
साकेतानन्द जी का जाना जितना आहत करता है, सान्त्वना भी उससे कम नहीं देता। कैन्सर से लडता हुआ एक लेखक आखिरी दम तक किस तरह जिन्दगी से लवरेज जीता रह सकता है, ये हमने उनमें देखा। ये ताकत उन्हें कई चीजों से मिलती थी। वह वामपंथ से भी जुडे थे और तारा से भी। तारा के ही सूत्र से हम दोनों एक-दूसरे को 'सहोदर' कहा करते। अभी पिछले सप्ताह उन्होंने अपनी नई किताब 'कोसी कातक गंगा' भेजी थी, वो अभी पढ ही रहा हूं। इसमें एक जगह उन्होंने अपने महान पितृव्य कुमार गंगानन्द सिंह की एक कविता कोट की है--- परोक्ष में वो तो जाग रहे हैं पर दुनिया समझती है कि वो सो चुके हैं...
जागते हैं परोक्ष में पै अपरोक्ष
जानता है जग--सो गए हैं
अपने को मिले जब से, तब से
हम दूसरों के लिए खो गए हैं..........
ओह, बहुत याद आएंगे सर, आप।।
.... तारानंद वियोगी
जागते हैं परोक्ष में पै अपरोक्ष
जानता है जग--सो गए हैं
अपने को मिले जब से, तब से
हम दूसरों के लिए खो गए हैं..........
ओह, बहुत याद आएंगे सर, आप।।
.... तारानंद वियोगी