कोशी-किनारे की सांझ
आठ दस पन्द्रह जाने कितने पंछी परिचयहीन
इस तरह मेरे सिर मेरी आंखों, मेरे थके हृदय को छूते
जैसे उलाहना कोई देते मुझको।
इस तरह मेरे प्रेम मेरी घृणा मेरे पके भय को छूते
आठ, दस, पन्द्रह, जाने कितने पंछी परिचयहीन
उडे जाते हैं।
थोडी ही देर बाद इस नदी इस वन-प्रान्तर के चारों ओर
फैल जाएगा घना अंधकार
जाने कितने पंछी कितने शब्द कितनी इच्छाएं परिचयहीन
डूबी जाती हैं मेरी ही आखों में।
उड जाऊं इन्हीं पंछियों के साथ, अनन्त आकाश में
उड जाऊं, इतनी शक्ति नहीं है हे कवि
अब मेरी पांखों में।
डूबे जाते हैं मेरी ही आंखों में ये पंछी यह समूचा मुक्त
नील ताराविहीन आकाश….
यह निर्जन एकान्त सहन करने का है
केवल मुझे अभ्यास…..
इस तरह मेरे सिर मेरी आंखों, मेरे थके हृदय को छूते
जैसे उलाहना कोई देते मुझको।
इस तरह मेरे प्रेम मेरी घृणा मेरे पके भय को छूते
आठ, दस, पन्द्रह, जाने कितने पंछी परिचयहीन
उडे जाते हैं।
थोडी ही देर बाद इस नदी इस वन-प्रान्तर के चारों ओर
फैल जाएगा घना अंधकार
जाने कितने पंछी कितने शब्द कितनी इच्छाएं परिचयहीन
डूबी जाती हैं मेरी ही आखों में।
उड जाऊं इन्हीं पंछियों के साथ, अनन्त आकाश में
उड जाऊं, इतनी शक्ति नहीं है हे कवि
अब मेरी पांखों में।
डूबे जाते हैं मेरी ही आंखों में ये पंछी यह समूचा मुक्त
नील ताराविहीन आकाश….
यह निर्जन एकान्त सहन करने का है
केवल मुझे अभ्यास…..