'एक दुबला पतला, लहीम-शहीम सा आदमी, झुका हुआ, अंतड़ियां बाहर, आंखें अंदर, हाथ जैसे हड्डियों की मुट्ठियां, सूखे बदन पर मैला सा अंगोछा लपेटे, दुआ देता है सब को कि जीते रहो और ईश्वर तुम्हारा भला करें।'' यह दृश्य भारतीय समाज के गरीब और ग्रामीण समाज का एक अहम् हिस्सा है। पिछली कई शताब्दियों से यह अमानवीय परिदृश्य लगातार समाज में उपस्थित रहा है और आज भी है। उन पीढ़ियों के पास डेल कार्नेगी, स्वेट मार्टिन, शिवखेड़ा और दीपक चोपड़ा नहीं थे। उनके पास इस तरह के लोगों की कोई परिकल्पना भी नहीं थी और न ही उन्हें इनकी ारूरत थी, पर एक बार सूखे और अकाल की चपेट में आने के बावजूद वे अगली फसल की बोआई करना नहीं भूलते थे। वे इस बारे में आनेवाली संतानों को कोई उपदेश भी नहीं देते थे- वे बस अपना जीवन जीते चलते थे। मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मेरा यह आशय कतई नहीं है कि मैं एक परंपरावादी या स्थितप्रज्ञ समाज का पक्षधर हूं या यह कि समाज में परिवर्तन नहीं होने चाहिए। लगातार आत्मपरीक्षण करते हुए समाज की विसंगतियों को दूर करते रहने वाला समाज ही प्रगतिशील समाज होता है। सारी बात संतुलन की है। 1984 में जब श्री राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने तकनालाजी के विकास पर बहुत जोर दिया और अपनी दृष्टि इक्कीसवीं सदी के भारत पर टिकाई। उनसे पहले श्रीमती इंदिरा गांधी की छवि भी अग्रगामी थी। जिस तरह उन्होंने सामंतवाद के खिलाफ कदम उठाए, देश में एशियाड खेलों का आयोजन करवाया और रंगीन टेलीविजन प्रसारण की शुरुआत करवाई, वह सब इस बात का प्रमाण है कि वे आधुनिक भारत का सपना देख रही थीं पर उनके और राजीव गांधी के सपनों के भारत और पंडित जवाहरलाल नेहरू के भारत के सपनोंमें अंतर था। पंडित नेहरू जहां मिश्रित अर्थव्यवस्था के साथ समकालीन समाज से एक गहरा रिश्ता बनाकर आपसी सामंजस्य से आगे बढ़ना चाहते थे वहीं 1980 के बाद, आपातकाल से जीवन का नया पाठ पढ़कर बाहर निकलीं श्रीमती इंदिरा गांधी की नीतियों में एक तरह का आक्रामक रवैया था। नेहरू युगीन भारत में भाखड़ा-नंगल बांध और भिलाई इस्पात संयंत्र जैसे संस्थान, जनसामान्य को अपने ही गांव के विस्तार की तरह नार आते थे जबकि पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में फैला आधुनिक बाजार, गांव को अपने से बाहर खदेड़ता हुआ नार आता है।
जनता पार्टी की सरकार का प्रयोग असफल हो जाने के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी को यह गलतफहमी थी कि उनका अब कोई विकल्प नहीं है। पर हमारे देश का जनमानस आश्चर्यजनक रूप से, लोकतंत्र की बिना किसी औपचारिक पढ़ाई-लिखाई के बहुत परिपक्व और खुले दिमाग वाला है। बेहद त्रासद और दुर्भाग्यजनक स्थितियों के चलते श्रीमती इंदिरा गांधी 1980 के बाद का चुनाव नहीं लड़ सकीं, पर मैं कल्पना करता हूं कि अगर वह दर्दनाक हादसा न हुआ होता जिसमें श्रीमती इंदिरा गांधी की मृत्यु हो गई, तो संभवत: अगला चुनाव जीतने के लिए उन्हें काफी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती क्योंकि भारतीय मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करने से पहले क्या सोचता है, इस पर निश्चित तौर से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वह अपना स्वतंत्र निर्णय लेता है, जिसके बारे में हम शहरों में रहने वाले और ''बी पाजिटिव...'' की रट लगाने वाले लोग सोच भी नहीं सकते। यह आश्चर्यजनक है कि हमारे राजनैतिक और सामाजिक विचार से, जो कि संचार-माध्यमों के रास्ते हम तक पहुंचता है, स्वदेशी गायब होता जा रहा है और दूर बैठा एक देश अपने हाथों में हथियारों का जखीरा पकड़े हमें यह समझा रहा है कि-''बी पाजिटिव, बी अवेयर ऑफ ईरान।'' दरअसल वर्ष 1991 में जब डॉ. मनमोहन सिंह देश के वित्तमंत्री बने और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने उन्हें देश के अर्थतंत्र से खेलने की खुली छूट दे दी, उसके बाद आर्थिक और तकनीकी तौर पर भले देश ने पर्याप्त विकास किया हो लेकिन विचार के स्तर पर कहीं हमें बौना और पंगु बना दिया। आरम्भिक वर्षों में हमें इस बात का पता नहीं चला या यह कि उसके होने वाले दुष्परिणामों को हम महसूस नहीं कर सके पर आज यह हमारे पैर में चुभा हुआ ऐसा कांटा है जो अपनी जगह जम गया है। उससे हमें पीड़ा होती है पर हम कराह भी नहीं सकते क्योंकि जैसे ही हम चीखने को होते हैं, मनमोहन सिंह कहते हैं- ''बी पाजिटिव , जी.डी.पी. इज ग्रोईंग।'' सारी विसंगति की जड़ यहीं पर है। करोड़ों हाथों में मोबाईल है, कम्प्यूटर-क्रांति हो गई है, जीवन के ऐसे अनेक छोटे-मोटे काम जिनके लिए हमारा मध्य वर्ग घंटों कतारबध्द खड़ा रहता था, अब घर बैठे उंगलियों के इशारों से होने लगे हैं, बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं और भवन खड़े हो रहे हैं पर फिर भी विचार के स्तर पर जो उत्साह हमारे भीतर होना चाहिए, जो आस्था पैदा होनी चाहिए, वह नहीं है और दीपक चोपड़ा जैसे लोग लोकप्रिय हो रहे हैं, चेतन भगत जैसे लोग हमारे मार्गदर्शक बने हुए हैं। विचार के स्तर पर बेहद गरीब ये लोग, परपंरागत रूप से हमारे विचारशील और किसी भी विपरीत स्थिति का माद्दा रखने वाले लोगों को ''पाजिटिव'' बने रहने की सलाह दे रहे हैं। संभवत: इसका एक कारण देश का असंतुलित आर्थिक विकास होना है। जब देश के लगभग बीस प्रतिशत लोगों के पास विकास के सारे साधन सीमित हो जाएंगे, तो शेष समाज के लिए उनके पास कहने को यही रह जाएगा कि हमारी तरह सकारात्मक सोचो तो एक दिन तुम भी हमारी पंक्ति में शामिल हो जाओगे। आस्कर वाईल्ड की एक पंक्ति है कि ''वह इतना गरीब था कि उसके पास सिवाय पैसों के और कुछ भी नहीं था।'' इन बीस प्रतिशत लोगों में से अधिकांश को देखकर मुझे यही पंक्ति याद आती है। व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक सोच का होना, अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण और अच्छी बात है पर यह देखना भी जरूरी है कि यह उपदेश कौन दे रहा है और किसे? पिछले दो दशकों में हमारी आर्थिक नीतियों के चलते समाज में जिस तरह का असंतुलित विकास हुआ है उसे देखते हुए सकारात्मक सोच का मसला बहुत संश्लिष्ट लगता है। मेरा विश्वास है कि व्यापक भारतीय श्रमिक वर्ग और अभावग्रस्त जनता के वे लोग जिन तक विकास की हवा नहीं पहुंची है, एक दिन सड़कों पर उतरेंगे और कहेंगे-''बी पाजिटिव, सब ठीक हो जाएगा, जब तुम अपनी जगह पर अकेले नहीं रहोगे, हम होंगे पंक्ति में कतारबध्द तुमसे पहले, अपने अस्थिपंजरों का इस्तेमाल, हथियारों की तरह करते हुए।'' ----------------- तेजिंदर गगन
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एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
आभार देवाशीष वत्स Archives
May 2013
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