परम्परा आ लेखक – डॉ० तारानन्द वियोगी
अहां पुछलहुं अछि जे परम्पराक प्रति नवतुरिया लेखकक की रुख हेबाक चाही। हमर जबाव अछि जे अपन परम्पराक प्रति हमरा लोकनि मे आलोचनात्मक आस्था हेबाक चाही। प्राथमिक बात ई अछि जे आस्था हेबाक चाही। से आस्था केहन हेबाक चाही, से भिन्न बात थिक।
ई ‘आस्था’ शब्द बड व्यापक। सामान्यतः एकरा विश्वासक लगीच क’ क’ देखल जाइ छै। लोक कहितो अछि–आस्था-विश्वास। दुनू शब्द मे मुदा, बड अंतर। विश्वास तॅ लोक ओहुनो, विना कोनो कारणोक, क’ सकैत अछि, करिते अछि। मुदा, ‘आस्था’क लेल ‘ज्ञान झाक योग पडब’ आवश्यक। माने, बौद्धिक स्तर पर ओकरा प्रति अहां सजग होइऐक, तखन भेल–आस्था। अपन परम्पराक प्रति हमरा आस्था हेबाक चाही। से आस्था केहन, तॅ आलोचनात्मक। तात्पर्य जे नीक कें ग्रहण करबाक आ अधलाह कें त्याग करबाक बुद्धि आ साहस हमरालोकनि मे हेबाक चाही।
आधुनिक मैथिली साहित्यक जन्म कोना भेल? एकर उत्स के मूल प्रेरणा की छल? खोज कयला पर देखबै जे आरंभिक दशकक लेखक लोकनिक इष्ट छलनि–अपन परम्परा मे सुधार। एही दुआरे एहि युग कें सुधारवादी युग कहल गेलै। एकर मूल प्रेरक छल–भारतीय नवजागरण। भारतीय नवजागरणक जे प्रभाव मिथिला पर देखार रूप मे पडलै, तकरे हम ‘मैथिली जागरण’ कहैत छिऐक। एकरे बदौलत हमरा लोकनि कें आधुनिक मैथिली साहित्य प्राप्त भेल। प्रश्न अछि जे सुधार के जरूरति ककरो किएक पडैत छैक? पहिने सॅ जे परम्परा चलि आबि रहल अछि, ताहि मे जखन निघेंस वस्तु सभक मात्रा बढि जाइ छै, तखन सुधारक जरूरति पडैत अछि। ई निघेंस वस्तु सभ मृत आ गतिहत्या करैबला होइत अछि। एकरा देखार करब साहित्यक मूल दायित्व, एही प्रेरणा सॅ आधुनिक मैथिली साहित्यक आरम्भ भेल अछि। सुधारवादी साहित्यक चरम विकास हमरा लोकनि हरिमोहन झाक साहित्य मे देखैत छिऐक। निघेंस वस्तु सभ कें ओ सर्वाधिक त्वराक संग आ बेस निर्मम ढंग सॅ देखार केलनि, तें हुनकर साहित्य एतेक महत्वपूर्ण अछि। आगू चलि क’ जबाना बदलि गेलै। सामाजिक सुधार भेलै। जबाना जे बदलैत अछि, ताहि मे साहित्योक अपन विलक्षण योगदान जरूर होइ छै। मुदा असल कारक होइत अछि–युग-प्रवृत्ति। युग-विशेषक जे ध्वनि होइ छै से तमाम माध्यम सभ सॅ एक्कहि संग अनुगूंजित होइ छै। एक जिम्मेदार लेखक सॅ ई आशा कएल जाइ छै जे ओ बदलैत युगक ध्वनि कें ठीक-ठीक अकानय, अखियास करए। पॉजीटिव आ निगेटिव तत्व सभ कें बेराबए। पॉजीटिव कें प्रोमोट करए आ निगेटिव के तर्कसंगत ढंग सॅ खंडन करए। दोसर एकटा रस्ता छै जे युगक पॉजीटिव ध्वनि मे जे सौन्दर्य, जे आदर्श निहित छै, तकरा अपन रचनाक माध्यम सं प्रकाश मे आनए। यात्रीजी यैह काज केलनि।
आगू चलि क’ अपन साहित्य मे एकटा एहनो युग आएल, जखन परम्पराक सम्पूर्णतः निषेधक मांग कएल गेल। जतेक गतिहत समाज छल मिथिलाक, तकरा देखैत ‘सामाजिक सुधार’ कें ई लोकनि पर्याप्त नहि मानैत छलाह। हिनका लोकनिक मतें आवश्यकता छलै- सामाजिक परिवर्तन के। ई पीढी बहुत पढल-लिखल लोकक पीढी छल। ई लोकनि प्रश्न उठौलनि जे परम्परा माने की? एकटा सडल लहास, जाहि मे सुधारक आशा क्यो बताहे लोक क’ सकैत अछि। परम्परा जॅ किछु थिक तॅ किछु सुविधाभोगी लोकक इच्छा-पूर्ति आ विलासक साधन थिक। ओ लोकनि कहलनि जे युगक संग चलबाक लेल सामाजिक परिवर्तन आवश्यक थिक। व्यापक समाजक हित एही सॅ सधि सकैत अछि। एहि पीढीक नेतृत्वकर्ता राजकमल चौधरी छला।
ध्यान सॅ जॅ अहां देखब तॅ पाएब जे बात ई बहुत उचित आ व्यावहारिक छल। कतेक डोज के दबाइ पडबाक चाही, ई एहि बात पर निर्भर करैत अछि जे रोग कतेक जडिआएल अछि। मिथिलाक रोग ततेक जडिआएल छल जे निषेधक मांग जरूरी छल। युगक संग चलबाक लेल अहां तैयार नहि छी, कारण जे बाप-ददा सॅ अहां कें बहुत मोह अछि। ई परम्पराक बचल रहबाक कोनो तर्क तॅ नहि भेलै। माने जे तर्कहीनता। परम्परावादी लोकनिक सब सं प्रधान तर्क थिक–तर्कहीनता। ओ लोकनि एही पर प्रहार केलनि। आब हमसब युगक समक्ष ठाढ छी तं अपन पूर्वज लोकनिक आशय कें बुझैत छी। निशां मे मातल समाजकें चेतेबाक लेल पूर्ण निषेधक नारा जरूरी छै। ओ लोकनि ठीक कहै छला। मुदा जुलुम बात जे हुनका लोकनिक रचना कें देखू तॅ परम्परा ओहूठाम विद्यमान भेटत। अपन सम्पूर्ण निहितार्थक संग। मुदा कमाल, जे ओ परम्पराक निषेध केलनि। बेसी की कहू, आशय पर जेबाक चाही। कथित शब्दे टाक ओझरा मे फॅसबा सॅ बचबाक चाही।
आब हमसब साहित्यक द्वार पर ठाढ छी आ कहै छी जे लेखक कें परम्पराक प्रति आलोचनात्मक आस्था सं परिपूर्ण हेबाक चाही। सुधारक फेज बीति चुकल अछि। आब सुधार कएल नहि जा सकैछ। निषेध सेहो उचित नहि थिक, कारण हमर परम्परा आइ मात्र परम्परा नहि रहल, हमर अस्तित्वक अस्मिता(identity)बनि गेल अछि। एहि भूमंडलीकृत आ बाजारवादी समय मे जॅ हमसब जीयब, आ अपन पहिचान ताकब तॅ से हमर परम्परा टा, सैह टा भ’ सकैत अछि। आब परम्पराक निषेध नहि, ओकर पॉजीटिव तत्व सभक समाहार चाही हमरा, हमर अपन पहिचान प्रतिख्यापित करबाक लेल, सौंसे दुनियां मे। एहना स्थिति मे की करबाक चाही? नीक कें पकडबाक चाही, अधलाह कें छोडबाक चाही। विना कोनो मोहक। विना कोनो ममताक।
मुदा, प्रश्न अछि जे परम्परा माने कोन परम्परा? ध्यान सॅ देखबै तॅ पाएब जे परम्परा कौखन एकटा नहि होइ छै। सभ युग मे ई चलन रहल अछि जे एकटा जॅ मुख्यधाराक परम्परा, तॅ दोसर अवान्तर परम्परा अथवा अतःसलिला परम्परा। एकटा खिस्सा हमरा एहिठाम मोन पडैत अछि। खिस्सा थिक शान्तिनिकेतनक। गुरुदेव टैगोर के युगक। एकबेर की भेल जे आश्रम मे काज कर’ बाली एक विधबा ब्राह्मणी युवती एक आन स्टाफ सॅ प्रेम करै छली। रवीन्द्रनाथ एहि प्रेम कें लक्ष्य करै छला। रवीन्द्रनाथ कें चिन्हैत छियनि? आधुनिक भारतीय साहित्यक ओ एहन अनुपम लेखक थिकाह, जिनका मे परम्परा, राष्ट्रीयता आ वैश्विकता–तीनूक तूलमतूल संतुलित विकास हमरा लोकनि कें भेटैत अछि। सही माने मे ओ एक ‘भारतीय लेखक’ छला। आ, से रवीन्द्रनाथ शुद्ध हृदय सॅ चाहै छला जे जॅ संभव हो तॅ एहि दुनूक विवाह भ’ जेबाक चाही। मुदा संकट ई जे ब्राह्मण-समाज मे विधवा-विवाह मान्य नहि। व्यवस्था जॅ क्यो देताह, तॅ से क्यो पंडिते। गुरुदेव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कें बजौलनि। हजारी बाबू महान लेखक तॅ छलाहे, तकरा संग-संग बड भारी ज्योतिषी सेहो छला आ ‘पंडितजी’क नामें मशहूर छला। गुरुदेव पुछलखिन–विधवा-विवाहक संबंध मे अपन परम्परा की कहैत अछि? पंडितजी शास्त्र सभक अवलोकन केलनि आ जा क’ कहलखिन–शास्त्र आज्ञा नहि दैए। गुरुदेव मुदा, बहुत सहानुभूतिपूर्ण छला। बजला–पंडितजी, कोन परम्परा आज्ञा नहि दैए? अहां तॅ कोनो एक परम्पराक बात बात कहैत छी। सभ परम्पराक तॅ अपन-अपन मान्य आचार्य सभ छथि। हम ई कोना कहि सकै छी जे एक परम्पराक आचार्य हमर आदरणीय आ दोसर परम्पराक आचार्य निषेध्य? कने देखि क’ कहू जे दोसर परम्परा की कहैए? अगिला दिन हजारी बाबू दोसर-दोसर परम्पराक आचार्य लोकनिक मतक परायण केलनि आ गुरुदेव कें जा क’ कहलखिन जे दोसर परम्परा विधवा-विवाहक अनुमति दैए। गुरुदेव कें मानवताक हित मे आ युग-धर्मक अनुरूप जे करबाक छलनि, तकर रस्ता भेटि गेल छलनि।
हमरा लोकनि कें एतबा बुद्धिमान आ विवेकपूर्ण हेबाक चाही जे अपना ओतक समस्त परम्परा हमरा अपन परम्परा बुझना जाय। ब्राह्मण हएब, आ कि ब्राह्मण नहि हएब हमर बिलकुल निजी मामिला थिक। तहिना, जेना हम राति कें पैजामा पहिरि क’ सुतै छी कि लुंगी पहिरि क’, ई हमर निजी मामिला छी। युगधर्मक उपेक्षा नहि करबाक चाही। दुनू परम्परा हमर अपने परम्परा थिक। कट्टर सनातनी हेबाक जे थोडेक हानि सभ छैक, तकरा सॅ आब हमरा लोकनि कें मुक्त हेबाक चाही, ई बात जखन हम कहै छी तॅ किछु लोक हमरा विरोधी बुझैत छथि। मुदा ताहि डर सॅ की हम ई बात कहब छोडि दी जे एकैसम शताब्दीक एहि संश्लिष्ट युग मे हमरा लोकनि कें टिकल रहबाक लेल कोन रणनीति विधेय थिक। दुनू परम्परा हमर अपन परम्परा थिक, जे हमरा युगानुरूप समायोजन लेल पॉजीटिव सजेस्ट करय, से ताहिकाल हमरा लेल विधेय थिक। मिथिलाक समन्वित परम्पराक हम अन्वेषी थिकहुं। सौंसे मिथिला हमर अपन मिथिला थिक। हमर जे समन्वित परम्परा अछि, तकर संरक्षण आ विकासक वास्ते हमरा अग्रसर हेबाक अछि। से आलोचनात्मक आस्था राखि क’। हमरा लोकनि जॅ समाजक जागरूक वर्ग छी, तॅ हमर यैह कर्तव्य थिक।
एखन चहुंदिस उत्तर-आधुनिकता (post modernism) के खूब हल्ला मचल छै। कहियो अखियास केलियैए जे ई कोन चीज थिक आ एकर दार्शनिक आधार-भित्ति की छिऐक? हम तॅ सनातन सॅ चलि आबि रहल काल-प्रवाह कें देखै छी तॅ लगैए जे ई दुनियां लगातार वर्ग-न्याय दिस बढि रहल अछि। पहिने सामंतवादक युग छल। थोडेक लोक ऐश्वर्य-मदमत्त छला आ बहुसंख्यक लोक न्याय सं बंचित छल। युग बदलल तॅ तखन आधुनिकता आएल। एहि बहुसंख्यक न्याय-बंचित लोक मे सॅ थोडेक कें न्याय भेटलैक। मुदा की सभ कें भेटि सकलैक? जतेक लोक आबो न्याय-बंचित रहि गेला, तिनका अहां ‘बहुसंख्यक’ सॅ कम की कहबै? आधुनिकताक तॅ सेहो अपन जटिलता छै। लोकतंत्री शासन आ व्यवसाय-मुखी विज्ञान नित्त एकर जटिलता बढौने जाइत अछि। तात्पर्य जे आधुनिकता सॅ सेहो समस्त मनुक्ख कें न्याय नहि भेटि सकलैक। एम्हर आबि युग-प्रवृत्ति देखैत छी जे जे कोनो वर्ग वा समूह आधुनिकताक मुख्यधारा मे नहि आबि सकल, छूटल-पिछडल रहि गेल, से सभ अपनहि कें अपन केन्द्र मानि, अपन अस्तित्व सॅ अपनहि संतुष्ट होइत, अपन दाबीदारी ठोकि देलक। दाबीदारी कथीक लेल? आन कथूक लेल नहि। मात्र एही लेल जे अहांक सर्टिफिकेटक खगता हमरा नहि अछि। अहांक नीक कहने ने हम नीक आ खराब कहने ने हम खराब भ ‘ सकैत छी। हम जे छी, जेहन छी, स्वयं मे पूर्ण आ महत्वपूर्ण छी। एक तरहक स्वयंभू आत्मविश्वास एकरा अहां कहि सकै छिऐक। सौंसे दुनियां मे, सभ देश, सभ बंचित समुदाय मे आइ ई प्रवृत्ति देखल जा रहल छै। ई स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श आदि-आदि की थिक? क्षरणशील पर्यावरणक चिन्ता, विलुप्त होइत जीवजन्तु-वनस्पतिक चिन्ता, अप्पन जडि कें चिन्हबाक चिन्ता– ई सभ की थिक? आजुक युगक प्रवृत्ति थिक। आधुनिकताक विफलताक पश्चात जे प्रतिक्रिया सभ सौंसे दुनियां मे भेल अछि, ई तकर देन थिक। मुक्त बाजार एकरा अपना लेल नीक बुझैए, से एक बात। दोसर दिस मार्क्सवाद एकरा शंकालुताक दृष्टियें देखि रहल अछि। कारण, एहि बात मे ओकरा संदेह बुझाइत छै जे एहि बाट पर चलने बंचित समुदाय अपना लेल न्याय प्राप्त क’ सकत। अस्तु, एहि पॉजीटिव-निगेटिव के तसफिया चिन्तक लोकनि अपन करथु। युग-प्रवृत्ति तॅ जे थिक, से थिक।
स्त्री-विमर्शेक प्रसंग कें लिय’। मिथिलाक गामो घर मे आइ अहां देखबै जे अहां छोट उमेर मे बेटीक बियाह करियौ तॅ स्वयं बेटिये अहांक प्रबल विरोधी भ’ क’ ठाढ भ’ जाएत। कहुना ठकि-फुसिया क’ जॅ अधलाह वर संग बियाह कराब’ लगियौ तॅ मडबा पर सॅ भागि पडाएत। अनजाति संग बियाह करबाक दंडस्वरूप जॅ ओकरा चांप चढा क’ मारि दियौ तॅ पुलिस-कचहरी तॅ छोडू, सौंसे दुनियांक समाज तेना क’ क’ अहांक दुश्मन भ’ जाएत जे लाख घूस-पेंच लगाइयो क’ बचि नहि सकब। एखन निरुपमा पाठकक हत्या-काण्ड मे यैह तॅ भेल अछि।
एहना स्थिति मे लेखकक की दायित्व थिक? पहिने तॅ अहां पॉजीटिव-निगेटिव के निर्णय करू। आ, अहांक जे समन्वित परम्परा अछि, तकरा संग युगक पॉजीटिव ध्वनि कें जोडू। युगक मोताबिक जकर औचित्य बनैत होइक, तकरा अपन समर्थन दियौ। रचनात्मक लेखन (creative writing) मे ओकरा उतारू जे अहांक समाज एहि युगक संग कोन तरहें समायोजन बैसा सकैत अछि। की अहां कें बूझल अछि, यात्रीजी ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ के समर्थन केने छलखिन। आ, नवतुरिया लेखक लोकनि सॅ अपील सेहो केने छलखिन जे एकर सकारात्मक पक्ष पर ओ लोकनि कथादि लिखथु। मुदा, मैथिलीक ई दोसर पहलू सेहो देखू जे हमर चुनौटा मंचीय हास्यकवि, जनक जी महाराज जान-प्राण अडपि क’ स्त्री-विमर्शक विरोध करैत छथि, जागरूक होइत स्त्रीक एक सॅ एक हास्यास्पद आ वीभत्स वर्णन क’ क’ पुरुख श्रोता लोकनि कें हॅसी लगबैत छथि। स्त्री लोकनि एहि पर की सोचैत हेती? अहां पुरुख छी तॅ स्त्रीक निन्दा तॅ करबे करबै। युग-युग सॅ करैत एलियैए। सोचू, एहि तरहें एकभग्गू भ’ क’ चलने की हम अपन घरोक रक्षा क’ सकब? समाजक रक्षाक तॅ बाते छोडू। हम तॅ बन्धु, यैह कहब जे युग-प्रवृत्ति सॅ आंखि मूनि क’ हमरालोकनि युगक सामना नहि क’ सकैत छी।
अपन परम्पराक प्रति दृष्टिकोण कें हमरा लोकनि आलोचनात्मक कोना बनौने राखि सकैत छी, तकर एक बहुत सटीक दृष्टान्त एखन हाल मे सामने आएल अछि। ई पं० गोविन्द झाक नवीनतम शोधक परिणाम थिक। पं० गोविन्द झा कें अहां ‘चिन्है’ छियनि? ओ आयुवृद्ध भने होथु, मुदा कोनो युवे-सन ओजस्वी-तेजस्वी छथि। उत्साह आ उत्सुकता सॅ एकदम भरल-पुरल छथि, जे हुनका सदति नव-नव संधान-अनुसंधान लेल प्रेरित करैत रहैत छनि। ओ विद्यापति-साहित्यक विशेषज्ञ छथि। हमरा मोन पडैए, आचार्य रमानाथ झा भारी मन सॅ कतहु लिखने छथिन जे विद्यापतिक विशेषज्ञ, समूचा संसार मे आब एक हमही टा बचि गेल छी, आन ककरो मे तकर प्रवृत्तियो नहि देखैत छिऐक। मैथिलीक सौभाग्य जे हुनका बादो, आइयो पं० गोविन्द झा-सन अनुसंधानी पुरुष हमरा लोकनिक बीच छथि। पंडित जीक एक नव पोथी एहि बीच बहार भेलनि अछि–’अनुचिन्तन’। एहि पोथी मे एक लेख अछि–’विद्यापतिक प्रसंग’। एहि लेख मे ओ विद्यापति-गीतक मादे अपन नवीनतम शोधक किछु निष्कर्ष प्रस्तुत केलनि अछि।
हमरा लोकनि अवगत छी जे विद्यापति-गीतक छव गोट प्राचीन स्रोत अछि–रामभद्रपुर तालपत्र, नेपाल तालपत्र, तरौनी तालपत्र, भाषागीत-संग्रह, रागतरंगिणी आ हरगौरी-विवाह। हमरा लोकनि एहू बात सॅ अवगत छी जे मध्यकालीन मिथिला मे दर्जनो एहन ज्ञात-अज्ञात-अल्पज्ञात कविलोकनि भेला जे गीत-रचना केलनि। बाद मे हुनको लोकनिक गीत जे भेटल तॅ ताहि मे ‘भनहि विद्यापति’क भनिता जोडल अथवा विद्यापतियेक गीत-रचनाक रूप मे प्रसिद्धि-प्राप्त। हमरा लोकनिक परम्परा गौरवपूर्वक स्वीकार केलक जे ई सबटा गीत विद्यापतियेक छियनि। तखन, आब? आलोचनात्मक आस्था जॅ हो तॅ तकर मांग थिक जे हमर विशेषज्ञ लोकनि निर्णय करथु जे सत्य की थिक। पंडित जी सैह केलनि अछि। विद्यापति-गीतक निर्लेप पहिचान देखार करबाक लेल ओ एक कसौटी बनौलनि अछि। विद्यापतिक निर्विवाद प्राचीन गीत सभक तुलना मे अन्यान्य गीतक विश्लेषण जॅ ( 1)भाषा (2 )शब्द (3 )शैली (4 )अन्त्यानुप्रास (5 )भनिता मे पुनरुक्ति (6 )भाव (7 )आ, महाभाव– एहि सभक आधार पर कएल जाय, तॅ ठीक-ठीक निष्कर्ष निकालल जा सकैए जे कोन गीत विद्यापतिक थिक कोन नहि। पंडित जी सैह केलनि अछि। हुनक अनेक निष्कर्ष (कुल 48 सुप्रसिद्ध गीत कें ओ विद्यापति सॅ भिन्न कविक रचना मानलनि अछि) सभ मे सॅ एक निष्कर्ष ई थिक जे ‘जय जय भैरवि’ विद्यापतिक गीत-रचना नहि थिक। तखन, आब? जानिते छी जे ई गीत मिथिला मे राष्ट्र-गीतक गौरव-गरिमा हासिल क’ लेने अछि। एकरा लोक तेना क’ विद्यापतिक गीत मानि लेलक अछि जे सपनो मे नहि सोचि सकैछ जे ई विद्यापतिक गीत नहियो भ’ सकैत अछि। प्रायः एही परिस्थिति कें गमैत, पंडित जी अपन लेख मे ईहो विनम्र वचन जोडलनि–’प्रथमदृष्ट्या तॅ इएह प्रतीत होइत अछि जे ई गीतसभ विद्यापतिक रचना नहि भए सकैत अछि। परन्तु हमरा से कहबाक साहस नहि होइत अछि किएक तॅ सम्भवतः हमरा छाडि प्रायः सभ कें प्रगाढ विश्वास छनि जे ई गीत विद्यापतिक रचल थिक। विश्वासे नहि, सभ कें एहि गीतसभ पर प्रगाढ आस्था सेहो छनि। हम कथमपि नहि चाहब जे कनिको आस्था पर चोट पडय।’
पंडित जी कें कहबाक साहसो भेलनि अछि आ हमरा लोकनिक आस्था पर चोटो नहि पडल अछि। कारण, मात्र आस्था नहि, हमरा लोकनि अपन परम्पराक प्रति आलोचनात्मक आस्था रखैत छी। जे सत्य थिक, से तॅ अन्ततः सत्य थिक। आ, ओकर अपन लाभो तॅ छै। आइ धरि दुनिया कहैत छल–मिथिला कें विद्यापति छोडि क’ आर की छै? पद्धतिबद्ध ढंग सॅ उद्घाटित सत्य दुनिया कें जवाब द’ सकैत अछि जे मध्यकालो मे, एक विद्यापतिये नहि, मिथिला कें बहुत किछु छलैक।
सम्पर्क–बदरिकाश्रम, महिषी,सहरसा 852216
मो० 9431413125
email– [email protected]
ई ‘आस्था’ शब्द बड व्यापक। सामान्यतः एकरा विश्वासक लगीच क’ क’ देखल जाइ छै। लोक कहितो अछि–आस्था-विश्वास। दुनू शब्द मे मुदा, बड अंतर। विश्वास तॅ लोक ओहुनो, विना कोनो कारणोक, क’ सकैत अछि, करिते अछि। मुदा, ‘आस्था’क लेल ‘ज्ञान झाक योग पडब’ आवश्यक। माने, बौद्धिक स्तर पर ओकरा प्रति अहां सजग होइऐक, तखन भेल–आस्था। अपन परम्पराक प्रति हमरा आस्था हेबाक चाही। से आस्था केहन, तॅ आलोचनात्मक। तात्पर्य जे नीक कें ग्रहण करबाक आ अधलाह कें त्याग करबाक बुद्धि आ साहस हमरालोकनि मे हेबाक चाही।
आधुनिक मैथिली साहित्यक जन्म कोना भेल? एकर उत्स के मूल प्रेरणा की छल? खोज कयला पर देखबै जे आरंभिक दशकक लेखक लोकनिक इष्ट छलनि–अपन परम्परा मे सुधार। एही दुआरे एहि युग कें सुधारवादी युग कहल गेलै। एकर मूल प्रेरक छल–भारतीय नवजागरण। भारतीय नवजागरणक जे प्रभाव मिथिला पर देखार रूप मे पडलै, तकरे हम ‘मैथिली जागरण’ कहैत छिऐक। एकरे बदौलत हमरा लोकनि कें आधुनिक मैथिली साहित्य प्राप्त भेल। प्रश्न अछि जे सुधार के जरूरति ककरो किएक पडैत छैक? पहिने सॅ जे परम्परा चलि आबि रहल अछि, ताहि मे जखन निघेंस वस्तु सभक मात्रा बढि जाइ छै, तखन सुधारक जरूरति पडैत अछि। ई निघेंस वस्तु सभ मृत आ गतिहत्या करैबला होइत अछि। एकरा देखार करब साहित्यक मूल दायित्व, एही प्रेरणा सॅ आधुनिक मैथिली साहित्यक आरम्भ भेल अछि। सुधारवादी साहित्यक चरम विकास हमरा लोकनि हरिमोहन झाक साहित्य मे देखैत छिऐक। निघेंस वस्तु सभ कें ओ सर्वाधिक त्वराक संग आ बेस निर्मम ढंग सॅ देखार केलनि, तें हुनकर साहित्य एतेक महत्वपूर्ण अछि। आगू चलि क’ जबाना बदलि गेलै। सामाजिक सुधार भेलै। जबाना जे बदलैत अछि, ताहि मे साहित्योक अपन विलक्षण योगदान जरूर होइ छै। मुदा असल कारक होइत अछि–युग-प्रवृत्ति। युग-विशेषक जे ध्वनि होइ छै से तमाम माध्यम सभ सॅ एक्कहि संग अनुगूंजित होइ छै। एक जिम्मेदार लेखक सॅ ई आशा कएल जाइ छै जे ओ बदलैत युगक ध्वनि कें ठीक-ठीक अकानय, अखियास करए। पॉजीटिव आ निगेटिव तत्व सभ कें बेराबए। पॉजीटिव कें प्रोमोट करए आ निगेटिव के तर्कसंगत ढंग सॅ खंडन करए। दोसर एकटा रस्ता छै जे युगक पॉजीटिव ध्वनि मे जे सौन्दर्य, जे आदर्श निहित छै, तकरा अपन रचनाक माध्यम सं प्रकाश मे आनए। यात्रीजी यैह काज केलनि।
आगू चलि क’ अपन साहित्य मे एकटा एहनो युग आएल, जखन परम्पराक सम्पूर्णतः निषेधक मांग कएल गेल। जतेक गतिहत समाज छल मिथिलाक, तकरा देखैत ‘सामाजिक सुधार’ कें ई लोकनि पर्याप्त नहि मानैत छलाह। हिनका लोकनिक मतें आवश्यकता छलै- सामाजिक परिवर्तन के। ई पीढी बहुत पढल-लिखल लोकक पीढी छल। ई लोकनि प्रश्न उठौलनि जे परम्परा माने की? एकटा सडल लहास, जाहि मे सुधारक आशा क्यो बताहे लोक क’ सकैत अछि। परम्परा जॅ किछु थिक तॅ किछु सुविधाभोगी लोकक इच्छा-पूर्ति आ विलासक साधन थिक। ओ लोकनि कहलनि जे युगक संग चलबाक लेल सामाजिक परिवर्तन आवश्यक थिक। व्यापक समाजक हित एही सॅ सधि सकैत अछि। एहि पीढीक नेतृत्वकर्ता राजकमल चौधरी छला।
ध्यान सॅ जॅ अहां देखब तॅ पाएब जे बात ई बहुत उचित आ व्यावहारिक छल। कतेक डोज के दबाइ पडबाक चाही, ई एहि बात पर निर्भर करैत अछि जे रोग कतेक जडिआएल अछि। मिथिलाक रोग ततेक जडिआएल छल जे निषेधक मांग जरूरी छल। युगक संग चलबाक लेल अहां तैयार नहि छी, कारण जे बाप-ददा सॅ अहां कें बहुत मोह अछि। ई परम्पराक बचल रहबाक कोनो तर्क तॅ नहि भेलै। माने जे तर्कहीनता। परम्परावादी लोकनिक सब सं प्रधान तर्क थिक–तर्कहीनता। ओ लोकनि एही पर प्रहार केलनि। आब हमसब युगक समक्ष ठाढ छी तं अपन पूर्वज लोकनिक आशय कें बुझैत छी। निशां मे मातल समाजकें चेतेबाक लेल पूर्ण निषेधक नारा जरूरी छै। ओ लोकनि ठीक कहै छला। मुदा जुलुम बात जे हुनका लोकनिक रचना कें देखू तॅ परम्परा ओहूठाम विद्यमान भेटत। अपन सम्पूर्ण निहितार्थक संग। मुदा कमाल, जे ओ परम्पराक निषेध केलनि। बेसी की कहू, आशय पर जेबाक चाही। कथित शब्दे टाक ओझरा मे फॅसबा सॅ बचबाक चाही।
आब हमसब साहित्यक द्वार पर ठाढ छी आ कहै छी जे लेखक कें परम्पराक प्रति आलोचनात्मक आस्था सं परिपूर्ण हेबाक चाही। सुधारक फेज बीति चुकल अछि। आब सुधार कएल नहि जा सकैछ। निषेध सेहो उचित नहि थिक, कारण हमर परम्परा आइ मात्र परम्परा नहि रहल, हमर अस्तित्वक अस्मिता(identity)बनि गेल अछि। एहि भूमंडलीकृत आ बाजारवादी समय मे जॅ हमसब जीयब, आ अपन पहिचान ताकब तॅ से हमर परम्परा टा, सैह टा भ’ सकैत अछि। आब परम्पराक निषेध नहि, ओकर पॉजीटिव तत्व सभक समाहार चाही हमरा, हमर अपन पहिचान प्रतिख्यापित करबाक लेल, सौंसे दुनियां मे। एहना स्थिति मे की करबाक चाही? नीक कें पकडबाक चाही, अधलाह कें छोडबाक चाही। विना कोनो मोहक। विना कोनो ममताक।
मुदा, प्रश्न अछि जे परम्परा माने कोन परम्परा? ध्यान सॅ देखबै तॅ पाएब जे परम्परा कौखन एकटा नहि होइ छै। सभ युग मे ई चलन रहल अछि जे एकटा जॅ मुख्यधाराक परम्परा, तॅ दोसर अवान्तर परम्परा अथवा अतःसलिला परम्परा। एकटा खिस्सा हमरा एहिठाम मोन पडैत अछि। खिस्सा थिक शान्तिनिकेतनक। गुरुदेव टैगोर के युगक। एकबेर की भेल जे आश्रम मे काज कर’ बाली एक विधबा ब्राह्मणी युवती एक आन स्टाफ सॅ प्रेम करै छली। रवीन्द्रनाथ एहि प्रेम कें लक्ष्य करै छला। रवीन्द्रनाथ कें चिन्हैत छियनि? आधुनिक भारतीय साहित्यक ओ एहन अनुपम लेखक थिकाह, जिनका मे परम्परा, राष्ट्रीयता आ वैश्विकता–तीनूक तूलमतूल संतुलित विकास हमरा लोकनि कें भेटैत अछि। सही माने मे ओ एक ‘भारतीय लेखक’ छला। आ, से रवीन्द्रनाथ शुद्ध हृदय सॅ चाहै छला जे जॅ संभव हो तॅ एहि दुनूक विवाह भ’ जेबाक चाही। मुदा संकट ई जे ब्राह्मण-समाज मे विधवा-विवाह मान्य नहि। व्यवस्था जॅ क्यो देताह, तॅ से क्यो पंडिते। गुरुदेव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कें बजौलनि। हजारी बाबू महान लेखक तॅ छलाहे, तकरा संग-संग बड भारी ज्योतिषी सेहो छला आ ‘पंडितजी’क नामें मशहूर छला। गुरुदेव पुछलखिन–विधवा-विवाहक संबंध मे अपन परम्परा की कहैत अछि? पंडितजी शास्त्र सभक अवलोकन केलनि आ जा क’ कहलखिन–शास्त्र आज्ञा नहि दैए। गुरुदेव मुदा, बहुत सहानुभूतिपूर्ण छला। बजला–पंडितजी, कोन परम्परा आज्ञा नहि दैए? अहां तॅ कोनो एक परम्पराक बात बात कहैत छी। सभ परम्पराक तॅ अपन-अपन मान्य आचार्य सभ छथि। हम ई कोना कहि सकै छी जे एक परम्पराक आचार्य हमर आदरणीय आ दोसर परम्पराक आचार्य निषेध्य? कने देखि क’ कहू जे दोसर परम्परा की कहैए? अगिला दिन हजारी बाबू दोसर-दोसर परम्पराक आचार्य लोकनिक मतक परायण केलनि आ गुरुदेव कें जा क’ कहलखिन जे दोसर परम्परा विधवा-विवाहक अनुमति दैए। गुरुदेव कें मानवताक हित मे आ युग-धर्मक अनुरूप जे करबाक छलनि, तकर रस्ता भेटि गेल छलनि।
हमरा लोकनि कें एतबा बुद्धिमान आ विवेकपूर्ण हेबाक चाही जे अपना ओतक समस्त परम्परा हमरा अपन परम्परा बुझना जाय। ब्राह्मण हएब, आ कि ब्राह्मण नहि हएब हमर बिलकुल निजी मामिला थिक। तहिना, जेना हम राति कें पैजामा पहिरि क’ सुतै छी कि लुंगी पहिरि क’, ई हमर निजी मामिला छी। युगधर्मक उपेक्षा नहि करबाक चाही। दुनू परम्परा हमर अपने परम्परा थिक। कट्टर सनातनी हेबाक जे थोडेक हानि सभ छैक, तकरा सॅ आब हमरा लोकनि कें मुक्त हेबाक चाही, ई बात जखन हम कहै छी तॅ किछु लोक हमरा विरोधी बुझैत छथि। मुदा ताहि डर सॅ की हम ई बात कहब छोडि दी जे एकैसम शताब्दीक एहि संश्लिष्ट युग मे हमरा लोकनि कें टिकल रहबाक लेल कोन रणनीति विधेय थिक। दुनू परम्परा हमर अपन परम्परा थिक, जे हमरा युगानुरूप समायोजन लेल पॉजीटिव सजेस्ट करय, से ताहिकाल हमरा लेल विधेय थिक। मिथिलाक समन्वित परम्पराक हम अन्वेषी थिकहुं। सौंसे मिथिला हमर अपन मिथिला थिक। हमर जे समन्वित परम्परा अछि, तकर संरक्षण आ विकासक वास्ते हमरा अग्रसर हेबाक अछि। से आलोचनात्मक आस्था राखि क’। हमरा लोकनि जॅ समाजक जागरूक वर्ग छी, तॅ हमर यैह कर्तव्य थिक।
एखन चहुंदिस उत्तर-आधुनिकता (post modernism) के खूब हल्ला मचल छै। कहियो अखियास केलियैए जे ई कोन चीज थिक आ एकर दार्शनिक आधार-भित्ति की छिऐक? हम तॅ सनातन सॅ चलि आबि रहल काल-प्रवाह कें देखै छी तॅ लगैए जे ई दुनियां लगातार वर्ग-न्याय दिस बढि रहल अछि। पहिने सामंतवादक युग छल। थोडेक लोक ऐश्वर्य-मदमत्त छला आ बहुसंख्यक लोक न्याय सं बंचित छल। युग बदलल तॅ तखन आधुनिकता आएल। एहि बहुसंख्यक न्याय-बंचित लोक मे सॅ थोडेक कें न्याय भेटलैक। मुदा की सभ कें भेटि सकलैक? जतेक लोक आबो न्याय-बंचित रहि गेला, तिनका अहां ‘बहुसंख्यक’ सॅ कम की कहबै? आधुनिकताक तॅ सेहो अपन जटिलता छै। लोकतंत्री शासन आ व्यवसाय-मुखी विज्ञान नित्त एकर जटिलता बढौने जाइत अछि। तात्पर्य जे आधुनिकता सॅ सेहो समस्त मनुक्ख कें न्याय नहि भेटि सकलैक। एम्हर आबि युग-प्रवृत्ति देखैत छी जे जे कोनो वर्ग वा समूह आधुनिकताक मुख्यधारा मे नहि आबि सकल, छूटल-पिछडल रहि गेल, से सभ अपनहि कें अपन केन्द्र मानि, अपन अस्तित्व सॅ अपनहि संतुष्ट होइत, अपन दाबीदारी ठोकि देलक। दाबीदारी कथीक लेल? आन कथूक लेल नहि। मात्र एही लेल जे अहांक सर्टिफिकेटक खगता हमरा नहि अछि। अहांक नीक कहने ने हम नीक आ खराब कहने ने हम खराब भ ‘ सकैत छी। हम जे छी, जेहन छी, स्वयं मे पूर्ण आ महत्वपूर्ण छी। एक तरहक स्वयंभू आत्मविश्वास एकरा अहां कहि सकै छिऐक। सौंसे दुनियां मे, सभ देश, सभ बंचित समुदाय मे आइ ई प्रवृत्ति देखल जा रहल छै। ई स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श आदि-आदि की थिक? क्षरणशील पर्यावरणक चिन्ता, विलुप्त होइत जीवजन्तु-वनस्पतिक चिन्ता, अप्पन जडि कें चिन्हबाक चिन्ता– ई सभ की थिक? आजुक युगक प्रवृत्ति थिक। आधुनिकताक विफलताक पश्चात जे प्रतिक्रिया सभ सौंसे दुनियां मे भेल अछि, ई तकर देन थिक। मुक्त बाजार एकरा अपना लेल नीक बुझैए, से एक बात। दोसर दिस मार्क्सवाद एकरा शंकालुताक दृष्टियें देखि रहल अछि। कारण, एहि बात मे ओकरा संदेह बुझाइत छै जे एहि बाट पर चलने बंचित समुदाय अपना लेल न्याय प्राप्त क’ सकत। अस्तु, एहि पॉजीटिव-निगेटिव के तसफिया चिन्तक लोकनि अपन करथु। युग-प्रवृत्ति तॅ जे थिक, से थिक।
स्त्री-विमर्शेक प्रसंग कें लिय’। मिथिलाक गामो घर मे आइ अहां देखबै जे अहां छोट उमेर मे बेटीक बियाह करियौ तॅ स्वयं बेटिये अहांक प्रबल विरोधी भ’ क’ ठाढ भ’ जाएत। कहुना ठकि-फुसिया क’ जॅ अधलाह वर संग बियाह कराब’ लगियौ तॅ मडबा पर सॅ भागि पडाएत। अनजाति संग बियाह करबाक दंडस्वरूप जॅ ओकरा चांप चढा क’ मारि दियौ तॅ पुलिस-कचहरी तॅ छोडू, सौंसे दुनियांक समाज तेना क’ क’ अहांक दुश्मन भ’ जाएत जे लाख घूस-पेंच लगाइयो क’ बचि नहि सकब। एखन निरुपमा पाठकक हत्या-काण्ड मे यैह तॅ भेल अछि।
एहना स्थिति मे लेखकक की दायित्व थिक? पहिने तॅ अहां पॉजीटिव-निगेटिव के निर्णय करू। आ, अहांक जे समन्वित परम्परा अछि, तकरा संग युगक पॉजीटिव ध्वनि कें जोडू। युगक मोताबिक जकर औचित्य बनैत होइक, तकरा अपन समर्थन दियौ। रचनात्मक लेखन (creative writing) मे ओकरा उतारू जे अहांक समाज एहि युगक संग कोन तरहें समायोजन बैसा सकैत अछि। की अहां कें बूझल अछि, यात्रीजी ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ के समर्थन केने छलखिन। आ, नवतुरिया लेखक लोकनि सॅ अपील सेहो केने छलखिन जे एकर सकारात्मक पक्ष पर ओ लोकनि कथादि लिखथु। मुदा, मैथिलीक ई दोसर पहलू सेहो देखू जे हमर चुनौटा मंचीय हास्यकवि, जनक जी महाराज जान-प्राण अडपि क’ स्त्री-विमर्शक विरोध करैत छथि, जागरूक होइत स्त्रीक एक सॅ एक हास्यास्पद आ वीभत्स वर्णन क’ क’ पुरुख श्रोता लोकनि कें हॅसी लगबैत छथि। स्त्री लोकनि एहि पर की सोचैत हेती? अहां पुरुख छी तॅ स्त्रीक निन्दा तॅ करबे करबै। युग-युग सॅ करैत एलियैए। सोचू, एहि तरहें एकभग्गू भ’ क’ चलने की हम अपन घरोक रक्षा क’ सकब? समाजक रक्षाक तॅ बाते छोडू। हम तॅ बन्धु, यैह कहब जे युग-प्रवृत्ति सॅ आंखि मूनि क’ हमरालोकनि युगक सामना नहि क’ सकैत छी।
अपन परम्पराक प्रति दृष्टिकोण कें हमरा लोकनि आलोचनात्मक कोना बनौने राखि सकैत छी, तकर एक बहुत सटीक दृष्टान्त एखन हाल मे सामने आएल अछि। ई पं० गोविन्द झाक नवीनतम शोधक परिणाम थिक। पं० गोविन्द झा कें अहां ‘चिन्है’ छियनि? ओ आयुवृद्ध भने होथु, मुदा कोनो युवे-सन ओजस्वी-तेजस्वी छथि। उत्साह आ उत्सुकता सॅ एकदम भरल-पुरल छथि, जे हुनका सदति नव-नव संधान-अनुसंधान लेल प्रेरित करैत रहैत छनि। ओ विद्यापति-साहित्यक विशेषज्ञ छथि। हमरा मोन पडैए, आचार्य रमानाथ झा भारी मन सॅ कतहु लिखने छथिन जे विद्यापतिक विशेषज्ञ, समूचा संसार मे आब एक हमही टा बचि गेल छी, आन ककरो मे तकर प्रवृत्तियो नहि देखैत छिऐक। मैथिलीक सौभाग्य जे हुनका बादो, आइयो पं० गोविन्द झा-सन अनुसंधानी पुरुष हमरा लोकनिक बीच छथि। पंडित जीक एक नव पोथी एहि बीच बहार भेलनि अछि–’अनुचिन्तन’। एहि पोथी मे एक लेख अछि–’विद्यापतिक प्रसंग’। एहि लेख मे ओ विद्यापति-गीतक मादे अपन नवीनतम शोधक किछु निष्कर्ष प्रस्तुत केलनि अछि।
हमरा लोकनि अवगत छी जे विद्यापति-गीतक छव गोट प्राचीन स्रोत अछि–रामभद्रपुर तालपत्र, नेपाल तालपत्र, तरौनी तालपत्र, भाषागीत-संग्रह, रागतरंगिणी आ हरगौरी-विवाह। हमरा लोकनि एहू बात सॅ अवगत छी जे मध्यकालीन मिथिला मे दर्जनो एहन ज्ञात-अज्ञात-अल्पज्ञात कविलोकनि भेला जे गीत-रचना केलनि। बाद मे हुनको लोकनिक गीत जे भेटल तॅ ताहि मे ‘भनहि विद्यापति’क भनिता जोडल अथवा विद्यापतियेक गीत-रचनाक रूप मे प्रसिद्धि-प्राप्त। हमरा लोकनिक परम्परा गौरवपूर्वक स्वीकार केलक जे ई सबटा गीत विद्यापतियेक छियनि। तखन, आब? आलोचनात्मक आस्था जॅ हो तॅ तकर मांग थिक जे हमर विशेषज्ञ लोकनि निर्णय करथु जे सत्य की थिक। पंडित जी सैह केलनि अछि। विद्यापति-गीतक निर्लेप पहिचान देखार करबाक लेल ओ एक कसौटी बनौलनि अछि। विद्यापतिक निर्विवाद प्राचीन गीत सभक तुलना मे अन्यान्य गीतक विश्लेषण जॅ ( 1)भाषा (2 )शब्द (3 )शैली (4 )अन्त्यानुप्रास (5 )भनिता मे पुनरुक्ति (6 )भाव (7 )आ, महाभाव– एहि सभक आधार पर कएल जाय, तॅ ठीक-ठीक निष्कर्ष निकालल जा सकैए जे कोन गीत विद्यापतिक थिक कोन नहि। पंडित जी सैह केलनि अछि। हुनक अनेक निष्कर्ष (कुल 48 सुप्रसिद्ध गीत कें ओ विद्यापति सॅ भिन्न कविक रचना मानलनि अछि) सभ मे सॅ एक निष्कर्ष ई थिक जे ‘जय जय भैरवि’ विद्यापतिक गीत-रचना नहि थिक। तखन, आब? जानिते छी जे ई गीत मिथिला मे राष्ट्र-गीतक गौरव-गरिमा हासिल क’ लेने अछि। एकरा लोक तेना क’ विद्यापतिक गीत मानि लेलक अछि जे सपनो मे नहि सोचि सकैछ जे ई विद्यापतिक गीत नहियो भ’ सकैत अछि। प्रायः एही परिस्थिति कें गमैत, पंडित जी अपन लेख मे ईहो विनम्र वचन जोडलनि–’प्रथमदृष्ट्या तॅ इएह प्रतीत होइत अछि जे ई गीतसभ विद्यापतिक रचना नहि भए सकैत अछि। परन्तु हमरा से कहबाक साहस नहि होइत अछि किएक तॅ सम्भवतः हमरा छाडि प्रायः सभ कें प्रगाढ विश्वास छनि जे ई गीत विद्यापतिक रचल थिक। विश्वासे नहि, सभ कें एहि गीतसभ पर प्रगाढ आस्था सेहो छनि। हम कथमपि नहि चाहब जे कनिको आस्था पर चोट पडय।’
पंडित जी कें कहबाक साहसो भेलनि अछि आ हमरा लोकनिक आस्था पर चोटो नहि पडल अछि। कारण, मात्र आस्था नहि, हमरा लोकनि अपन परम्पराक प्रति आलोचनात्मक आस्था रखैत छी। जे सत्य थिक, से तॅ अन्ततः सत्य थिक। आ, ओकर अपन लाभो तॅ छै। आइ धरि दुनिया कहैत छल–मिथिला कें विद्यापति छोडि क’ आर की छै? पद्धतिबद्ध ढंग सॅ उद्घाटित सत्य दुनिया कें जवाब द’ सकैत अछि जे मध्यकालो मे, एक विद्यापतिये नहि, मिथिला कें बहुत किछु छलैक।
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