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        • ।।बुढबा नेता ।।
        • ।।बेबस जोगी ।।
        • ।।घर ।।
        • ।।कः कालः।।
        • ।।स्त्रीक दुनिञा।।
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        • ।।गोनू झाक गीत।।
        • ।।जाति-धरम के गीत।।
        • ।।भैया जीक गीत।।
        • ।।मदना मायक गीत।।
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        • ।।प्रलय-रहस्य।।
        • ।।धनक लेल कविक प्रार्थना।।
        • ।।बुद्धक दुख॥
        • ।।गिद्धक पक्ष मे एकटा कविता।।
        • ।।विद्यापतिक डीह पर।।
        • ।।पंचवटी।।
        • ।।घरबे।।
        • ।।रंग।।
        • ।।संभावना।।
        • ।।सिपाही देखैए आमक गाछ।।
        • ।।जै ठां भेटए अहार ।।
        • ।।ककरा लेल लिखै छी ॥
        • ।।स्त्रीक दुनिञा।।
        • ।।घर ।।
      • रामधारी सिंह दिनकर>
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      • मंत्रपुत्र >
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अधुरा प्रेम -वंदना नागर उप्पल 

देखो तो प्रिये !!!ये केसी विडम्बना है मेरे घर के आँगन से फूल चुनकर तुमने मुझे ही दे दिए और में ख़ुशी से फूली न समाई जब तुमने मुझे अपने बाहुपाश में बांधकर कहा "में तुम्हारे साथ नया सृजन करना चाहता हूँ , मेरे ह्रदय में तुम्हारे लिए कितना प्रेम है इसे तुम समझ पाओ ,इसके लिए में ये फूल लाया हूँ " कोई मेरे हाथ में ये फूल देखकर अनावश्यक प्रश्न न कर ले इसके लिए मेने स्वयं ही अपने बाल घुमा कर तुम्हारे सामने कर दिए और तुमने भी उनमें से एक फूल निकलकर मेरी चोटी में लगा दिया और परिणिति कर दी किसी के मन में स्वीकृती से प्रवेश करने की ."अच्छा तो तुम ये फूल कहाँ से लाये हो?? ऐसे फूल तो मेरे आँगन में भी लगे है!!"तुमने तब मेरी आँखों में देखकर कहा "वो जो दूर नदिया बह रही है न में आज प्रात : में उठकर वहीं गया था " और मेने भी बिना संकोच के तुम्हारी बात मान ली थी। फिर मेरा विवाह तुमसे सबकी स्वेच्छानुसार संपन्न हो गया और उन फूलों की एक एक पत्ती की सच्चाई का मुझे पता चलने लगी ।जब मुझे उनसे असुविधा होने लगी थी  तब मेने ही उन्हें अपने घर के आँगन में फेंक दिया था और वो फिर से अपनी चिर परिचित जगह पहुंचकर खुश दिखाई पड़ रहे थे जबकि उनकी पत्तियां रंगहीन होने लगी थी ,वो खुशबु भी बाकि न रही थी तब में समझ ही न पाई थी उनकी ख़ुशी का कारणऔर जिस तरह विद्वानों के मेले में मूर्ख मुस्कुराया करते है में भी मुस्कुरा कर चल दी थी।जब अंत:करण व्यर्थ की ख़ुशी और भावों से भरा होता है तो सामने वाले की सम्वेदनाएँ समझने की शक्ति शायद कहीं लुप्त हो जाती है ...मन ख़ुशी में पागल होकर नाचने लगता है और सत्य से कोंसों दूर भटक जाता है  स्त्री का बुद्धिमान होना कितना बड़ा अपराध है ये तो मुझे तुम्हारे घर में आकर ही पता चला।जब भी मेने तर्क- वितर्क करने की कोशिश भी की तुमने मुझे स्मरण करवाया की में स्त्री हूँ मुझे बोलने का कोई अधिकार नहीं।और वो याद् है तुम्हे जब तुमने मुझे कुछ अपशब्द कहे और मेने तुम्हारी माँ से जाकर सब कुछ बता दिया तब तुम्हारी माँ ने मुझे सांत्वना भरे शब्द कहे और कहा की वो तुम्हारी अच्छी खबर लेंगी मुझे सुकून मिला था उस समय .फिर तुम संध्या में घर को आये .तुम्हारी माँ ने अलग बुलाकर तुमसे बात की .उस समय में गाय का दूध दुहने में व्यस्त थी ,तुम अपनी सारी शक्ति समेट कर आये और मुझे बालों से पकड़कर घसीटते हुए चौक के बीचों बिच ले जाकर पटक दिया।किसी अपराधिनी की भांति में वहां खड़ी कर दी गई।उस समय भी में अपने पल्लू को ठीक करना नहीं भूली थी .मुझे झूठा ठहराकर तुम गर्वित अनुभव कर रहे थे उस समय मुझे उस गाय में और मुझमें कुछ भी अंतर प्रतीत नहीं हुआ।हाँ दुखी थी उस क्षण के लिए नहीं जिसमें तुमने मेरे बालों को तुमने खिंचा,बल्कि उस क्षण के लिए जब मेने वो फूल लगाने को अपना सर स्वयं ही तुम्हारे सामने घुमा दिया था।तुम्हारी माँ ने मुझे नासमझ बताते हुए तुम्हे शांत करने की कोशिश की और तुम्हे यद् दिलाया की में माँ बनने वाली हूँ और तुम्हारे घर के चिराग को जन्म दूंगी जो तुम्हारे वंश को आगे बढ़ाएगा।मेरी कुबुधि में यह बात नहीं बेठी में रात भर सोचती रही एक बच्चे को केवल एक स्त्री ही जन्म दे सकती है फिर वंश को पुरुष आगे केसे बढ़ाते है
उसके बाद मेरे लाख भगवान से प्रार्थना करने के बाद भी मुझे लड़की ही पैदा हुई .दूसरे ही दिन तुमने मेरा सामना समेटा ओर मुझे मेरी माँ के घर छोड़ने को निकल पड़े .एक हाथ में बच्ची ओर एक हाथ में पुरानी लोहे की पेटी लिए में तुम्हारे पीछे पीछे चल पड़ी आँखों से लगातार अश्रु धारा बहे जा रही थी रास्ते में हर आने जाने वाला व्यक्ति मुझे टेढ़ी निगाह करके देखता ओर आगे चल बनता तुमने एक जगह रोक कर मेरी तरफ देखा लगता था इन पराए लोंगों के सामने तुम्हारी बेइज़्ज़त्ती करने की दोषी भी में ही हूँ आख़िर मुझसे भी रहा ना गया मेने भी पूछ ही लिया" मुझे वहाँ क्यों लेकर जा रहे हो?"तुम्हारा जवाब था"लड़की पैदा करने के लिए नही लाया था तुझे"ओर तुम फिर चलने लगे मेने फिर अपनी कुबुद्धि दिखाई ओर पूछ बेठी"पर लड़की तो सिर्फ़ एक पुरुष के ही कारण होती है इसमें मेरा क्या दोश?में उसके लिए ज़िम्मेदार केसे हुई?"तुम मेरा आशय समझ गये एक पल ठिठक कर फिर चलने लगे बच्ची भूख से मेरे हाथों मे बिलबिला रही थी में वही रुक गई तुम दूर तक निकल गये तुम्हे अहंकार में ये भी पता ना चला में तुम्हारे पीछे नही हूँ ..मेने पेटी को एक तरफ रखा ओर वही एक दुकान की सिढीयों पर बेटकर दूध पिलाने लगी. तुम कुछ ही देर बाद आए १० रुपये का नोट तुमने मेरी गोद में फेंका ओर चले गये तुम्हारा वाक्य मुझे आज भी याद है "मरो कहीं भी जाकर ,दुबारा लोट कर मत आना "में दूध पीती हुई बच्ची को दोनो हाथों से पकड़कर कर तुम्हारे पीछे दोड़ पड़ी बेतहाशा चिल्लाते हुए "सुनोजी एसा मत करो में इसको लेकर कहाँ जाउंगी.तुम अपने लंबे लंबे पाँवों से धरती नापते हुए चले गये में वही खड़ी होकर देखती रही तुमने एक बार भी पीछे पलटकर ना देखा . .इस समय मेरा दोष जितना लड़की पैदा करना नही था उससे ज़्यादा ये था की मेने आँख से आँख मिलाकार तुम्हे याद दिलाया था की लड़की पैदा करने का सामर्थ्य केवल पुरुष में ही होता है  
तुम चले गए मेने भी मुड़ कर अपना रास्ता पकड़ा देखा पेटी वहां नहीं है ..और वो 10 का नोट जब में तुम्हारे पीछे भागी तो जाने कहाँ गिर गया सीढियों से लेकर तुम्हारे जाने तक सब देख लिया बेठ जाती फिर उठती फिर देखती क्या पता 10 का नोट पैदा हो जाये ।चलो पेटी गई अच्छा ही हुआ एक बोझ कम हुआ ,अब हाथ में बस एक ही रहा .मेने ठंडी साँस ली और फिर वहीं सीढियों पर बेठ गई। रुपये गए वो भी अच्छा ही हुआ आने जाने से मुक्ति मिली माँ के पास जाकर भी क्या होता।में तुम्हारे घर थी तब भी एक दिन मौत आनी ही थी माँ के घर जाती तब भी एसा होना ही था।और यहाँ बेठी हूँ तब भी कोनसा इस सृष्टि का चक्र रुक जायेग।हाँ तो यही बैठकर मरा जाये यही ठीक है।एसा सोचकर मेने अपनी पलकें बंद की।पता भी नहीं चला सोचते हुए कब में बहोत देर से एक ही तरफ देख रही थी।जेसे ही पलकें बंद की पथराई आँखें जलने लगीं और आंसूं की जो दो बूंद निकल कर मेरी झोली में गिर पड़ी उससे मुझे चिर शांति का आभास हुआ।पर क्या मौत इतनी ही आसान है ?लोंगों के शोर से मेरी आँख खुली रात हो चुकी थी।बच्ची सीढियों से निचे गीरी हुई थी।जाने कितनी आँखें मुझे घूर रही थी "देखो तो केसी माँ है बच्ची नीचे गीरी पड़ी है लोंगों के पांवों में आ रही है और माँ को देखो मस्त है नींदों में ""बच्चे पैदा कर लेते है और फिर इस तरह सड़कों पर छोड़ देते है "मेने अपनी बच्ची को उठाया लगता था हाथ-पांव कांप रहे थे लगता था मेरी नहीं किसी और की ओलाद है।एक एक करके भीड़ की समाप्ती होने लगी और मेरी उदर पीड़ा की शुरुआत  
भूख से मेरी अंतड़ीयां कुलबुलाने लगी इतने में किसी ने आवाज़ दी "अरी ! तू यहाँ क्या कर रही है ?"वो हमारे मोहल्ले की सुनीता थी।
"कुछ नई "
"तो फिर क्या हुआ ?"
"कुछ नई कुछ सामान खरीदने आई थी "उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा सामान कहीं नहीं दिखाई दिया।मेरा हाथ पकड़ा और ले चली। घर का दरवाजा माताजी ने खोला मुझे फिर से देखकर उनकी आँखें पथरा गई।
"मनसा देवी इतनी रात को बहु को कहाँ सामान लेने भेज दिया बस स्टैंड पर ?में लेकर आई हूँ अर, इसने तो कोई सामान भी न ख़रीदा "सुनीता अपने हाथों को बार बार ऊपर निचे किये जा रही थी।तुम अन्दर से खाने की थाली समेत बाहर आये, मुझे देखकर लगा तुम्हारा खाया सारा खाना बेकार हो गया।उसके बाद 2-3 दिन तक तुम सभी घर परिवार के लोंगों की मंत्रणा चलती रही जो दरवाजा बंद करके की जाती थी ,उस मीटिंग में मेरे लिए कोई स्थान नहीं था मुझे कोई कुछ न कहता सोने के लिए भी एक अलग कमरा दे दिया गया जो मांगती आ जाता।बस जब भी में खाना परोसती तो सबसे पहले आजकल मुझे खिलाया जाता।ये व्यवहार मेरी समझ में नहीं आया था ,पर आज समझ सकती हूँ ,जिस व्यक्ति के साथ आप ने बुरा किया है और फिर उसी के हाथ से बनाया हुआ भोजन करना पड़ जाये तो केसे विश्वास होगा की भोजन में जहर नहीं है। जब भी में खाती तुम सबकी आँखें मुझे देखती ही रहती एक एक कौर बड़ी मुश्किल से अन्दर जाता।एक व्यक्ति था जो इन सब से अवगत था वो था तुम्हारा सबसे छोटा भाई।जब भी मेरे साथ एसा व्यवहार होता वो वहां से उठकर चल देता।अगर किसी के साथ गलत हो रहा है और आप चुप है तब आप भी उस अपराध में शामिल हो जाते है ,इसलिए कभी मुझे अपने इस प्यारे देवर से भी कोई सरोकार नहीं रहा।फिर एक दिन मेला लगा आश्चर्य की तुम्हारा छोटा भाई जिद कर बैठा की मेले में भाभी के साथ ही जायेगा और बड़ा आश्चर्य ये की तुम्हारी माँ ने हाँ भी कर दी।यहाँ तक की आज तुमने मुझसे बात की इतने दिनों बाद ,मेने देखा मेरे बिस्तर पर साड़ी रखी है।मेरा मन ख़ुशी से और आँखें आंसुओं से भर गई।में अच्छे से तैयार हुई ,भर भर के सिंदूर लगाया और चूड़ियाँ पहनी फिर में और देवर जी निकल पड़े। देवर जी ने कुछ दूर ले जा कर सुनसान रस्ते पर गाड़ी रोक दी मुझे उतरने को कहा।मेने चारों तरफ देखा दूर दूर तक कोई नहीं गर्मी और पसीने से मेरी साड़ी मुझसे ही चिपकी जा रही थी।देवरजी एक शब्द भी बिना बोले गाड़ी के मीटर को निहारे जा रहे थे।"क्या हुआ ?" तुम्हारे भाई के मुह से एक शब्द भी न निकला।ये चिर शांति उसके मुह पर देखकर मुझे किसी अंजान सी आशंका ने आ घेरा
"देवर जी क्या हुआ "...
"भाभी !!!अभी यही से भाग जाओ "
क्यों पूछने की आवश्यकता नहीं थी फिर भी में महामुढ़ प्रवर्ती की इन्सान !!
"क्यों ?"
"थोड़ी ही देर में सभी घरवाले यहाँ आ जायेंगे और ...."
हाय!!!रे !!!! में मुर्ख इतना भी न समझ पाई।इन प्रेम से विरक्त प्राणियों के मन में आज इतना प्रेम कहाँ से उमड़ आया।किसी ने सच ही कहा है "दुष्ट व्यक्ति का प्रेम अस्थाई होता है ,वह समय के अनुरूप बदलता रहता है ।मेने बच्ची को अपनी छाती से चिपका लिया।देखा सामने जीप आ रही थी।देवरजी गाड़ी से उतरे और मुझे धक्का देने लगे।
"जल्दी जाओ ,जाओ!!!!!!!"
मेरे पांव वहीँ धरती से ही चिपक गए थे।देवर जी ने हाथ पकड़कर धक्का दिया "गुडिया का तो सोचो ...जाओ यहाँ से "
मेने एक नज़र तुम्हारी तरफ देखा मेरी तरफ आगे बढ़ने वालों में तुम सबसे पीछे थे।चलो इतना तो सुकून है की तुम सबसे आगे नहीं थे।मेने अपने कदम उठाये और उल्टा घूम कर जो दोड़ने लगी तो पलट कर एक बार भी न देखा।बहोत देर बाद ध्यान आया में कहाँ भागे जा रही हु।फिर मेने सब उपाय करके देखे जेसे की ठाणे जाना रो रो कर पुलिस वालों को अपनी दुःख भरी कहानी सुनना फिर वकीलों के चक्कर।सभी ने मुझे एक ही बात समझाई "समझोता कर लेने में ही भलाई है और फिर कहाँ जाएगी इस छोरी को लेकर ,अब तो दूसरी शादी भी कोई न करेगा "
जो गहने पहने थे सब बेच दिए अब ध्यान आया की में बी .ऐ पास हूँ और नोकरी नाम की भी कोई बला होती है। मेने एक आखरी बार अपनी माँ से रुपये उधर लिए और चल पड़ी एक गाँव था पास ही।वहां एक स्कूल के डाइरेक्टर  ,टीचर  के लिए पोस्ट निकली थी।में डाइरेक्टर  से मिली और तय हुआ महिना 5000 तनख्वाह मिलेगी।मुझे पास के एक घर में किराये का कमरा दिला दिया गया।अब मिलेगी सुकून की जिंदगी।दूसरा दिन नया-नया , नया सवेरा नई खुशबु सब कुछ नया।में जल्दी से स्कूल जाने के लिए तैयार हुई।कितने दिनों बाद इतना अच्छा लग रहा था।में स्कूल पहुँच चुकी थी।और पहुँचते ही हेरान भी हो गई इस हेरानी के साथ एक मुस्कराहट मेरे चेहरे पर दोड़ गई।मेने बहोत छिपाने की कोशिश की पर शायद किसी की नज़रो ने देख लिया था। जहाँ कमरा लिया था वहां मकानमालिक के छोटे लड़के को जल्दी ही मुझ से परेशानी शुरू हो गई।जब में स्कूल के लिए निकल रही होती तो वो सीढ़ीयों में पहले ही मेरा स्वागत करता हुआ मीलता।फिर मुझे उसे रास्ते से हटने के लिए कहना पड़ता।तब वो एक नज़र मेरी तरफ देखता उसकी आँखे मेरे कपड़ों से होकर अन्दर तक जाती थी।ऐसे ही जब में एक दिन जाने के लिए निकली वो दिखाई नहीं दिया।मेने एक लम्बी साँस ली इतने दिनों से अपने शरीर को सिकोड़ सिकोड़ कर सीढियों से निकलते हुए मुझे पता ही नहीं चला था की सीढ़ियाँ कितनी चौड़ी है 2 आदमी तो आराम से निकल सकते है मुझे अपने आप पर हंसी आई।में किसी सेना के जवान की तरह तन कर चलने लगी।पर ये ख़ुशी ज्यादा देर तक नहीं टिकी, थोड़ी दूर चलने पर ही वो मुझे रस्ते में 
खड़ा मिल गया।मेरे तने हुए कंधे फिर सिकुड़ने लगे मुझे सेना के जवान की याद आई और में फिर संभल गई।में कोशिश कर रही थी की उसकी आँख से आँख न मिला पाऊँ।रस्ते में स्कूल के बच्चे नमस्ते मैडम जी कहते हुए जा रहे थे कोई कोई मेरे पांव छू कर भी चला जाता।में साड़ी से ढके हुए शरीर को और छुपाने लगी।स्कूल आ गया पर तब तक में यह निश्चित कर चुकी थी की यह कमरा खाली कर देना है।मुझे दूध वाले अंकल की याद आई।हाँ एक बूढ़े आदमी पर विश्वास किया जा सकता है।कल ही सुबह किसी और कमरे के लिए पूछती हूँ। 
स्कूल आकर पहले भी हेरान थी आज भी हेरान हूँ। 43 अध्यापक और में अकेली अध्यापिका। केवल इतना ही आश्चर्य पर्याप्त नहीं था वहां अध्यापकों की वेश भूषा का बखान केसे करूँ ,पैंट से बाहर निकली हुई शर्ट ,चप्पल ,मुझे लगता है इससे अच्छा तो ये है की वे भारतीय पोशाक अर्थात धोती कुर्ता में आयें तो ज्यादा अच्छे लगेंगे । इस परिधान की इज्ज़त भी बची रहेगी और हमारी भारतीयता भी।आज दूध वाले से भी बात हो गई ,वो छुट्टी होते ही मुझे स्कूल के बाहर मिल जायेगा और एसा हुआ भी वो मिल गया अपनी दूध वाली साईकिल के साथ हम दोनों चल पड़े. कमरा पहली मंजिल पर था और मुझे पसंद भी आ गया घर में एक गृहणी उसका पति जो क्लर्क का काम करता था और 2 छोटे छोटे बच्चे .अच्छा हुआ में खुश हो गई यहाँ कोई बड़ी उम्र का लड़का नहीं है । दूध वाले अंकल को मुह से भी धन्यवाद कहा और मन से भी । में जाकर अपना सामान ले आई मकान मालिक का लड़का खड़ा होकर मुझे देख रहा था और में गर्व से अपना एक एक सामान टेक्सी में भर कर आ गई । इतनी थकान हो गई की कुछ खाने को भी ना सुझा और जेसे-तेसे सो गई कमरे के बाहर एक लोहे का जंगला खुलता था ज्यादा बड़ा तो नहीं था पर पर्याप्त था । बाथरूम कमरे के बाहर था।मुझे किसी के बात करने की आवाज़ आई ,इतनी रात को कोन जग रहा है । मेने जंगले के पास बैठकर देखा निचे चौक में डिम बल्ब जल रहा था।हे मेरे भगवान !!!!!!!ये तो वही दूध वाला है पर इतनी रात को यहाँ क्या कर रहा है ??मेरे हाथ पांव कांपने लगे । मेने अपनी गर्दन को जंगले के साथ लगाकर कोशिश की की कुछ सुनाई दे जाये । पर सब बेकार रहा । साथ में किस ओरत से बात हो रही थी ये भी पता न चल सका । दुसरे दिन में स्कूल पहुंची दिमाग वहीँ अटक गया था । मेने खाना खाते समय बारहवीं कक्षा की एक दो लड़कियों को अपने पास बुलाया और उन्हें बताया की मेने कहाँ कमरा लिया है .वो सब मेरा मुह ताकने लगी। गाँव के बच्चे सीधे साढ़े संकोच में नहीं समझते । एकदम बोल पड़े "मैडम जी ओ काई कियो आपणे ?"वा तो ई गाँव री सभु चंट(चालाक ) ओरत है । मैडम जी काई खुवावे तो खाई ज्यो मती ,बिको कोई भरोसो कोणी ..बा खुदका पति न तो अफीम खिला व रोजीना, पेली जतरी भी मेडम बट री सब भाज गी एक दो तो नौकरी चौड़ कर भाज गी।" में आने वाले खतरे से परिचित हो चुकी थी स्कूल की छुट्टी हुई मकानमालकिन बाहर ही सीढियों पर बेठी थी।मेने उसे ध्यान से देखा।गोल बड़ा मुह ,बड़ी गोल नथ ,कमर में चाबियाँ ,और मुह में पान ,आँखे गोल गोल मटकाते हुए उसने एक पैकिट मेरी तरफ किया "खा ले छोरी हनुमान जी का परसाद है "मेने अन्दर ही अन्दर एक घूट भरा और ऊपर जाने लगी "छोरी परसाद तो खाले "मेने बिना पीछे मुड़े कहा "जी में खा लुंगी ऊपर जकर मेरे हाथ नहीं धुले "कहकर में ऊपर चली गई।मेने अन्दर से दरवाजा बंद कर लिया आज पता चला की लोग मुझे क्यूँ समझा रहे थे पति का घर न छोड़ने को ,पर क्या वहां जिंदा रह जाती । तुम से शादी करके अब मुझे यह नरक भी देखना बाकि रह गया था।जितना तुम्हे कोस सकती थी कोसा और वही बेठ कर रोने लगी, इतनी जोर से मुह दबाकर तो शायद अगर तुम मर भी जाते तो मुझे रोना नहीं आता । में ये किस अंधकार में आकर गिर पड़ी हूँ । बहोत अहंकार था नौकरी करुँगी । में खुद को कोसती कभी, तुम्हे बददुआ देती की मेरा जीवन तुम्ही ने बर्बाद कर डाला आज अगर में यहाँ इस स्थिति में फंस गई हूँ तो सिर्फ तुम्हारे कारण, मेरी आत्मा ज़लाकर तुम कभी सुखी नहीं रहोगे, मेरा मन इतना बेचैन हो गया, शब्द सब निरर्थक ,दिमाग सब भूल चला और सिर्फ तुम ही याद रहे । रात के 2 बज गये में जेसे थी वेसे ही बेठी रही क्या पता कोई दरवाजा तोड़ कर या खिड़की से अन्दर आ जाये और मुझे पता भी ना चले तो??पोने 3 बजे किसी ने दरवाजा खटखटाया।में एक शब्द भी नहीं बोली बाहर से फुसफुसाने की आवाजें आ रही थी।"की पता इस छोरी ने परसाद भी खायो है के नई !!!थाणेदार के सामने आज मेरी खेर न है वो भूखो आवेगो तो में की परोसुंगी ,रोज रोज मेरे से न उसका काम चलणे वाला अब .......क्रमश ||||  
                                                                                       

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