नवंबर 1958 में मैनकाइंड में छपे अपने आलेख 'राष्ट्रपति नासर का राजनैतिक दर्शन' में लोहिया ने मिस्र की क्रांति के बहाने, क्रांति के विभिन्न आयामों पर विस्तार से विचार किया है। नासर का ख्याल था कि व्यक्तियों और वर्गों के संघर्ष से दूर रहकर जनता के दिलों से ली गई शक्ति के सहारे देश की सेना, जिसके पास पर्याप्त भौतिक संसाधन हों, क्रांति का सूत्रपात कर सकती है।
यहाँ लोहिया सवाल करते हैं कि क्या सेना को एकमात्र शक्ति मानने वाले नासर सही हैं या पार्टी को एकमात्र ताकत मानने वाले माओ सही हैं या रंगीन जातियों के वे संत व राजनेता सही हैं जो खुद को ऐसे तर्क-वितर्क से परे रखना चाहते हैं। इन सबको लोहिया अस्थायी व गलत समाधान बताते हैं। लोहिया को लगता है कि रंगीन जातियों जब तक अपनी बीमारी को नहीं पहचानती, जो कमोबेश गोरी जातियों की भी बीमारी है, तब तक उनकी क्रांतियाँ ऐसी ही अवरुद्ध होती रहेंगी जैसे राजनैतिक और सामाजिक क्रांतियों के दो पाटों के बीच फंसकर रूसी क्रांति अवरुद्ध हुई या भारतीय क्रांति अवरुद्ध हुई।
नासर का तर्क है कि राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र में एक साथ क्रांति से मिस्र में अभूतपूर्व बदलाव संभव हुआ। लोहिया यहाँ अमरीका, फ्रांस और चीन का उदाहरण देते हैं जहाँ दोनों क्रांतियाँ एक साथ हुईं, कि मिस्र कोई अनोखा उदाहरण नहीं है? रूसी और भारतीय क्रांति के अवरुद्ध होने को लोहिया क्रांति की स्थायी विफलता नहीं मानते हैं। लोहिया सोचते हैं कि अगर इन क्रांतियों की अस्थायी अवरुद्धता के कारणों का रंगीन समाजों को बोध हो तो मानव-जाति के नए युग का आरंभ हो जाएगा।
नासिर द्वारा सेना की भूमिका को रेखांकित किए जाने के संदर्भ में लोहिया देखते हैं कि अफ्रीकी-एशियाई देशों में सैनिक या अन्य किस्म की तानाशाहियाँ लोकप्रिय होती जा रही हैं। काहिरा से जकार्ता और पीकिंग तक की कई मिसाले हैं और पाकिस्तान इसकी हालिया मिसाल है। पीकिंग के पार्टी आधारित समाधान और काहिरा के सेना आधारित समाधान में वे परिणाम की भिन्नता पाते हैं पर उनका मानना है कि दोनों की भावना एक है।
सेना के शासन या अन्य तानाशाहियों के भीतर हो रहे चुनावों की भूमिका पर भी वे विचार करते हैं, ''चुनाव निश्चय ही महत्त्वपूर्ण होते हैं खासकर अगर विचार और संगठन की स्वतंत्रता और आलोचना की योजना का हिस्सा होते हैं।'' पर जिस तरह, स्टालिन के रूस और हिटलर के जर्मनी में चुनावों को वे नियंत्रित देखते हैं, वहां वे उसे प्रायहीन पाते हैं। एशियायी मुल्कों की इस प्रवृत्ति पर भी वे ध्यान दिलाते हैं जब जनता के स्वतंत्र सोचने की क्षमता क्षीण हो जाती है और निर्णय की अपनी जिम्मेदारी वह किसी एक नेता, पार्टी या सेना को सौंप देती है। भारत में इंदिरा गांधी को चुनाव द्वारा सौंपी गई ताकत और आगे, उसके तानाशाही में बदलने की घटनाओं को हम इसके उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। लोहिया भविष्य के गर्भ में छिपी इन घटनाओं का आकलन पहले ही कर चुके थे, वे 1958 में ही लिख रहे थे, ''जिन क्षेत्रों में जनता ने अभी निर्णायक जिम्मेदारी किसी नेता, सेना आदि को सौंपने की संवैधानिक व्यवस्था नहीं की है, जैसे भारत में, वहां पर प्रक्रिया चलने लगी है।'' ऐसी स्थिति में सेना की बजाय पार्टी को जनता द्वारा मिली ताकत को वे ज्यादा स्थायी मानते हैं क्योंकि उसका जनता के मन पर एक हद तक विचारधारात्मक प्रभाव पड़ता है। पाक की सैनिक तानाशाहियों और इंदिरा की तानाशाही के काल की तुलना हम यहाँ कर सकते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में विवेक की शक्ति का क्षय होता वे साफ देखते हैं।
भारत में विनोबा भावे जैसे संत राजनेताओं की दल विहीन राजनीति की संकल्पना के खतरों की ओर भी वे ध्यान दिलाते हैं। वे देखते हैं कि विनोबा की ऐसी बहसों से नेहरू आदि को एक आड़ मिलती है। जिसका उपयोग वे पार्टी के मतभेदों, आलोचना आदि को सीमित करने की चालें चलते हैं। यहाँ तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति भी इसका लाभ ले वयस्क मताधिकार की उपयोगिता पर संदेह व्यक्त करते हैं। ऐसा करते हुए निरक्षरता और गरीबी का तर्क देते हैं।
दलविहीनता के खतरे की ओर इशारा करते लोहिया बतलाते हैं कि, ''पार्टियों के न रहने पर शिक्षित और शिष्ट व्यवहार वाले लोग ही चुने जाएँगे, दूसरे शब्दों में यथास्थिति के पोषक लोग, निरक्षर लोग, नाराज और शोर मचाने वाले लोग अधिकाधिक बाहर हो जाएँगे। किंतु यही तत्व रंगीन मानव-जातियों का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करते हैं। वयस्क मताधिकार ने इन लोशो को बीच में लाया है। दलविहीन राजनीति या परोक्ष चुनाव का उद्देश्य इन लोगों को बाहर रखना है।''
यूं पार्टी प्रणाली जैसे टाइप्ड होती जा रही है वह भी पूरी दुनिया में विफल होती जा रही है। गोरी जातियों के लिए उसने एक नए राजनैतिक कर्म के समान हो गई है जो अपने प्रति अतिरिक्त निष्ठा के आधार पर पहचान देती है। लोहिया इससे परेशान थे कि राजनैतिक पार्टियों का इस्तेमाल बेशर्मी से अपने व्यक्ति-उत्थान के लिए हो रहा है। ''ये व्यक्ति को सुविधा भी देती हैं और प्रतिष्ठा भी और अकसर उसी अनुपात में जितना वह कमीना होता है।'' हालांकि लोहिया आशा नहीं छोड़ते और ऐसे सच्चे संत नेता की प्रतीक्षा करने की सलाह देते हैं—''जो ऐसी पार्टी बनाएगा जो कभी भी सरकार में नहीं आएगी, लेकिन हमेशा अन्याय से लड़ेगी...।''
इस दूरारूढ कल्पना के बाद लोहिया फिर इस सवाल पर आते हैं कि आखिर रंगीन समाज के लोग क्यों सेना या पार्टी की तानाशाही से आशा कर बैठते हैं। इसकी तह में जाते हुए वे पाते हैं कि गोरे समाजों के मुकाबले रंगीन समाज एक रुका हुआ समाज है जिसने अपनी आबादी बढ़ाई पर उसकी आय में कमी होती गई है। सैकड़ों सालों से वह गुलाम रहा और अब जबकि वह आजाद हो रहा है तो गोरे समाजों की बराबरी करना चाहता है। कमजोर साधनों के आधार पर गोरों की नकल कर आधुनिक बनने की उसकी चाह ही तानाशाही समाधानों में अपनी कामना की पूर्ति के स्वप्न देखती है।
यहाँ वे एक और बड़ी गड़बड़ी की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। वह यह कि एकरूपता समानता नहीं होती। किसी के समान दीखने से ही वह उसके समान नहीं हो जाता। वे लिखते हैं, ''रंगीन आदमी में एकरूपता और समानता को एक ही समझने की कमजोरी है, क्योंकि उसने गोरी जाति की शक्ति और उसकी सुख-सुविधाओं को देखा है। वह सोचता है गोरों की नकल करने से उसमें भी वही ताकत आ जाएगी और उसे भी आधुनिक सुविधाएं मिल जाएँगी।''
इस गड़बड़ी को हम भारत की दलित और अगड़ी जातियों के संदर्भ में भी देखते हैं। कभी वे जनेऊ धारण करने का आंदोलन चलाते हैं कभी सिंह टाइटल को लगाकर खुद को अगड़ा बनाना चाहते हैं पर उनकी तरह दिखने से जरूरी है अपना आत्मविश्वास कायम करना और अपने मानदंड रचना जो नकल से नहीं होगा।
लोहिया देखते हैं कि आधुनिकीकरण के पीछे पागल रंगीन समाज का आदमी जब सत्तासीन होता है तब ''उत्पादन और उपभोग का आधुनिकीकरण राज्य की नीति का मुख्य ध्रुवतारा बन जाता है।'' इस नीति से जो गंभीर तनाव व दबाव पैदा होता है वह उन्हें तानाशाही की ओर ले जाता है।
इस तनाव और तानाशाही की ओर रंगीन जातियों के झुकाव के काणों को तलाशते हुए लोहिया देखते हैं कि उत्पादन और उपभोग के आधुनिकीकरण के लिए जो पूँजी चाहिए वह रंगीन देशों की पहुँच के बाहर है, गोरे देश चाहें भी तो इसमें हमारी मदद नहीं कर सकते। यहाँ एक बड़ा संकट आबादी का बढऩा भी है। गोरों की आबादी भी उसी तेजी से बढ़ी है पर उसके उत्पादन साधनों का विकास भी उसी तेजी से हो रहा है जो रंगीन जातियों के यहाँ नहीं होता। ऐसे में रंगीन राष्ट्र एक रास्ता निकालते हैं। वह टुकड़ों में आधुनिकीकरण करना चाहते हैं, देश को कई क्षेत्रों में बांट वह उनका कई चरणों में विकास की कोशिश करता है। इससे काफी तनाव पैदा होता है। तब जिन क्षेत्रों का विकास हो जाता है या जो माडल बन जाते हैं वे बाकी पिछड़े तबकों के लिए तनाव का कारण बन जाता है फिर जो शीतयुद्ध आरंभ होता है वह रंगीन देशों को सेना या पार्टी की तानाशाही की ओर ले जाता है।
यहाँ फिर लोहिया को साम्यवादी सरकारें एक बेहतर उदाहरण के रूप में याद आती हैं जिन्होंने इस समस्या को 'बेहतर ढंग से समझा है...।' क्योंकि उन्होंने उत्पादन और उपभोग के आधुनिकीकरण को अलग-अलग रखा है। वे बताते हैं कि चीन के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री का खर्चा भारतीय राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से करीब बीस गुना कम होगा। वे लिखते हैं—''वे सारी जनता के लिए, मानक निर्धारित करते हैं। साम्यवादी नेताओं का स्तर सादगी का होता है, शायद त्याग का भी जबकि गैर-साम्यवादी नेताओं का स्तर गोरों की नकल के अनुसार होता है।'' यहाँ हम दिनकर की पंक्तियाँ याद कर सकते हैं—''बेलगाम अगर रहा भोग, निश्चय संहार मचेगा...।'' आज भी हम लोहिया और दिनकर के सवालों के आलोक में नेताओं के बेलगाम भोग और गरीब अन्नदाताओं की आत्महत्या के आंकड़ों को सामने रख झंझट के कारकों को पहचान सकते हैं, और यह सब गांधी के देश में होता है। हद यह है कि इसी टुकड़े विकास की तर्ज पर मॉडल कहला रहे गुजरात का मुख्यमंत्री अब गांधी की तस्वीरों का भी उपयोग अपनी छवि सुधारने में करते हुए जरा नहीं शर्माता।
बड़ी आबादी और साधनों की कमी के हिसाब से लोहिया आधुनिकीकरण के किसी अन्य प्रकार पर विचार करने को कहते हैं। प्रतियोगिता को मूल संभव तो वहां सोच-समझकर छोटी मशीनों और जहाँ जरूरी हों वहां भारी उद्योगों की नीति अपनानी चाहिए। इसे लोहिया रंगीन देशों के आधुनिकीकरण का एकमात्र, जरूरी रास्ता बतलाते हैं।
रंगीन आदमी क्रूर, तानाशाह नेतृत्व को क्यों स्वीकारता है, के जवाब वे कहते हैं कि—''इसलिए कि वह नेतृत्व उसे आधुनिक लगता है। वह उम्मीद करता है कि क्रूर नेतृत्व किसी समय उसे आधुनिक बना देगा।'' यहाँ उनका निष्कर्ष बहुत स्पष्ट है—''जब रंगीन जनता आधुनिकीकरण के सही आयामों को भलीभाँति ग्रहण करेगी तभी वह इस नेतृत्व को उखाड़ फेंकेगी जो बहुत धोखेबाज है और अपने को तथा अपने आसपास के लोगों को आधुनिक बनाता है। जनता को नहीं या जो मानव के रूप में भारी कीमत चुकाकर यूरोप की नकल करता है।''
इस तरह रंगीन देशों की क्रांति के अवरोधों की सही पहचान करते हैं लोहिया—''जब क्रांति वास्तव में हुई हो या होने को हो तो बुद्धिजीवी अपव्यय को तथा शासक वर्गों की विलासिता को देखने लगते हैं जो तब तक उन्हें आधुनिकीकरण लगता रहा। च्याँग का चीन सारे रंगीन विश्व में दिखाई देगा।''
कुमार मुकुल की प्रभात प्रकाशन से आयी पुस्तक 'डॉ.लोहिया और उनका जीवन दर्शन ' से
यहाँ लोहिया सवाल करते हैं कि क्या सेना को एकमात्र शक्ति मानने वाले नासर सही हैं या पार्टी को एकमात्र ताकत मानने वाले माओ सही हैं या रंगीन जातियों के वे संत व राजनेता सही हैं जो खुद को ऐसे तर्क-वितर्क से परे रखना चाहते हैं। इन सबको लोहिया अस्थायी व गलत समाधान बताते हैं। लोहिया को लगता है कि रंगीन जातियों जब तक अपनी बीमारी को नहीं पहचानती, जो कमोबेश गोरी जातियों की भी बीमारी है, तब तक उनकी क्रांतियाँ ऐसी ही अवरुद्ध होती रहेंगी जैसे राजनैतिक और सामाजिक क्रांतियों के दो पाटों के बीच फंसकर रूसी क्रांति अवरुद्ध हुई या भारतीय क्रांति अवरुद्ध हुई।
नासर का तर्क है कि राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र में एक साथ क्रांति से मिस्र में अभूतपूर्व बदलाव संभव हुआ। लोहिया यहाँ अमरीका, फ्रांस और चीन का उदाहरण देते हैं जहाँ दोनों क्रांतियाँ एक साथ हुईं, कि मिस्र कोई अनोखा उदाहरण नहीं है? रूसी और भारतीय क्रांति के अवरुद्ध होने को लोहिया क्रांति की स्थायी विफलता नहीं मानते हैं। लोहिया सोचते हैं कि अगर इन क्रांतियों की अस्थायी अवरुद्धता के कारणों का रंगीन समाजों को बोध हो तो मानव-जाति के नए युग का आरंभ हो जाएगा।
नासिर द्वारा सेना की भूमिका को रेखांकित किए जाने के संदर्भ में लोहिया देखते हैं कि अफ्रीकी-एशियाई देशों में सैनिक या अन्य किस्म की तानाशाहियाँ लोकप्रिय होती जा रही हैं। काहिरा से जकार्ता और पीकिंग तक की कई मिसाले हैं और पाकिस्तान इसकी हालिया मिसाल है। पीकिंग के पार्टी आधारित समाधान और काहिरा के सेना आधारित समाधान में वे परिणाम की भिन्नता पाते हैं पर उनका मानना है कि दोनों की भावना एक है।
सेना के शासन या अन्य तानाशाहियों के भीतर हो रहे चुनावों की भूमिका पर भी वे विचार करते हैं, ''चुनाव निश्चय ही महत्त्वपूर्ण होते हैं खासकर अगर विचार और संगठन की स्वतंत्रता और आलोचना की योजना का हिस्सा होते हैं।'' पर जिस तरह, स्टालिन के रूस और हिटलर के जर्मनी में चुनावों को वे नियंत्रित देखते हैं, वहां वे उसे प्रायहीन पाते हैं। एशियायी मुल्कों की इस प्रवृत्ति पर भी वे ध्यान दिलाते हैं जब जनता के स्वतंत्र सोचने की क्षमता क्षीण हो जाती है और निर्णय की अपनी जिम्मेदारी वह किसी एक नेता, पार्टी या सेना को सौंप देती है। भारत में इंदिरा गांधी को चुनाव द्वारा सौंपी गई ताकत और आगे, उसके तानाशाही में बदलने की घटनाओं को हम इसके उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। लोहिया भविष्य के गर्भ में छिपी इन घटनाओं का आकलन पहले ही कर चुके थे, वे 1958 में ही लिख रहे थे, ''जिन क्षेत्रों में जनता ने अभी निर्णायक जिम्मेदारी किसी नेता, सेना आदि को सौंपने की संवैधानिक व्यवस्था नहीं की है, जैसे भारत में, वहां पर प्रक्रिया चलने लगी है।'' ऐसी स्थिति में सेना की बजाय पार्टी को जनता द्वारा मिली ताकत को वे ज्यादा स्थायी मानते हैं क्योंकि उसका जनता के मन पर एक हद तक विचारधारात्मक प्रभाव पड़ता है। पाक की सैनिक तानाशाहियों और इंदिरा की तानाशाही के काल की तुलना हम यहाँ कर सकते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में विवेक की शक्ति का क्षय होता वे साफ देखते हैं।
भारत में विनोबा भावे जैसे संत राजनेताओं की दल विहीन राजनीति की संकल्पना के खतरों की ओर भी वे ध्यान दिलाते हैं। वे देखते हैं कि विनोबा की ऐसी बहसों से नेहरू आदि को एक आड़ मिलती है। जिसका उपयोग वे पार्टी के मतभेदों, आलोचना आदि को सीमित करने की चालें चलते हैं। यहाँ तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति भी इसका लाभ ले वयस्क मताधिकार की उपयोगिता पर संदेह व्यक्त करते हैं। ऐसा करते हुए निरक्षरता और गरीबी का तर्क देते हैं।
दलविहीनता के खतरे की ओर इशारा करते लोहिया बतलाते हैं कि, ''पार्टियों के न रहने पर शिक्षित और शिष्ट व्यवहार वाले लोग ही चुने जाएँगे, दूसरे शब्दों में यथास्थिति के पोषक लोग, निरक्षर लोग, नाराज और शोर मचाने वाले लोग अधिकाधिक बाहर हो जाएँगे। किंतु यही तत्व रंगीन मानव-जातियों का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करते हैं। वयस्क मताधिकार ने इन लोशो को बीच में लाया है। दलविहीन राजनीति या परोक्ष चुनाव का उद्देश्य इन लोगों को बाहर रखना है।''
यूं पार्टी प्रणाली जैसे टाइप्ड होती जा रही है वह भी पूरी दुनिया में विफल होती जा रही है। गोरी जातियों के लिए उसने एक नए राजनैतिक कर्म के समान हो गई है जो अपने प्रति अतिरिक्त निष्ठा के आधार पर पहचान देती है। लोहिया इससे परेशान थे कि राजनैतिक पार्टियों का इस्तेमाल बेशर्मी से अपने व्यक्ति-उत्थान के लिए हो रहा है। ''ये व्यक्ति को सुविधा भी देती हैं और प्रतिष्ठा भी और अकसर उसी अनुपात में जितना वह कमीना होता है।'' हालांकि लोहिया आशा नहीं छोड़ते और ऐसे सच्चे संत नेता की प्रतीक्षा करने की सलाह देते हैं—''जो ऐसी पार्टी बनाएगा जो कभी भी सरकार में नहीं आएगी, लेकिन हमेशा अन्याय से लड़ेगी...।''
इस दूरारूढ कल्पना के बाद लोहिया फिर इस सवाल पर आते हैं कि आखिर रंगीन समाज के लोग क्यों सेना या पार्टी की तानाशाही से आशा कर बैठते हैं। इसकी तह में जाते हुए वे पाते हैं कि गोरे समाजों के मुकाबले रंगीन समाज एक रुका हुआ समाज है जिसने अपनी आबादी बढ़ाई पर उसकी आय में कमी होती गई है। सैकड़ों सालों से वह गुलाम रहा और अब जबकि वह आजाद हो रहा है तो गोरे समाजों की बराबरी करना चाहता है। कमजोर साधनों के आधार पर गोरों की नकल कर आधुनिक बनने की उसकी चाह ही तानाशाही समाधानों में अपनी कामना की पूर्ति के स्वप्न देखती है।
यहाँ वे एक और बड़ी गड़बड़ी की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। वह यह कि एकरूपता समानता नहीं होती। किसी के समान दीखने से ही वह उसके समान नहीं हो जाता। वे लिखते हैं, ''रंगीन आदमी में एकरूपता और समानता को एक ही समझने की कमजोरी है, क्योंकि उसने गोरी जाति की शक्ति और उसकी सुख-सुविधाओं को देखा है। वह सोचता है गोरों की नकल करने से उसमें भी वही ताकत आ जाएगी और उसे भी आधुनिक सुविधाएं मिल जाएँगी।''
इस गड़बड़ी को हम भारत की दलित और अगड़ी जातियों के संदर्भ में भी देखते हैं। कभी वे जनेऊ धारण करने का आंदोलन चलाते हैं कभी सिंह टाइटल को लगाकर खुद को अगड़ा बनाना चाहते हैं पर उनकी तरह दिखने से जरूरी है अपना आत्मविश्वास कायम करना और अपने मानदंड रचना जो नकल से नहीं होगा।
लोहिया देखते हैं कि आधुनिकीकरण के पीछे पागल रंगीन समाज का आदमी जब सत्तासीन होता है तब ''उत्पादन और उपभोग का आधुनिकीकरण राज्य की नीति का मुख्य ध्रुवतारा बन जाता है।'' इस नीति से जो गंभीर तनाव व दबाव पैदा होता है वह उन्हें तानाशाही की ओर ले जाता है।
इस तनाव और तानाशाही की ओर रंगीन जातियों के झुकाव के काणों को तलाशते हुए लोहिया देखते हैं कि उत्पादन और उपभोग के आधुनिकीकरण के लिए जो पूँजी चाहिए वह रंगीन देशों की पहुँच के बाहर है, गोरे देश चाहें भी तो इसमें हमारी मदद नहीं कर सकते। यहाँ एक बड़ा संकट आबादी का बढऩा भी है। गोरों की आबादी भी उसी तेजी से बढ़ी है पर उसके उत्पादन साधनों का विकास भी उसी तेजी से हो रहा है जो रंगीन जातियों के यहाँ नहीं होता। ऐसे में रंगीन राष्ट्र एक रास्ता निकालते हैं। वह टुकड़ों में आधुनिकीकरण करना चाहते हैं, देश को कई क्षेत्रों में बांट वह उनका कई चरणों में विकास की कोशिश करता है। इससे काफी तनाव पैदा होता है। तब जिन क्षेत्रों का विकास हो जाता है या जो माडल बन जाते हैं वे बाकी पिछड़े तबकों के लिए तनाव का कारण बन जाता है फिर जो शीतयुद्ध आरंभ होता है वह रंगीन देशों को सेना या पार्टी की तानाशाही की ओर ले जाता है।
यहाँ फिर लोहिया को साम्यवादी सरकारें एक बेहतर उदाहरण के रूप में याद आती हैं जिन्होंने इस समस्या को 'बेहतर ढंग से समझा है...।' क्योंकि उन्होंने उत्पादन और उपभोग के आधुनिकीकरण को अलग-अलग रखा है। वे बताते हैं कि चीन के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री का खर्चा भारतीय राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से करीब बीस गुना कम होगा। वे लिखते हैं—''वे सारी जनता के लिए, मानक निर्धारित करते हैं। साम्यवादी नेताओं का स्तर सादगी का होता है, शायद त्याग का भी जबकि गैर-साम्यवादी नेताओं का स्तर गोरों की नकल के अनुसार होता है।'' यहाँ हम दिनकर की पंक्तियाँ याद कर सकते हैं—''बेलगाम अगर रहा भोग, निश्चय संहार मचेगा...।'' आज भी हम लोहिया और दिनकर के सवालों के आलोक में नेताओं के बेलगाम भोग और गरीब अन्नदाताओं की आत्महत्या के आंकड़ों को सामने रख झंझट के कारकों को पहचान सकते हैं, और यह सब गांधी के देश में होता है। हद यह है कि इसी टुकड़े विकास की तर्ज पर मॉडल कहला रहे गुजरात का मुख्यमंत्री अब गांधी की तस्वीरों का भी उपयोग अपनी छवि सुधारने में करते हुए जरा नहीं शर्माता।
बड़ी आबादी और साधनों की कमी के हिसाब से लोहिया आधुनिकीकरण के किसी अन्य प्रकार पर विचार करने को कहते हैं। प्रतियोगिता को मूल संभव तो वहां सोच-समझकर छोटी मशीनों और जहाँ जरूरी हों वहां भारी उद्योगों की नीति अपनानी चाहिए। इसे लोहिया रंगीन देशों के आधुनिकीकरण का एकमात्र, जरूरी रास्ता बतलाते हैं।
रंगीन आदमी क्रूर, तानाशाह नेतृत्व को क्यों स्वीकारता है, के जवाब वे कहते हैं कि—''इसलिए कि वह नेतृत्व उसे आधुनिक लगता है। वह उम्मीद करता है कि क्रूर नेतृत्व किसी समय उसे आधुनिक बना देगा।'' यहाँ उनका निष्कर्ष बहुत स्पष्ट है—''जब रंगीन जनता आधुनिकीकरण के सही आयामों को भलीभाँति ग्रहण करेगी तभी वह इस नेतृत्व को उखाड़ फेंकेगी जो बहुत धोखेबाज है और अपने को तथा अपने आसपास के लोगों को आधुनिक बनाता है। जनता को नहीं या जो मानव के रूप में भारी कीमत चुकाकर यूरोप की नकल करता है।''
इस तरह रंगीन देशों की क्रांति के अवरोधों की सही पहचान करते हैं लोहिया—''जब क्रांति वास्तव में हुई हो या होने को हो तो बुद्धिजीवी अपव्यय को तथा शासक वर्गों की विलासिता को देखने लगते हैं जो तब तक उन्हें आधुनिकीकरण लगता रहा। च्याँग का चीन सारे रंगीन विश्व में दिखाई देगा।''
कुमार मुकुल की प्रभात प्रकाशन से आयी पुस्तक 'डॉ.लोहिया और उनका जीवन दर्शन ' से