पिछले सप्ताह पश्चिम बंगाल के परिवहन मंत्री मदन मित्रा ने कोलकाता के पार्क स्ट्रीट में सैंतीस वर्षीय एक स्त्री के साथ हुये सामूहिक बलात्कार के संदर्भ में एक विवादास्पद बयान दिया। उन्होंने कहा कि- ''सैंतीस वर्षीय यह स्त्री जो कि लंबे समय से अपने पति से अलग रह रही थी और जिसके दो बच्चे भी हैं, आधी रात को क्लब में क्या कर रही थी?'' इसी दुर्भाग्यजनक घटना के संदर्भ में मुख्यमंत्री सुश्री ममता बैनर्जी ने भी यह कह कर तूफान खड़ा कर दिया कि बलात्कार की इस घटना के पीछे एक तरह की राजनीति है। कुल मिलाकर एक स्त्री जिसके जीवन के साथ खुलेआम खिलवाड़ किया गया उसके प्रति किसी तरह की संवेदना कहीं नार नहीं आई उल्टे अप्रसांगिक प्रश्ों की झड़ी लगा दी गई। यह तो उस स्त्री के साहस की प्रशंसा करनी होगी कि उसने सामने आकर प्रेस और पुलिस को बयान दिये जिससे कि अगली कानूनी लड़ाई का रास्ता साफ हुआ। इसी तरह छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी और पांच पुत्रियों की हत्या इस कारण कर दी कि उसे अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह हो गया था। दोनों ही मामलों की अभी तंफतीश की जा रही है और अंतिम निर्णय आना अभी बाकी है पर दोनों में ही 'स्त्री' को लक्ष्य बनाया गया है।
दरअसल, हमारे मध्यवर्गीय समाज को कुछ स्थूल और जड़ मान्यताओं के बीच जीने की आदत है। त्रासदी यह है कि उसके मन में इस स्थिति के लिये किसी तरह का पश्चाताप नहीं है या उसे बदलने की इच्छा नहीं है। विशेषत: नैतिकता के प्रश् को लेकर एक तरह के भ्रम को पाल कर रखने के लिए वह अभिशप्त है। नैतिक अथवा अनैतिक दोनों का भ्रम मूलत: स्त्री-पुरुष संबंधों के इर्द-गिर्द बुना गया है। यह भ्रम भी समाज में स्त्री की संपूर्ण उपस्थिति को लेकर नहीं है बल्कि उसकी देह के लिये ज्यादा है। नैतिकता और अनैतिकता और शालीनता या अश्लीलता के सारे प्रश् स्त्री की देह पर ही टिके हैं। यह त्रासद भी है और हास्यास्पद भी। पता नहीं स्त्री अपनी देह में ऐसा क्या लेकर जन्म लेती है कि उसकी देह के सामने उसका मन और उस की संवेदना और उसकी आत्मा से जुड़े सारे सवाल बौने हो जाते हैं और हमारा समाज, जिसमें कई बार स्त्रियां स्वयं भी शामिल होती हैं, केवल उस की देह के लिये कड़े उसूल तय कर देता है, जिनका अतिक्रमण या जिनकी सीमाएं शालीनता और अश्लीलता के मापदंड बन जाते हैं। इस पूरे गणित में हर जगह स्त्री को वस्तु में रूपांतरित कर दिया जाता है। हमारे धर्मग्रंथ भी यही सिखाते आए हैं कि पराई स्त्री को स्पर्श मत करो, युध्द में जीती गई स्त्रियों को बराबर-बराबर बांट दो, स्त्रियों को तलाक ऐसे नहीं, वैसे दो, जिस स्त्री की कोंख से बच्चा न हो वह डायन होती है इसलिए दूसरी स्त्री से अपना वंश चलाओ, वगैरह-वगैरह। यानि कि जो भी निर्णय लेना है पुरुष को ही लेना है, स्त्री को कुछ नहीं करना सिवाय पुरुष द्वारा लिये गये निर्णय का अनुसरण करने के। यह एक तरफा है। एक दृष्टि में यह विचार ही अपने आप में अश्लील है। इस बात को और अधिक गहराई से समझने के लिए हमें नैतिकता और सृजनात्मकता के अंर्तसंबंधों की खोज करनी पड़ेगी। वैसे साहित्य में यह मुद्दा नया नहीं है। इस पर सार्थक बहस भी हुई है। स्त्री को शताब्दियों से पर्दे में रखने और उसकी सहज मानवीय अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाये रखने के चलते स्त्री की एक आंख भी घूरती हुई दिखाई दे जाती है तो भद्रजन असहज हो उठते हैं। उन्हें लगता है कि जैसे वे नंगे हो रहे हैं। भीतर के भय से मुक्ति पाने के लिये वे स्त्री की आंख को ही अश्लील घोषित कर देते हैं। पश्चिम बंगाल के मंत्री महोदय ने यह काम किया है। उनके प्रश् ही अपने आप में अश्लील हैं। याें यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसी भद्र समाज में जिसमें कि स्त्री और पुरुष दोनों शामिल हैं, उन्हें बड़ा-बड़ा वर्ग अपने समर्थन में भी मिल जायेगा। मामले की पूरी तरह से छानबीन किये बिना यह सवाल उठा देना कि - ''सैंतीस वर्षीय वह स्त्री वहां क्यों थी, जहां उसके साथ बलात्कार किया गया,'' अपने आप में एक अपराध है। हर समाज के अपने जीवन-मूल्य होते हैं, अपनी नैतिकता होती है। महाराष्ट्र के विदर्भ में दलित समाज की अपनी नैतिकता है और उत्तराखंड में चकराता के आदिम समाज की अपनी एक पारंपरिक जीवन शैली है। हमारे शहरी कथित आधुनिक समाज की जीवन-शैली इनके साथ मेल नहीं खाती तो इसका अर्थ यह नहीं है कि शहर अधिक श्लील है, या नैतिक है या आधुनिक और न ही इसका अर्थ यह है कि मध्य भारत का आदिवासी समाज जिसकी उपस्थिति हमारे साहित्य में या पत्रकारिता में न के बराबर है उसकी नैतिकता कहीं गौण हो गई है। आदिवासी हमारे समाचारों में आते हैं तो दीगर कारणों से-धर्म-परिवर्तन की खबरों के साथ, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शो-पीस या विकास की दौड़ में कथित रूप से पिछड़ेपन के नाम पर। आदिवासी स्त्री को हमारे शहरी मध्यमवर्ग ने कभी सम्मान के साथ नहीं देखा बल्कि अपनी कुदृष्टि के साथ उसकी देह की तरफ ही देखा है। उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि आदिवासी स्त्री, शहरी मध्य-वर्ग की पढ़ी-लिखी स्त्रियों के मुकाबले अधिक स्वतंत्र व गरिमा से भरा हुआ जीवन जीती हैं। बात यह है कि शहर का स्वभाव आदिवासी समाज को रास नहीं आता। इसलिये जहां-जहां सड़क जाती है आदिवासी अपने आप को भीतर जंगल की तरफ समेटने लगते हैं, क्योंकि जंगल उन्हें आकर्षित करता है, जंगल उन्हें अपना घर लगता है, जंगल उन्हें सुरक्षा देता है। वहां उनका सामना नैतिकता और अश्लीलता जैसे दुरूह शब्द-जाल से नहीं होता। शहर में नई-नई आई आदिवासी युवती जो कि शिक्षिका, नर्स, मजदूर या सिर पर टोकरी रखकर सब्जी-भाजी बेचने वाली कुछ भी हो सकती है, उसके साथ शहर में बदसलूकी होने की आशंका ज्यादा होती है। गजब यह है कि शहर की स्त्रियां जंगल में आदिवासी क्षेत्रों में जाने से डरती हैं और और इस बात को भूलती है कि उन भले लोगों के बीच वे अपने उन लोगों से ज्यादा सुरक्षित हैं जिन्हें वे शहरी और आधुनिक कहती हैं। स्त्री की उपस्थिति ज्यों-ज्यों समाज में मुखर हो रही है, जिस तेजी के साथ स्त्री समाज के हर तरह के काम में अपनी योग्यता को स्थापित कर रही है, उतनी ही तेजी के साथ उसके यौन-उत्पीड़न की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है, न केवल उसकी देह को लेकर बल्कि उसकी अस्मिता को लेकर ही कई तरह के सवाल उठाये जाते हैं। किसी भी सरकारी, गैर-सरकारी दफ्तर में स्त्री का संघर्ष उसके पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले अधिक बड़ा होता है क्योंकि उसे तमाम नियम-कायदों के साथ पुरुष की आंखों का सामना भी करना पड़ता है। वह दोहरा संघर्ष करती है। घर पर भी एक तरह के संघर्ष के बाद वह नौकरी पर आती है, नौकरी में उसे अपने स्त्री होने के प्रति लगातार सतर्क रहना होता है, और अगर वह अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ बराबरी करते हुये कभी किसी एक ऐसी जगह पर पहुंच जाये जहां कि वह यौन-शोषण का शिकार हो जाये तो उसे उन प्रश्ों के उत्तर देने के लिये भी तैयार रहना पड़ता है जो पश्चिम बंगाल के मंत्री खुलेआम पूछ रहे हैं कि, आप वहां क्यों थीं मैडम? उस स्त्री की संवेदना को पकड़ने की सख्त ारूरत है जो लगातार अपमान सहने और जीने के लिये अभिशप्त है पर उससे पहले यह आवश्यक है कि हमारा समाज नैतिकता के अपने मापदंडों को लेकर अपनी धारणा को एक सुस्पष्ट दिशा दे जिसमें स्त्री और पुरुष के लिये अलग-अलग मापदंड न हों। ------ तेजिन्दर गगन
0 Comments
'एक दुबला पतला, लहीम-शहीम सा आदमी, झुका हुआ, अंतड़ियां बाहर, आंखें अंदर, हाथ जैसे हड्डियों की मुट्ठियां, सूखे बदन पर मैला सा अंगोछा लपेटे, दुआ देता है सब को कि जीते रहो और ईश्वर तुम्हारा भला करें।'' यह दृश्य भारतीय समाज के गरीब और ग्रामीण समाज का एक अहम् हिस्सा है। पिछली कई शताब्दियों से यह अमानवीय परिदृश्य लगातार समाज में उपस्थित रहा है और आज भी है। उन पीढ़ियों के पास डेल कार्नेगी, स्वेट मार्टिन, शिवखेड़ा और दीपक चोपड़ा नहीं थे। उनके पास इस तरह के लोगों की कोई परिकल्पना भी नहीं थी और न ही उन्हें इनकी ारूरत थी, पर एक बार सूखे और अकाल की चपेट में आने के बावजूद वे अगली फसल की बोआई करना नहीं भूलते थे। वे इस बारे में आनेवाली संतानों को कोई उपदेश भी नहीं देते थे- वे बस अपना जीवन जीते चलते थे। मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मेरा यह आशय कतई नहीं है कि मैं एक परंपरावादी या स्थितप्रज्ञ समाज का पक्षधर हूं या यह कि समाज में परिवर्तन नहीं होने चाहिए। लगातार आत्मपरीक्षण करते हुए समाज की विसंगतियों को दूर करते रहने वाला समाज ही प्रगतिशील समाज होता है। सारी बात संतुलन की है। 1984 में जब श्री राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने तकनालाजी के विकास पर बहुत जोर दिया और अपनी दृष्टि इक्कीसवीं सदी के भारत पर टिकाई। उनसे पहले श्रीमती इंदिरा गांधी की छवि भी अग्रगामी थी। जिस तरह उन्होंने सामंतवाद के खिलाफ कदम उठाए, देश में एशियाड खेलों का आयोजन करवाया और रंगीन टेलीविजन प्रसारण की शुरुआत करवाई, वह सब इस बात का प्रमाण है कि वे आधुनिक भारत का सपना देख रही थीं पर उनके और राजीव गांधी के सपनों के भारत और पंडित जवाहरलाल नेहरू के भारत के सपनोंमें अंतर था। पंडित नेहरू जहां मिश्रित अर्थव्यवस्था के साथ समकालीन समाज से एक गहरा रिश्ता बनाकर आपसी सामंजस्य से आगे बढ़ना चाहते थे वहीं 1980 के बाद, आपातकाल से जीवन का नया पाठ पढ़कर बाहर निकलीं श्रीमती इंदिरा गांधी की नीतियों में एक तरह का आक्रामक रवैया था। नेहरू युगीन भारत में भाखड़ा-नंगल बांध और भिलाई इस्पात संयंत्र जैसे संस्थान, जनसामान्य को अपने ही गांव के विस्तार की तरह नार आते थे जबकि पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में फैला आधुनिक बाजार, गांव को अपने से बाहर खदेड़ता हुआ नार आता है।
जनता पार्टी की सरकार का प्रयोग असफल हो जाने के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी को यह गलतफहमी थी कि उनका अब कोई विकल्प नहीं है। पर हमारे देश का जनमानस आश्चर्यजनक रूप से, लोकतंत्र की बिना किसी औपचारिक पढ़ाई-लिखाई के बहुत परिपक्व और खुले दिमाग वाला है। बेहद त्रासद और दुर्भाग्यजनक स्थितियों के चलते श्रीमती इंदिरा गांधी 1980 के बाद का चुनाव नहीं लड़ सकीं, पर मैं कल्पना करता हूं कि अगर वह दर्दनाक हादसा न हुआ होता जिसमें श्रीमती इंदिरा गांधी की मृत्यु हो गई, तो संभवत: अगला चुनाव जीतने के लिए उन्हें काफी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती क्योंकि भारतीय मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करने से पहले क्या सोचता है, इस पर निश्चित तौर से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वह अपना स्वतंत्र निर्णय लेता है, जिसके बारे में हम शहरों में रहने वाले और ''बी पाजिटिव...'' की रट लगाने वाले लोग सोच भी नहीं सकते। यह आश्चर्यजनक है कि हमारे राजनैतिक और सामाजिक विचार से, जो कि संचार-माध्यमों के रास्ते हम तक पहुंचता है, स्वदेशी गायब होता जा रहा है और दूर बैठा एक देश अपने हाथों में हथियारों का जखीरा पकड़े हमें यह समझा रहा है कि-''बी पाजिटिव, बी अवेयर ऑफ ईरान।'' दरअसल वर्ष 1991 में जब डॉ. मनमोहन सिंह देश के वित्तमंत्री बने और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने उन्हें देश के अर्थतंत्र से खेलने की खुली छूट दे दी, उसके बाद आर्थिक और तकनीकी तौर पर भले देश ने पर्याप्त विकास किया हो लेकिन विचार के स्तर पर कहीं हमें बौना और पंगु बना दिया। आरम्भिक वर्षों में हमें इस बात का पता नहीं चला या यह कि उसके होने वाले दुष्परिणामों को हम महसूस नहीं कर सके पर आज यह हमारे पैर में चुभा हुआ ऐसा कांटा है जो अपनी जगह जम गया है। उससे हमें पीड़ा होती है पर हम कराह भी नहीं सकते क्योंकि जैसे ही हम चीखने को होते हैं, मनमोहन सिंह कहते हैं- ''बी पाजिटिव , जी.डी.पी. इज ग्रोईंग।'' सारी विसंगति की जड़ यहीं पर है। करोड़ों हाथों में मोबाईल है, कम्प्यूटर-क्रांति हो गई है, जीवन के ऐसे अनेक छोटे-मोटे काम जिनके लिए हमारा मध्य वर्ग घंटों कतारबध्द खड़ा रहता था, अब घर बैठे उंगलियों के इशारों से होने लगे हैं, बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं और भवन खड़े हो रहे हैं पर फिर भी विचार के स्तर पर जो उत्साह हमारे भीतर होना चाहिए, जो आस्था पैदा होनी चाहिए, वह नहीं है और दीपक चोपड़ा जैसे लोग लोकप्रिय हो रहे हैं, चेतन भगत जैसे लोग हमारे मार्गदर्शक बने हुए हैं। विचार के स्तर पर बेहद गरीब ये लोग, परपंरागत रूप से हमारे विचारशील और किसी भी विपरीत स्थिति का माद्दा रखने वाले लोगों को ''पाजिटिव'' बने रहने की सलाह दे रहे हैं। संभवत: इसका एक कारण देश का असंतुलित आर्थिक विकास होना है। जब देश के लगभग बीस प्रतिशत लोगों के पास विकास के सारे साधन सीमित हो जाएंगे, तो शेष समाज के लिए उनके पास कहने को यही रह जाएगा कि हमारी तरह सकारात्मक सोचो तो एक दिन तुम भी हमारी पंक्ति में शामिल हो जाओगे। आस्कर वाईल्ड की एक पंक्ति है कि ''वह इतना गरीब था कि उसके पास सिवाय पैसों के और कुछ भी नहीं था।'' इन बीस प्रतिशत लोगों में से अधिकांश को देखकर मुझे यही पंक्ति याद आती है। व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक सोच का होना, अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण और अच्छी बात है पर यह देखना भी जरूरी है कि यह उपदेश कौन दे रहा है और किसे? पिछले दो दशकों में हमारी आर्थिक नीतियों के चलते समाज में जिस तरह का असंतुलित विकास हुआ है उसे देखते हुए सकारात्मक सोच का मसला बहुत संश्लिष्ट लगता है। मेरा विश्वास है कि व्यापक भारतीय श्रमिक वर्ग और अभावग्रस्त जनता के वे लोग जिन तक विकास की हवा नहीं पहुंची है, एक दिन सड़कों पर उतरेंगे और कहेंगे-''बी पाजिटिव, सब ठीक हो जाएगा, जब तुम अपनी जगह पर अकेले नहीं रहोगे, हम होंगे पंक्ति में कतारबध्द तुमसे पहले, अपने अस्थिपंजरों का इस्तेमाल, हथियारों की तरह करते हुए।'' ----------------- तेजिंदर गगन |
![]() एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
आभार देवाशीष वत्स Archives
May 2013
Categories
|