब से पर्दा रखना।
सुधा- उनके देख लेने ही से कौन बुराई हो गई? न देखते तो अपनी किस्मत को रोते कैसे? जानते कैसे कि लोभ में पड़कर कैसी चीज खो दी? अब तो तुम्हें देखकर लालाजी हाथ मलकर रह जाते हैं। मुंह से तो कुछ नहीं सकहते, पर मन में अपनी भूल पर पछताते हैं।
निर्मला- अब तुम्हारे घर कभी न आऊंगी।
सुधा- अब पिण्ड नहीं छूट सकता। मैंने कौन तुम्हारे घर की राह नीं देखी है।
द्वार-पूजा समाप्त हो चुकी थी। मेहमान लोग बैठ जलपान कर रहे थे। मुंशीजी की बेगल में ही डॉक्टर सिन्हा बैठे हुए थे। निर्मला ने कोठे पर चिक की आड़ से उन्हें देखा और कलेजा थामकर रह गई। एक आरोग्य, यौवन और प्रतिभा का देवता था, पर दूसरा...इस विषय में कुछ न कहना ही दचित है।
निर्मला ने डॉक्टर साहब को सैकड़ों ही बार देखा था, पर आज उसके हृदय में जो विचार उठे, वे कभी न उठे थे। बार-बार यह जी चाहता था कि बुलाकर खूब फटकारुं, ऐसे-ऐसे ताने मारुं कि वह भी याद करें, रुला-रुलाकर छोडूं, मेगर रहम करके रह जाती थी। बारात जनवासे चली गई थी। भोजन की तैयारी हो रही थी। निर्मला भोजन के थाल चुनने में व्यस्त थी। सहसा महरी ने आकर कहा- बिट्टी, तुम्हें सुधा रानी बुला रही है। तुम्हारे कमरे में बैठी हैं।
निर्मला ने थाल छोड़ दिये और घबराई हुई सुधा के पास आई, मगर अन्दर कदम रखते ही ठिठक गई, डॉक्टर सिन्हा खड़े थे।
सुधा ने मुस्कराकर कहा- लो बहिन, बुला दिया। अब जितना चाहो, फटकारो। मैं दरवाजा रोके खड़ी हूं, भाग नहीं सकते।
डॉक्टर साहब ने गम्भीर भाव से कहा- भागता कौन है? यहां तो सिर झुकाए खड़ा हूं।
निर्मला ने हाथ जोड़कर कहा- इसी तरह सदा कृपा-दृष्टि रखिएगा, भूल न जाइएगा। यह मेरी विनय है।कृष्णा के विवाह के बाद सुधा चली गई, लेकिन निर्मला मैके ही में रह गई। वकील साहब बार-बार लिखते थे, पर वह न जाती थी। वहां जाने को उसका जी न चाहता था। वहां कोई ऐसी चीज न थी, जो उसे खींच ले जाये। यहां माता की सेवा और छोटे भाइयों की देखभाल में उसका समय बड़े आनन्द के कट जाता था। वकील साहब खुद आते तो शायद वह जाने पर राजी हो जाती, लेकिन इस विवाह में, मुहल्ले की लड़कियों ने उनकी वह दुर्गत की थी कि बेचारे आने का नाम ही न लेते थे। सुधा ने भी कई बार पत्र लिखा, पर निर्मला ने उससे भी हीले-हव़ाले किया। आखिर एक दिन सुधा ने नौकर को साथ लिया और स्वयं आ धमकी।
जब दोनों गले मिल चुकीं, तो सुधा ने कहा-तुम्हें तो वहां जाते मानो डर लगता है।
निर्मला- हां बहिन, डर तो लगता है। ब्याह की गई तीन साल में आई, अब की तो वहां उम्र ही खतम हो जायेगी, फिर कौन बुलाता है और कौन आता है?
सुधा- आने को क्या हुआ, जब जी चाहे चली आना। वहां वकील साहब बहुत बेचैन हो रहे हैं।
निर्मला- बहुत बेचैन, रात को शायद नींद न आती हो।
सुधा- बहिन, तुम्हारा कलेजा पत्थर का है। उनकी दशा देखकर तरस आता है। कहते थे, घर मे कोई पूछने वाला नहीं, न कोई लड़का, न बाला, किससे जी बहलायें? जब से दूसरे मकान में उठ आए हैं, बहुत दुखी रहते हैं।
निर्मला- लड़के तो ईश्वर के दिये दो-दो हैं।
सुधा- उन दोनों की तो बड़ी शिकायत करते थे। जियाराम तो अब बात ही नहीं सुनता-तुर्की-बतुर्की जवाब देता है। रहा छोटा, वह भी उसी के कहने में है। बेचारे बड़े लड़के की याद करके रोया करते हैं।
निर्मला- जियाराम तो शरीर न था, वह बदमाशी कब से सीख गया? मेरी तो कोई बात न टालता था, इशारे पर काम करता था।
सुधा- क्या जाने बहिन, सुना, कहता है, आप ही ने भैया को जहर देकर मार डाला, आप हत्यारे हैं। कई बार तुमसे विवाह करने के लिए ताने दे चुका है। ऐसी-ऐसी बातें कहता है कि वकील साहब रो पड़ते हैं। अरे, और तो क्या कहूं, एक दिन पत्थर उठाकर मारने दौड़ा था।
निर्मला ने गम्भीर चिन्ता में पड़कर कहा- यह लड़का तो बड़ा शैतान निकला। उसे यह किसने कहा कि उसके भाई को उन्होंने जहर दे दिया है?
सुधा- वह तुम्हीं से ठीक होगा।
निर्मला को यह नई चिन्ता पैदा हुई। अगर जिया की यही रंग है, अपने बाप से लड़ने पर तैयार रहता है, तो मुझसे क्यों दबने लगा? वह रात को बड़ी देर तक इसी फिक्र मे डूबी रही। मंसाराम की आज उसे बहुत याद आई। उसके साथ जिन्दगी आराम से कट जाती। इस लड़के का जब अपने पिता के सामने ही वह हाल है, तो उनके पीछे उसके साथ कैसे निर्वाह होगा! घर हाथ से निकल ही गया। कुछ-न-कुछ कर्ज अभी सिर पर होगा ही, आमदनी का यह हाल। ईश्ववर ही बेड़ा पार लगायेंगे। आज पहली बार निर्मला को बच्चों की फिक्र पैदा हुई। इस बेचारी का न जाने क्या हाल होगा? ईश्वर ने यह विपत्ति सिर डाल दी। मुझे तो इसकी जरुरत न थी। जन्म ही लेना था, तो किसी भाग्यवान के घर जन्म लेती। बच्ची उसकी छाती से लिपटी हुई सो रही थी। माता ने उसको और भी चिपटा लिया, मानो कोई उसके हाथ से उसे छीने लिये जाता है।
निर्मला के पास ही सुधा की चारपाई भी थी। निर्मेला तो चिन्त्ज्ञ सागर मे गोता था रही थी और सुधा मीठी नींद का आनन्द उठा रही थी। क्या उसे अपने बालक की फिक्र सताती है? मृत्यु तो बूढ़े और जवान का भेद नहीं करती, फिनर सुधा को कोई चिन्ता क्यों नहीं सताती? उसे तो कभी भविष्य की चिन्ता से उदास नहीं देखा।
सहसा सुधा की नींद खुल गई। उसने निर्मला को अभी तक जागते देखा, तो बोली- अरे अभी तुम सोई नहीं?
निर्मला- नींद ही नहीं आती।
सुधा- आंखें बन्द कर लो, आप ही नींद आ जायेगी। मैं तो चारपाई पर आते ही मर-सी जाती हूं। वह जागते भी हैं, तो खबर नहीं होती। न जाने मुझे क्यों इतनी नींद आती है। शायद कोई रोग है।
निर्मला- हां, बड़ा भारी रोग है। इसे राज-रोग कहते हैं। डॉक्टर साहब से कहो-दवा शुरु कर दें।
सुधा- तो आखिर जागकर क्या सोचूं? कभी-कभी मैके की याद आ जाती है, तो उस दिन जरा देर में आंख लगती है।
निर्मला- डॉक्टर साहब की यादा नहीं आती?
सुधा- कभी नहीं, उनकी याद क्यों आये? जानती हूं कि टेनिस खेलकर आये होंगे, खाना खाया होगा और आराम से लेटे होंगे।
निर्मला- लो, सोहन भी जाग गया। जब तुम जाग गईं
तो भला यह क्यों सोने लगा?
सुधा- हां बहिन, इसकी अजीब आदत है। मेरे साथ सोता और मेरे ही साथ जागता है। उस जन्म का कोई तपस्वी है। देखो, इसके माथे पर तिलक का कैसा निशान है। बांहों पर भी ऐसे ही निशान हैं। जरुर कोई तपस्वी है।
निर्मला- तपस्वी लोग तो चन्दन-तिलक नहीं लगाते। उस जन्म का कोई धूर्त पुजारी होगा। क्यों रे, तू कहां का पुजारी था? बता?
सुधा- इसका ब्याह मैं बच्ची से करुंगी।
निर्मला- चलो बहिन, गाली देती हो। बहिन से भी भाई का ब्याह होता है?
सुधा- मैं तो करुंगी, चाहे कोई कुछ कहे। ऐसी सुन्दर बहू और कहां पाऊंगी? जरा देखो तो बहन, इसकी देह कुछ गर्म है या मुझके ही मालूम होती है।
निर्मला ने सोहन का माथा छूकर कहा-नहीं-नहीं, देह गर्म है। यह ज्वर कब आ गया! दूध तो पी रहा है न?
सुधा- अभी सोया था, तब तो देह ठंडी थी। शायद सर्दी लग गई, उढ़ाकर सुलाये देती हूं। सबेरे तक ठीक हो जायेगा।
सबेरा हुआ तो सोहन की दशा और भी खराब हो गई। उसकी नाक बहने लगी और बुखार और भी तेज हो गया। आंखें चढ़ गईं और सिर झुक गया। न वह हाथ-पैर हिलाता था, न हंसता-बोलता था, बस, चुपचाप पड़ा था। ऐसा मालूम होता था कि उसे इस वक्त किसी का बोलना अच्छा नहीं लगता। कुछ-कुछ खांसी भी आने लगी। अब तो सुधा घबराई। निर्मला की भी राय हुई कि डॉक्टर साहब को बुलाया जाये, लेकिन उसकी बूढ़ी माता ने कहा-डॉक्टर-हकीम साहब का यहां कुछ काम नहीं। साफ तो देख रही हूं। कि बच्चे को नजर लग गई है। भला डॉक्टर
आकर क्या करेंगे?
सुधा- अम्मांजी, भला यहां नजर कौन लगा देगा? अभी तक तो बाहर कहीं गया भी नहीं।
माता- नजर कोई लगाता नहीं बेटी, किसी-किसी आदमी की दीठ बुरी होती है, आप-ही-आप लग जाती है। कभी-कभी मां-बाप तक की नजर लग जाती है। जब से आया है, एक बार भी नहीं रोया। चोंचले बच्चों को यही गति होती है। मैं इसे हुमकते देखकर डरी थी कि कुछ-न-कुछ अनिष्ट होने वाला है। आंखें नहीं देखती हो, कितनी चढ़ गई हैं। यही नजर की सबसे बड़ी पहचान है।
बुढ़िया महरी और पड़ोस की पंडिताइन ने इस कथन का अनुमोदन कर दिया। बस महंगू ने आकर बच्चे का मुंह देखा और हंस कर बोला-मालकिन, यह दीठ है और नहीं। जरा पतली-पतली तीलियां मंगवा दीजिए। भगवान ने चाहा तो संझा तक बच्चा हंसने लगेगा।
सरकण्डे के पांच टुकड़े लाये गये। महगूं ने उन्हें बराबर करके एक डोरे से बांध दिया और कुछ बुदबुदाकर उसी पोले हाथों से पांच बार सोहन का सिर सहलाया। अब जो देखा, तो पांचों तीलियां छोटी-बड़ी हो गेई थी। सब स्त्रीयों यह कौतुक देखकर दंग रह गईं। अब नजर में किसे सन्देह हो सकता था। महगूं ने फिर बच्चे को तीलियों से सहलाना शुरु किया। अब की तीलियां बराबर हो गईं। केवल थोड़ा-सा अन्तर रह गया। यह सब इस बात का प्रमाण था कि नजर का असर अब थोड़ा-सा और रह गया है। महगू सबको दिलासा देकर शाम को फिर आने का वायदा करके चला गया। बालक की दशा दिन को और खराब हो गई। खांसी का जोर हो गया। शाम के समय महगूं ने आकरा फिर तीलियों का तमाशा किया। इस वक्त पांचों तीलियों बराबर निकलीं। स्त्रीयां निश्चित हो गईं लेकिन सोहन को सारी रात खांसते गुजरी। यहां तक कि कई बार उसकी आंखें उलट गईं। सुधा और निर्मला दोनों ने बैठकर सबेरा किया। खैर, रात कुशल से कट गई। अब वृद्वा माताजी नया रंग लाईं। महगूं नजर न उतार सका, इसलिए अब किसी मौलवी से फूंक डलवाना जरुरी हो गया। सुधा फिर भी अपने पति को सूचना न दे सकी। मेहरी सोहन को एक चादर से लपेट कर एक मस्जिद में ले गई और फूंक डलवा लाई, शाम को भी फूंक छोड़ी, पर सोहन ने सिर न उठाया। रात आ गई, सुधा ने मन मे निश्चय किया कि रात कुशल से बीतेगी, तो प्रात:काल पति को तार दूंगी।
लेकिन रात कुशल से न बीतने पाई। आधी रात जाते-जाते बच्चा हाथ से निकल गया। सुधा की जीन- सम्पत्ति देखते-देखते उसके हाथों से छिन गई।
वही जिसके विवाह का दो दिन पहले विनोद हो रहा था, आज सारे घर को रुला रहा है। जिसकी भोली-भाली सूरत देखकर माता की छाती फूल उठती थी, उसी को देखकर आज माता की छाती फटी जाती है। सारा घर सुधा को समझाता था, पर उसके आंसू न थमते थे, सब्र न होता था। सबसे बड़ा दु:ख इस बात का था का पति को कौन मुंह दिखलाऊंगी! उन्हें खबर तक न दी।
रात ही को तार दे दिया गया और दूसरे दिन डॉक्टर सिन्हा नौ बजते-बजते मोटर पर आ पहुंचे। सुधा ने उनके आने की खबर पाई, तो और भी फूट-फूटकर रोने लगी। बालक की जल-क्रिया हुई, डॉक्टर साहब कई बार अन्दर आये, किन्तु सुधा उनके पास न गई। उनके सामने कैसे जाये? कौन मुंह दिखाये? उसने अपनी नादानी से उनके जीवन का रत्न छीनकर दरिया में डाल दिया। अब उनके पास जाते उसकी छाती के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते थे। बालक को उसकी गोद में देखकर पति की आंखे चमक उठती थीं। बालक हुमककर पिता की गोद में चला जाता था। माता फिर बुलाती, तो पिता की छाती से चिपट जाता था और लाख चुमराने-दुलारने पर भी बाप को गोद न छोड़ता था। तब मां कहती थी- बैड़ा मतलबी है। आज वह किसे गोद मे लेकर पति के पास जायेगी? उसकी सूनी गोद देखकर कहीं वह चिल्लाकर रो न पड़े। पति के सम्मुख जाने की अपेक्षा उसे मर जाना कहीं आसान जान पड़ता था। वह एक क्षण के लिए भी निर्मला को न छोड़ती थी कि कहीं पति से सामना न हो जाये।
निर्मला ने कहा- बहिन, जो होना था वह हो चुका, अब उनसे कब तक भागती फिरोगी। रात ही को चले जायेंगे। अम्मां कहती थीं।
सुधा से सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा- कौन मुंह लेकर उनके पास जाऊं? मुझे डर लग रहा है कि उनके सामने जाते ही मेरा पैरा न थर्राने लगे और मैं गिर पडूं।
निर्मला- चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं। तुम्हें संभाले रहूंगी।
सुधा- मुझे छोड़कर भाग तो न जाओगी?
निर्मला- नहीं-नहीं, भागूंगी नहीं।
सुधा- मेरा कलेजा तो अभी से उमड़ा आता है। मैं इतना घोर व्रजपाता होने पर भी बैठी हूं, मुझे यही आश्चर्य हो रहा है। सोहन को वह बहुत प्यार करते थे बहिन। न जाने उनके चित्त की क्या दशा होगी। मैं उन्हें ढाढ़स क्या दूंगी, आप हो रोती रहूंगी। क्या रात ही को चले जायेंगे?
निर्मला- हां, अम्मांजी तो कहती थी छुट्टी नहीं ली है।
दोनो सहेलियां मर्दाने कमरे की ओर चलीं, लेकिन कमरे के द्वार पर पहुंचकर सुधा ने निर्मला से विदा कर दिया। अकेली कमरे मे दाखिल हुई।
डॉक्टर साहब घबरा रहे थे कि न जाने सुधा की क्या दशा हो रही है। भांति-भांति की शंकाएं मन मे आ रही थीं। जाने को तैयार बैठे थे, लेकिन जी न चाहता था। जीवन शून्य-सा मालूम होता था। मन-ही-मन कुढ़ रहे थे, अगर ईश्वर को इतनी जल्दी यह पदार्थ देकर छीन लेना था, तो दिया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी सन्तान के लिए ईश्वर से प्रार्थना न की थी। वह आजन्म नि:सन्तान रह सकते थे, पर सन्तान पाकर उससे वंचित हो जाना उन्हं असह्रा जान पड़ता था। क्या सचमुच मनुष्य ईश्वर का खिलौना है? यही मानव जीवन का महत्व है? यह केवल बालकों का घरौंदा है, जिसके बनने का न कोई हेतु है न बिगड़ने का? फिर बालकों को भी तो अपने घरौंदे से अपनी कागेज की नावों से, अपनी लकड़ी के घोड़ों से ममता होती है। अच्छे खिलौने का वह जान के पीछे छिपाकर रखते हैं। अगर ईश्वर बालक ही है तो वह विचित्र बालक है।
किन्तु बुद्वि तो ईश्चर का यह रुप स्वीकार नहीं करती। अनन्त सृष्टि का कर्त्ता उद्दण्ड बालक नहीं हो सकता है। हम उसे उन सारे गुणों से विभूषित करते हैं, जो हमारी बुद्वि का पहुंच से बाहर है। खिलाड़ीपन तो साउन महान् गुणों मे नहीं! क्या हंसते-खेलते बालकों का प्राण हर लेना खेल है? क्या ईश्वर ऐसा पैशाचिक खेल खेलता है?
सहसा सुधा दबे-पांव कमरे में दाखिल हुई। डासॅक्टर साहब उठ खड़े हुए और उसके समीप आकर बोले-तुम कहां थी, सुधा? मैं तुम्हारी राह देख रहा था।
सुधा की आंखों से कमरा तैरता हुआ जान पड़ा। पति की गर्दन मे हाथ डालकर उसने उनकी छाती पर सिर रख दिया और रोने लगी, लेकिन इस अश्रु-प्रवाह में उसे असीम धैर्य और सांत्वना का अनुभव हो रहा था। पति के वक्ष-स्थल से लिपटी हुई वह अपने हृदय में एक विचित्र स्फूर्ति और बल का संचार होते हुए पाती थी, मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक अंचल की आड़ में आ गया हो।
डॉक्टर साहब ने रमणी के अश्रु-सिंचित कपोलों को दोनो हाथो में लेकर कहा-सुधा, तुम इतना छोटा दिल क्यों करती हो? सोहन अपने जीवन में जो कुछ करने आया था, वह कर चुका था, फिर वह क्यों बैठा रहता? जैसे कोई वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है, लेकिन पवन के प्रबल झोकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भांति प्रणय भी दु:ख के आघातों ही से विकास पाता है। खुशी के साथ हंसनेवाले बहुतेरे मिल जाते हैं, रंज में जो साथ रोये, वहर हमारा सच्चा मित्र है। जिन प्रेमियों को साथ रोना नहीं नसीब हुआ, वे मुहब्बत के मजे क्या जानें? सोहन की मृत्यु ने आज हमारे द्वैत को बिलकुल मिटा दिया। आज ही हमने एक दूसरे का सच्चा स्वरुप देखा।;?!
सुधा ने सिसकते हुए कहा- मैं नजर के धोखे में थी। हाय! तुम उसका मुंह भी न देखने पाये। न जाने इन सदिनों उसे इतनी समझ कहां से आ गई थी। जब मुझे रोते देखता, तो अपने केष्ट भूलकर मुस्करा देता। तीसरे ही दिन मरे लाडले की आंख बन्द हो गई। कुछ दवा-दर्पन भी न करने पाईं।
यह कहते-कहते सुधा के आंसू फिर उमड़ आये। डॉक्टर सिन्हा ने उसे सीने से लगाकर करुणा से कांपती हुई आवाज में कहा-प्रिये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृद्व न मरा होगा, जिससे घरवालों की दवा-दर्पन की लालसा पूरी हो गई।
सुधा- निर्मला ने मेरी बड़ी मदद की। मैं तो एकाध झपकी ले भी लेती थी, पर उसकी आंखें नहीं झपकी। रात-रात लिये बैठी या टहलती रहती थी। उसके अहसान कभी न भूलंगी। क्या तुम आज ही जा रहे हो?
डॉक्टर- हां, छुट्टी लेने का मौका न था। सिविल सर्जन शिकार खेलने गया हुआ था।
सुधा- यह सब हमेशा शिकार ही खेला करते हैं?
डॉक्टर- राजाओं को और काम ही क्या है?
सुधा- मैं तो आज न जाने दूंगी।
डॉक्टर- जी तो मेरा भी नहीं चाहता।
सुधा- तो मत जाओ, तार दे दो। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। निर्मला को भी लेती चलूंगी।
सुधा वहां से लौटी, तो उसके हृदय का बोझ हलका हो गया था। पति की प्रेमपूर्णा कोमल वाणी ने उसके सारे शोक और संताप का हरण कर लिया था। प्रेम में असीम विश्वास है, असीम धैर्य है और असीम बल है। जब हमारे ऊपर कोई बड़ी विपत्ति आ पड़ती है, तो उससे हमें केवल दु:ख ही नहीं होता, हमें दूसरों के ताने भी सहने पड़ते हैं। जनता को हमारे ऊपर टिप्पणियों करने का वह सुअवसर मिल जाता है, जिसके लिए वह हमेशा बेचैन रहती है। मंसाराम क्या मरा, मानों समाज को उन पर आवाजें कसने का बहान मिल गया। भीतर की बातें कौन जाने, प्रत्यक्ष बात यह थी कि यह सब सौतेली मां की करतूत है चारों तरफ यही चर्चा थी, ईश्वर ने करे लड़कों को सौतेली मां से पाला पड़े। जिसे अपना बना-बनाया घर उजाड़ना हो, अपने प्यारे बच्चों की गर्दन पर छुरी फेरनी हो, वह बच्चों के रहते हुए अपना दूसरा ब्याह करे। ऐसा कभी नहीं देखा कि सौत के आने पर घर तबाह न हो गया हो, वही बाप जो बच्चों पर जान देता था सौत के आते ही उन्हीं बच्चों का दुश्मन हो जाता है, उसकी मति ही बदल जाती है। ऐसी देवी ने जैन्म ही नहीं लिया, जिसने सौत के बच्चों का अपना समझा हो।
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निर्मला के मन में उस पुरुष को देखने की प्रबल उत्कंठा हुई, जो उसकी अवहेलना करके अब उसकी बहिन का उद्वार करना चाहता हैं प्रायश्चित सही, लेकिन कितने ऐसे प्राणी हैं, जो इस तरह प्रायश्चित करने को तैयार हैं? उनसे बातें करने के लिए, नम्र शब्दों से उनका तिरस्कार करने के लिए, अपनी अनुपम छवि दिखाकर उन्हें और भी जलाने के लिए निर्मला का हृदय अधीर हो उठा। रात को दोनों बहिनें एक ही केमरे में सोई। मुहल्ले में किन-किन लड़कियों का विवाह हो गया, कौन-कौन लड़कोरी हुईं, किस-किस का विवाह धूम-धाम से हुआ। किस-किस के पति कन इच्छानुकूल मिले, कौन कितने और कैस गहने चढ़ावे में लाया, इन्हीं विषयों में दोनों मे बड़ी देर तक बातें होती रहीं। कृष्णा बार-बार चाहती थी कि बहिन के घर का कुछ हाल पूछं, मगर निर्मला उसे पूछने का अवसर न देती थी। जानती थी कि यह जो बातें पूछेगी उसके बताने में मुझे संकोच होगा। आखिर एक बार कृष्णा पूछ ही बैठी-जीजाजी भी आयेंगे न?
निमर्ला- आने को कहा तो है।
कृष्ण- अब तो तुमसे प्रसन्न रहते हैं न या अब भी वही हाल है? मैं तो सुना करती थी दुहाजू पति स्त्री को प्राणों से भी प्रिया समझते हैं, वहां बिलकुल उल्टी बात देखी। आखिर किस बात पर बिगड़ते रहते हैं?
निर्मला- अब मैं किसी के मन की बात क्या जानू?
कुष्णा- मैं तो समझती हूं, तुम्हारी रुखाई से वह चिढ़ते होंगे। तुम हो यहीं से जली हुई गई थी। वहां भी उन्हें कुछ कहा होगा।
निर्मला- यह बात नहीं है, कृष्णा, मैं सौगन्ध खाकर कहती हूं, जो मेरे मन में उनकी ओर से जरा भी मैल हो। मुझसे जहां तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूं, अगर उनकी जगह कोई देवता भी होता, तो भी मैं इससे ज्यादा और कुछ न कर सकती। उन्हें भी मुझसे प्रेम है। बराबर मेरा मुंख देखते रहते हैं, लेकिन जो बात उनक और मेरे काबू के बाहर है, उसके लिए वह क्या कर सकते हैं और मैं क्या कर सकती हूं? न वह जवान हो सकते हैं, न मैं बुढ़िया हो सकती हूं। जवान बनने के लिए वह न जाने कितने रस और भस्म खाते रहते हैं, मैं बुढ़िया बनने के लिए दूध-घी सब छोड़े बैठी हूं। सोचती हूं, मेरे दुबलेपन ही से अवस्था का भेद कुछ कम हो जाय, लेकिन न उन्हें पौष्टिक पदार्थों से कुछ लाभ होता है, न मुझे उपवसों से। जब से मंसाराम का देहान्त हो गया है, तब से उनकी दशा और खराब हो गयी है।
कृष्णा- मंसाराम को तुम भी बहुत प्यार करती थीं?
निर्मला- वह लड़का ही ऐसा था कि जो देखता था, प्यार करता था। ऐसी बड़ी-बड़ी डोरेदार आंखें मैंने किसी की नहीं देखीं। कमल की भांति मुख हरदम खिला रह था। ऐसा साहसी कि अगर अवसर आ पड़ता, तो आग में फांद जाता। कृष्णा, मैं तुमसे कहती हूं, जब वह मेरे पास आकर बैठ जाता, तो मैं अपने को भूल जाती थी। जी चाहता था, वह हरदम सामने बैठा रहे और मैं देखा करुं। मेरे मन में पाप का लेश भी न था। अगर एक क्षण के लिए भी मैंने उसकी ओर किसी और भाव से देखा हो, तो मेरी आंखें फूट जायें, पर न जाने क्यों उसे अपने पास देखकर मेरा हृदय फूला न समाता था। इसीलिए मैंने पढ़ने का स्वांग रचा नहीं तो वह घर में आता ही न था। यह मै। जानती हूं कि अगर उसके मन में पाप होता, तो मैं उसके लिए सब कुछ कर सकती थी।
कृष्णा- अरे बहिन, चुप रहो, कैसी बातें मुंह से निकालती हो?
निर्मला- हां, यह बात सुनने में बुरी मालूम होती है और है भी बुरी, लेकिन मनुष्य की प्रकृति को तो कोई बदल नहीं सकता। तू ही बता- एक पचास वर्ष के मर्द से तेरा विवाह हो जाये, तो तू क्या करेगी?
कृष्णा-बहिन, मैं तो जहर खाकर सो रहूं। मुझसे तो उसका मुंह भी न देखते बने।
निर्मला- तो बस यही समझ ले। उस लड़के ने कभी मेरी ओर आंख उठाकर नहीं देखा, लेकिन बुड्ढे तो शक्की होते ही हैं, तुम्हारे जीजा उस लड़के के दुश्मन हो गए और आखिर उसकी जान लेकर ही छोड़ी। जिसे दिन उसे मालूम हो गया कि पिताजी के मन में मेरी ओर से सन्देह है, उसी दिन के उसे ज्वर चढ़ा, जो जान लेकर ही उतरा। हाय! उस अन्तिम समय का दृश्य आंखों से नहीं उतरता। मैं अस्पताल गई थी, वह ज्वी में बेहोश पड़ा था, उठने की शक्ति न थी, लेकिन ज्यों ही मेरी आवाज सुनी, चौंककर उठ बैठा और ‘माता-माता’ कहकर मेरे पैरों पर गिर पड़ा (रोकर) कृष्णा, उस समय ऐसा जी चाहता था अपने प्राण निकाल कर उसे दे दूं। मेरे पैरां पर ही वह मूर्छित हो गया और फिर आंखें न खोली। डॉक्टर ने उसकी देह मे ताजा खून डालने का प्रस्ताव किया था, यही सुनकर मैं दौड़ी गई थी लेकिन जब तक डॉक्टर लोग वह प्रक्रिया आरम्भ करें, उसके प्राण, निकल गए।
कृष्णा- ताजा रक्त पड़ जाने से उसकी जान बच जाती?
निर्मला- कौन जानता है? लेकिन मैं तो अपने रुधिर की अन्तिम बूंद तक देने का तैयार थी उस दशा में भी उसका मुखमण्डल दीपक की भांति चमकता था। अगर वह मुझे देखते ही दौड़कर मेरे पैरों पर न गिर पड़ता, पहले कुछ रक्त देह में पहुंच जाता, तो शायद बच जाता।
कृष्णा- तो तुमने उन्हें उसी वक्ता लिटा क्यों न दिया?
निर्मला- अरे पगली, तू अभी तक बात न समझी। वह मेरे पैरों पर गिरकर और माता-पुत्र का सम्बन्ध दिखाकर अपने बाप के दिल से वह सन्देह निकाल देना चाहता था। केवल इसीलिए वह उठा थ। मेरा क्लेश मिटाने के लिए उसने प्राण दिये और उसकी वह इच्छा पूरी हो गई। तुम्हारे जीजाजी उसी दिन से सीधे हो गये। अब तो उनकी दशा पर मुझे दया आती है। पुत्र-शाक उनक प्राण लेकर छोड़ेगा। मुझ पर सन्देह करके मेरे साथ जो अन्याय किया है, अब उसका प्रतिशोध कर रहे हैं। अबकी उनकी सूरत देखकर तू डर जायेगी। बूढ़े बाबा हो गये हैं, कमर भी कुछ झुक चली है।
कृष्णा- बुड्ढे लोग इतनी शक्की क्यों होते हैं, बहिन?
निर्मला- यह जाकर बुड्ढों से पूछो।
कृष्णा- मैं समझती हूं, उनके दिल में हरदम एक चोर-सा बैठा रहता होगा कि इस युवती को प्रसन्न नहीं रख सकता। इसलिए जरा-जरा-सी बात पर उन्हें शक होने लगता है।
निर्मला- जानती तो है, फिर मुझसे क्यों पूछती है?
कुष्णा- इसीलिए बेचारा स्त्री से दबता भी होगा। देखने वाले समझते होंगे कि यह बहुत प्रेम करता है।
निर्मला- तूने इतने ही दिनों में इ तनी बातें कहां सीख लीं? इन बातों को जाने दे, बता, तुझे अपना वर पसन्द है? उसकी तस्वीर ता देखी होगी?
कृष्णा- हां, आई तो थी, लाऊं, देखोगी?
एक क्षण में कृष्णा ने तस्वीर लाकर निर्मला के हाथ में रख दी।
निर्मला ने मुस्कराकर कहा-तू बड़ी भाग्यवान् है।
कृष्णा- अम्माजी ने भी बहुत पसन्द किया।
निर्मला- तुझे पसन्द है कि नहीं, सो कह, दूसरों की बात न चला।
कृष्णा- (लजाती हुई) शक्ल-सूरत तो बुरी नहीं है, स्वभाव का हाल ईश्वर जाने। शास्त्रीजी तो कहते थे, ऐसे सुशील और चरित्रवान् युवक कम होंगे।
निर्मला- यहां से तेरी तस्वीर भी गई थी?
कृष्णा- गई तो थी, शास्त्रीजी ही तो ले गए थे।
निर्मला- उन्हें पसन्द आई?
कृष्णा- अब किसी के मन की बात मैं क्या जानूं? शास्त्री जी कहते थे, बहुत खुश हुए थे।
निर्मला- अच्छा, बता, तुझे क्या उपहार दूं? अभी से बता दे, जिससे बनवा रखूं।
कृष्णा- जो तुम्हारा जी चाहे, देना। उन्हें पुस्तकों से बहुत प्रेम है। अच्छी-अच्छी पुस्तकें मंगवा देना।
निर्मला-उनके लिए नहीं पूछती तेरे लिए पूछती हूं।
कृष्णा- अपने ही लिये तो मैं कह रही हूं।
निर्मला- (तस्वीर की तरफ देखती हुई) कपड़े सब खद्दर के मालूम होते हैं।
कृष्णा- हां, खद्दर के बड़े प्रेमी हैं। सुनती हूं कि पीठ पर खद्दर लाद कर देहातों में बेचने जाया करते हैं। व्याख्यान देने में भी चतुर हैं।
निर्मला- तब तो मुझे भी खद्द पहनना पड़ेगा। तुझे तो मोटे कपड़ो से चिढ़ है।
कृष्णा- जब उन्हें मोटे कपड़े अच्छे लगते हैं, तो मुझे क्यों चिढ़ होगी, मैंने तो चर्खा चलाना सीख लिया है।
निर्मला- सच! सूत निकाल लेती है?
कृष्णा- हां, बहिन, थोड़ा-थोड़ा निकाल लेती हूं। जब वह खद्दर के इतने प्रेमी हैं, जो चर्खा भी जरुर चलाते होंगे। मैं न चला सकूंगी, तो मुझे कितना लज्जित होना पड़ेगा।
इस तरह बात करते-करते दोनों बहिनों सोईं। कोई दो बजे रात को बच्ची रोई तो निर्मला की नींद खुली। देखा तो कृष्णा की चारपाई खाली पड़ी थी। निर्मला को आश्चर्य हुआ कि इतना रात गये कृष्णा कहां चली गई। शायद पानी-वानी पीने गई हो। मगरी पानी तो सिरहाने रखा हुआ है, फिर कहां गई है? उसे दो-तीन बार उसका नाम लेकर आवाज दी, पर कृष्णा का पता न था। तब तो निर्मला घबरा उठी। उसके मन में भांति-भांति की शंकाएं होने लगी। सहसा उसे ख्याल आया कि शायद अपने कमरे में न चली गई हो। बच्ची सो गई, तो वह उठकर कृष्णा के के कमरे के द्वार पर आई। उसका अनुमान ठीक था, कृष्णा अपने कमरे में थी। सारा घर सो रहा था और वह बैठी चर्खा चला रही थी। इतनी तन्मयता से शायद उसने थिऐटर भी न देखा होगा। निर्मला दंग रह गई। अन्दर जाकर बोली- यह क्या कर रही है रे! यह चर्खा चलाने का समय है?
कृष्णा चौंककर उठ बैठी और संकोच से सिर झुकाकर बोली- तुम्हारी नींद कैसे खुल गई? पानी-वानी तो मैंने रख दिया था।
निर्मला- मैं कहती हूं, दिन को तुझे समय नहीं मिलता, जो पिछली रात को चर्खा लेकर बैठी है?
कृष्णा- दिन को फुरसत ही नहीं मिलती?
निर्मला- (सूत देखकर) सूत तो बहुत महीन है।
कृष्णा- कहां-बहिन, यह सूत तो मोटा है। मैं बारीक सूतकात कर उनके लिए साफा बनाना चाहती हूं। यही मेरा उपहार होगा।
निर्मला- बात तो तूने खूब सोची है। इससे अधिक मूल्यवसान वस्तु उनकी दृष्टि में और क्या होगी? अच्छा, उठ इस वक्त, कल कातना! कहीं बीमार पड़ जायेगी, तो सब धरा रह जायेगा।
कृष्णा- नहीं मेरी बहिन, तुम चलकर सोओ, मैं अभी आती हूं।
निर्मला ने अधिक आग्रह न किया, लेटने चली गई। मगर किसी तरह नींद न आई। कृष्णा की उत्सुकता और यह उमंग देखकर उसका हृदय किसी अलक्षित आकांक्षा से आन्दोलित हो उठां ओह! इस समय इसका हृदय कितना प्रफुल्लित हो रहा है। अनुराग ने इसे कितना उन्मत्त कर रखा है। तब उसे अपने विवाह की याद आई। जिस दिन तिलक गया था, उसी दिन से उसकी सारी चंचलता, सारी सजीवता विदा हो गेई थी। अपनी कोठरी में बैठी वह अपनी किस्मत को रोती थी और ईश्वर से विनय करती थी कि प्राण निकल जाये। अपराधी जैसे दंड की प्रतीक्षा करता है, उसी भांति वह विवाह की प्रतीक्षा करती थी, उस विवाह की, जिसमें उसक जीवन की सारी अभिलाषाएं विलीन हो जाएंगी, जब मण्डप के नीचे बने हुए हवन-कुण्ड में उसकी आशाएं जलकर भस्म हो जायेंगी। महीना कटते देर न लगी। विवाह का शुभ मुहूर्त आ पहुंचां मेहमानों से घार भार गया। मंशी तोताराम एक दिन पहले आ गये और उसनके साथ निर्मला की सहेली भी आई। निर्मला ने बहुत आग्रह न किया था, वह खुद आने को उत्सुक थी। निर्मला की सबसे बड़ी उत्कंठा यही थी कि वर के बड़े भाई के दर्शन करुंगी और हो सकता तो उसकी सुबुद्वि पर धन्यवाद दूंगी।
सुधा ने हंस कर कहा-तुम उनसे बोल सकोगी?
निर्मला- क्यों, बोलने में क्या हानि है? अब तो दूसरा ही सम्बन्ध हो गया और मैं न बोल सकूंगी, तो तुम तो हो ही।
सुधा-न भाई, मुझसे यह न होगा। मैं पराये मर्द से नहीं बोल सकती। न जाने कैसे आदमी हों।
निर्मला-आदमी तो बुरे नहीं है, और फिर उनसे कुछ विवाह तो करना नहीं, जरा-सा बोलने में क्या हानि है? डॉक्टर साहब यहां होते, तो मैं तुम्हें आज्ञा दिला देती।
सुधा-जो लोग हुदय के उदार होते हैं, क्या चरित्र के भी अच्छे होते है? पराई स्त्री की घूरने में तो किसी मर्द को संकोच नहीं होता।
निर्मला-अच्छा न बोलना, मैं ही बातें कर लूंगी, घूर लेंगे जितना उनसे घूरते बनेगा, बस, अब तो राजी हुई।
इतने में कृष्णा आकर बैठ गई। निर्मला ने मुस्कराकर कहा-सच बता कृष्णा, तेरा मन इस वक्त क्यों उचाट हो रहा है?
कृष्णा-जीजाजी बुला रहे हैं, पहले जाकर सुना आआ, पीछे गप्पें लड़ाना बहुत बिगड़ रहे हैं।
निर्मला- क्या है, तून कुछ पूछा नहीं?
कृष्णा- कुछ बीमार से मालूम होते हैं। बहुत दुबले हो गए हैं।
निर्मला- तो जरा बैठकर उनका मन बहला देती। यहां दौड़ी क्यों चली आई? यह कहो, ईश्वर ने कृपा की, नहीं तो ऐसा ही पुरुषा तुझे भी मिलता। जरा बैठकर बातें करो। बुड्ढे बातें बड़ी लच्छेदार करते हैं। जवान इतने डींगियल नहीं होते।
कृष्णा- नहीं बहिन, तुम जाओ, मुझसे तो वहां बैठा नहीं जाता।
निर्मला चली गई, तो सुधा ने कृष्णा से कहा- अब तो बारात आ गई होगी। द्वार-पूजा क्यों नही होती?
कृष्णा- क्या जाने बहिन, शास्त्रीजी सामान इकट्ठा कर रहे हैं?
सुधा- सुना है, दूल्हा का भावज बड़े कड़े स्वाभाव की स्त्री है।
कृष्णा- कैसे मालूम?
सुधा- मैंने सुना है, इसीलिए चेताये देती हूं। चार बातें गम खाकर रहना होगा।
कृष्णा- मेरी झगड़ने की आदत नहीं। जब मेरी तरफ से कोई शिकायत ही न पायेंगी तो क्या अनायास ही बिगड़ेगी!
सुधा- हां, सुना तो ऐसा ही है। झूठ-मूठ लड़ा कारती है।
कृष्णा- मैं तो सौबात की एक बात जानती हूं, नम्रता पत्थर को भी मोम कर देती है।
सहसा शोर मचा- बारात आ रही है। दोनों रमणियां खिड़की के सामने आ बैठीं। एक क्षण में निर्मला भी आ पहुंची।
वर के बड़े भाई को देखने की उसे बड़ी उत्सुकता हो रही थी।
सुधा ने कहा- कैसे पता चलेगा कि बड़े भाई कौन हैं?
निर्मला- शास्त्रीजी से पूछूं, तो मालूम हो। हाथी पर तो कृष्णा के ससुर महाशय हैं। अच्छा डॉक्टर साहब यहां कैसे आ पहुंचे! वह घोड़े पर क्या
हैं, देखती नहीं हो?
सुधा- हां, हैं तो वही।
निर्मला- उन लोगों से मित्रता होगी। कोई सम्बन्ध तो नहीं है।
सुधा- अब भेंट हो तो पूछूं, मुझे तो कुछ नहीं मालूम।
निर्मला- पालकी मे जो महाशय बैठे हुए हैं, वह तो दूल्हा के भाई जैसे नहीं दीखते।
सुधा- बिलकुल नहीं। मालूम होता है, सारी देहे मे पेछ-ही-पेट है।
निर्मला- दूसरे हाथी पर कौन बैठा है, समझ में नही आता।
सुधा- कोई हो, दूल्हा का भाई नहीं हो सकता। उसकी उम्र नहीं देखती हो, चालीस के ऊपर होंगी।
निर्मला- शास्त्रजी तो इस वक्त द्वार-पूजा कि फिक्र में हैं, नहीं तोा उनसे पूछती।
संयोग से नाई आ गया। सन्दूकों की कुंलियां निर्मला के पास थीं। इस वक्त द्वारचार के लिए कुछ रुपये की जरुरत थी, माता ने भेजा था, यह नाई भी पण्डित मोटेराम जी के साथ तिलक लेकर गया था।
निर्मला ने कहा- क्या अभी रुपये चाहिए?
नाई- हां बहिनजी, चलकर दे दीजिए।
निर्मला- अच्छा चलती हूं। पहले यह बता, तू दूल्हा क बड़े भाई को पहचानता है?
नाई- पहचानता काहे नहीं, वह क्या सामने हैं।
निर्मला- कहां, मैं तो नहीं देखती?
नाई- अरे वह क्या घोड़े पर सवार हैं। वही तो हैं।
निर्मला ने चकित होकर कहा- क्या कहता है, घोड़े पर दूल्हा के भाई हैं! पहचानता है या अटकल से कह रहा है?
नाई- अरे बहिनजी, क्या इतना भूल जाऊंगा अभी तो जलपान का सामान दिये चला आता हूं।
निर्मल- अरे, यह तो डॉक्टर साहब हैं। मेरे पड़ोस में रहते हैं।
नाई- हां-हां, वही तो डॉक्टर साहब है।
निर्मला ने सुधा की ओर देखकर कहा- सुनती ही बहिन, इसकी बातें? सुधा ने हंसी रोककर कहा-झूठ बोलता है।
नाई- अच्छा साहब, झूठ ही सही, अब बड़ों के मुंह कौन लगे! अभी शास्त्रीजी से पूछवा दूंगा, तब तो मानिएगा?
नाई के आने में देर हुई, मोटेराम खुद आंगन में आकर शोर मचाने लगे-इस घर की मर्यादा रखना ईश्वर ही के हाथ है। नाई घण्टे भर से आया हुआ है, और अभी तक रुपये नहीं मिले।
निर्मला- जरा यहां चले आइएगा शास्त्रीजी, कितने रुपये दरकरार हैं, निकाल दूं?
शास्त्रीजी भुनभुनाते और जोर-जारे से हांफते हुए ऊपर आये और एक लम्बी सांस लेकर बोले-क्या है? यह बातों का समय नहीं है, जल्दी से रुपये निकाल दो।
निर्मला- लीजिए, निकाल तो रहीं हूं। अब क्या मुंह के बल गिर पडूं? पहले यह बताइए कि दूलहा के बड़े भाई कौन हैं?
शास्त्रीजी- रामे-राम, इतनी-सी बात के लिए मुझे आकाश पर लटका दिया। नाई क्या न पहचानता था?
निर्मला- नाई तो कहता है कि वह जो घोड़े पर सवार है, वही हैं।
शास्त्रीजी- तो फिर किसे बता दे? वही तो हैं ही।
नाई- घड़ी भर से कह रहा हूं, पर बहिनजी मानती ही नहीं।
निर्मला ने सुधा की ओर स्नेह, ममता, विनोद कृत्रिम तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा- अच्छा, तो तुम्ही अब तक मेरे साथ यह त्रिया-चरित्र खेर रही थी! मैं जानती, तो तुम्हें यहां बुलाती ही नहीं। ओफ्फोह! बड़ा गहरा पेट है तुम्हारा! तुम महीनों से मेरे साथ शरारत करती चली आती हो, और कभी भूल से भी इस विषय का एक शब्द तुम्हारे मुंह से नहीं निकला। मैं तो दो-चार ही दिन में उबल पड़ती।
सुधा- तुम्हें मालूम हो जाता, तो तुम मेरे यहां आती ही क्यों?
निर्मला- गजब-रे-गजब, मैं डॉक्टर साहब से कई बार बातें कर चुकी हूं। तुम्हारो ऊपर यह सारा पाप पड़ेगा। देखा कृष्णा, तूने अपनी जेठानी की शरारत! यह ऐसी मायाविनी है, इनसे डरती रहना।
कृष्णा- मैं तो ऐसी देवी के चरण धो-धोकर माथे चढाऊंगी। धन्य-भाग कि इनके दर्शन हुए।
निर्मला- अब समझ गई। रुपये भी तुम्हें न भिजवाये होंगे। अब सिर हिलाया तो सच कहती हूं, मार बैठूंगी।
सुधा- अपने घर बुलाकर के मेहमान का अपमान नहीं किया जाता। निर्मला- देखो तो अभी कैसी-कैसी खबरे लेती हूं। मैंने तुम्हारा मान रखने को जरा-सा लिख दिया था और तुम सचमुच आ पहुंची। भला वहां वाले क्या कहते होंगे?
सुधा- सबसे कहकर आई हूं।
निर्मला- अब तुम्हारे पास कभी न आऊंगी। इतना तो इशारा कर देतीं कि डॉक्टर साहब से पर्दा रखना।
सुधा- उनके देख लेने ही से कौन बुराई हो गई? न देखते तो अपनी किस्मत को रोते कैसे? जानते कैसे कि लोभ में पड़कर कैसी चीज खो दी? अब तो तुम्हें देखकर लालाजी हाथ मलकर रह जाते हैं। मुंह से तो कुछ नहीं सकहते, पर मन में अपनी भूल पर पछताते हैं।
निर्मला- अब तुम्हारे घर कभी न आऊंगी।
सुधा- अब पिण्ड नहीं छूट सकता। मैंने कौन तुम्हारे घर की राह नीं देखी है।
द्वार-पूजा समाप्त हो चुकी थी। मेहमान लोग बैठ जलपान कर रहे थे। मुंशीजी की बेगल में ही डॉक्टर सिन्हा बैठे हुए थे। निर्मला ने कोठे पर चिक की आड़ से उन्हें देखा और कलेजा थामकर रह गई। एक आरोग्य, यौवन और प्रतिभा का देवता था, पर दूसरा...इस विषय में कुछ न कहना ही दचित है।
निर्मला ने डॉक्टर साहब को सैकड़ों ही बार देखा था, पर आज उसके हृदय में जो विचार उठे, वे कभी न उठे थे। बार-बार यह जी चाहता था कि बुलाकर खूब फटकारुं, ऐसे-ऐसे ताने मारुं कि वह भी याद करें, रुला-रुलाकर छोडूं, मेगर रहम करके रह जाती थी। बारात जनवासे चली गई थी। भोजन की तैयारी हो रही थी। निर्मला भोजन के थाल चुनने में व्यस्त थी। सहसा महरी ने आकर कहा- बिट्टी, तुम्हें सुधा रानी बुला रही है। तुम्हारे कमरे में बैठी हैं।
निर्मला ने थाल छोड़ दिये और घबराई हुई सुधा के पास आई, मगर अन्दर कदम रखते ही ठिठक गई, डॉक्टर सिन्हा खड़े थे।
सुधा ने मुस्कराकर कहा- लो बहिन, बुला दिया। अब जितना चाहो, फटकारो। मैं दरवाजा रोके खड़ी हूं, भाग नहीं सकते।
डॉक्टर साहब ने गम्भीर भाव से कहा- भागता कौन है? यहां तो सिर झुकाए खड़ा हूं।
निर्मला ने हाथ जोड़कर कहा- इसी तरह सदा कृपा-दृष्टि रखिएगा, भूल न जाइएगा। यह मेरी विनय है।कृष्णा के विवाह के बाद सुधा चली गई, लेकिन निर्मला मैके ही में रह गई। वकील साहब बार-बार लिखते थे, पर वह न जाती थी। वहां जाने को उसका जी न चाहता था। वहां कोई ऐसी चीज न थी, जो उसे खींच ले जाये। यहां माता की सेवा और छोटे भाइयों की देखभाल में उसका समय बड़े आनन्द के कट जाता था। वकील साहब खुद आते तो शायद वह जाने पर राजी हो जाती, लेकिन इस विवाह में, मुहल्ले की लड़कियों ने उनकी वह दुर्गत की थी कि बेचारे आने का नाम ही न लेते थे। सुधा ने भी कई बार पत्र लिखा, पर निर्मला ने उससे भी हीले-हव़ाले किया। आखिर एक दिन सुधा ने नौकर को साथ लिया और स्वयं आ धमकी।
जब दोनों गले मिल चुकीं, तो सुधा ने कहा-तुम्हें तो वहां जाते मानो डर लगता है।
निर्मला- हां बहिन, डर तो लगता है। ब्याह की गई तीन साल में आई, अब की तो वहां उम्र ही खतम हो जायेगी, फिर कौन बुलाता है और कौन आता है?
सुधा- आने को क्या हुआ, जब जी चाहे चली आना। वहां वकील साहब बहुत बेचैन हो रहे हैं।
निर्मला- बहुत बेचैन, रात को शायद नींद न आती हो।
सुधा- बहिन, तुम्हारा कलेजा पत्थर का है। उनकी दशा देखकर तरस आता है। कहते थे, घर मे कोई पूछने वाला नहीं, न कोई लड़का, न बाला, किससे जी बहलायें? जब से दूसरे मकान में उठ आए हैं, बहुत दुखी रहते हैं।
निर्मला- लड़के तो ईश्वर के दिये दो-दो हैं।
सुधा- उन दोनों की तो बड़ी शिकायत करते थे। जियाराम तो अब बात ही नहीं सुनता-तुर्की-बतुर्की जवाब देता है। रहा छोटा, वह भी उसी के कहने में है। बेचारे बड़े लड़के की याद करके रोया करते हैं।
निर्मला- जियाराम तो शरीर न था, वह बदमाशी कब से सीख गया? मेरी तो कोई बात न टालता था, इशारे पर काम करता था।
सुधा- क्या जाने बहिन, सुना, कहता है, आप ही ने भैया को जहर देकर मार डाला, आप हत्यारे हैं। कई बार तुमसे विवाह करने के लिए ताने दे चुका है। ऐसी-ऐसी बातें कहता है कि वकील साहब रो पड़ते हैं। अरे, और तो क्या कहूं, एक दिन पत्थर उठाकर मारने दौड़ा था।
निर्मला ने गम्भीर चिन्ता में पड़कर कहा- यह लड़का तो बड़ा शैतान निकला। उसे यह किसने कहा कि उसके भाई को उन्होंने जहर दे दिया है?
सुधा- वह तुम्हीं से ठीक होगा।
निर्मला को यह नई चिन्ता पैदा हुई। अगर जिया की यही रंग है, अपने बाप से लड़ने पर तैयार रहता है, तो मुझसे क्यों दबने लगा? वह रात को बड़ी देर तक इसी फिक्र मे डूबी रही। मंसाराम की आज उसे बहुत याद आई। उसके साथ जिन्दगी आराम से कट जाती। इस लड़के का जब अपने पिता के सामने ही वह हाल है, तो उनके पीछे उसके साथ कैसे निर्वाह होगा! घर हाथ से निकल ही गया। कुछ-न-कुछ कर्ज अभी सिर पर होगा ही, आमदनी का यह हाल। ईश्ववर ही बेड़ा पार लगायेंगे। आज पहली बार निर्मला को बच्चों की फिक्र पैदा हुई। इस बेचारी का न जाने क्या हाल होगा? ईश्वर ने यह विपत्ति सिर डाल दी। मुझे तो इसकी जरुरत न थी। जन्म ही लेना था, तो किसी भाग्यवान के घर जन्म लेती। बच्ची उसकी छाती से लिपटी हुई सो रही थी। माता ने उसको और भी चिपटा लिया, मानो कोई उसके हाथ से उसे छीने लिये जाता है।
निर्मला के पास ही सुधा की चारपाई भी थी। निर्मेला तो चिन्त्ज्ञ सागर मे गोता था रही थी और सुधा मीठी नींद का आनन्द उठा रही थी। क्या उसे अपने बालक की फिक्र सताती है? मृत्यु तो बूढ़े और जवान का भेद नहीं करती, फिनर सुधा को कोई चिन्ता क्यों नहीं सताती? उसे तो कभी भविष्य की चिन्ता से उदास नहीं देखा।
सहसा सुधा की नींद खुल गई। उसने निर्मला को अभी तक जागते देखा, तो बोली- अरे अभी तुम सोई नहीं?
निर्मला- नींद ही नहीं आती।
सुधा- आंखें बन्द कर लो, आप ही नींद आ जायेगी। मैं तो चारपाई पर आते ही मर-सी जाती हूं। वह जागते भी हैं, तो खबर नहीं होती। न जाने मुझे क्यों इतनी नींद आती है। शायद कोई रोग है।
निर्मला- हां, बड़ा भारी रोग है। इसे राज-रोग कहते हैं। डॉक्टर साहब से कहो-दवा शुरु कर दें।
सुधा- तो आखिर जागकर क्या सोचूं? कभी-कभी मैके की याद आ जाती है, तो उस दिन जरा देर में आंख लगती है।
निर्मला- डॉक्टर साहब की यादा नहीं आती?
सुधा- कभी नहीं, उनकी याद क्यों आये? जानती हूं कि टेनिस खेलकर आये होंगे, खाना खाया होगा और आराम से लेटे होंगे।
निर्मला- लो, सोहन भी जाग गया। जब तुम जाग गईं
तो भला यह क्यों सोने लगा?
सुधा- हां बहिन, इसकी अजीब आदत है। मेरे साथ सोता और मेरे ही साथ जागता है। उस जन्म का कोई तपस्वी है। देखो, इसके माथे पर तिलक का कैसा निशान है। बांहों पर भी ऐसे ही निशान हैं। जरुर कोई तपस्वी है।
निर्मला- तपस्वी लोग तो चन्दन-तिलक नहीं लगाते। उस जन्म का कोई धूर्त पुजारी होगा। क्यों रे, तू कहां का पुजारी था? बता?
सुधा- इसका ब्याह मैं बच्ची से करुंगी।
निर्मला- चलो बहिन, गाली देती हो। बहिन से भी भाई का ब्याह होता है?
सुधा- मैं तो करुंगी, चाहे कोई कुछ कहे। ऐसी सुन्दर बहू और कहां पाऊंगी? जरा देखो तो बहन, इसकी देह कुछ गर्म है या मुझके ही मालूम होती है।
निर्मला ने सोहन का माथा छूकर कहा-नहीं-नहीं, देह गर्म है। यह ज्वर कब आ गया! दूध तो पी रहा है न?
सुधा- अभी सोया था, तब तो देह ठंडी थी। शायद सर्दी लग गई, उढ़ाकर सुलाये देती हूं। सबेरे तक ठीक हो जायेगा।
सबेरा हुआ तो सोहन की दशा और भी खराब हो गई। उसकी नाक बहने लगी और बुखार और भी तेज हो गया। आंखें चढ़ गईं और सिर झुक गया। न वह हाथ-पैर हिलाता था, न हंसता-बोलता था, बस, चुपचाप पड़ा था। ऐसा मालूम होता था कि उसे इस वक्त किसी का बोलना अच्छा नहीं लगता। कुछ-कुछ खांसी भी आने लगी। अब तो सुधा घबराई। निर्मला की भी राय हुई कि डॉक्टर साहब को बुलाया जाये, लेकिन उसकी बूढ़ी माता ने कहा-डॉक्टर-हकीम साहब का यहां कुछ काम नहीं। साफ तो देख रही हूं। कि बच्चे को नजर लग गई है। भला डॉक्टर
आकर क्या करेंगे?
सुधा- अम्मांजी, भला यहां नजर कौन लगा देगा? अभी तक तो बाहर कहीं गया भी नहीं।
माता- नजर कोई लगाता नहीं बेटी, किसी-किसी आदमी की दीठ बुरी होती है, आप-ही-आप लग जाती है। कभी-कभी मां-बाप तक की नजर लग जाती है। जब से आया है, एक बार भी नहीं रोया। चोंचले बच्चों को यही गति होती है। मैं इसे हुमकते देखकर डरी थी कि कुछ-न-कुछ अनिष्ट होने वाला है। आंखें नहीं देखती हो, कितनी चढ़ गई हैं। यही नजर की सबसे बड़ी पहचान है।
बुढ़िया महरी और पड़ोस की पंडिताइन ने इस कथन का अनुमोदन कर दिया। बस महंगू ने आकर बच्चे का मुंह देखा और हंस कर बोला-मालकिन, यह दीठ है और नहीं। जरा पतली-पतली तीलियां मंगवा दीजिए। भगवान ने चाहा तो संझा तक बच्चा हंसने लगेगा।
सरकण्डे के पांच टुकड़े लाये गये। महगूं ने उन्हें बराबर करके एक डोरे से बांध दिया और कुछ बुदबुदाकर उसी पोले हाथों से पांच बार सोहन का सिर सहलाया। अब जो देखा, तो पांचों तीलियां छोटी-बड़ी हो गेई थी। सब स्त्रीयों यह कौतुक देखकर दंग रह गईं। अब नजर में किसे सन्देह हो सकता था। महगूं ने फिर बच्चे को तीलियों से सहलाना शुरु किया। अब की तीलियां बराबर हो गईं। केवल थोड़ा-सा अन्तर रह गया। यह सब इस बात का प्रमाण था कि नजर का असर अब थोड़ा-सा और रह गया है। महगू सबको दिलासा देकर शाम को फिर आने का वायदा करके चला गया। बालक की दशा दिन को और खराब हो गई। खांसी का जोर हो गया। शाम के समय महगूं ने आकरा फिर तीलियों का तमाशा किया। इस वक्त पांचों तीलियों बराबर निकलीं। स्त्रीयां निश्चित हो गईं लेकिन सोहन को सारी रात खांसते गुजरी। यहां तक कि कई बार उसकी आंखें उलट गईं। सुधा और निर्मला दोनों ने बैठकर सबेरा किया। खैर, रात कुशल से कट गई। अब वृद्वा माताजी नया रंग लाईं। महगूं नजर न उतार सका, इसलिए अब किसी मौलवी से फूंक डलवाना जरुरी हो गया। सुधा फिर भी अपने पति को सूचना न दे सकी। मेहरी सोहन को एक चादर से लपेट कर एक मस्जिद में ले गई और फूंक डलवा लाई, शाम को भी फूंक छोड़ी, पर सोहन ने सिर न उठाया। रात आ गई, सुधा ने मन मे निश्चय किया कि रात कुशल से बीतेगी, तो प्रात:काल पति को तार दूंगी।
लेकिन रात कुशल से न बीतने पाई। आधी रात जाते-जाते बच्चा हाथ से निकल गया। सुधा की जीन- सम्पत्ति देखते-देखते उसके हाथों से छिन गई।
वही जिसके विवाह का दो दिन पहले विनोद हो रहा था, आज सारे घर को रुला रहा है। जिसकी भोली-भाली सूरत देखकर माता की छाती फूल उठती थी, उसी को देखकर आज माता की छाती फटी जाती है। सारा घर सुधा को समझाता था, पर उसके आंसू न थमते थे, सब्र न होता था। सबसे बड़ा दु:ख इस बात का था का पति को कौन मुंह दिखलाऊंगी! उन्हें खबर तक न दी।
रात ही को तार दे दिया गया और दूसरे दिन डॉक्टर सिन्हा नौ बजते-बजते मोटर पर आ पहुंचे। सुधा ने उनके आने की खबर पाई, तो और भी फूट-फूटकर रोने लगी। बालक की जल-क्रिया हुई, डॉक्टर साहब कई बार अन्दर आये, किन्तु सुधा उनके पास न गई। उनके सामने कैसे जाये? कौन मुंह दिखाये? उसने अपनी नादानी से उनके जीवन का रत्न छीनकर दरिया में डाल दिया। अब उनके पास जाते उसकी छाती के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते थे। बालक को उसकी गोद में देखकर पति की आंखे चमक उठती थीं। बालक हुमककर पिता की गोद में चला जाता था। माता फिर बुलाती, तो पिता की छाती से चिपट जाता था और लाख चुमराने-दुलारने पर भी बाप को गोद न छोड़ता था। तब मां कहती थी- बैड़ा मतलबी है। आज वह किसे गोद मे लेकर पति के पास जायेगी? उसकी सूनी गोद देखकर कहीं वह चिल्लाकर रो न पड़े। पति के सम्मुख जाने की अपेक्षा उसे मर जाना कहीं आसान जान पड़ता था। वह एक क्षण के लिए भी निर्मला को न छोड़ती थी कि कहीं पति से सामना न हो जाये।
निर्मला ने कहा- बहिन, जो होना था वह हो चुका, अब उनसे कब तक भागती फिरोगी। रात ही को चले जायेंगे। अम्मां कहती थीं।
सुधा से सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा- कौन मुंह लेकर उनके पास जाऊं? मुझे डर लग रहा है कि उनके सामने जाते ही मेरा पैरा न थर्राने लगे और मैं गिर पडूं।
निर्मला- चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं। तुम्हें संभाले रहूंगी।
सुधा- मुझे छोड़कर भाग तो न जाओगी?
निर्मला- नहीं-नहीं, भागूंगी नहीं।
सुधा- मेरा कलेजा तो अभी से उमड़ा आता है। मैं इतना घोर व्रजपाता होने पर भी बैठी हूं, मुझे यही आश्चर्य हो रहा है। सोहन को वह बहुत प्यार करते थे बहिन। न जाने उनके चित्त की क्या दशा होगी। मैं उन्हें ढाढ़स क्या दूंगी, आप हो रोती रहूंगी। क्या रात ही को चले जायेंगे?
निर्मला- हां, अम्मांजी तो कहती थी छुट्टी नहीं ली है।
दोनो सहेलियां मर्दाने कमरे की ओर चलीं, लेकिन कमरे के द्वार पर पहुंचकर सुधा ने निर्मला से विदा कर दिया। अकेली कमरे मे दाखिल हुई।
डॉक्टर साहब घबरा रहे थे कि न जाने सुधा की क्या दशा हो रही है। भांति-भांति की शंकाएं मन मे आ रही थीं। जाने को तैयार बैठे थे, लेकिन जी न चाहता था। जीवन शून्य-सा मालूम होता था। मन-ही-मन कुढ़ रहे थे, अगर ईश्वर को इतनी जल्दी यह पदार्थ देकर छीन लेना था, तो दिया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी सन्तान के लिए ईश्वर से प्रार्थना न की थी। वह आजन्म नि:सन्तान रह सकते थे, पर सन्तान पाकर उससे वंचित हो जाना उन्हं असह्रा जान पड़ता था। क्या सचमुच मनुष्य ईश्वर का खिलौना है? यही मानव जीवन का महत्व है? यह केवल बालकों का घरौंदा है, जिसके बनने का न कोई हेतु है न बिगड़ने का? फिर बालकों को भी तो अपने घरौंदे से अपनी कागेज की नावों से, अपनी लकड़ी के घोड़ों से ममता होती है। अच्छे खिलौने का वह जान के पीछे छिपाकर रखते हैं। अगर ईश्वर बालक ही है तो वह विचित्र बालक है।
किन्तु बुद्वि तो ईश्चर का यह रुप स्वीकार नहीं करती। अनन्त सृष्टि का कर्त्ता उद्दण्ड बालक नहीं हो सकता है। हम उसे उन सारे गुणों से विभूषित करते हैं, जो हमारी बुद्वि का पहुंच से बाहर है। खिलाड़ीपन तो साउन महान् गुणों मे नहीं! क्या हंसते-खेलते बालकों का प्राण हर लेना खेल है? क्या ईश्वर ऐसा पैशाचिक खेल खेलता है?
सहसा सुधा दबे-पांव कमरे में दाखिल हुई। डासॅक्टर साहब उठ खड़े हुए और उसके समीप आकर बोले-तुम कहां थी, सुधा? मैं तुम्हारी राह देख रहा था।
सुधा की आंखों से कमरा तैरता हुआ जान पड़ा। पति की गर्दन मे हाथ डालकर उसने उनकी छाती पर सिर रख दिया और रोने लगी, लेकिन इस अश्रु-प्रवाह में उसे असीम धैर्य और सांत्वना का अनुभव हो रहा था। पति के वक्ष-स्थल से लिपटी हुई वह अपने हृदय में एक विचित्र स्फूर्ति और बल का संचार होते हुए पाती थी, मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक अंचल की आड़ में आ गया हो।
डॉक्टर साहब ने रमणी के अश्रु-सिंचित कपोलों को दोनो हाथो में लेकर कहा-सुधा, तुम इतना छोटा दिल क्यों करती हो? सोहन अपने जीवन में जो कुछ करने आया था, वह कर चुका था, फिर वह क्यों बैठा रहता? जैसे कोई वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है, लेकिन पवन के प्रबल झोकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भांति प्रणय भी दु:ख के आघातों ही से विकास पाता है। खुशी के साथ हंसनेवाले बहुतेरे मिल जाते हैं, रंज में जो साथ रोये, वहर हमारा सच्चा मित्र है। जिन प्रेमियों को साथ रोना नहीं नसीब हुआ, वे मुहब्बत के मजे क्या जानें? सोहन की मृत्यु ने आज हमारे द्वैत को बिलकुल मिटा दिया। आज ही हमने एक दूसरे का सच्चा स्वरुप देखा।;?!
सुधा ने सिसकते हुए कहा- मैं नजर के धोखे में थी। हाय! तुम उसका मुंह भी न देखने पाये। न जाने इन सदिनों उसे इतनी समझ कहां से आ गई थी। जब मुझे रोते देखता, तो अपने केष्ट भूलकर मुस्करा देता। तीसरे ही दिन मरे लाडले की आंख बन्द हो गई। कुछ दवा-दर्पन भी न करने पाईं।
यह कहते-कहते सुधा के आंसू फिर उमड़ आये। डॉक्टर सिन्हा ने उसे सीने से लगाकर करुणा से कांपती हुई आवाज में कहा-प्रिये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृद्व न मरा होगा, जिससे घरवालों की दवा-दर्पन की लालसा पूरी हो गई।
सुधा- निर्मला ने मेरी बड़ी मदद की। मैं तो एकाध झपकी ले भी लेती थी, पर उसकी आंखें नहीं झपकी। रात-रात लिये बैठी या टहलती रहती थी। उसके अहसान कभी न भूलंगी। क्या तुम आज ही जा रहे हो?
डॉक्टर- हां, छुट्टी लेने का मौका न था। सिविल सर्जन शिकार खेलने गया हुआ था।
सुधा- यह सब हमेशा शिकार ही खेला करते हैं?
डॉक्टर- राजाओं को और काम ही क्या है?
सुधा- मैं तो आज न जाने दूंगी।
डॉक्टर- जी तो मेरा भी नहीं चाहता।
सुधा- तो मत जाओ, तार दे दो। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। निर्मला को भी लेती चलूंगी।
सुधा वहां से लौटी, तो उसके हृदय का बोझ हलका हो गया था। पति की प्रेमपूर्णा कोमल वाणी ने उसके सारे शोक और संताप का हरण कर लिया था। प्रेम में असीम विश्वास है, असीम धैर्य है और असीम बल है। जब हमारे ऊपर कोई बड़ी विपत्ति आ पड़ती है, तो उससे हमें केवल दु:ख ही नहीं होता, हमें दूसरों के ताने भी सहने पड़ते हैं। जनता को हमारे ऊपर टिप्पणियों करने का वह सुअवसर मिल जाता है, जिसके लिए वह हमेशा बेचैन रहती है। मंसाराम क्या मरा, मानों समाज को उन पर आवाजें कसने का बहान मिल गया। भीतर की बातें कौन जाने, प्रत्यक्ष बात यह थी कि यह सब सौतेली मां की करतूत है चारों तरफ यही चर्चा थी, ईश्वर ने करे लड़कों को सौतेली मां से पाला पड़े। जिसे अपना बना-बनाया घर उजाड़ना हो, अपने प्यारे बच्चों की गर्दन पर छुरी फेरनी हो, वह बच्चों के रहते हुए अपना दूसरा ब्याह करे। ऐसा कभी नहीं देखा कि सौत के आने पर घर तबाह न हो गया हो, वही बाप जो बच्चों पर जान देता था सौत के आते ही उन्हीं बच्चों का दुश्मन हो जाता है, उसकी मति ही बदल जाती है। ऐसी देवी ने जैन्म ही नहीं लिया, जिसने सौत के बच्चों का अपना समझा हो।
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