द्वितीय मण्डल
अतिथिगणक दुग्धपानक पश्चात् परिचयक क्रम पूर्ण कायल गेल ।
शाश्वती आ ऋजिस्वा प्रणिपात क'पुनः अपन आसन पर बैसि गेलि ।
सभ अपन अपन नियत स्थान पर बैसल छलाह । मंत्राक्ष सेहो आबि क'बैसि गेल छलाह ।
धवल-धवलित श्मश्रुल आकृतिक संग श्वेत कम्बलक वर्ण,एकाकार भ' क' आगत अतिथिगणकें गिरी-शिखर जकाँ गरिमामय बना रहल छल ।
किछु काल पूर्व संपन्न भेल सांध्य तथा पौर्णमास यज्ञक कुंडसँ, समिधा पड़ला सँ, स्वयं भगवान् वैश्वानर अपन वहिन-दृष्टिसँ यज्ञशालामे बैसल सभकें आशीर्वाद द' रहल छलाह बीच-बीचमे ।
बाहर सोमदेवक अविरल ज्योत्सना-प्रवाहमे पर्णकुटी एखन एकटा कृष्ण-द्वीप जकाँ लागि रहल छल ।
महर्षि ऋतुर्वितक यग्य-शाला, सरस्वती तट पर बसल एही ऋषि-ग्राममे सभसँ पैघ अछि, जाहिमे समस्त ऋषिग्रामक नर-नारी एक संग बैसि सकैत अछि,एखन बैसल छथि ।
एहि याग्यशालाक चारुकात ओसारा अछि जे ग्रीष्मकालमे खुजल रहैत अछि किन्तु शीतकालमे ओकरा बंद क'देल जाइत अछि आ सुरक्षा सेहो ।
यज्ञ-कुंडक घ्रितांक सुगंधि, निकटक पाकशालामे बनी रहल प्रिषदक सुवाससँ मिली क'वातावरणकें मादक बना रहल अछि । सुगंधिमय बना रहल अछि।
आगत अतिथिगणक संगहि सभ प्रसन्न छथि ।
बीच-बीचमे अग्निकुण्डक ज्योति-शिखा समस्त पर्णकुटीकें आलोकित क' जाइत अछि ।
महर्षि आंगिरस ऋतुर्वितक गंभीर स्वर मुखरित भेल-'आइ सरस्वती तटक लेल महान सौभाग्यक विषय थिक जे सप्तसैन्धवक प्रायः समस्त मूर्धन्य एवं वरेण्य ऋषि-महर्षिगणक पदार्पण एही भुमिकें पवित्र बनयबा लेल भेल अछि। आजुक दिन धन्य भेल आ हमसभ कृतार्थ भेलहुँ । एहि सरस्वति तटक दिससँ एहि महर्षिलोकनिक अभ्यर्थना आ स्वागत करैत हम अपार आनन्दक अनुभव करैत छी ।'
एक निमिषक लेल महर्षि मौन रहलाह,फेर बजलाह-'सरस्वती तटवासीक लेल ई निवेदन करैत हम अतीव गौरवक अनुभव करैत छी जे सप्तसिन्धुक एही ब्रह्मर्षि देशकें हमरा सभक जे प्रातः स्मरणीय महर्षिलोकनि-गृत्समद,वामदेव,अत्रि,वशिष्ठ,विश्वामित्र एवं भारद्वाज पावन बनौने छलाह ,हुनके वंशज विभिन्न ऋषि-महर्षि आइयो एही सप्त-सैन्धवक शोभा बाधा रहल छथि ,जे अपन दर्शन देबाक लेल पधारने छथि । काल्हि अनाध्याय रहत आ गोष्ठी आयोजित होयत। संगहि कल्हिसँ प्रारंभ होब' बल अग्निष्टोम यग्यक पूर्णाहुति हमरा सभ सविध संपन्न करब ।'
महर्षि रितुर्वितक चुप भ' गेल पर मंत्राक्ष अंजलिबद्ध भ' ठाढ भेलाह, बजलाह-'भगवन ! आज्ञाक याचना अछि, एकटा सन्देश अछि ।'
-आज्ञा अछि,प्रस्तुत करू ।' महर्षि ऋतुर्वित कहलनि ।
-'भगवन!'-मंत्राक्ष कहलनि -'महिर्षिगणक पावन चरणमे राजा असंग प्रणिपात निवेदित कयलानि अछि आ… ।
महर्षि रितुर्वितक चुप भ' गेल पर मंत्राक्ष अंजलिबद्ध भ' ठाढ भेलाह, बजलाह-'भगवन ! आज्ञाक याचना अछि, एकटा सन्देश अछि ।'
-आज्ञा अछि,प्रस्तुत करू ।' महर्षि ऋतुर्वित कहलनि ।
-'भगवन!'-मंत्राक्ष कहलनि -'महिर्षिगणक पावन चरणमे राजा असंग प्रणिपात निवेदित कयलानि अछि आ… ।
-किन्तु बीचमे स्थानीय ऋषि आत्री ऋजाश्व प्रश्न केलनि-की असंगक राजाक रूपमे अभिषेक भ'गेलनि,जे एहन संबोधन करैत छी |
आत्री ऋषि ऋजाश्वसँ सभ कियो परिचित अछि । हुनक स्वभावे अनर्गल स्वीकार करबाक नहि अछि ।
सभ मंत्राक्ष दिस ताके लागल ।
-'क्षमायाचना ऋषिवर!' मंत्राक्ष बाजलाह-'असतर्कतामे हम राज शब्दक प्रयोग क' गेलहुँ ...राजा वितिहोत्रक निष्क्रमणक पश्चात आ राजा अतिध्रितिक उत्तराधिकारी होयबाक कारणे राजकुमार असंगे राजदंडक उत्तराधिकारी हेताह ने? आ ओही दायित्वकें ओ समितिक -'ई त्रुटि -ए थिक ,कियैक तँ ई घोषणा करबाक समिति-ए कें अछि आ सेहो अभिषेक भऽ गेलाक पश्चाते।' आत्री ऋजाश्व कहलनि ।
-'अभिषेको तँ निश्चिते अछि कि ने?मंत्राक्ष प्रश्न कयलनि|
'अभिषेक निश्चित अछि, किन्तु, राजा तँ निर्णीत नहीं छथि ने?'
'किन्तु आब तँ ओ परम्परा नाहि रहल ने जे अंतिम क्षणधरि केओ राजा बनि जाइत छल , आब तँ कौलिक-परम्परे चल'लागल अछि। आ ताहूमे राजकुमार असंग,सदस्य लोकनि आ समितिक सभसँ समर्थन-याचनामे लागियों गेलाह अछि।' मंत्राक्ष कहलनि ।
-'ई तँ परंपरा बदलि गेल अछि तें,नहीं तँ राजा अतिधृतिक एक वंश पूर्वधरि कौलिक नहीं होइत छल,आ ताहि स्तिथिमे समितिक निर्णय भ'गेलाक उपरान्ते क्यो समर्थन-याचनामे जाइत छल आ तखन अभिषेक होइत छलैक ।'
-'क्षमा -याचना भगवन!' - मंत्राक्ष कहलनि -परिवर्तित परम्पराक आधारे पर तँ राजकुमार एम्हर याचना-कार्यमे सेहो लागि गेलाह अछि आ राजदण्डकें सेहो सम्हारि लेलनि अछि एखन जे परिस्थिति उत्पन्न भ'गेल अछि ताहिमे ई अति आवश्यको छल ।'
परिस्थिति आ आवश्यक शब्द दिस लोकक ध्यान गेल । सभ उत्सुक भ' उठल ।
आगत अतिथि लोकनिकें छोडि क',समस्त उपस्थितिकें ज्ञात अछि जे राजकुमार असंग,प्रधान सेनानी आटव्य आ सोमाश्व मंत्राक्षमे कतेक घनिष्ठता अछि । आ धेनुहरणक पश्चातो गविष्ठी युद्ध नहि भेल, जाही कारणे राज वीतिहोत्र राज्यचुत कायल गेलाह आ निष्काशन भेटलनि ,ताहि प्रसंगमे की भ' रहल अछि, तकर उत्सुकता सभकें छलैक ।
यद्यपि ई उत्सुकता वा युद्धक लालसा एहि ऋषिग्राममे बहुत कम अछि, ऋषिलोकनिकें अथवा ब्रह्मचारी बटुक लोकनिकें श्रुति-कार्यसँ अवकाशे नहि भेटैत अछि। तैयो पूर्व संस्कारक आधार पर,जाहि समय युद्धमे,विशेषतः गविस्ठी युद्ध में सभ उत्साह सँ भाग लैत छलाह--एहू सभ बातक उत्सुकता रहैत अछि
ई उत्सुकता ग्रामांचलमें अधिक रहैत अछि । आ ग्रामंचलक एखन एते क्यों नहि छल । अतः एही प्रसंग अधिक बात एखन नहि भेल।
-'केहन परिस्थिति ?' महर्षि ऋतुर्वित पुछलनि।
मंत्राक्ष एक क्षण चुप रह्लाह। संभव सोचैत रहलाह जे एखन कहल जाय अथवा नहीं । महर्षि ऋतुर्वितक आज्ञा भ' गेल अछि । तेँ कहब आवश्यक । बजलाह-'एही कुरु जन्पदक निर्माण कहियो विभिम्म जनकें मिलाकें भेल छल ,जाहिमे भारत,त्रित्सु ,क्रिवि आ पुरुजन छथि, एहिमे किछु वैमनस्य भ' रहल अछि,दोसर दिस धेनुहरण भ'गेलाक पश्चातो हमरा सभ एखन धरि गविष्टि-युद्ध नहीं क' सकलहुँ,ई कलंक तँ लागले अछि,एकरो धोबाक अछि...राजकुमार असंग एखन एहि सभमे अतिव्यस्त छथि आ तेँ विवशतावश स्वयं उपस्थित भ' आगत महर्षिलोकनिक दर्शन-लाभ नहीं उठा सकलाह,ओ काल्हि प्रातः सेवामे उपस्थित हेताह,तत्काल प्राणिपातक संग हुनक निवेदन छनि जे…।'
-'किन्तु'-बीचमे आगत महर्षि वामदेव्य श्रुतिधृति,जे कुमा तट सँ आयल छथि,बाजि उठलाह-एम्हरूका राजन्य घृष्ट होइत छथि,लगैत अछि, स्वयं नहीं आबि ऋषि-महर्षि सभक निकट संवाद पठबैत छथि। ओम्हर,कुमा ,वितस्ता दिस एखनो वैह पुरान प्रथा अछि, राजकें स्वयं आयब पड़ैत छैक, अपन संवादक लेल,दैत्य,अपराध मानल जाइत अछि । एम्हर अनेक नव बात देखबा लेल भेटल ।'
अग्निकुंडमे प्रकाश बढि गेल छल । सभ देखलक महर्षि वामदेव्य किछु असंतुष्ट भ'गेल छथि ।
-'अंतर तँ भइये रहल अछि महर्षि वरेण्य ।' महर्षि ऋतुर्वित कहलनि --एहि प्रसंग,एम्हरो यैह प्रथा अछि,किन्तु राजकुमार असंगाक अल्पवय आ अल्पज्ञताक कारणे जे अपराध भेल अछि,ताहि लेल हम क्षमाप्रार्थी छी,कियैक तँ ओ एही गुरुकुलक शिष्य छथि।'
-'आ फेर जनपद-वैमनस्यक विवशतो भ' गेल अछि, महर्षिकें क्षमादान देबाक चाही-आगत गृत्समदेय महर्षि अरिष्टनेमि, जे आगातलोकनिमे वयोवृद्ध होयबाक कारणे आजुक पौर्णमास यग्यक ब्रह्मा सेहो छलाह तथा जे सुवास्तु तट सँ आयल छलाह, बिहुँसि क' पुछ्लनि--ई असंग के छथि ?'
आगतलोकनिक संगहि महर्षि ऋतुर्वितकें सेहो ज्ञात छनि जे महर्षि अरिष्टनेमि अल्पभाषी छथि। आ ब्रह्मा हेबाक कारणे नहि ,वयोवृद्धो होयबाक कारणे सेहो हुनक बहुत सम्मान छनि, आ वैह एखन एहि प्रसंगके समाप्त करय चाहैत छथि। ई सभ क्यो जानि गेलाह ।
आगत ऋषि-महर्षि सेहो जनैत छथि जे महर्षि अरिष्टनेमिक इच्छा-विरुद्ध किछु करब बा कहब संभव नहीं अछि। समस्त सप्त-सैन्धवमे हुनक सम्मान अछि । ओ मंत्र-दर्शन तँ करिते छथि,संगहि हुनका जतेक मंत्र कंटस्थ छनी,ततेक प्रायः एहि ब्रह्मर्षि देशमे आन ककरो नहीं । हुनका इतिहास आ परम्परा-प्रथाक सेहो गंभीर ज्ञान छनि । ई बहुतोकें ज्ञात अछि ।
वामदेव्य श्रुतिधृति सेहो चुप भ' गेलाह । महर्षि अरिष्टनेमिक विरोध करबाक ध्रिष्टता अथवा साहस किनकोमे नहि छनि |
मंत्राक्षकें प्रसन्नता भेलनि । महर्षि ऋतुर्वित्कें सेहो नीक लगलनि,ओ शीघ्रता सँ उत्तर देलनि-'राजकुमार असंग छथि पूर्व राज भरत-त्रित्सुक साहदेव्य सोमक केर पुत्रक प्रपौत्र राजा अतिधृतिक द्वितीय तान्व (औरस) पुत्र आ निष्काषित राजा वितिहोत्रक अनुज सहोदर ।'
-एम्हर लगैत अछि -महर्षि अरिष्टनेमिक कहलनि -राजा निर्वाचनमे कौलिक परंपरा बद्धमूल भ'गेल अ छि ...' 'ओम्हर सुवास्तु दिस एखनो एहन नहीं भेल अछि '। ओम्हर एखनो सर्वश्रेष्ट योद्धे राज चुनल जाइत अछि । आ से क्यों भ' सकैत अछि ,ई आवश्यक नहीं जे ओ विगत राजके पुत्र हो |
-एम्हरो यैह परंपरा छल-महर्षि ऋतुर्विक कहलनि -वृद्ध राजा अतिधृतिक एक पीढ़ी पूर्व सँ येह परंपरा चल' लागल अछि। ओन राजकुमार असंगो श्रेष्ठ अश्ववाहक,रथचालक,तथा योद्धा छथि,आखेटमे पाटु छथि,दृष्टि सेहो व्यापक छनि…।'
-'आ मंत्र-अभ्यासमे?' महर्षि श्रुतिघृति पूछ्लनि ।
-'मंत्र-अभ्यासो प्रसंसनीय छनि ,ओन एहिमे निपुण छलाह निष्काषित राजा वीतिहोत्र। '
-'कियैक भेल निर्वासन ?'
-'धेनु-हरण भेल पर ओ गविष्ठ युद्ध नहि केलनि,तें ।'
-'कायिक नहि युद्ध केलनि?'
-'यैह ज्ञात नहीं भ' सकल। आ ने ओ के प्रकटे केलनि। तें समिति राज्य्चुतिक निर्णय लेलक।' महर्षि ऋतुर्विक उत्तर देलनि ।
-'निर्णय तँ उचिते लेल गेल। किन्तु हरण के कयने छल ? अनास दस्यु सब?'
-'महर्षिक अनुमान सत्य अछि ।'
-'एम्हर लगैत अछि -अरिष्टनेमि पुछ्लनि -दस्युक उपद्रव एखनो बहुत अछि ?'
-'दस्यु सभक संख्यो तँ एम्हरे अधिक छल,बहुत तँ अनेक युद्धमे मारल गेल ,बहुत भागि गेल आ जे शेष बचल ताहिमे बहुत दास भ' गेल अछि ; अनुगत ।
किछु दस्यु एखनो दूर-दूरन्तरमें बसल अछि, यद्यपि आब ओहो सभ आर्यलोकनिक मित्र बनल जाइत अछि,कहियो उत्पात भैये जाइत अछि ।'
-'ओकरा भगा किये नहि देल जाइत अछि ? की कुरु जनपद निर्बल अछि ?' श्रुतिधृति पुछलनि । महर्षि ऋतुर्वितक ध्यान एही दिशामे, एही सँ पूर्व कहियो नहि गेल रहिन । श्रुति,यज्ञ आ गुरुकुल अतिरिक्त हुनक ध्यान आई कोनो दिशामे अछियो नहि । अपितु यैह स्थिति समस्त ऋषिग्रामक अछि । ऋषिग्राम पहिने अलग नहि होइत छल । एखनो सुवास्तु,कुम-क्रुम तथा वितस्ता आ अक्खिनी तट पर ऐना नहि होइत अछि । पहिने जकाँ सहजीवनक क्रम अछि । आ पहिने जकाँ जन श्रुति-अभ्यास आ युद्ध-कार्य संगहि चला रहल अछि । एके संग ब्राह्मण,क्षत्रिय आ वैश्य कर्म करैत अछि । एही सरस्वती तटक बात किछु दोसरे भ' गेल अछि । एतय अयलाक बाद सँ ऋषि-महर्षि सभक कार्य मात्र श्रुति-कार्य रही गेल अछि । युद्ध आ पशुपालन अथवा कृषि-कार्य छुटिये जकाँ गेल। छूटैत चलि जा रहल अछि ।
ई कार्य रहि गेल ओकरासभक जे तट पर बसल एहि ऋषि-ग्राम सँ अलग हँटिक' ग्रामांचलमे रहित अछि ।
सरस्वती तटक ई परंपरा महर्षि वशिष्ठ-विश्वमित्रक समयेसँ चलल आबि रहल अछि, जखन सँ हुनका सभकें अलगसँ सरस्वतीक निकट, तट पर बसाओल गेल छल । कुरुग्रामंचल बसल छल ओहिसँ कनेक उत्तर हँटिक '। ई व्यवस्था,ऋषि सभकें अभिसिंचनक सुविधा अधिक भेटनि,एकरे ध्यान में राखिके कायल गेल छल । एकरा अतिरिक्त,ऋषि सभमे ता नियमित स्नानक परंपरा सेहो बद्धमूल भ' गेल छल ।
एही सभ कारणसँ ग्रामांचल आ ऋषिग्रामक जीवन-पद्धति में अंतर आबि गेल अछि
महर्षि ऋतुर्वितक ध्यान एहिसँ पूर्व एही सब बात दिस नहि गेल रहनि । ओ किछु सोचय लगलाह । ता मंत्राक्ष बजलाह-'कुरु जनपद निर्बल नहि अछि भगवन! ऋषि-महिर्षि लोकनिक कृपा अछि एही जनपद पर,संगहि देव्लोक्निक असीम अनुकम्पा सेहो अछि। वास्तविकता ई अछि जे एम्हरुका प्रायः सभटा अनास दस्यु,दास भ'गेल अछि अथवा होइत जा रहल अछि । आर्यसभक कार्य ओ पर्याप्त निष्ठासँ क'रहल अछि । प्राचीन वैर-भाव बिसिर क'आब ओसभ मित्रवत रहे लागल अछि । आर्यसभक लेल पशुपालन आ कृषिकार्य वैहसभ क' रहल अछि । एखन धरि ओकरा सभकें स्वतंत्र रूपसँ अपना लेल कृषि करबाक अधिकार नहि भेटल छै ।'
-'एकर अर्थ ई भेल जे सामान्यतः एम्हरुका अनास कृष्ण,आर्यसभक लेल उपयोगी सिद्ध भ' रहल अछि ।'
-'उपयोगिये नहि भगवन,अनिवार्यो ।'
-अनिवार्य?
-'अनिवार्य भगवन।'
-'से कोना?'
-'आर्य तँ चर्म पहिरिके आयल छलाह एम्हर;पूर्वमे सूत्र-वस्त्र तँ पहिरैत नहि छलाह । सूत्र-वस्त्र सँ परिचित तँ ओ मुख्य सिन्धुक बादे भेलाह,विशेषतः वितस्ता तटक बादे सँ ,सेहो ओहि अनासेक द्वारा। वैह सभ सूत्र-वस्त्र कलाक ज्ञाता छल । यद्यपि आब तँ आर्यो एही कलाकें सीखि लेलनि अछि, किन्तु एकर वाणिज्य तँ एखनो ओकरे हाथमे अछि। एहि प्रकारें ओ,अनिवार्य भ' गेल।' मंत्राक्ष कहलनि ।
-'वस्त्रे ? धातु सेहो!'...क्यो कहलक । - हँ भगवन! एखन जे लोहित अयस (ताम्र) पात्रक उपयोग हमसभ कयलहुँ अछि,ईहो तँ ओकरे थिक,वैह सभ एकरो आपूर्ति करैत अछि । एकरा अतिरिक्त मृतिकाक पात्रो तँ वैह सभ अधिक बनबैत अछि, यद्यपि एही कार्यमे आब बहुत रास दासी पुत्रसभ सेहो लागि गेल अछि,लागि रहल अछि। सभ सँ आवश्यक भ'गेल अछि,लवण ।
पहिने आर्य लवणक व्यवहार नहि करैत छलाह,शनैः-शनैः एकर व्यवहार बहुत बढि गेल, आब ई भेजनक अति आवश्यक अंग भ' गेल अछि , एकरो आपूर्ति वैह करैत अछि, ओ तँ आर्य सभक लेल बहुत आवश्यक भ' गेल अछि । आ तें ओकरा ने सब अनावश्यक मारल जाइत अछि आ ने भगाओल जीत अछि ।'
-'आ ई उपद्रव? धेनुहरण?'
-ई तँ यदाकदा होइत अछि,जकरा लेल ओकरा दण्ड देल जाइत अछि ।
इहो बंद भ' जायत,प्रश्न अछि ओकरा मिलाक'रखबाक। ओकरा सभकें ई विश्वास भ' जयबाक चाही जे आर्य ओकर शत्रु नहि ,मित्र छथि।'
-'ई कोना संभव अछि ?' महर्षि श्रुतिधृति पुछ्लनि ।
- ई तँ मिली-जुलकें रहले सँ हित भगवन… आर्योंसभके ओकर हितक बात सोचे पड़तनि,तखने हैत ।'
-'की हित ?'
-'ओकर सभक सुविधाक बात।'
-'कोन सुविधाक बात? आर्यसभ ओकर दासत्व स्वीकार क'लैथि ?'
-क्षमादान भगवन ! हमर ई आशय नहि छल ... आ ई संभवो नहीं अछि।'
-'तखन?'
-'जेना,आर्य ग्रामंचालमे ओकरा गृह-निर्माणक आ अपना लेल स्वतंत्र रूपसँ कृषिक अधिकार भेटय ।'
-'अर्थात समानताक अधिकार ? ई कोन संभव-छैक ? आर्यग्राममे अनार्य कोन घर बना सकैत अछि ? अपना लेल कृषि कराय लागत तँ फेर आर्य सभक लेल के करैत?' हठात महर्षि ऋतुर्वित बाजि उठलाह ।
-'क्षमा दान महर्षि श्रेष्ठ ! मंत्राक्ष कहलनि--किछु ने किछु तँ ऐना करहि पड़त ने जाहिसँ ओकरा सभकें हमरासभक मित्रता पर शंका नहीं रहय,तखने ने ओसभ हमरा लेल कार्य करत?तखने तँ शिल्पक वस्तु सब आपूर्ति करत ?'-एकरा लेल आवश्यक अछि जे ई दासी-पुत्र एहि सभ कार्य कें कराय आ आर्य सभक जीवनकें सुगम बनाबय ।'-ई दासी पुत्र सभ तँ मिश्रित-वर्णक अछि , जखन हम एकरा स्वीकार कइये रहल छी तँ फेर ओकरा सभकें स्वीकार करबामे की आपत्ति अछि ?' ओहो सभ तँ दासत्व स्वीकार कइये नें अछि ?'
-'दासी-पुत्रकें तँ विशःमें रहबाक अधिकार छैके,कृषि अधिकार सेहो छैक। किन्तु शुद्ध अनार्य अनासकें कोन स्वीकार कायल जा सकैत अछि ? ओ सभ तँ शिश्नदेवाः अछि ,अदेवयु अछि, अकर्मण्य अछि । ओकर कोन स्वीकार कायल जा सकैत अछि ?'
-'कियैक? ओकरा सभकें अपन परंपरा रखबाक अधिकाँ नहीं छैक ?
ओकरा ओ सभ कोन छोड़ी सकैत अछि ?'
'ओ सभ नहि छोड़ी अछि? महर्षि श्रुतिधृति पुछलनि --आ हमरा सभ अपन परंपरा छोरि ओकरा सभकें अपना ली?'
- ई तँ कहियो ने कहियो कराही पड़त ,कियैक तँ ओकर सभक संख्यों अधिक अछि ; अपितु ओ सभ हमरा सभक लेल अनिवार्यो बनल जा रहल अछि , किन्तु ई तँ भविष्यक बात थिक ,एखन तँ ओकरा सभकें मात्र विश्वास दिअयबाक अछि जे हमहुँसभ ओकर मित्र थिकहुं, आ मित्रताक संगहि मिली-जुलिकें रहे चाहैत छी । चाहैत छही ओहो सभ,आ तें ओ सभ भागल नहि ,आ ने युद्धे केलक । अपितु हमरा सभक लेल उपयोगी-उपभोग्य वास्तु सब एकत्र करैत रहल ।'
- ई तँ अपन लाभक लेल?'
-'लाभ भानहि ओकर सभक होइत हो… किन्तु हमरो सभक तँ भ' रहल अछि?'
-'वत्स मंत्राक्ष-महिर्षि अरिष्टनेमि पुनः हँसलाह अहाँक धारणा अछि अछि जे मिश्रण अवश्यम्भावी अछि ?'
-'धृष्टताक लेल क्षमायाचना अछि भगवन । मंत्राक्ष विनीत भावसँ कहलनि -हमर ताँ एहने धारणा अछि महर्षि वरेण्य ।'
-एम्हरुका बात तँ अहाँ सभ जानी, आर्य परम्पराक रक्षा करव तँ मूल धर्म थिक ।
किन्तु ओम्हर एहन मिश्रण सम्भव नहि अछि ...।' महर्षि अरिष्टनेमी केह्लनि ।
-'ओम्हर मिश्रण तत्काल संभवो नहि अछि भगवन !' -मंत्राक्ष उतर देलानी ।
-'कियेक ?'
-'एहि लेल जे ओम्हर कृषिक अपेक्षा एखनो पशुपालन आखेटे पर अधिक ध्यान देल जाइत अछि; लोकसभ चर्म धारण करैत अछि अधिक; मिश्रणक प्रशने नहि अछि; मिश्रणक सभटा परिस्तिथि प्रस्तुत अछि स्थितिये परिस्थितिक निर्माण करैत अछि । आ स्थितिक नियंत्रण करैत अछि देश आ काल ...। '
-'देशो-कालक नियन्ता तँ मनुष्ये थिक ।'
-'मनुष्य तँ सर्वोपरि अछिए भगवन !'
-'एही लेल ने मनुष्यकें एही सब बात पर धयान रखबाके चाही ?'
-महिर्षि अरिष्टनेमि केह्लनि -'हमरा सभक यात्रोक तँ सैह उद्देश्य अछि ...मिश्रणक करणे भाषामे सेहो मिश्रण आबि गेल अछि, वितस्ता तटक बादसँ एम्हर मिश्रण बढ़ले जा रहल अछि, किन्तु एहि पर तँ ध्यान रखबाके अछि !'
-'अपराध क्षमा हो भगवन! मंत्राक्ष कहलनि -'महर्षि वरेण्य संभव बिसिर रहल छथि ,चारि -पांच हिमवर्ष पूर्वहि महर्षिक दर्शन करबाक सौभाग्य हमरा प्राप्त भेल अछि,ओतहि सुवास्तु तट पर…।'
-'ओह तँ अहाँ वैह थिकहुँ ? ओहि समय तँ संभव कृष्ण श्मश्रुले छलहुँ?
...अहाँ तँ शब्द पर्यायक सन्धानमे छलहुँ ने निघंटुक लेल?'
-'भगवन महर्षि वरेण्यक अनुमान सत्य अछि । मंत्राक्ष कहलनि -'ओ हमहीं छलहुँ ।'
-हमरो शंका भेल छल । कुम तटवासी महर्षि श्रुतिधृति कहलनि -'हमरों सँ भेंट कयने रहि ।'
'श्मश्रु नहि रहलाक कारण़े ई शंका भेल भगवन । एम्हर किछु लोक कटाब' सेहो लागल अछि,हमहुँ राजकुमार असंगक आग्रह पर कटा ललहुं ।' मंत्राक्ष लज्जित होइत बजलाह । -हँ,एम्हर ई परम्परा चलि रहल अछि । बेस तँ वत्स। अहाँक कार्य तँ बहुत महान अछि । एहि मिश्रण सा हमसभक बहुत रास शब्द छूटल जा रहल अछि आ ओहि स्थान पर नव-नव आबैत जा रहल अछि । निंघटुक की प्रगति अछि ? महर्षि श्रुतिधृति कहलनि ।
-'ओहि बेर तँ हम एही क्रममे हेल्मंदो तट धरि गेल रही, क्रुमु आ गोमती तट भ' क' घूरल रही । बहुत संग्रह भ' गेल अछि । ओकरा कंठस्थ करबाक लेल एकटा शिष्यों भेटि गेल अछि; हुनका कंटस्थ करबा रहल छी ...हमरा पर तँ देवक कोप अछि; कतेक मेधा-यज्ञ कयलहुँ; मंत्र कंठगत रहिए नहि पबैत अछि।'
ई कहि मंत्राक्ष विहुँसलाह । ओहि मुस्कानमे निश्चये अपराध-बोध आ पश्चातापक भावना छल । ओ माथ झुका लेलनि ।
यज्ञ-कुंडक ओहि मद्धिम प्रकाशमे सभगोटे ई देखलक ।
ऋषिश्वाकें नीक लागल मंत्राक्ष ।
शाशवती ऋजिश्वा दिस तकलक ।
ऋषिग्रामक लोककें जेना मंत्राक्षक एकटा नव परिचय भेटि रहल छलै आइ ।
आइधरिक परिचय एकटा निरर्थक व्यक्तिक परिचय छल । जे ने श्रुति अभ्यासे क' सकल आ ने नियमित यज्ञे करैत छथि ।
शैशवकाल सँ ओ एकटा उच्छरिङ्खल रुपमे परिचित रहल छथि । शैशवकालमे एक भयंकर दुर्भिक्षमे जनक आ जननीसँ अनाथ भ' गेलाह, आ तहिये सँ भटकय लगलाह । श्रुति-अभ्यासमे बैसि नहि सकलाह गुरुकुलमे । बैसबो कयल तँ स्मरण नहि रहैत छलनि । भागि-भागि जाइत छलाह ।
भगबाक अभ्यास बनि गेलनि । भागिते रहलाह । अपितु, जखन कखनो गुरुकुलक अन्य ब्रह्मचारी बटुकलोकनि मंत्र-अभ्यासमे लागल रहैत छल, ई निकट आबि अथवा दुरे सँ सामक गायन क, बैसैत छलाह । बटुक लोकनिकें अनाध्याय क' देब' पडै परम्परानुसार । ऋषिसभक क्रुद्ध भेले पर भगैत छलाह ।
' ऋषिसभक धारणा कहियो हुनका प्रति नीक नहि रहल । हुनक प्रशंसा सप्तसैन्धवक महिर्षिलोकनिक मुख सँ सुनिक' सभ चकित रहि गेलाह ।
चकित रहि गेल जे भागितो-भागितो ई एकटा महत्वपूर्ण कार्यमे लागल रहलाह, जाहि दिस हुनकासभक ध्यान नहि छल ।
-'अहाँक ओहि यात्राक बादे सँ ओम्हरो निघंटुक कार्य आरंभ भेल अछि ....अहाँ तँ वत्स, बहुत पैघ सेवा आर्यसभक कयलहुँ अछि, ई तँ महान कार्य अछि । अहाँ तँ अगस्त्य-ऋषिक परम्परामे छी ...।'
सुवास्तु तटवासी वयोवृद्ध महर्षि अरिष्टनेमि प्रसन्न भाव भाव सँ कहलनि ।
मंत्राक्षक एहिसँ पैघ प्रशंसा आरो की भ' सकैत अछि । आ सेहो महर्षि अरिष्टनेमि सन महान महर्षिक मुख सँ । ऋषिग्रामक सभ चकित रहि गेल । मंत्राक्ष महान कार्यमे लागल रहलाह एखनधरि, मात्र आर्य-कार्यमे दत्तचित्त,निरर्थक व्यक्ति मात्र नहि ।
ऋषिग्रामक समस्त ऋषि-महर्षिलोकनिक दृष्टि बदलि गेल मंत्राक्ष प्रति ।
ऋजिश्वा महान गौरवक अनुभव केलक । विहुँसलि आ ताकि देलक मंत्राक्ष दिस । मंत्राक्ष अग्नि-कुण्ड दिस ताकि रहल छलाह निर्विकार भावें ।
ऋषिग्रामक समस्त जनकें प्रसन्नता भेलनि । शाश्वती सेहो ध्यानसँ मंत्राक्षे तकलाक ।
-ई त' -मंत्राक्ष विनय भावें बजलाह--महर्षि वरेण्यक महानता थिक जे एक नगण्यक एतेक विशिष्ट प्रशंसा कायल गेल अछि । हम तँ एकरा आशिर्वादहिक रूपमें स्वीकार करब।'
तखनहि प्रसिद्ध पाकशास्त्री वशिष्ठ भासुर प्रकट भेलाह आ ओ पृषदक प्रस्तुत होयबाक सूचना देलनि ।
भोजनक व्यवस्था आरम्भ भ' गेलैक ।
रात्रि सघन भ' गेल छलैक ।
शास्वती आओर ऋजिश्वा भोजनोपरांत गृहाग्निकुंडक सन्निकट बैसि सोमाश्व मंत्राक्ष प्रतीक्षा क' रहल छलि ।
'सोमाश्व मंत्राक्ष एहन महान काजमे लागल छथि,ई तँ एहि सँ पूर्व ज्ञाते नहि छल… ।' शास्वती बजलि ।
--हमरहु ज्ञात नहि छल,हमहुँ चकित रहि गेलहुँ ।--ऋजिश्वा बाजलि ।
'हमहुँ एखानधरि उच्रिङ्खल मानैत रहियनि । हमर तँ धारणे बदलि गेल ।'
ता मंत्राक्ष आबि गेलाह।
शास्वती उठलि आ गृहग्निकुंड लग एकटा कुशासन आनि राखि देलनि ।
-एकर कोण आवश्यकता छल, हम स्वयं ल'अनितहुँ ,ई आदर-भाव,भगवतीक अतिरिक्त कृपा थिक ।'
मंत्राक्ष ई कहि बैसि गेलाह।
-'मनुष्य कखनहुँ हीन नहि भ' सकैछ'-शास्वती कहलनि गम्भीर भावें ।
-'सभ,सामान रूप सँ एकहि कार्यकें सामान प्रतिभाक संग संपन्न नहि क'सकैत अछि ... ऋषि-पुत्र जाहि कार्यक सम्पादन कयलनि अछि ,ओ श्रुति तथा आर्यक,दुनूक महान सेवा थिक , एही लेल सर्वदा स्मरण कायल जयताह…।' शास्वती कहलनि । ऋजिश्वाकें नीक लगलनि।
-'एही प्रशंसाभावक लेल सर्वदा हम कृतज्ञ रहब… भगवती संभवतः हमर स्मरण कयने छलीह ।' मंत्राक्ष शास्वती दिस तकलनि ।
शास्वती असमंजसमें पड़ि गेलि । ओ ऋजिस्वा दिस तकलक ।
अग्निकुंड सँ प्रकाश-रेखा बहार भ' क' समस्त गृहकें आलोकित क'रहल छल । मात्र मंत्रा,अन्धकार में बौआइत छलाह ।
शास्वती मंत्राक्ष क'बौआब नहि देलक । किछु सोचि बाजलि-दृषद्वीतिक पार सुनलहुँ कृष्णादिक उपद्रव बढि गेल अछि ?'
-'बहुत बाढि गेल अछि । एही लेल राजकुमार असंग बहुत चिंतित छथि
-'चिंतित छथि ? किएक ?' -अकस्मात् दुनु चौकीं उठलि । -'हुनक चिंताक बहुत रास कारण छै,एक तँ राज वितिहोत्री निष्क्रमणमे कत ' चल गेलाह,ई ज्ञात नहि भ' रहल अछि,दोसर,ई ज्ञात नहि भ' रहल अछि ई राज्यच्युति एक षड्यंत्रस सँ सम्भद्ध अछि ...।'
-'षड्यंत्र ?'
-हँ,पूर्वक पुरुजन जे सभ मिलि एक दिन कुरु बनल छलाह ,ओ फेरसँ अपन भिन्न अश्तिवक घोषणा कर'चाहैत छथि,राजकुमार सबसँ पहिने एकरहि शांत करबामे लागल छथि,फेर गविश्ठी युद्धक लेल यमुना पर आक्रमण कर'चाहैत छथि आओर एक चिंताक विषय थिक,राज वितिहोत्रक सन्धान…।'
-'ई निश्चित भ' गेल जे धेनुहरणक कार्य यमुना तटक दस्यु सभ कयने छल ?'
-'धेनुहरण तँ ठीक-ठीक ओ नहि कयने छल ,मुदा धेनु सभ प्रायः ओहि ठाम पहुँची गेल एम्हर किछु ज्ञात भेल, इहो ओहि पुरुलोकनिक कार्य अछि ...।'
-'पुरूलोकनिक ?'
-'आब तँ आर्य प्रायः आर्यक धेनुहरण नहि करैत छथि?' शाश्वती पुछलनि ।
-' इहो एकटा कुचक्रे थिक,एहिमे राजकुमार अतिव्यस्त छथि,यैह कारण थिक जे ओ आइ आबि नहि सकलाह । महर्षि महानुभावक दर्शन करबाक हेतु काल्हि आओताह ।'
मंत्राक्ष उत्तर देलनि आओर शाश्वती दिस तकलनि। हुनका एहि उत्सुकताक तत्काल कोनो अर्थ नहि लगलनि । आ जे लगलनि ताहिसँ प्रसन्नते भेलनि। ओ आई धरि शाश्वातिकें कोनो पुरुषमे कोनो उत्सुकता नहि देखने छलाह आ ओहो राजकुमारक प्रति। आ यैह ओ एम्हर कीछु दिनसँ चाहितो छलाह । ओ मनही-मन दुनूक विवाहक लेल उत्सुक छलाह । शाश्वती अगिला प्रश्न सँ आओर प्रसन्नता भेलनि । मानक एक शंका बहार भ' गेलनि ।
हुनका भ' रहल छलनि जे शाश्वतिक अनुराग भ'सकैत अछि, संग-संग श्रुति अभ्यासक कारणे,वितिहोत्रक प्रति हो ।
-'एकर ई अर्थ भेलैक जे राजकुमार आइ -काल्हि बहुत व्यस्तो छथि आ चिंतितो… ।
-'भगवतीक अनुमान सत्य छनि ।'
-दृषद्वीक कर्मातक आस-पास तँ उपद्रव नहि अछि ?'शाश्वती शंका व्यक्त कयलनि ।
-'नहि भगवती,उपद्रव आओर दक्षिण,यमुना दिस अछि ।'
मंत्राक्षे शाश्वातीक प्रश्न आ चिंता नीक लगलनि । इ चिंता निश्चित रुपें असंगेक प्रति अछि ।
मंत्राक्ष बजलाह-'राजकुमार अवश्ये सभ संकट सँ बहार भ' अओताह,हमहुँ छी आओर सेनानी आटव्यसेहो छथि ... एहि लेल अतिसीघ्रता सँ राजकुमार सभ्य आ समितेयलोकनि सँ सहमति-संग्रह लागल छथि जहि सँ शीघ्रही अभिषेक संपन्न भ'जाइ तखनहि प्रत्यक्ष रूपसँ किछु क'सकैत छथि।
-'एकर अर्थ भेल जे अभिषेक शीघ्रही होयत?'
-'अतिशीघ्र ...काल्हि प्रायः एकरहु निर्णय भइये जयतैक ।'
-'अभिषेकक अवसर पर तँ राज वीतिहोत्र नहि उपस्थित भ' सकताह?'-अंतमे शाश्वती पूछी बैसलि ।
मुदा मंत्राक्ष एहि प्रश्नक सीधा अर्थ लेलनि जे समस्त परिवारकें एहि अवसर पर उपस्थित रहबाक चाही ।
-संधानमे गेल अछि चर,भ'सकैत अछि हमहुँ जाइ…।
-'अहूँ ?'
-'भ' सकैत अछि ...भगवती निश्चिन्त रहथि । राजकुमार असंगक किछुओ अशुभ नहि होयतनि । प्रायः हुनकहि आशीर्वाद देबाक हेतु एखन सप्त्सैन्धवक वरेण्य महर्षिगण उपस्थित भेल छथि । हुनक प्रबल इच्छा छनि जे…।
-'की इच्छा छनि ?'
- जे अभिषेक अवसर पर निष्काषित राज वीतिहोत्र सेहो रहथि आ ओहो पूर्व प्रथा अनुसार मुख्य पुरोहितक रुपमे ।'
-'किन्तु आब तँ ई प्रथा प्रायः बदलि गेल जे कुलपे सेहो मुख्य पुरोहित होथि ?'
-'बदलि गेल अछि,किन्तु राजकुमार असंग चाहैत छथि जे वितिहोत्रकें उपस्थित भेल पर सवर्प्रथम तँ ओ पुनः एकबेर चेष्टा करताह जे समिति अपन निर्णय घुरा लैक आ रजा वितिहोत्रक अभिषेक भ' जाइक ...।
-'की ई संभव छैक ।'
-'कखनहुँ कखनहु संभव होइत छैक ।' जँ संभव नहि भेल तँ मुख्य पुरोहित तँ पूर्व परम्परानुसार भइये सकैत छथि ।
-'एहि सँ लाभ ?'
शाश्वती पुछलनि । मंत्राक्ष हुनका दिस तकलनि। बजलाह-'एना भेल पर सर्व समर्थन तँ भइये जायत,एकरा अतिरिक्त राजकुमार असंगाक मनमें राज वितिहोत्रक प्रति अनुराग छनि,आ चाहैत छथि जे राज वैह रहथि आ ओ हुनक नेतृत्वमे गविष्ठी युद्ध करथि एवं यमुना तटक दस्यु सभ पर आक्रमण क' दास बना लेथि ।
राजा बनबाक लोभ हुनका मनमे नहि छनि,लोभ गविश्ठी युद्धक आ दास बनयबाक,कुरु जन्पदक विस्तारक।'
-'ई तँ महान उद्देश्य छनि हुनक।' शाश्वती कहलनि ।
मंत्राक्षकेँ जेना अवसर प्राप्त भ' गेल होनि, कहलनि -'हुनक तीनू टा उद्देश्य महान छनि…।'
-'तीनू ?'
-प्रथम तँ गविश्ठी-युद्ध कए दस्यु सभसँ धेनुहरणक बदला लेब दोसर,दस्यु सभकें दास बना क'आर्य लोकनिक लेल कृषि एवं शिल्प-विकासक मार्गकें प्रशस्त करब। आ तेसर,यमुना धरि कुरु जनपदक विस्तार करब । राजकुमार तँ असाधारण रूप सँ महान छथि,सबसँ पैघ बात तँ ई अछि जे हुनका दण्ड लोभ नहि छनि… एखनहुँ,सभ्यलोकनि आ समितेयलोकनिककें एहि बातकें मनाब 'में लागल छथि जे आतंरिक कुचक्रक करणहि राज वीतिहोत्र गविश्ठी नहि क' सकलाह,ओ सर्वथा निर्दोष छथि,अतः समिति राज्य्चुति आओर निष्कासनक आदेश घुरा क' पुनः हुनकहि अभिषेक करथि आओर एही लेल एतेक तत्परता सँ हुनका ताकल जाइत छनि…।
मंत्राक्ष एकदममें बाजि शाश्वती दिस प्रतिक्रया बुझबाक हेतु तकलनि । हुनका अनुकूल लगलनि । मंत्राक्ष विदा लेल आ चल गेलाह ।
शाश्वतिक दृष्टि अग्नि-कुंडक ज्योति-शिखा पर छल अवश्य मुदा जेन ओ किछु देखिये नहि रहलि हो ।
ओ देखि रहलि छलि ओहि संध्याकें,जहि दिन प्रथम प्रथम ओ असंगाक हाथकें झटकि देने छलि आओर भागि आयलि छलि । स्मरण अबैत छलनि ओ याचना भरल दृष्टि,जाहिमे पौरुषक महान उतप्त आकांक्षा ताकि रहल छल
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