एक कविता की पंक्तियां है- 'एक हाथ में महीन धागा है, दर्जी के पास, जिससे वह सिलता जाता है कुर्ते और निक्करें, और दूसरे हाथ में कैंची, वह कैंची से काटता है और फिर महीन धागे से सिलता है,
कपड़े, जो मनुष्य के जिस्म को ढंकते हैं, सलीके से, इस तरह वह आकार देता है कपड़ों को, मनुष्य को नंगा होने से बचाए रखने के लिए, और इस पवित्र काम में, धागा और कैंची दोनों ही उसके अस्त्र होते हैं'- किसी भी विचारशील समाज में बुध्दिजीवी की भूमिका एक दर्जी की तरह की होनी चाहिए। हार्वाड विश्वविद्यालय ने पिछले दिनों भारत के एक व्यक्ति केन्द्रित राजनैतिक दल जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यिम स्वामी को अपने यहां के अध्यापकीय पैनल से बाहर निकाल दिया। उन पर यह कार्रवाई अपने एक लेख में इस्लाम धर्म पर और इस धर्म के अनुयायियों पर की गई विपरीत टिप्पणियों के कारण की गई। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बुध्दिजीवी वर्ग ने आम तौर पर हार्वाड विश्वविद्यालय के इस कदम की सराहना की। डॉ. सुब्रमण्यिम स्वामी ने सिर्फ इस्लाम के लिए ही आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है बल्कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष तथा कांग्रेसाध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के प्रति भी उनकी नागरिकता और उनके ईसाई होने को लेकर तरह-तरह की भ्रामक और आधारहीन बातें करके बड़ी संख्या में युवाओं को भ्रमित किया है। उनका पूरा आचरण इस बात का पुख्ता सबूत है कि सिर्फ डिग्री हासिल कर लेने से ही कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा, परिपक्व और समझदार नहीं हो जाता। हार्वाड विश्वविद्यालय का जहां तक सवाल है उन्होंने उचित ही किया पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ वर्ष और विगत की ओर चलें तो दोहरे मापदंडों का पता भी चलता है। करीब एक दशक पहले भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखक सर विद्याधर नायपाल को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन पर यह आरोप है कि अपने चिंतन और लेखन में वे घोर साम्प्रदायिक हैं। 6 दिसम्बर 1992 में जब अयोध्या में बाबरी-मस्जिद का दुर्भाग्यजनक प्रकरण हुआ तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिन दो या तीन बुध्दिजीवियों ने भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी की प्रशंसा की सर विद्या उनमें प्रमुख थे। नायपाल ने कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण हिन्दुस्तान के पुर्नजागरण का प्रतीक है।'' नायपाल ने रोमिला थापर के इतिहास के परिप्रेक्ष्य को महज मार्क्सवादी बताकर नकारते हुए कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण एक तरह का ऐतिहासिक प्रतिशोध है।'' यह एक तरह से आडवानी और विश्व हिन्दू परिषद की सोच को ताकत देने वाली प्रतिक्रिया थी। 6 दिसम्बर 1992 के दिन जब सारी दुनिया का मीडिया उस त्रासद घटना को भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए एक अशुभ संकेत बता रहा था। नायपाल ने टाईम्स ऑफ इंडिया को दिए गए अपने साक्षात्कार में कहा था कि- 'वे लोग जिन्होंने मस्जिद की मीनारों पर चढ़ कर उन्हें तोड़ने का काम किया उनकी भावनाओं (पैशन) को समझने की जरूरत है।' अयोध्या प्रकरण के कुछ ही वर्षों बाद नायपाल ने अपना विवादास्पद लेख लिखा था जिसमें इस्लाम को कट्टरवादी धर्म बताया गया था और इस उप-महाद्वीप में रहने वाले सभी इस्लाम धर्मानुयायियों को 'कन्वर्ट' कहा गया था। उसके तुरंत बाद ही उन्हें पश्चिमी ताकतों द्वारा साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं हो सकता। बी.एस.नायपाल की अधिकृत जीवनी लिखने वाले पैट्रिक फे्रंच की पुस्तक 'द वर्ल्ड इा व्हाट इट इा' में लिखी बातों पर अगर भरोसा किया जाए तो नायपाल जब-जब भी भारत आए यहां के लोगों के प्रति उनका दृष्टिकोण कोई बहुत सम्मानजनक नहीं रहा। वे मुंबई और थाणे में दलित लेखकों के घर उनसे मिलने भी गए लेकिन वह एक अभिजात्य वर्ग के कुलीन लेखक का अपने से कमतर किसी लेखक के यहां जाना था जब कि शिवसेना के नेता बाला साहेब ठाकरे के लिए उनके मन में गहरा आदर का भाव था। यह एक और पक्ष है जो कि सर विद्या को आडवानी के करीब लाता है। लालकृष्ण आडवानी ने अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री-माई लाईफ' में दो अन्य प्रखर बुध्दिजीवियों का उल्लेख बड़े गर्व के साथ किया है, जिन्होंने अयोध्या प्रकरण में उन्हें खुला समर्थन दिया- वे हैं- नीराद सी. चौधरी और गिरिलाल जैन। 'आटोबायग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन' के लेखक जो कि भूरे साहब के नाम से भी जाने जाते थे, नीराद सी. चौधरी निश्चित ही यूरोप में भारत की पहचान थे लेकिन वे आजीवन भारतीय जन-जीवन के प्रति अपनी घृणा के लिए जाने जाते रहे, इसलिए उनका अपने समर्थन में होना एक तरह से अपने विरोध में होना ही है। लगभग यही बात धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में गिरिलाल जैन पर लागू होती है। दिवंगत श्री जैन की सोच और उनकी विचारधारा किसी से छिपी हुई नहीं थी। श्री जैन ने भी अयोध्या-आन्दोलन को हिन्दू-पुर्नजागरण का एक अनिवार्य और ऐतिहासिक हिस्सा बनाया था। सच तो यह है कि 6 दिसम्बर 1992 के बाद के देश में हिन्दी क्षेत्र के तमाम समाचारपत्र और पत्रिकाएं अगर पलट कर देखें तो हम पाते हैं कि नब्बे प्रतिशत से अधिक समाचार-पत्रों और उनके संपादकों ने देश के धर्म-निरपेक्ष स्वरूप का हवाला देते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड की खुलकर निंदा की थी। कई बार लगता है कि हमारा मजबूत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र यूरोपियन राष्ट्रों की बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा है इसलिए वे हर तरह के हथकंडे हमारे ऊपर आजमाते हैं, यहां तक कि हमारे ही बुध्दिजीवियों को भी इन स्थितियों में एक समरस समाज में खलल पैदा करने की कोशिश का हिस्सा बनाने की कोशिश करने से नहीं चूकते। जापानी कवि मिशियो माडो की पंक्तियां क्या सचमुच सटीक नहीं लगतीं- ''कई बार मैं चकित हो जाता हूं कि, ऐसा क्यों नहीं हैयुग-युगांतर से, अरबों-खरबों साल से, हम धूप में रहते आए हैं, जो इतनी निर्मल हैहवा में सांस लेते आए हैं जो इतनी निर्मल हैपानी पीते आते आए हैं, जो इतना निर्मल है, तब क्यों, आखिर क्योंहम और काम हमारे,पहुंच नहीं पाते, कैसे भी निर्मलता तक।'' ------------------------------------ तेजिंदर गगन
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फौ अहमद फौ ने अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले नवम्बर 1984 में लिखा था-''हम एक उम्र से वाकिंफ हैं, अब न समझाओ कि लुतंफ क्या है, मेरे मेहरबां और सितम क्या है।''
कल छै: दिसम्बर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस को उन्नीस वर्ष पूरे हो गए। उसके बाद देश में बहुत कुछ बदला है, पर वह जो दरार छै: दिसम्बर 1992 को अयोध्या में पड़ी, उसे अभी तक पूरी तरह नहीं भरा जा सका है। दोनों समुदायों में बड़ी संख्या में ऐसे तथाकथित बुध्दिजीवी आपको मिल जाएंगे जो इतिहास के तहखाने में गोते लगाते-लगाते, अपनी सांस ऊपर-नीचे करते आपको लगातार समझाने की कोशिश करेंगे कि वहां दरअसल मंदिर था या मस्जिद थी। अपने इतिहास में या अतीत में जाना कोई बहुत बुरी बात तो नहीं है लेकिन उसमें धंस जाना और फिर वहीं ठहर जाना, निश्चित ही बुरा है। अपनी जडों के बिना कोई भी संप्रदाय, कोई भी जाति, कोई भी संस्कृति जीवित नहीं रह सकती लेकिन जड़ों को सींचने का काम वर्तमान और भविष्य की दृष्टि ही करती है। पिछले उन्नीस वर्षों में देश ने अपनी काफी ऊर्जा इस बात पर खर्च की है कि इस मामले को कैसे सुलझाया जाए। सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही तरह से। देश की न्यायपालिका को इस विवाद के अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचाने का जिम्मा सौंपा गया है पर मामला अभी तक वादियों, प्रतिवादियों और याचिकाओं, पुर्नयाचिकाओं के भंवरजाल में है। इस बात को निश्चित तौर पर बता पाना बहुत मुश्किल है कि अंतत: कब अंतिम रूप से यह तय किया जा सकेगा कि मंदिर कहां था और मस्जिद कहां थी। वैसे तो आस्था के सभी केंद्रबिंदु मनुष्य के अपने भीतर होते हैं पर यहां सवाल व्यक्तिगत आस्था का नहीं है अपितु सामूहिक तर्क और विश्वास का है, इसलिए यह ारूरी है कि कोई सर्वमान्य हल ऐसा हो जो दोनों समुदायों के स्वाभिमान को आंच न पहुंचाता हो। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी ने, एक ऐसे समय में अपनी रथ-यात्रा के माध्यम से दोनों समुदायों के बीच ऐसी रेखा खींच दी, जिसने अल्पसंख्यकों के मन में एक गहरा घाव पैदा कर दिया। यह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की उस भावना के बिल्कुल विपरीत था जो उन्होंने आाादी के तुरंत बाद देश के सभी मुख्यमंत्रियों के नाम अपने पत्र में व्यक्त की थी। पंडित नेहरू ने 15 अक्टूबर 1947 को लिखे इस पत्र में कहा था कि, ''हमें अल्पसंख्यक संप्रदाय के साथ सभ्यता का बर्ताव करना होगा। हमें उन्हें सुरक्षा और एक लोकतांत्रिक देश में नागरिकों को मिलने वाले सभी अधिकार देने ही होंगे। यदि हम ऐसा कर पाने में विफल रहे तो ऐसा तीखा घाव लगेगा, जो अंतत: पूरी व्यवस्था में ाहर भर देगा और संभवत: उसे ध्वस्त भी कर देगा।'' ााहिर है पंडित नेहरू की यह चेतावनी सिर्फ उनके अपने समय के लिए नहीं थी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी थी। प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी कहा था कि बहुसंख्यक समाज की दस प्रतिशत सांप्रदायिक मानसिकता, अल्पसंख्यकों की सौ प्रतिशत सांप्रदायिक मानसिकता के ऊपर भारी पड़ सकती है। कुछ वर्ष पूर्व मैं लाहौर में था। लाहौर की सड़कों पर घूमते हुए मुझे एक भारतीय के रूप में पहचान पाना कोई मुश्किल काम नहीं था। यह बात अलग है कि वहां इंग्लैण्ड अथवा कैनेडा से आए सिक्खों को भी देखा जा सकता है। मेरी जो बातचीत वहां के युवकों से या सड़कों पर मिलने वाले अन्य लोगों से हुई, उसमें यह आभास हुआ कि वहां के युवकों में भारत-विरोधी और विशेष रूप से हिन्दू-विरोधी धारणाएं बहुत प्रबल हैं। उन्हें लगता है कि भारत उनका पड़ोसी नहीं, बड़ा भाई नहीं, मित्र नहीं बल्कि शत्रु है। यह अजीब था। वे जैसे अपने अतीत का हिस्सा ही नहीं थे। उनके लिए यह दुनिया साठ-पैंसठ साल पहले ही बनी थी। प्रगतिशील सहित्य की जानी-मानी लेखिका किश्वर नाहीद से अपने होटल में बातचीत के दौरान जब मैंने यह जानना चाहा कि अंतत: पच्चीस-तीस वर्षीय पाकिस्तानी युवकों में घृणा का यह भाव क्यों है, वे तो विभाजन के बहुत बाद में पैदा हुए तो उन्होंने तपाक से कहा कि - ''यह सब पश्चिमी मीडिया का कमाल है, जो हम सब भोग रहे हैं। यूरोपीय राष्ट्र और अमेरिका कभी नहीं चाहते कि इस उप-महाद्वीप में शांति बनी रहे या कि लोगों के जीवन स्तर विकसित हो सके।'' यह बात सच है। आज जब हम इंटरनेट खोलकर बैठते हैं तो देखते हैं कि 'फेसबुक' के अंदर कई चेहरे ऐसे हैं जो अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा और अपमान का ंजहर उगल रहे हैं। यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति की ओर सिर्फ संकेत मात्र नहीं बल्कि तमाम संवेदनशील मानवीय मूल्यों का खुलमखुल्ला उल्लंघन है। दिलचस्प बात यह है कि फिलहाल इस पर कोई सजा नहीं, सरकारी-गैर-सरकारी तौर पर कोई आवाज नहीं, कोई विरोध नहीं। अगर कोई आपकी बात से असहमत हैं तो कुछेक व्यक्तियों द्वारा ऐसे फरमान भी जारी किए जाते हैं कि, असहमति वाले व्यक्ति को गोली मार देनी चाहिए। यह त्रासद है। इंटरनेट का अगर विचार के स्तर पर यह इस्तेमाल है तो इससे अच्छी क्या संवादहीनता की स्थिति नहीं होगी? यह सवाल बहुत अच्छा नहीं है, लेकिन अगर आप ने 'फेसबुक' पर कुछेक समूहों का वार्तालाप पढ़ा हो तो संभवत: यह सवाल औचित्यहीन नहीं लगेगा। यह सही वक्त था कि इंटरनेट जैसे माध्यमों से हमारा समाज अयोध्या विवाद की तरह के मुद्दों पर एक तरह की रचनात्मक बहस करता जो कि सार्थक और विचारशील होती और किसी भी समुदाय की भावनाओं और उसके स्वाभिमान को ठेस न पहुंचाती। अयोध्या मुद्दे की लंबित याचिकाओं पर न्यायाधीशों का जो भी अंतिम फैसला आए वह दोनों समुदायों को अपने-अपने स्वाभिमान के साथ स्वीकार्य हो और हम सब को एक बेहतर मनुष्य बनाए, यही कामना है। आमीन! अंत में युवा कवि प्रदीप जलवाने की एक कविता ''आस्था का अंश''- ''जैसे बीज की आस्था होती है धरती में, जैसे बूंद की आस्था होती है समुद्र में, जैसे किसी पाखी की आस्था होती है आकाश में, तुम मेरी आस्था की धरती, समुद्र और आकाश हो।'' ---------------------------- तेजिंदर गगन डॉ.कुमार विमल से मेरी पहली भेंट 1987 में हुई थी। अपने पहले कविता संग्रह समुद्र के आंसू के लिए दो शब्द लिखवाने के संदर्भ में उनसे तीन मुलाकातें हुयीं थीं। दो उनके आवास पर,एक उनके सचिवालय स्थित दफ्तर में। अमरेन्द्र कुमार मुकुल से कुमार मुकुल होने में एक हद तक उनके नाम से ही प्रेरित हुआ था मैं। मुकुल मेरे घर का पुकार का नाम था।
जब मैं डॉ.कुमार विमल से किताब के दो शब्द लिखा लाया तब जाकर एक हद तक पिता आश्वस्त हुए कि मैं कुछ गलत नहीं जा रहा। आरा जैन कालेज में जिस साल पिता एमए अंग्रेजी की डिग्री लेकर निकल रहे थे उसी साल विमल जी वहां प्राध्यापक के रूप् में नियुक्त हएु थे जैसा कि पिता बताते थे। घर में उनकी उस समय लिखी गयी आलोचना की एक पुस्तक भी थी। जब मैं उनसे दो शब्द लिखा लाया तब उनके बारे में और पता किया और देखा कि पिता ने सौंदर्यशास्त्र पर उनकी किताब मंगा कर अपनी टेबल पर जमा रखी है। मेंने किताब पढी और उस समय की अपनी समझ के अनुसार काफी लंबा एक लेख भी लिखा। संभवत: वह मेरे गद्य लेखन की शुरूआत थी। अभी भी उस आलेख की कापी मेरे पास है, जिसका संपादन करने की मैं आज तक सोचता रह गया। दो शब्द लिखाने की जब मैंने सोचना आरंभ किया उस समय साहित्य में भी मेरे गुरू पिता ही थे। सहरसा में लोग गोष्ठियों में भाषण करने उन्हें अक्सर ले जाते थे और मुग्ध होकर उनका भाषण सुनते थे। पिता की भाषा भी संस्कृत निष्ठ थी विमल जी जैसी। पिता ने ही चर्चा करते बताया था कि विमल जी ने पंत की भूमिका लिखी है और महादेवी की लिखने वाले हैं, अब मुझे और क्या चाहिए था। उस समय तक पिता की टेबल पर मुक्तिबोध की भूरी-भूरी खाक धूल आ चुकी थी पर उसमें मेरी रसाई नहीं थी। दिनकर का चक्रवाल ही मेरे लिए महान ग्रंथ था तब। उस समय मैं सहरसा में रहता था। विमल जी से लिखवाने के लिए पटना जाना होता, और घर में मेरी इतनी वकत नहीं थी तब कि केवल इसी के लिए मुझे पटना जाने दिया जाता। तो इंटर के बाद हुआ कि पटना कालेज में मेरा एडमिशन होगा।केदारनाथ कलाधर पिता से क्लास में जुनियर थे और पिता ने उस समय पढाई में उनकी मदद वगैरह की थी। तो जब उनसे मिले हमलोग तो कलाधर जी काफी आवभगत की। पिता को निश्चिंत कर सहरसा भेज दिया कि जाइए मैं एडमिशन करवा दूंगा और रहने की व्यवस्था भी करवा दूंगा। तब मैं पटना में अपने स्कूल के साथी शैलजा दत्त पाठकके यहां ठहरा था। शैलजा के पिता भी मेरे पिता के सहपाठी थे। सप्ताह भर रहने के बाद भी जब मेरे रहने के बारे में कुछ पता नहीं चला तो मैं कलाधर जी से मिला। कि कुछ व्यवस्था कीजिए अब। तो वे मुझे लेजाकर हिंदी साहित्य सम्मेलन के एक हाल में टिका दिए। हाल में एक बडी सी टेबल लगी थी कमर तक उंची पर एक बडे पलंग से बडी। तो उसी पर मैंने विस्तर लगा दिया और दीवार पर टंडन जी आदि साहित्यिकों की तस्वीरें थीं टंगी तो उनकी खूंटियों में मच्छडदानी अंटका लिया करता रात को। मेरी इस दखलंदाजी को वहां के पारंपरिक निवासी पसंद नहीं कर रहे थे। सो वे कहते कि इस कमरे में कोई मर गया था कि उसका भूत रहता है इसमें। राम में थोडा डर लगता, पर तब तक मैं इतना कमजोर नहीं रह गया था, भूत से डरा कर भगा दिया जाए। सो मैं टिक गया। तब वहीं सामने के सीढी घर के नीचे के कमरे में मगही के कवि रामसिंगासन सिंह विद्यार्थी रहते थे। उनसे मेरी दोस्ती हो गयी थी। वे तंगहाली में रहते थे। एक बार मेरी गर्दन की नस चढ गयी तो उन्होंने कहा कि वे अच्छे बैद्य भी हैं फिर पीठ की नसों को कुछ खींचा वींचा तो कुछ आराम हुआ। फिर एक दिन वे अपने साथ मुझे पटना रेडियो स्टेशन ले गये। उस दिन वे खूब सजधज कर गये थे। सो मुझे ही अजूबे लग रहे थे। उस समय समुद्र के आंसू की पांडुलिपी मैं साथ लेता गया था। कलाधर जी का आश्वासन बिरबल की खिचडी की तरह पक रहा था तो मैं इस जुगाड में था कि इसी बीच पुस्तक की भूमिका आदि लिखवा ली जाए। विमल जी के अलावे मुझेश्रीरंजन सूरिदेव से भी भूमिका लिखानी थी। तो मैं दोनों लोगों से बारी-बारी मिला। दोनों ही सज्जन व्यक्त्िा निकले। विमल जी जैसा मीठे स्वभाव का व्यक्ति मैंने फिर देखा नहीं। उस समय मैं सोचता यह सौदर्यशास्त्र पर किताब लिखने के चलते इतने सुदर्शन और मीठे स्वभाव के हैं। इतना धीमे और मधुर वे बोलते कि क्या कहा जाए। उनके कमरे में चारों ओर किताबें फैलीं रहतीं। यहां तक कि जिस सोफे पर बैठना होता उस भी किताबें हटा कर बैठना होता। सामने टेबल पर एक पीतल का जूता किताबों पर रखा होता वह मुझ भोजपुरिया को और अजूबा लगता। कला वला का क ख ग तब कहां कितना समझ पाता था। दूसरी मुलाकात में मैंने उन्हें पुस्तक की पांडुलिपी दी। उन्होंने कहा कि एक सप्ताह बाद दफ्तर में मिलिए। दफ्तर में सिपाही से नजरें बचाकर जब मैं दाखिल हुआ तो उन्होंने पूछा – किसी ने रोका नहीं , मैं हंसा – नहीं तो। वे मुस्कुराए। बोले – धुन के पक्के हो तुम, राइज करोगे। फिर इस बीच वे पांडुलिपी पढ चुके थे, व पास ही थी। एक सादा कागज उन्होंने मुझे थमाया तो मेरी समझ में नहीं आया कि मुझे क्या करना है। फिर उन्होंने डिक्टेशन दे दो शब्द लिखवाए। फिर उसे टाइप करवाकर दस्तखत कर मुझे दिया। प्रमुदित मैं साहित्य सम्मेलन लौट आया। फिर मैंने पता किया तो कलाधर जी के आश्वासनों का कोई मानी नहीं था। और मैं पटना से सहरसा लौट आया। किताब पिता ने छपवाई। डाक से उन्हें भेजा तो उनका उत्साह बर्धक पत्र आया। आगे मेरी कविताई ने नयी राह ली। सहरसा के महाप्रकाश , केदार कानन आदि अग्रज कवियों के संपर्क में मैं आया तो विकास के साथ पिता की और विमल जी और सूरिदेव जी की संस्कृत निष्ठ भाषा मुझे अखरने लगी। तब अग्रजों की संगत में कविता के नये मुहावरों और उनकी नयी विकसित होती दुनिया से मेरा साबका पडा तो पिछला सब भूल गया। अपना ही कविता संग्रह मुझे बेकार लगने लगा। हालांकि उस समय हिंदुस्तान में मुकेश प्रत्यूष ने इसकी समीक्षा भी लिखी थी , उत्साहबर्धक । इस सब के करीब दस साल बाद पटना रेडियो स्टेशन में विमल जी से मुलाकात हुई। सुलभ जी के निर्देशन में हमें कविता पढनी थी और विमल जी को भी। हम एक साथ बैठे रिकार्डिंग रूम के खाली होने का इंतजार कर रहे थे। विमल जी ने मुझे पहचाना नहीं तो बातचीत में अपने बारे में बताने का मौक ही नहीं आया। मैं आधे घंटे तक उन्हें सुनता रहा। उनकी मीठी वाणी का आकर्षण था शायद कि मैं अंत तक सुनता रहा कविता-आलोचना की दुनिया की चर्चा। फिर उनके रिकार्डिंग का वक्त् आ गया। निकलते समय मैंने उन्हें नमस्कार किया, वे चले गये और मैं अपनी रिकार्डिंग के लिए भीतर गया। यही आखिरी मुलाकात थी। फिर उन्हें जब तब पढता रहा अखबार आदि में। उनके दो तीन कविता संग्रह पढे पर उनके गद्य सा उसका कोई प्रभाव नहीं पडा मुझ पर। कल फेशबुक पर उनके नहीं रहने की खबर पढ मुझे सब कुछ याद आने लगा, खासकर उनकी मीठी जबान के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। ....... कुमार मुकुल .....हमरा आकाशवाणी दरभंगा केन्द्रक निदेशकक कार्यभार लेना तीन-चारि मास भेल हएत जे एकदिन जवाहर जी कें पुछलियै--'भाइ, चन्दा झाक मिथिला रामायण देखलहक कहियो?'
चारिये-पांच दिनका बाद ओ मिथिला रामायणक तीन-चारि स्थल देखेलक आ कहलक जे एकरा मैथिली धुन मे बन्हबाक प्रयास करै छियै। से तेहन दिव्य बनेलक जे हम सुनि क' दंग रहि गेल रही। ओ दू-तीन टा प्रसंग के सीताराम भाइ संगे हमरा सब कैक गोटा, एकदम तटस्थ भ' क' सुनलियै, ओ कोनो दृष्टि सं अखिल भारतीय स्तरक रहै। हम विचारलियै जे पूरा उत्तर भारतक सब केन्द्र सं तुलसीकृत रामायण तं प्रसारित होइते छै, कम सं कम मिथिलाक राजधानी सं तं मिथिला रामायण प्रसारित होअय। संगीत विभाग हमरे तल्लुक छल। हम खर्चक तखमीना लगेलहुं। हमरा लागल मास दर मास हम किछुए मासाभ्यन्तर पूरा रामायण रेकर्ड क' लेब आ फेर ओकरा दोहरबैत रहब। जवाहर जी बीडा उठबै लेल तैयार भेल। सीताराम भाइ सेहो उत्साहित केलक। तीन-चारि दिनुका अथक परिश्रमक बाद हम एकटा प्रतिवेदन तैयार केलहुं। अइ मे मैथिली भाषाक तराइ तक पसरल क्षेत्र, तदनुसार एकर असार-पसार, एकर इतिहास आ इतिहास मे मिथिलाक रामायण के स्थान आदिक उद्धरण दैत महानिदेशालय सं मिथिला रामायण कें प्रसारित करबाक अनुमति मांगलियै। इहो लिखलियै जे अइ लेल हमरा कोनो अतिरिक्त बजट नहि चाही आ एक मासक भीतर हमरा कोनो निर्देश महानिदेशालय सं नहि आएल तं हम अपन प्रस्ताव कें स्वीकृत बूझब आ फलां तारीख सं एत्ते बजे मिथिला रामायणक प्रसारण आरंभ क' देब। ई खबरि पसरिते आकाशवाणी कालोनी मे विराजमान सेवानिवृत्त चतुर्भुज आ आकाशवाणी मे हुनकर गुट सक्रिय भेल। एकर विरुद्ध आवेदन, प्रतिवेदन, फोन, शिकायती पत्र महानिदेशालय जाय लागल। सबहक एक्के रटनि----'क्या पंडी जी, हमेशा मैथिली-मैथिली करते रहते हैं...उसमें चूडा-दही-चीनी छोड के क्या है? बोलिए, ऐं......' आ,तकर बाद एक अश्लील ठहाका। पूरा सेवा-काल मे की छोट की पैघ अधिकारी-कर्मचारी, सबहक मुंह सं दर्जनो बेर एहन अश्लील ठहाका सुनने हएब। मैथिली रामायणक प्रसारण शुरू करैक जे तिथिक उल्लेख हम अपन प्रतिवेदन मे केने रहियै, तइ सं बहुत पहिने हमरा महानिदेशालय सं एकटा लंबा-चौडा तार भेटल, जाहि मे हमर प्रस्ताव कें अनर्गल मानि क' खारिज क' देल गेल छल, आ हमरा चेताएल गेल छल जे प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव के रूप मे निदेशकक कार्यभार हमरा रूटीन ढंग सं चलेबाक अपेक्षा कएल जाइत अछि। एहि तरहक अनर्गल प्रस्ताव भविढ्य मे नहि पठाएल जाय। सब केन्द्र सं जेना तुलसीकृत रामायण प्रसारित होइत छैक तहिना दरभंगो केन्द्र सं होइत रहबाक चाही। मैथिली एक बोली अछि जकरा मे रामायण प्रसारित करबाक कोनो औचित्य नहि अछि। एकर छव मासक अभ्यन्तरे हम झांसी आ सतनाक बीच मे कि कहू चंबल खाह-खोह जंगल के बीच बसल एकटा छोटछीन शहर छतरपुर मे रही। अपन कोठली मे असगर पडल, छतक कडी गनैत। बाहर बुन्देली सूर्य तपि रहल छलै। दरभंगा बहुत दूर, बहुत पाछां छुटि चुकल छल।.... तारानंद वियोगी ![]() साकेतानन्द जी का जाना जितना आहत करता है, सान्त्वना भी उससे कम नहीं देता। कैन्सर से लडता हुआ एक लेखक आखिरी दम तक किस तरह जिन्दगी से लवरेज जीता रह सकता है, ये हमने उनमें देखा। ये ताकत उन्हें कई चीजों से मिलती थी। वह वामपंथ से भी जुडे थे और तारा से भी। तारा के ही सूत्र से हम दोनों एक-दूसरे को 'सहोदर' कहा करते। अभी पिछले सप्ताह उन्होंने अपनी नई किताब 'कोसी कातक गंगा' भेजी थी, वो अभी पढ ही रहा हूं। इसमें एक जगह उन्होंने अपने महान पितृव्य कुमार गंगानन्द सिंह की एक कविता कोट की है--- परोक्ष में वो तो जाग रहे हैं पर दुनिया समझती है कि वो सो चुके हैं... जागते हैं परोक्ष में पै अपरोक्ष जानता है जग--सो गए हैं अपने को मिले जब से, तब से हम दूसरों के लिए खो गए हैं.......... ओह, बहुत याद आएंगे सर, आप।। .... तारानंद वियोगी यहाँ आप आयें और आते रहें हमारी यही कामना है .हम आपको यहाँ आने का सस्नेह निमंत्रण देते हैं .आप हमें हमारे ब्लॉग लिंक www.kisunsankalplok.wordpress.com पे भी देख सकते हैं
आभार देवाशीष वत्स |
![]() एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
आभार देवाशीष वत्स Archives
May 2013
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