डाकिया
एक अनजान शहर में
मुस्कुराता है
डाकिया
देखकर
तसल्ली होती है
की अब
कोई तो जानता है हमारा पता ठिकाना
की
भूले बिसरे किसी की पाती तो आएगी
और
महक उठेगा अपनापन
किसी लिफाफे या
पोस्टकार्ड के लिबास में
किसी
सपने की तरह
खटखटाता है दरवाजा
और
पूछता है हाल चाल
मन का एक कोना
भींग उठता है
आत्मीयता से
जब
भी
अनजान शहर में
मुस्कुराता है डाकिया
देखकर
मुस्कुराता है
डाकिया
देखकर
तसल्ली होती है
की अब
कोई तो जानता है हमारा पता ठिकाना
की
भूले बिसरे किसी की पाती तो आएगी
और
महक उठेगा अपनापन
किसी लिफाफे या
पोस्टकार्ड के लिबास में
किसी
सपने की तरह
खटखटाता है दरवाजा
और
पूछता है हाल चाल
मन का एक कोना
भींग उठता है
आत्मीयता से
जब
भी
अनजान शहर में
मुस्कुराता है डाकिया
देखकर