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        • ।।बुढबा नेता ।।
        • ।।बेबस जोगी ।।
        • ।।घर ।।
        • ।।कः कालः।।
        • ।।स्त्रीक दुनिञा।।
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        • ।।जाति-धरम के गीत।।
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        • ।।मदना मायक गीत।।
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        • ।।प्रलय-रहस्य।।
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        • ।।बुद्धक दुख॥
        • ।।गिद्धक पक्ष मे एकटा कविता।।
        • ।।विद्यापतिक डीह पर।।
        • ।।पंचवटी।।
        • ।।घरबे।।
        • ।।रंग।।
        • ।।संभावना।।
        • ।।सिपाही देखैए आमक गाछ।।
        • ।।जै ठां भेटए अहार ।।
        • ।।ककरा लेल लिखै छी ॥
        • ।।स्त्रीक दुनिञा।।
        • ।।घर ।।
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मेरे सीताराम(मैथिली कहानी)

जीप अगर बैलून-जैसी कोई चीज हुई होती, तो इतने लोगों के कसमा-कस में फूलकर कुप्पा हो जाती। लेकिन, इस निर्जीव यंत्र को कोई पीडा, कोई तकलीफ नहीं थी। तकलीफ थी जीप में बैठे लोगों को। कोई हिल-डुल तक नहीं सकता था। टांग सीधी करने के लिए कोई चिचिया रहा था। किसी की पीठ निश्चेष्ट हुई जा रही थी। कोई सिर सीधा होने देने के लिए बाजूवाले की मिन्नत कर रहा था। जीप में जो एक औरत बैठी थी, उसकी गोद का बच्चा रो-रोकर बेदम हुआ जा रहा था।

पढे-लिखे एक नौजबान ने अपना आक्रोश व्यक्त किया–’साला ई बिहार सब दिन बिहारे रह गया।’ सेठ-जैसे दीखते एक बाबू ने अपना विचार प्रकट किया–’ई सब इस लाइने का महिमा है। साला करें भी तो क्या करें?’  गाडी में बैठे एक बंगाली बाबू ने दायें-बायें देखकर मन की बात रखी–’ई सब अगर हमारा इस्टेट में होता तो भीषोण हो जाता, भीषोण।’ जीप में ही एक तरफ मुचडे-सिकुडे बैठे थे एक सन्त जी। सबकी बात सुन लेने के बाद वह बोले–’सीताराम सीताराम’।

सन्त जी बडी विपन्न दशा में थे। उन्होंने खद्दर की एक पुरानी बेडौल कमीज पहन रखी थी। कमीज के ऊपर एक पतली-सी चिक्कट मैली चादर ओढ रखी थी। मौसम बहुत सर्द था। ऐसा जाडा बरसों बाद पडा था। तीन दिन से धूप नहीं उगी थी। कलेजा चीड देने वाली ठण्डी हवा बह रही थी और कुहासे की वजह से रास्ता नहीं सूझता था।

सन्त जी  जब बोले–सीताराम सीताराम– तो मेरी निगाह उनकी तरफ गई। उनकी उमर पचास-पचपन की रही होगी। ज्यादातर बाल पक चुके थे। बडी-बडी बेतरतीब दाढी थी। उनके ललाट के चंदन-तिलक ने और उनकी आखों से टपकती निर्लिप्तता ने मुझे उनकी ओर खींचा।

सन्त जी जब फिर से बोले–सीताराम सीताराम–तो जाने क्या सूझा मुझे कि मुस्कुराने लगा। भई, यह तो जयश्रीराम का जमाना है, ये सन्त जी तो जमाने से पीछे चल रहे हैं। मुझे मजाक सूझा कि पूछूं–बाबा, अयोध्या-विजय नहीं करनी है कि सीताराम-सीताराम रटते हो? सीता को साथ लेकर चले राम, तब तो मिल गई विजय। सीता को गोली मारो बाबा, जयश्रीराम जपो।

लेकिन सन्त जी की आवाज मे अथाह दर्द भरा महसूस होता था। ‘सी’ से लेकर ‘म’ तक, मुझे लगा जैसे उनके खुद के जीवन का कोई कारुणिक महाकाव्य हो। सन्त जी का सूखा चेहरा, सरदी से काठ हो रही देह और उदास-फटेहाल आंखें जैसे उस महाकाव्य के विभिन्न अध्याय हों और मूर्तिमान हो उठे हों। मुझे अपना सवाल बेमानी लगा और ग्लानि हुई।

एक पैसेंजर चिल्लाया–’हो मरदे ड्राइवर साहेब, अभियो गाडी खोलिएगा कि नहीं? हमलोग बेमौत मर रहे हैं।’

सवाल के जवाब में ड्राइवर ने एक मुस्टंड नौजवान से कहा–’रे मुसना, चल बुक कर।’ हुक्म सुनकर मुसना वहीं से चिल्लाया–जयश्रीराम।

मुसना पास आया। सारे लोगों से वह किराये के पैसे वसूलने लगा। उसने चिल्लाकर कहा–’सब कोइ खुदरा पैसा निकाल कर दीजिए।‘ मैंने हिटलर की आवाज नहीं सुनी है। लेकिन एक मोटा अनुमान है कि उसकी तरह की सोच का आदमी किस तरह हुक्म देता होगा। मुसना की चिल्लाहट सुनकर मुझे हिटलर याद आया। मुझे लगा कि अपनी-अपनी   जिन्दगी की चाहे गाडी की खलासीगिरी करता हुआ हर आदमी कहीं-न-कहीं हिटलर ही हो जाना चाहता है।

अब यह तो संभव था नहीं कि गाडी मे बैठे हर आदमी के पास जरूरत के मुताबिक खुल्ले पैसे होते। मुसना बमकता रहा। लोग चुप रहकर, हें-हें हिहियाकर, अगल-बगल झांककर अपनी-अपनी इज्जत बचाते रहे।

लोग बहुत तकलीफ में थे। जेब से पैसे निकालने के सिलसिले में जो उकस-पाकस शुरू हुई, उससे लोगों की तकलीफ और बढ गई। लेकिन, वे लाचार थे। हर हाल में उन्हें इसी गाडी से या इसी हालात में किसी दूसरी गाडी से सफर करना था।

बिहार सरकार का एक सिपाही मुसना की तरफ खी-खी हंसता हुआ बोला–’हो भैबा, पैसा तो हमरा भीतरका बटुआ में है। चलिए, आगे दे देंगे। कोइ दिक्कतो?’

–’जयश्रीराम हजूर। कोइ दिक्कत नहीं है। आप बैठिए।’–मुसना भी हंसने लगा। उसकी वह हंसी देखकर  बंगाली बाबू आंख मिचमिचाने लगे। तोंदवाले बाबू साहब दूसरी ओर देखने लगे। जीन्सवाला नौजबान दांत पीसने लगा। पर, सन्त जी बोले–’सीताराम सीताराम’।

मुसना की हंसी का ही असर हो सकता है कि औरत की गोद का बच्चा जो अबतक चुप हो चुका था, फिर रोने लगा। बच्चा इतनी जोर से चिल्लाया कि सबका ध्यान उसकी ओर चला गया। मुसना का भी। वह ड्राइवर पर चिल्लाया–’कह देते हैं गुरुजी, बच्चावाली औरतिया सब को गाडी में मत बैठाया कीजिए।’

दायीं तरफ की सीट पर एक अथबल वृद्ध बैठे थे। काफी देर से वह छटपट कर रहे थे। इस छटपटाहट का तब अर्थ लगा, जब मुसना ने उनसे किराया मांगा, और उन्होंने दीनतापूर्वक पांच का एक नोट मुसना की तरफ बढाते हुए कहा–’हो बाबू, मेरा पाकेटमारी हो गया है। इतनेइ पैसा साथ में है। ले लीजिए।’

मुसना गरजकर बोला–’हम क्या खरांत बांटते हैं बूढा। पाकेटमारी हो गया तो शान से गाडी पर आकर बैठा काहे? बाप का गाडी है?’

वह वृद्ध जरूर किसी दुर्दिन में फॅसे रहे होंगे। सबने देखा कि मुसना की डांट सुनकर वह रोने लगे। उनकी दोनों आंखें डबडबा आईं और बूंद-बूंद आंसू चूने लगे।

मुसना फिर चिल्लाया–’रोने-पादने से कुछ होनेबाला नहीं है। पैसा नहीं है तो गाडी खाली करो।’

इसी बीच वहां ड्राइवर आया और समझौता हो गया। समझौते के अनुसार उस अथबल वृद्ध को गाडी की सीट खाली करनी पडी और उस भयंकर सरदी में जीप की छत पर उन्हें बैठा दिया गया।

एकाध पैसेंजर से अभी किराया लेना बाकी ही था कि बस-स्टैण्ड के एक किनारे से किसी ने मुसना को पुकारा–’रे मुसना, दौडकर आ जा रे। माल खतम हो रहा है।’

मुसना उस तरफ दौड पडा। लोग सांसत में पडे रहे। औरत की गोद का बच्चा अब चुप हो गया था। सन्त जी सिर झुकाकर किसी चिन्ता-विचार में लगे थे। उनकी सोच में अब भी शायद सीताराम ही रहे होंगे।

गांजा के नशे में झूमता हुआ मुसना लौटा तो बहुत खुश था। बाकी बचे मुसाफिरों से  उसने बगैर मुंह खोले हाथ बढाकर पैसा मांगा। एक आदमी ने पैसा दे दिया। अब सन्त जी की बारी थी। सन्त जी बोले–’हो सीताराम, चलिए। आगे चलिए। हम भी सिपाहिए जी के जरे पैसा दे देंगे।’

सन्त जी की बात पर मुसना चुप रह गया। उसने ड्राइवर से कहा–’गुरुजी, गाडी खोलिए।’

पांच-सात मुस्टंड खलासियों के जोरदार धक्के और जयश्रीराम के कोलाहल से गाडी खुल गई और धीरे-धीरे सरकने लगी। मुसना गाडी के पीछे लटक गया और चिल्लाकर बोला–’जयश्रीराम।’

जैसे-तैसे सरकती गाडी अपने गन्तव्य की तरफ विदा हुई। मुसाफिर दम साधे बैठे रहे और भव-सागर पार करने की मधुर कल्पना में अपनी तकलीफें भूले रहे।

पीछे लटका हुआ मुसना हर पांच-सात मिनट पर एक बार चिग्घाडता–’जयश्रीराम।’ कभी किसी गाडी को देखकर चिल्लाता, कभी सडक पार करती किसी लडकी को देखकर।

सात-आठ किलोमीटर का फासला गाडी ने तय किया होगा, जब मुसना को याद आया कि एक मुसाफिर से पैसा लेना बाकी है। पीछे लटके-लटके ही वह जरा-सा झुका और सन्त जी की तरफ हाथ बढाकर बोला–’बूढा, पैसा बढाइये।’

सन्त जी ने किराये के पैसे अपने हाथ मे निकाल रखे थे। बडे ही संकोच और दीनता के साथ उन्होंने पांच का एक नोट मुसना की ओर बढा दिया। मुसना बोला–’दो रुपया और निकालिए।’

सन्त जी बोले–’हो सीताराम, अब तो हमारे पास पैसा नहीं है।’

मुसना बोला–’पैसा नहीं है तो गाडी पर चढ काहे गया?’

सन्त जी चुप रह गए।

मुसना भी थोडी देर चुप रहा। फिर अचानक जैसे उसपर कोई दौरा पडा हो, वह शुरू हो गया–’ऐ दढियल, पैसा निकालो।’

सन्त जी फिर बोले–’हो सीताराम, अब चाहे आप जो कर लीजिए, पैसा तो हमरे पास नहीं है।’

मुसना बमक पडा—मादरचो.. बुढबा। हमको सिखाता है? पैसा निकालेगा कि नहीं?’  और उसने सन्त जी का हाथ दबोच लिया।

सन्त जी ने हाथ छुडाने की कोशिश की तो मुसना और भी ज्यादा उग्र हो गया। उसने सन्त जी की दाढी पकड ली और नोचने लगा। फिर उसने सन्त जी का कान पकड लिया और बेतरह खींचने लगा। सन्त जी ने फिर प्रतिवाद किया तो वह झापड और मुक्के से उन्हें पीटने लगा।

मेरे लिए अब बर्दाश्त के बाहर हो रहा था। बर्दाश्त न करना भले ही आत्म-बलिदान के बराबर हो, पर उसका मौका भी तो कभी-कभी आता ही है। वह मौका आ गया लगता था। दुखद यह था कि गाडी में बैठे तमाम लोग टुक-टुक तमाशा देख रहे थे और चुपचाप थे। हर किसी की बोलने की ताकत जैसे बिला गई थी।

मैंने अपने सख्त हाथों से मुसना की कलाई पकड ली और निर्दयतापूर्वक उसे मचोडने लगा। इधर मेरे मुंह से धारा-प्रवाह गालियां निकल रहीं थीं। मुसना चिल्लाया–’गुरुजी गाडी रोकिए।’

एक झटके के साथ गाडी रुक गई।ड्राइवर ने पूछा–’क्या बात है रे?’ यूं उसे भी घटना का कुछ-न-कुछ अनुमान रहा ही होगा।

ड्राइवर के सवाल का जवाब मुसना दे, इसके पहले ही मैं पूरे फर्राटे से बोलने लगा–’ई कौन तरीका है जी? पसिंजर को पैसा नहीं है तो उसको गाडी पर मत चढाबो, लेकिन उसको आप मारिएगा? जुलुम करते हैं आपलोग। देखिए, इस बेचारे सन्त जी को आपका खलासी कितना मार मारा है। अंधेर राज है, अंधेर राज।’

मुझे साफ लग रहा था कि अब ड्राइवर और खलासी दोनों मुझे पीटने लगेंगे। वे मुझे बेदम करके छोडेंगे। इस काम के लिए ये लोहे का रॉड रखे रहते हैं। तय था कि मेरी पिटाई होने लगे तो कोई भी मुझे नहीं बचाएगा। चूं शब्द तक कोई न बोलेगा। यही हमारी संस्कृति थी। मैं निपट अकेला था और बुरी तरह भयभीत भी। लेकिन यह भय ही जैसे मुझे ताकत दे रहा था।

–‘आप ही बताइए ड्राइवर साहब, ई कोनो तरीका हुआ?’–मैंने अपनी बात पूरी की। ड्राइवर ने आलाकमान की निगाह से एक बार मुझे देखा, फिर सन्त जी को, जो आतुर दृष्टि से उसी की तरफ ताक रहे थे। कहां क्या दिखाई पडा उसे, पता नहीं। उसने मुसना से कहा–पांच रुपया दिया है न? हो गया। छोड दो।’

और इस झगडे का असंभावित निपटारा हो गया। सन्त जी बहुत खुश हुए और सीताराम सीताराम रटने लगे।

लगभग एक घंटे बाद गाडी अपने गंतव्य स्थान पर पहुंची। सभी उतरे।

मैं सन्त जी के पास गया। वह अपनी चादर को कायदे से ओढ रहे थे।

मैंने पूछा–’बाबा, किस गांव जाइएगा?’

वह बोले–’लगे-पास में जाएंगे हो सीताराम। बासदेवपुर।’

मैंने उनसे कहा–बाबा, आपको तो ऊ खलसिया बहुत बेइज्जत किया। पैसा कम था तो पहले ही ड्राइवर को काहे नहीं कह दिए थे?

वह बोले–नहीं हो सीताराम, पैसा कम नहीं था।सात ठो रुपैया महजूद था। लेकिन बूढा बाबा को वैसा करते देखे तो हमरे मन में भी एकठो लोभ आ गया।’

मेरी उत्सुकता जगी कि यह कौन-सा लोभ हो सकता है। वह बोले–’आज कचहरी में तारीख था। भोर में विदा होने लगे तो पोता बहुत रोने लगा। कहने लगा कि बाजार से हमरे लिए सिलेट-पेंसिल लेते आइएगा। पढने वाला उमर हो गया है। बडा तेजगर है। सो, हो सीताराम, हम सोचे कि दू ठो रुपैया अगर बचा लेंगे तो पोतबा का सिलेट हो जाएगा।’

सन्त जी बहुत खुश हो गए। उनकी आंखों से निर्लिप्तता गल-गलकर बहने लगी।

मैंने एकबार फिर उनकी ओर देखा। वह बडे ही सुन्दर दीख रहे थे। सुन्दर और सन्तुष्ट।

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अनुवाद–तारानन्द

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