जाने क्यूँ
उदास चबूतरे पर
लटकाकर अपने पाँव
टटोलता हूँ
अपना वजूद अँधेरे में
कभी चुप्पी
कभी आवाज की देह पर
उग आती है
अधूरी करवटें
खोलता हूँ
सारी खिड़कियाँ
दरवाजे सारे
कोई बजती हुई साँसों से
धीरे धीरे
चलता है हर आहटों पर
नींद के टुकड़ों
को छुपाकर अपने भीतर
हँसता हूँ
अपनी बेबसी पर
जाने क्यूँ .........
लटकाकर अपने पाँव
टटोलता हूँ
अपना वजूद अँधेरे में
कभी चुप्पी
कभी आवाज की देह पर
उग आती है
अधूरी करवटें
खोलता हूँ
सारी खिड़कियाँ
दरवाजे सारे
कोई बजती हुई साँसों से
धीरे धीरे
चलता है हर आहटों पर
नींद के टुकड़ों
को छुपाकर अपने भीतर
हँसता हूँ
अपनी बेबसी पर
जाने क्यूँ .........