मीडिया यानि कि जनसंचार माध्यमों की भूमिका पर पिछले कुछ वर्षों से बहुत कुछ लिखा जा रहा है। वर्ष 1991 से आरंभ हुए नवउदारीकरण के बाद तो मानों शब्दों और दृष्यों की बाढ़ है। मीडिया की भूमिका पर कई तरह की किताबें बाजार में आ रही हैं, पर कैमरामैन का कैमरा है कि हिलता ही नहीं और कलमकार की कलम है कि चलती ही नहीं, जब तक कि 'ऊपर से' साफ-साफ दिशा-निर्देश न मिल जायें। ये दिशा-निर्देश किसी सरकारी महकमे में जिस तरह लिखा हुआ होता है उस तरह लिखे हुए नहीं हैं, बल्कि एक ऐसी लिपि में 'डाउनलोड' किए हुए हैं जिसे सिर्फ मालिक और उसका नौकर ही पढ़ सकते हैं। इसको पारदर्शिता का नाम भी दिया जाता है कि ''देखो हमारी आपसी समझ कितनी परिपक्व है।'' इसे एक तरह की त्रासदी ही कहा जायेगा कि इस तथाकथित परिपक्व समझ का विरोध करने वाले और फिर इसे 'गरिमापूर्वक' स्वीकार कर लेने का श्रेय- एक ही व्यक्ति को जाता है। वे हैं 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के दिलीप पांडगांवकर। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के नये और युवा मालिक समीर जैन ने कहा कि, ''अखबार उनके लिए ठीक उसी तरह का उत्पादन है जिस तरह कि कोई भी प्रेशर कुकर, साबुन अथवा टूथपेस्ट का उत्पादन होता है और जो लाभ का सौदा होता है।'' समीर जैन की इस बात पर अपना विरोध दर्ज करते हुए दिलीप पांडगांवकर ने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। देश और समाज के वे नागरिक जिन्हें छपे हुए शब्द पर भरोसा था, उन्हें सुकून मिला। भले यह धारणा तब तक पुरानी पड़ चुकी थी कि छपा हुआ शब्द आसमान से आयद होता है पर फिर भी तब तक अनास्था का अंधेरा इतना घना नहीं हुआ था। ऊपर आसमान में जो हमारे उपग्रह हैं उनके 'सर्वर' में छपे हुए शब्द पर विश्वास करने वालों का एक बड़ा वर्ग था, जिस की अपनी मान्यताएं थीं, जिसके पास अपना एक मूल्य-बोध था। फिर पता नहीं क्या हुआ, उपग्रह के किस हिस्से से कौन सी अदृश्य किरणें निकलीं और दिलीप पांडगांवकर वापिस 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में आ गये। इस बार निदेशक, कार्पोरेट बन कर। वह दिन देश की पत्रकारिता का एक काला दिन था। संभवत: तब तक दिलीप पांडगांवकर एक व्यक्ति नहीं रह गए थे, वे एक ब्रांड में बदल गए थे, जिसकी जरूरत समीर जैन को थी और दिलीप पांडगांवकर को भी। उन्हें ऐसा लगा था कि यह उनके 'कैरियर' का अंतिम पड़ाव है, इसको छोड़ दिया तो वे बाजार के अंधेरे में कहीं खो जाएंगे। सचमुच बाजा र की चकाचौंध आंखों की रोशनी छीन रही थी। राजनैतिक उथल-पुथल चरम पर थी। मंडल आयोग की रिपोर्ट का स्वीकार होना जिसकी अनुशंसा के आधार पर समाज के पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जन-जातियों को शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में पर्याप्त अवसर देने का प्रावधान था। भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी की रथयात्रा और उसके बाद बाबरी मस्जिद विध्वंस, देश में जगह-जगह पर सांप्रदायिक दंगे, तमिल उग्रवादियों द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या। तेजी से घटे इस दुर्भाग्यजनक और त्रासद घटनाक्रम के बाद जब स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने विश्व बैंक की नौकरी कर चुके डा. मनमोहन सिंह को देश का वित्तमंत्री बनाया तो देश की जनता ने जैसे कुछ समय के लिए चैन की सांस ली। किसी को इस बात का इल्म नहीं था कि बहुत जल्द हमारे ऊपर एक नई भाषा और एक नई संस्कृति और उस विदेशी मूल्य-पध्दति का आक्रमण होने वाला है जिसके खिलाफ लड़ते-लड़ते हमारे पूर्वजों ने आजादी प्राप्त की थी। हमारे तमाम संस्थान इस कुचक्र का शिकार हुए लेकिन उनकी योजना का सबसे पहला शिकार हमारे जनसंचार संस्थान थे। दरअसल यह काम आसान था। हमारे पास या तो सरकारी मीडिया के रूप में आकाशवाणी और दूरदर्शन थे या फिर कुछेक अखबार, जिनकी समाज में अपनी प्रतिष्ठा थी। वर्ष 1988-89 और 1992 के मध्य जो राजनैतिक गहमागहमी हुई उसने इन अखबारों को उनके कथ्य के आधार पर बांट दिया था। 'जनसत्ता' और 'देशबन्धु' को छोड़कर उत्तर भारत के अधिकतर हिंदी के बड़े अखबार घोषित रूप में सांप्रदायिक हो चुके थे। अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों का इन अखबारों से लगभग विश्वास उठ चुका था जो कि आज भी पूरी तरह से पुर्नस्थापित नहीं हो सका है। दूरदर्शन और आकाशवाणी से जड़ता की सड़ांध आती है और फिर सरकारी बंधुआ होने के कारण भी ये दोनों संस्थान कभी अपनी विश्वसनीयता अर्जित नहीं कर सके। गौरतलब बात यह है कि 1991-92 के बाद आरंभ में यह लगा कि सब ठीक-ठाक चल रहा है, और पारदर्शिता बढ़ी है, आम आदमी को बोलने के लिए जुबान मिल गई है पर जल्दी ही यह भ्रम टूटने लगा। क्या पारदर्शिता का एक मतलब यह भी होता है कि उसमें सिर्फ अंधकार दिखाई दे? घनी धुंध और घने कोहरे के पारदर्शी होने के क्या मायने होते हैं? वर्ष 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन सरकार ने उस पक्षी को पंख लगा दिये जिसे पिंजरे से बाहर निकालने का काम डा. मनमोहन सिंह ने किया था। यह पक्षी जो एक बार आसमान में उड़ा तो फिर उसने जमीन पर नहीं देखा। ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं पर ही उसने अपने बैठने और टिकने की जगह बनाई। जमीन उसे नार ही नहीं आती थी। उसी के पंखों में मीडिया के कैमरामैन ने अपनी लेंस और कलमकार ने अपनी कलम छिपा दी और फिर जैसे किसी तोते को रटाया जाता है, उसी तरह यह पक्षी भी 'इंडिया इज शाईनिंग' का पाठ रटने लगा। आसमान में इस नारे की गूंज इतनी ज्यादा थी कि धरती पर रहने वालों का दम घुटने लगा और अंतत: सन् 2004 में धरती पर रहने वालों ने इस पक्षी को अपने पास खींच लिया। पर कैमरे और कलम की दृष्टि और भाषा नहीं बदली, क्योंकि सिर्फ चेहरे बदले थे। जहां तक सवाल आर्थिक नीतियों का था उनमें कुछ भी नहीं बदला। गरीब आदमी सरकार के हाशिये पर ही रहा और उनका पक्षी अपने नये मालिकों के आदेश पर वापिस अट्टालिकाओं के ऊपर उड़ गया। उस पक्षी ने मुंबई की दलाल-स्ट्रीट में किसी ऊंचे भवन की छत पर अपना डेरा जमा लिया और वहीं प्रजनन भी करने लगा। इस तरह एक कैमरे की कई आंखें हो गईं और अब लगता है कि एक ही कलम है जिसमें अलग-अलग रंग की स्याही से एक ही इबारत लिखी जा रही है। जिन वर्षों में मीडिया पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में था, और इसका निजीकरण एक तरह की रोमांचकारी कल्पना होने का आभास देता था उस समय यह बात संभवत: कल्पनातीत थी कि एक दिन 'मीडिया', सरकार की जगह चंद पूंजीपतियों के इशारे पर और फिर कार्पोरेट्स के दम पर और अंतत: विश्व बैंक और संयुक्त राय अमेरिका के हाथों में पकड़े रिमोट से संचालित होने लगेगा। महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज्य में अखबारों के लिए जो बात कही थी वह आज भी समाचार-पत्रों के साथ ही इलेक्ट्रानिक मीडिया चैनलों पर भी लागू होती है। गांधी जी ने कहा था, ''अखबार का एक काम तो है लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना, दूसरा काम है लोगों में अमुक जरूरी भावनाएं पैदा करना और तीसरा काम है लोगों में दोष हों तो चाहे जितनी मुसीबतें आने पर भी बेधड़क होकर उन्हें दिखाना।'' हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जब कुछ भी असंभव नहीं है और यही एक तथ्य है जो सकारात्मक है। एक दिन अवश्य ही इस पक्षी को धरती पर उगे हुए पेड़ अपनी ओर खीचेंगे और फिर उस सच्चाई का सटीक चित्रण किया जा सकेगा जो धरती पर एक कोने से दूसरे कोने तक फैली है और टूटे हुए संवाद को जोड़ा जा सकेगा। ------------ तेजिन्दर
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एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
आभार देवाशीष वत्स Archives
May 2013
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