लोकपाल का सवाल एक बार हमारे सामने है पिछले एक साल से लोकपाल हमारी राजनीति के केन्द्र में है। कुछ लोग लोकपाल के बारे में यों बात करते हैं कि जैसे यह दूसरा स्वतंत्रता आन्दोलन हो। लोकपाल आएगा और सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। लोकपाल आएगा और एकाएक लोगों का रंग-रूप बदल जाएगा, लोगों की दिशाएं बदल जाएंगी, बिल्लियां चूहे खाना बंद कर देंगी, सारे सियार शेर हो जाएंगे और चीते और भालू शाकाहारी हो जाएंगे। लोकपाल की तस्वीर कुछ इस तरह से प्रस्तुत की जा रही है कि लोकपाल अपने हाथों में अलादीन का एक चिराग ले कर आएगा और जैसे ही उसे किसी भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्ति की सूचना दी जाएगी, वह उसे भस्म कर देगा। इस तरह की धारणा रखने वालों को उनके अनुयायी भी मिल जाते हैं। आबादी भी काफी है और तोी से बढ़ भी रही है। उसी अनुपात में 'बाबा लोग' भी बढ़ रहे हैं। हर तरह की पोशाक वाले बाबा मौजूद हैं- सफेद और गेरुआ तो प्रमुख रूप से हैं ही। मैं नहीं जानता कि यह बात आसानी के साथ समझ में क्यों नहीं आती कि भ्रष्ट आचरण राजनीति से पहले एक सामाजिक मुद्दा है। हमारे समाज में हमारे बहुसंख्यक वर्ग में बच्चे के पैदा होने के साथ ही या बच्चे के होश सम्हालने के साथ ही भ्रष्ट आचरण की खिडक़ियां खोल दी जाती हैं। कभी रीति-रिवाजों के नाम पर और कभी लड़का या लड़की होने के नाम पर। जाहिर है कि इसमें समाज का सांस्कृतिक पक्ष शामिल नहीं है लेकिन यह लकीर बहुत बारीक है। मुझे तो यह जो शुभ-लाभ का बीज वाक्य है इसमें ही खोट दिखाई देती है। सुविधा के लिए अगर यह मान लिया जाए कि भ्रष्टाचार की शुरुआत ही 'शुभ-लाभ' के विचार के पीछे है, तो संभवत: गलत नहीं होगा। अब जबकि हमारा देश आधुनिकता के दौर में काफी आगे निकल जाने का दावा कर रहा है, तो हमें ठहर कर कुछ सोचने की ारूरत है। पुणे, बैंगलुरू, अहमदाबाद, गुड़गांव और नोएडा के बावजूद हमारा अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र अभी भी एक तरह के सामंतवादी मानसिक ढांचे में जी रहा है, कईं क्षेत्र ऐसे हैं जहां राजे-राजवाड़ों का प्रभाव अभी भी शेष है, जहां पारंपरिक राजवाड़े खत्म हो गए वहां उनकी जगह पूंजीपति ताकतों ने ले ली है अथवा वहां दक्षिण पंथी राजनैतिक दलों का शासन है। अधिकांश लोग उनके गुणगान करते हुए देखे और सुने जा सकते हैं, जिन्होंने ऐन-केन-प्रकारेण किसी भी तरीके से पैसा कमा लिया हो। पैसा कमाना और अधिक पैसा कमाना आज भी हमारे सामाजिक रिश्तों में, सफलता का उच्चतम मापदण्ड है। यह आज से नहीं है। जब से होश सम्हाला है, समाज को ऐसा ही व्यवहार करते हुए पाया है। पद और पैसा- इनके अंर्तसंबंध जैसे देह और आत्मा के अंर्तसंबंध होते हों- एक के बिना दूसरा अधूरा है। यह गलत सामाजिक मान्यता समाज में ाहर की तरह फैली है। इसका एक तीसरा पक्ष भी है, वह है व्यक्ति का दंभ, अथवा अहम्। अंतत: अहम् भी तो एक तरह के भ्रष्टाचार का हिस्सा है। हमारे समाज में पद को पूजा जाता है, चाहे वह कैसे भी क्यों न प्राप्त किया गया हो। मुफ्त में कोई चीज पा लेना गर्व की बात मानी जाती है। मैंने व्यक्तिगत रूप से मध्यवर्गीय परिवारों में मां-बाप को अपने बच्चों को उन राजाओं और राजकुमारों के किस्से सुनाते हुए देखा है और सुना है, जो या तो हत्यारे थे या जिन की कई-कई रानियां थीं या जिनके पास जीवन की किसी भी तरह की दार्शनिक दृष्टि नहीं थी। होश सम्हालते ही बहुत सारे ऐसे किस्से हमारे सामने आते हैं जिनसे यह आभास होता है कि भ्रष्टाचार को एक तरह की सामाजिक और सार्वजनिक मान्यता मिली हुई है। जैसे कि- 'लड़का ओवरसियर है' यह कहने के बाद कोई तनख्वाह नहीं पूछी जाती थी। ओवरसियर का मतलब यानि कि कमाई की पहली पायदान। इसके बाद तो फिर ऊपर ही ऊपर का रास्ता जाता है। साधारण रूप से मध्यवर्गीय समाज यह मान कर चलता है कि 'ओवरसियर' का भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार होता ही नहीं, यह उसके काम का हिस्सा है। यह स्वीकारोक्ति एक आदर्श समाज की जड़ों में मट्ठा डालने की तरह है। यह बात सिर्फ ओवरसियर पर आकर ही नहीं रूकती, ऊपर और ऊपर चलती चली जाती है। आपकी शब्दावली में इस तरह शामिल होती चलती है कि आपको इस बात का पता ही नहीं चलता कि आप एक तरह के षड़यंत्र में शामिल हो गए हैं। अभी पिछले दिनों रायपुर के आसपास जमीन की खरीद-फरोख्त करने वाले कुछ मित्रों के साथ बातचीत का अवसर मिला। मैं यह सुनकर सन्न रह गया कि वे जमीन के लिए 'माल' शब्द का इस्तेमाल करते हैं। 'महासमुन्द' से दस किलोमीटर आगे, सड़क के किनारे मेरे पास है सात एकड़ माल है। यहां यह स्पष्ट करना ारूरी है कि यह फसल की बात नहीं है, सिर्फ और सिर्फ भूमि की बात है। इस तरह की बात वे करते हैं और धरती को अपनी जेब के माल के रूप में बदल देते हैं। अपनी जमीन के बारे में उनकी बातचीत को सुनकर वापिस सहज होने में मुझे काफी वक्त लग गया। यह मेरी मूर्खता हो सकती है, पर कमजोरी कतई नहीं। अन्ना हजारे जी और बाबा रामदेव जी क्या आपसे दोनों हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक यह पूछा जा सकता है कि जिस समाज का तथाकथित रूप से आप प्रतिनिधित्व कर रहे हैं- उस समाज के संस्कारों में क्या है? उस समाज के बच्चों को घर में किस तरह की जीवनशैली अपनाए जाने की शिक्षा दी जाती है? क्या आप को पता है कि यह जो बहुत सारे लोग आप को भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में अपना समर्थन देने की घोषणा करते हैं वे स्वयं भ्रष्ट आचरण के मायाजाल में आकंठ डूबे हैं।
यह बात उन गरीबों के संदर्भ में नहीं है जिनके पास कुछ देने को है ही नहीं, लेकिन उस मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग के संदर्भ में अवश्य है जो दिल खोलकर भ्रष्ट अफसरशाहों को दान-पुण्य की तरह रिश्वत देते हैं और बदले में अपने सारे रूके हुए काम करा लेते हैं। यह ऐसा समाज है जो किसी भ्रष्ट नौकरशाह या सरकारी कर्मचारी पर ईश्वर से भी यादा भरोसा करता है और उसकी झोली में इस उम्मीद पर अपनी आय का दसवां हिस्सा डालता है कि लेन-देन का क्रम बराबर चलता रहे। पर यह तो छोटी बात है जो सिर्फ पैसे तक सीमित है। अपने अहम् और अपनी हैसियत को बनाए रखने के लिए उन संबंधों की चादर भी बिछाई जाती है, जिस पर दोनों तरफ सिर रखकर सोया जा सके। मुझे अपने साथ घटित एक बात याद आती है। यह वर्ष 1969 की बात है। मैंने घर से रायपुर के एक विज्ञान महाविद्यालय में प्रवेश के लिए पैसे लिए, लेकिन फीस जमा नहीं कर सका क्योंकि मेरी रुचि एक अन्य महाविद्यालय में जाने की थी और मैं वहां के प्रवेश पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था। फीस के पैसे इस दौरान मुझ से इंडियन कॉफी हाऊस में खर्च हो गए और मैं डर गया कि कहीं ऐसा न हो कि मुझे किसी भी महाविद्यालय में प्रवेश न मिले। मैं दौड़ा-दौड़ा विज्ञान महाविद्यालय गया और उनसे एक सप्ताह बाद अपनी फीस जमा करने की मोहलत मांगी पर मेरी बात न सुनते हुए मुझे प्राचार्य महोदय के पास भेज दिया गया। प्राचार्य उन वर्षों में अपनी विद्वता के लिए और प्रशासनिक क्षमता के लिए पूरे अंचल में जाने जाते थे। उनसे मैंने बताया कि- 'मैं बाहर से आया हूं, मेरा मनीआर्डर नहीं आया है, मैं बहुत गरीब घर से हूं आदि-आदि, पर उनके ऊपर कोई असर नहीं हुआ, उन्होंने मुझे तुरंत कमरे से बाहर चले जाने के लिए कहा और यह भी कहा कि मेरी उनके पास आने की हिम्मत कैसे हुई। बेहद तनाव और निराशा से मैं लौट रहा था कि आजाद चौक के पास मुझे एक ख्याल आया। ''एन आईडिया कैन चेंज यूअर लाईफ।'' यह बात पुरानी है। मैंने वहां की एक दुकान पंजाब साईकिल स्टोर से उन्हीं प्रिंसीपल महोदय को एक छद्म नाम से आवाज बदलकर फोन किया। मैंने अपने आप को शहर का आरटीओ बताया और कहा कि मैं बालक को आपके पास भेज रहा हूं। वे बिछ गए। मैं वापिस विज्ञान महाविद्यालय उनके कक्ष में पहुंच गया। उन प्राचार्य महोदय ने मुझे सोफे पर बैठाया, चाय पिलाई और मेरी एप्लीकेशन पर मुझे पन्द्रह दिन का अतिरिक्त समय लिखकर दे दिया। इस तरह मेरा काम तो हो गया पर उस दिन, उस क्षण मेरा जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई मैं आज तक नहीं कर पा रहा हूं। मेरा विश्वास इस प्रशासनिक व्यवस्था और शिक्षा के इन प्राचार्यों से टूट गया, जो आज तक नहीं जुड़ सका है। लेकिन मूलत: यह एक सामाजिक लड़ाई है, यह एक युध्द है जो हमें अपने ही भीतर लड़ना है और जीतना है। लोकपाल इस लड़ाई का एक अंग हो सकता है लेकिन वह भी उसी व्यवस्था का एक हिस्सा होगा जहां से भ्रष्टाचार उपजता है। लोकपाल की लड़ाई के चारों तरफ एक तरह की राजनीति है, जिससे मुक्त होना समय की सबसे पहली आवश्यकता है।
------- तेजिंदर गगन
यह बात उन गरीबों के संदर्भ में नहीं है जिनके पास कुछ देने को है ही नहीं, लेकिन उस मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग के संदर्भ में अवश्य है जो दिल खोलकर भ्रष्ट अफसरशाहों को दान-पुण्य की तरह रिश्वत देते हैं और बदले में अपने सारे रूके हुए काम करा लेते हैं। यह ऐसा समाज है जो किसी भ्रष्ट नौकरशाह या सरकारी कर्मचारी पर ईश्वर से भी यादा भरोसा करता है और उसकी झोली में इस उम्मीद पर अपनी आय का दसवां हिस्सा डालता है कि लेन-देन का क्रम बराबर चलता रहे। पर यह तो छोटी बात है जो सिर्फ पैसे तक सीमित है। अपने अहम् और अपनी हैसियत को बनाए रखने के लिए उन संबंधों की चादर भी बिछाई जाती है, जिस पर दोनों तरफ सिर रखकर सोया जा सके। मुझे अपने साथ घटित एक बात याद आती है। यह वर्ष 1969 की बात है। मैंने घर से रायपुर के एक विज्ञान महाविद्यालय में प्रवेश के लिए पैसे लिए, लेकिन फीस जमा नहीं कर सका क्योंकि मेरी रुचि एक अन्य महाविद्यालय में जाने की थी और मैं वहां के प्रवेश पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था। फीस के पैसे इस दौरान मुझ से इंडियन कॉफी हाऊस में खर्च हो गए और मैं डर गया कि कहीं ऐसा न हो कि मुझे किसी भी महाविद्यालय में प्रवेश न मिले। मैं दौड़ा-दौड़ा विज्ञान महाविद्यालय गया और उनसे एक सप्ताह बाद अपनी फीस जमा करने की मोहलत मांगी पर मेरी बात न सुनते हुए मुझे प्राचार्य महोदय के पास भेज दिया गया। प्राचार्य उन वर्षों में अपनी विद्वता के लिए और प्रशासनिक क्षमता के लिए पूरे अंचल में जाने जाते थे। उनसे मैंने बताया कि- 'मैं बाहर से आया हूं, मेरा मनीआर्डर नहीं आया है, मैं बहुत गरीब घर से हूं आदि-आदि, पर उनके ऊपर कोई असर नहीं हुआ, उन्होंने मुझे तुरंत कमरे से बाहर चले जाने के लिए कहा और यह भी कहा कि मेरी उनके पास आने की हिम्मत कैसे हुई। बेहद तनाव और निराशा से मैं लौट रहा था कि आजाद चौक के पास मुझे एक ख्याल आया। ''एन आईडिया कैन चेंज यूअर लाईफ।'' यह बात पुरानी है। मैंने वहां की एक दुकान पंजाब साईकिल स्टोर से उन्हीं प्रिंसीपल महोदय को एक छद्म नाम से आवाज बदलकर फोन किया। मैंने अपने आप को शहर का आरटीओ बताया और कहा कि मैं बालक को आपके पास भेज रहा हूं। वे बिछ गए। मैं वापिस विज्ञान महाविद्यालय उनके कक्ष में पहुंच गया। उन प्राचार्य महोदय ने मुझे सोफे पर बैठाया, चाय पिलाई और मेरी एप्लीकेशन पर मुझे पन्द्रह दिन का अतिरिक्त समय लिखकर दे दिया। इस तरह मेरा काम तो हो गया पर उस दिन, उस क्षण मेरा जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई मैं आज तक नहीं कर पा रहा हूं। मेरा विश्वास इस प्रशासनिक व्यवस्था और शिक्षा के इन प्राचार्यों से टूट गया, जो आज तक नहीं जुड़ सका है। लेकिन मूलत: यह एक सामाजिक लड़ाई है, यह एक युध्द है जो हमें अपने ही भीतर लड़ना है और जीतना है। लोकपाल इस लड़ाई का एक अंग हो सकता है लेकिन वह भी उसी व्यवस्था का एक हिस्सा होगा जहां से भ्रष्टाचार उपजता है। लोकपाल की लड़ाई के चारों तरफ एक तरह की राजनीति है, जिससे मुक्त होना समय की सबसे पहली आवश्यकता है।
------- तेजिंदर गगन