यह कैसी विडम्बना है कि जिस धार्मिकता के कारण हमारे समाज का सबसे यादा शोषण होता है, वह हमारे ही भीतर कहीं जीवंत होता है। हम जहां है वहीं असुरक्षित हैं और असुरक्षा की इस भावना का करोड़ों-अरबों रुपयों का व्यापार हमारे इर्द-गिर्द हो रहा है। इस व्यापार का मूल स्रोत हमारे ही भीतर है पर हम उसमें हिस्सेदार नहीं हैं। हम सिर्फ डरे-सहमे हुए लोग हैं और बेहतर ढंग से रह सकें, इसके लिए हमारी कल्पना-शक्ति तक को कुंद कर दिया जाता है। अपने लाखों, करोड़ों-अरबों रुपयों के व्यापार और लाभ-हानि के खेल में वे उन करोड़ों उपभोक्ताओं, और दर्शकों को कुछ सौ या कुछ हजार रुपए की कल्पनाशक्ति में सीमित कर देते हैं और एक पूरा समाज लगभग पंगु होकर इन पूंजीपतियों के बिछाए जाल में फंसकर रह जाता है। यह बात बहुत आश्चर्यजनक लगती है कि भारतीय समाज जो कि मूल रूप से धर्म भीरू समाज है- अपने धर्म और अपनी आस्था को समझने के लिए एक गाब की 'फैंटेसी' का निर्माण करता है और संभवत: उसी प्रयास में उसके आसपास जो यथार्थ में घटित हो रहा है- जिसमें उसके शोषण की नई-नई पारियां खेली जाती हैं, जिसकी पीड़ा भी सब से यादा उसे ही भोगनी पड़ती है, उन तमाम स्थितियों में वह अपने विवेक को कुंद कर देता है।
एक कथनी याद आती है। एक देश की सरकार ने अपने नागरिकों की कल्पनाशक्ति जांचने-परखने के लिए एक प्रयोग किया। एक कमरे में ब्लैकबोर्ड पर सफेद चाक से एक बड़ा सा गोला बनाया गया। फिर प्रशासनिक अधिकारियों के एक दल को बुला कर उनसे पूछा गया कि -''यह क्या है?'' प्रशासनिक अधिकारियों के दल ने काफी देर के विचार विमर्श के बाद यह कहा कि ''हम किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंच सके हैं इसके लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाएगा और तभी अंतिम रूप से यह बताया जा सकेगा कि यह क्या है?'' फिर, विश्वविद्यालयीन प्राध्यापकों के एक दल को बुलाया गया। प्राध्यापकों ने कहा कि ''यह एक इस तरह का चित्र है जिस पर शोध होना अभी बाकी है। हम जल्द ही दो-चार छात्रों का पंजीयन कराएंगे और फिर उनके शोध कार्य का एक तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद अपनी रिपोर्ट देंगे।'' इसके बाद प्राथमिक स्कूल के शिक्षकों को बुलाया गया- ''उन्होंने सीधा सा जवाब दिया कि यह एक ब्लैकबोर्ड है जिस पर खड़िया से शून्य लिखा हुआ है।'' अंतिम दौर में प्राथमिक शाला के बच्चों को बुलाया गया- ''बच्चों ने उसे देखते ही तपाक से उत्तर दिया कि -''काले बादलों से भरे आसमान में यह पूर्णिमा का चांद है।'' कहानी के नीचे एक वाक्य लिखा था कि ''यों-यों हम बड़े होते जाते हैं, हमारी कल्पनाशक्ति को लकवा मारता चलता है।'' यह कहानी पिछले करीब बीस वर्षों से मुझे परेशानी करती है। यह सच है कि हमारी कल्पनाशक्ति पर जो ताले जड़े हैं वह पिछले बीस वर्षों से ही जड़े गए हैं और इनकी चाबी हमारे पास नहीं रहने दी जाती। कमरा भी हमारा है, ताला भी हमारा ही है पर उसकी चाबी उन्होंने हथिया ली है, जो पहले कभी दूर देश से हमारे यहां व्यापार करने आए थे। वे आज उसी तरह हर देश में बैठकर हमारे साथ व्यापार कर रहे हैं। जो लोग यह व्यापार कर रहे हैं वे भारतीय हो भी सकते हैं और भारतीय नहीं भी हो सकते क्योंकि उनका धर्म और राष्ट्र सब कुछ पैसे में ही समाहित है। इनमें चंद बड़े उद्योगपति, कुछ खिलाड़ी, कुछ राजनैतिज्ञ और बालीबुड के कुछ कथित बादशाह शामिल हैं। अंग्रेजी मीडिया का खुला समर्थन इसे प्राप्त है। आम आदमी की लगातार कुंद होती कल्पनाशक्ति को और अधिक कमजोर करने का काम ये सारे लोग बहुत मुस्तैदी के साथ करते हैं। आम आदमी कहता है- 'रोटी', तो यह कहते हैं- 'लो कर दी न छोटी बात, हम तुम्हारे लिए आईपीएल लेकर आए हैं- इसे देखोगे तो रोटी भूल जाओगे।' आम आदमी रोटी को नहीं भूलता पर यह भूल जाता है कि सच क्या है? यह आज की बात नहीं है- सत्ता-तंत्र का खेल आरंभ से यही रहा है। जब-जब भी किसी महत्वपूर्ण जनकल्याणकारी मुद्दे पर चर्चा करनी होती है, अचानक एक ऐसा गैर- अर्थपूर्ण और बेमानी मुद्दा वे हमारे नथुनों में भर देते हैं, जिसमें आक्सीजन नहीं होती। हमारे तमाम संबंध चीजों की चकाचौंध में धुंधला गए हैं और एक छद्म तरीके से हम धूप, हवा और अंधेरे से बचने की कोशिश में हैं। दरअसल यथार्थ अब इतना भयावह है कि उससे बचकर निकलने का रास्ता कल्पनालोक से होकर ही जाता है और यह रास्ता कथित रूप से धर्म का रास्ता है। धर्म मनुष्य के कल्पनालोक का सबसे बड़ा हिस्सा है, कुछ लोगों को अगर इस बात पर आपत्ति हो और वे कहें कि धर्म जीवन जीने का एक मार्ग है तो फिर संभवत: ईश्वर मनुष्य की एक विराट कल्पना है। बहरहाल, यहां आशय दर्शनशास्त्र की गुफा-कंदराओं में खो जाने का नहीं है और न ही सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ से पलायन का है, यहां आशय विकल्प से है। बाजार का विकल्प क्या है? क्या बााार का विकल्प ईश्वर हो सकता है? संभवत: नहीं, क्योंकि ईश्वर का इस्तेमाल यह बाजार सब से यादा कर रहा है। बाजार आप को धार्मिक बनाने के सारे खेल, खेल रहा है, बाजार आपके लिए एक वैकल्पिक ईश्वर की रचना करने में लगा है। बाजार ऐसे-ऐसे उत्पाद लेकर जा रहा है, जो सूर्य की तपिश और चांद की चांदनी को भी चुनौती देते हुए से लगते हैं। ''चेहरे पर यह क्रीम लगाइए मैडम तो सूरज की किरणें आपकी त्वचा पर पड़ने से पहले ही अपना रास्ता बदल देंगी।'' रायपुर के एक शापिंग माल में एक दुकानदार एक महिला ग्राहक से कह रहा था। ''कितने की है''- महिला ने उत्सुकतावश पूछा। ''दो हजार तीन सौ निन्यान्वे रुपए की''- दुकानदार ने कुछ यों बताया कि जैसे यह कोई कीमत ही नहीं है। महिला ग्राहक सोच में पड़ गई। दुकानदार उनका चेहरा देखकर समझ गया कि, बात अभी बनी नहीं। ''आप चाहें तो छोटी टयूब ले जाएं, एक बार आजमा लें।'' सूरज की किरणों से बचने का लालच संभवत: काफी बड़ा था। महिला ने पन्द्रह सौ पचहत्तर रुपए अस्सी पैसे में वह छोटी टयूब खरीद ली और इस दिवास्वप्न के साथ दुकान से बिदा हुई कि सूरज अब उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। बाजारर की माया और बाजार का कल्पना-लोक तो कुछ ऐसा है कि वह आप को एक तरह के धुंधलके में रखता है। बाजार में जब तक आप खरीदने की हैसियत रखते हैं, ठीक है, जिस दिन आप की जेब की हैसियत खत्म हो जाती है, आप को बाजार के पिछवाड़े कचराघर में भी जगह नहीं मिलती। वहां पड़े रहने के लिए भी पैसे लगते हैं। बाजार की दिक्कत यह है कि वहां मानवीय संबंधों और उपमा के लिए कोई स्थान नहीं है और यही सबसे यादा खतरनाक है। यहां तक कि अब कल्पना में भी यह बात नहीं रही। देखते ही देखते सारा दृश्य बदल गया सा लगता है। बाजार से भागने के सारे रास्ते बंद नार आते हैं क्योंकि बाजार लगभग घर के अंदर तक आ चुका है। देखते ही देखते हमारे लिए पुस्तकों के मुखपृष्ठ अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं, भीतर शब्दों में, शब्द की संवेदनाओं में क्या है, इससे किसी का कोई मतलब नहीं रह गया है, और यही हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है। एक पूरी की पूरी पीढ़ी संवेदनहीनता के बोझ तले दबी हुई है और उसके ऊपर मंच सजा कर कुछ लोग रंगीन कपड़े पहिने, अपनी ऑंखों में काले चश्मे लगाकर घोषणा कर रहे हैं कि -''सब कुछ ठीक-ठाक है और यह दबाव हम आपकी सुरक्षा के लिए बना रहे हैं।'' मैं आश्वस्त हूं कि उनका यह झूठ अंतत: एक दिन सबके सामने आएगा और आसमान के काले बादलों के बीच पूर्णिमा के चांद की कल्पना सिर्फ प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की कल्पना नहीं रहेगी। हमारा समाज बच्चे की उस कल्पना को अपने अंदर एक सजग दृष्टि की तरह विकसित करेगा और बाजार की ताकतें विफल होंगी।
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लोकपाल का सवाल एक बार हमारे सामने है पिछले एक साल से लोकपाल हमारी राजनीति के केन्द्र में है। कुछ लोग लोकपाल के बारे में यों बात करते हैं कि जैसे यह दूसरा स्वतंत्रता आन्दोलन हो। लोकपाल आएगा और सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। लोकपाल आएगा और एकाएक लोगों का रंग-रूप बदल जाएगा, लोगों की दिशाएं बदल जाएंगी, बिल्लियां चूहे खाना बंद कर देंगी, सारे सियार शेर हो जाएंगे और चीते और भालू शाकाहारी हो जाएंगे। लोकपाल की तस्वीर कुछ इस तरह से प्रस्तुत की जा रही है कि लोकपाल अपने हाथों में अलादीन का एक चिराग ले कर आएगा और जैसे ही उसे किसी भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्ति की सूचना दी जाएगी, वह उसे भस्म कर देगा। इस तरह की धारणा रखने वालों को उनके अनुयायी भी मिल जाते हैं। आबादी भी काफी है और तोी से बढ़ भी रही है। उसी अनुपात में 'बाबा लोग' भी बढ़ रहे हैं। हर तरह की पोशाक वाले बाबा मौजूद हैं- सफेद और गेरुआ तो प्रमुख रूप से हैं ही। मैं नहीं जानता कि यह बात आसानी के साथ समझ में क्यों नहीं आती कि भ्रष्ट आचरण राजनीति से पहले एक सामाजिक मुद्दा है। हमारे समाज में हमारे बहुसंख्यक वर्ग में बच्चे के पैदा होने के साथ ही या बच्चे के होश सम्हालने के साथ ही भ्रष्ट आचरण की खिडक़ियां खोल दी जाती हैं। कभी रीति-रिवाजों के नाम पर और कभी लड़का या लड़की होने के नाम पर। जाहिर है कि इसमें समाज का सांस्कृतिक पक्ष शामिल नहीं है लेकिन यह लकीर बहुत बारीक है। मुझे तो यह जो शुभ-लाभ का बीज वाक्य है इसमें ही खोट दिखाई देती है। सुविधा के लिए अगर यह मान लिया जाए कि भ्रष्टाचार की शुरुआत ही 'शुभ-लाभ' के विचार के पीछे है, तो संभवत: गलत नहीं होगा। अब जबकि हमारा देश आधुनिकता के दौर में काफी आगे निकल जाने का दावा कर रहा है, तो हमें ठहर कर कुछ सोचने की ारूरत है। पुणे, बैंगलुरू, अहमदाबाद, गुड़गांव और नोएडा के बावजूद हमारा अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र अभी भी एक तरह के सामंतवादी मानसिक ढांचे में जी रहा है, कईं क्षेत्र ऐसे हैं जहां राजे-राजवाड़ों का प्रभाव अभी भी शेष है, जहां पारंपरिक राजवाड़े खत्म हो गए वहां उनकी जगह पूंजीपति ताकतों ने ले ली है अथवा वहां दक्षिण पंथी राजनैतिक दलों का शासन है। अधिकांश लोग उनके गुणगान करते हुए देखे और सुने जा सकते हैं, जिन्होंने ऐन-केन-प्रकारेण किसी भी तरीके से पैसा कमा लिया हो। पैसा कमाना और अधिक पैसा कमाना आज भी हमारे सामाजिक रिश्तों में, सफलता का उच्चतम मापदण्ड है। यह आज से नहीं है। जब से होश सम्हाला है, समाज को ऐसा ही व्यवहार करते हुए पाया है। पद और पैसा- इनके अंर्तसंबंध जैसे देह और आत्मा के अंर्तसंबंध होते हों- एक के बिना दूसरा अधूरा है। यह गलत सामाजिक मान्यता समाज में ाहर की तरह फैली है। इसका एक तीसरा पक्ष भी है, वह है व्यक्ति का दंभ, अथवा अहम्। अंतत: अहम् भी तो एक तरह के भ्रष्टाचार का हिस्सा है। हमारे समाज में पद को पूजा जाता है, चाहे वह कैसे भी क्यों न प्राप्त किया गया हो। मुफ्त में कोई चीज पा लेना गर्व की बात मानी जाती है। मैंने व्यक्तिगत रूप से मध्यवर्गीय परिवारों में मां-बाप को अपने बच्चों को उन राजाओं और राजकुमारों के किस्से सुनाते हुए देखा है और सुना है, जो या तो हत्यारे थे या जिन की कई-कई रानियां थीं या जिनके पास जीवन की किसी भी तरह की दार्शनिक दृष्टि नहीं थी। होश सम्हालते ही बहुत सारे ऐसे किस्से हमारे सामने आते हैं जिनसे यह आभास होता है कि भ्रष्टाचार को एक तरह की सामाजिक और सार्वजनिक मान्यता मिली हुई है। जैसे कि- 'लड़का ओवरसियर है' यह कहने के बाद कोई तनख्वाह नहीं पूछी जाती थी। ओवरसियर का मतलब यानि कि कमाई की पहली पायदान। इसके बाद तो फिर ऊपर ही ऊपर का रास्ता जाता है। साधारण रूप से मध्यवर्गीय समाज यह मान कर चलता है कि 'ओवरसियर' का भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार होता ही नहीं, यह उसके काम का हिस्सा है। यह स्वीकारोक्ति एक आदर्श समाज की जड़ों में मट्ठा डालने की तरह है। यह बात सिर्फ ओवरसियर पर आकर ही नहीं रूकती, ऊपर और ऊपर चलती चली जाती है। आपकी शब्दावली में इस तरह शामिल होती चलती है कि आपको इस बात का पता ही नहीं चलता कि आप एक तरह के षड़यंत्र में शामिल हो गए हैं। अभी पिछले दिनों रायपुर के आसपास जमीन की खरीद-फरोख्त करने वाले कुछ मित्रों के साथ बातचीत का अवसर मिला। मैं यह सुनकर सन्न रह गया कि वे जमीन के लिए 'माल' शब्द का इस्तेमाल करते हैं। 'महासमुन्द' से दस किलोमीटर आगे, सड़क के किनारे मेरे पास है सात एकड़ माल है। यहां यह स्पष्ट करना ारूरी है कि यह फसल की बात नहीं है, सिर्फ और सिर्फ भूमि की बात है। इस तरह की बात वे करते हैं और धरती को अपनी जेब के माल के रूप में बदल देते हैं। अपनी जमीन के बारे में उनकी बातचीत को सुनकर वापिस सहज होने में मुझे काफी वक्त लग गया। यह मेरी मूर्खता हो सकती है, पर कमजोरी कतई नहीं। अन्ना हजारे जी और बाबा रामदेव जी क्या आपसे दोनों हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक यह पूछा जा सकता है कि जिस समाज का तथाकथित रूप से आप प्रतिनिधित्व कर रहे हैं- उस समाज के संस्कारों में क्या है? उस समाज के बच्चों को घर में किस तरह की जीवनशैली अपनाए जाने की शिक्षा दी जाती है? क्या आप को पता है कि यह जो बहुत सारे लोग आप को भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में अपना समर्थन देने की घोषणा करते हैं वे स्वयं भ्रष्ट आचरण के मायाजाल में आकंठ डूबे हैं।
यह बात उन गरीबों के संदर्भ में नहीं है जिनके पास कुछ देने को है ही नहीं, लेकिन उस मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग के संदर्भ में अवश्य है जो दिल खोलकर भ्रष्ट अफसरशाहों को दान-पुण्य की तरह रिश्वत देते हैं और बदले में अपने सारे रूके हुए काम करा लेते हैं। यह ऐसा समाज है जो किसी भ्रष्ट नौकरशाह या सरकारी कर्मचारी पर ईश्वर से भी यादा भरोसा करता है और उसकी झोली में इस उम्मीद पर अपनी आय का दसवां हिस्सा डालता है कि लेन-देन का क्रम बराबर चलता रहे। पर यह तो छोटी बात है जो सिर्फ पैसे तक सीमित है। अपने अहम् और अपनी हैसियत को बनाए रखने के लिए उन संबंधों की चादर भी बिछाई जाती है, जिस पर दोनों तरफ सिर रखकर सोया जा सके। मुझे अपने साथ घटित एक बात याद आती है। यह वर्ष 1969 की बात है। मैंने घर से रायपुर के एक विज्ञान महाविद्यालय में प्रवेश के लिए पैसे लिए, लेकिन फीस जमा नहीं कर सका क्योंकि मेरी रुचि एक अन्य महाविद्यालय में जाने की थी और मैं वहां के प्रवेश पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था। फीस के पैसे इस दौरान मुझ से इंडियन कॉफी हाऊस में खर्च हो गए और मैं डर गया कि कहीं ऐसा न हो कि मुझे किसी भी महाविद्यालय में प्रवेश न मिले। मैं दौड़ा-दौड़ा विज्ञान महाविद्यालय गया और उनसे एक सप्ताह बाद अपनी फीस जमा करने की मोहलत मांगी पर मेरी बात न सुनते हुए मुझे प्राचार्य महोदय के पास भेज दिया गया। प्राचार्य उन वर्षों में अपनी विद्वता के लिए और प्रशासनिक क्षमता के लिए पूरे अंचल में जाने जाते थे। उनसे मैंने बताया कि- 'मैं बाहर से आया हूं, मेरा मनीआर्डर नहीं आया है, मैं बहुत गरीब घर से हूं आदि-आदि, पर उनके ऊपर कोई असर नहीं हुआ, उन्होंने मुझे तुरंत कमरे से बाहर चले जाने के लिए कहा और यह भी कहा कि मेरी उनके पास आने की हिम्मत कैसे हुई। बेहद तनाव और निराशा से मैं लौट रहा था कि आजाद चौक के पास मुझे एक ख्याल आया। ''एन आईडिया कैन चेंज यूअर लाईफ।'' यह बात पुरानी है। मैंने वहां की एक दुकान पंजाब साईकिल स्टोर से उन्हीं प्रिंसीपल महोदय को एक छद्म नाम से आवाज बदलकर फोन किया। मैंने अपने आप को शहर का आरटीओ बताया और कहा कि मैं बालक को आपके पास भेज रहा हूं। वे बिछ गए। मैं वापिस विज्ञान महाविद्यालय उनके कक्ष में पहुंच गया। उन प्राचार्य महोदय ने मुझे सोफे पर बैठाया, चाय पिलाई और मेरी एप्लीकेशन पर मुझे पन्द्रह दिन का अतिरिक्त समय लिखकर दे दिया। इस तरह मेरा काम तो हो गया पर उस दिन, उस क्षण मेरा जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई मैं आज तक नहीं कर पा रहा हूं। मेरा विश्वास इस प्रशासनिक व्यवस्था और शिक्षा के इन प्राचार्यों से टूट गया, जो आज तक नहीं जुड़ सका है। लेकिन मूलत: यह एक सामाजिक लड़ाई है, यह एक युध्द है जो हमें अपने ही भीतर लड़ना है और जीतना है। लोकपाल इस लड़ाई का एक अंग हो सकता है लेकिन वह भी उसी व्यवस्था का एक हिस्सा होगा जहां से भ्रष्टाचार उपजता है। लोकपाल की लड़ाई के चारों तरफ एक तरह की राजनीति है, जिससे मुक्त होना समय की सबसे पहली आवश्यकता है। ------- तेजिंदर गगन योगेन्द्र कृष्ण की एक कविता की पंक्तियां हैं 'हत्यारे जब बुध्दिजीवी होते हैं, वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते बख्श देते हैं तुम्हारी जिन्दगीबड़ी चालाकी सेझपट लेते हैं तुम सेतुम्हारा वह समयतुम्हारी वह आवाजतुम्हारा वह शब्दजिसमें तुम रहते हो' आज के राजनैतिक-सामाजिक जीवन में संभवत: यह बहुत गंभीर प्रश्न है कि पहले हम यह तय करें कि हमारा अपना पक्ष क्या है? हम किन लोगों के साथ हैं और इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि हम किन लोगों के साथ नहीं हैं। विरोध में है, यह कहने का साहस भले न हो पर यह बताना तो जरूरी है कि हम उनके साथ नहीं हैं। एक तरह के धुंधलके में यह प्रश्न कहीं गायब हो गया सा लगता है।
इसका उत्तर कहीं तो होगा इस बात का विश्वास आम आदमी को नहीं है, आम आदमी को तो इस बात का भी विश्वास नहीं है कि हत्यारा कभी बुध्दिजीवी भी हो सकता है, जबकि वह अलग-अलग रूपों में हमारे आस-पास है, वह हम तक अलग-अलग माध्यमों से पहुंच रहा है, कभी समाचार-पत्रों, तो कभी रेडियो एफएम और इन दिनों अक्सर ही टेलीविजन के पर्दे के माध्यम से। आप चाहे कोई भी चैनल लगा लें- एकाध हत्यारा बुध्दिजीवी बहुत मीठी और सधी हुई जुबान में आप से ऐसा कुछ कह रहा होगा जिसे वह तार्किक तो कहेगा ही, आप के हित में भी बताएगा जब कि सच बात यह होती है कि वह उसके अपने हित में होता है। आभिजात्य से ओत-प्रोत एक शहरी उच्च मध्यवर्ग की स्त्री जिसके ऊपर यह आरोप है कि वह कथित रूप से अपनी बच्ची और एक गरीब नौकर की हत्या की साजिश में शामिल है एकाएक उन तमाम मेहनतकश और ममतामयी स्त्रियों के ऊपर छा जाती है। उनका सारा स्थान जो उस चैनल में होना चाहिए था, उसे घेर लेती हैं। चार या उनसे भी अधिक चेहरे क्रिकेट और उसके खिलाड़ियों के बल्ले और घुमावदार गेंदबाजी पर इतनी संजीदगी से बात करते हैं कि विदर्भ के खेतों की पिच सूख जाती है और किसानों तथा क्रिकेट के इन बुध्दिजीवियों की दुनिया दो अलग-अलग खांचों में ढलती जाती है। पिछले दिनों हमने देखा कि हथियारों का व्यापारी क्वोत्रोकी आज भी एक बिकने वाला चेहरा है, उसके बारे में भी घंटों छद्म गंभीरता के साथ बातचीत की जाती है। क्वात्रोकी एक अपराधी हो सकता है या संभव है कि हो भी लेकिन आसपास जो अंधकार फैला है और उसमें जो अपराधी खुलेआम किसी न किसी के संरक्षण में घूम रहे हैं उन पर इन के कैमरों की रोशनियां क्यों नहीं पड़तीं? मुझे नहीं याद पड़ता कि चैनलों के ये कैमरे कभी बुंदेलखण्ड के भीतरी गांवों में जहां जीवन का अर्थ नर्क से भी बदतर एक जीवन है या विदर्भ के कपास के खेतों में या फिर ओड़िशा के कालाहांडी और बलांगीर जिलों के दूर-दूर तक अंधकार में फैले गांवों में नहीं जाता। इनके लिए भूख से मौन किसी तरह की पीड़ा अथवा आक्रोश पैदा नहीं करती। गरीब का चेहरा इनके लिए बिकाऊ नहीं है। बााार में एक नार झांकने पर यह कितना आश्चर्यजनक और तकलीफदेह तथ्य सामने आता है कि कपास उगाने वाले किसान लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं और बााार में 'हंड्रेड परसेंट कॉटन' वाले कपड़ों के भाव आसमान छू रहे हैं। एक कमींज की कीमत पांच सौ रुपए से लेकर पांच हजार रुपए तक है। यह कपास जो कि अंतत: खेतों से ही आता है कुछ लोगों का जिस्म ढंकने के लिए वृहत्तर फैशन का हिस्सा बन जाता है और कुछ नहीं बल्कि बड़ी संख्या में लोग जमीन की जुताई-रोपाई करते-करते उसी में अपनी देह की जुताई तक कर डालते हैं। इतना असंतुलन? अभी पिछले सप्ताह टेलीविजन चैनलों पर एक दृश्य देखा गया कि सरकारी प्रतिनिधि जब जंगल में सुकमा के जिला कलेक्टर की रिहाई के संदर्भ में जा रहे थे तो आदिवासी नक्सलवादी उनकी तलाशी ले रहे थे या फिर यह कि 'मीडिया' को उनके निर्देशों का पालन करना पड़ रहा था कि इतने बजे आओ और यहां तक आओ। यहां आशय किसी भी तरह से व्यवस्था के खिलाफ जाने का आग्रह नहीं है या फिर हिंसा और अपहरण के पक्ष में जाने का भी नहीं है, इसी तरह लोकतांत्रिक देश में जन-समस्याओं से निपटने के लोकतांत्रिक अहिंसक तरीके से ही अपनाए जा सकते हैं क्योंकि अंतत: वे तरीके ही सकारात्मक परिणाम लाने में सक्षम होंगे पर पता नहीं क्यों मुझे वरिष्ठ पत्रकार राजनारायण मिश्र की एक बात बार-बार याद आती है। यह सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों की बात है। श्री मिश्र 'देशबन्धु' के संपादकीय विभाग में वरिष्ठ थे। उस वर्ष कोलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'स्टेट्समैन' ने ग्रामीण पत्रकारिता पर केन्द्रित एक अखिल भारतीय पुरस्कार आरंभ किया था। श्री राजनारायण मिश्र के रिर्पोताज को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था जो कुल्हाड़ीघाट नामक एक ऐसी दूरस्थ गांव की यात्रा पर आधारित था जहां के निवासियों ने तब तक रेलागाड़ी भी नहीं देखी थी। यह पुरस्कार जीतने पर मैंने आकाशवाणी रायपुर के लिए उनका एक इंटरव्यू लिया था। मैंने उनसे पूछा था कि- ''एक ऐसे गांव में जहां के लोगों ने अब तक रेलगाड़ी भी नहीं देखी घूमकर आने के बाद क्या आप को निराशा नहीं होती कि हमारी सामाजिक-आर्थिक गति कितनी धीमी है?'' तो उन्होंने जो जवाब दिया वह आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने बताया कि- ''मैंने उस गांव में यह देखा कि आदिवासी युवा लड़के, उड़ते हुए गिध्द को अपने तीर का निशाना बना देते हैं और आसमान में हर उड़ता हुआ गिध्द एकाएक उनके सामने आ गिरता है, इसलिए मैं निराश नहीं हूं। सारी दिक्कत यह है कि आदिवासी को अपने दुश्मन का पता नहीं है, जिस दिन उसे अपने दुश्मन का पता चल जाएगा, उस दिन वह उसे छोड़ेगा नहीं।'' राजनारायण के मिश्र के शब्दों का सच हमारे सामने आने लगा है कि यह वह सही समय है जब हमारी सरकारों को देखना चाहिए कि आदिवासियों के साथ किसी तरह का अन्याय न हो, निजी व्यापारियों और सरकारी कर्मचारियों की सांठ-गांठ से उनका शोषण न हो और उन्हें उनके काम का वाजिब दाम मिले। अब इसमें किसी भी तरह की देर या ढिलाई, हमें अंधकार की तरफ ही ले जाएगी। आदिवासी अपने आप में सम्पूर्ण होता है वह बुध्दिजीवी या गैर-बुध्दिजीवी नहीं होता और न ही उसमें किसी तरह का छद्म होता है। वह सरल भी होता है। उससे बात करने के लिए यह जरूरी होता है कि आप अपनी नकली और मनुष्य-विरोधी तथा सत्ता के अहम् से भरी मानसिकता की सीढ़ी से नीचे उतरें और ठोस जमीन पर खड़े होकर उसकी जमीन के बारे में बात करें, अपनी जमीन के बारे में नहीं। सत्ता का तंत्र आम आदमी को बांटकर रखने में इसलिए रुचि लेता है कि इससे उसकी रोजी-रोटी चलती है और जब रोजी-रोटी की जरूरत छोटी पड़ने लगती है तो, अपने अहम् के लिए, अपने ही लोगों का इस्तेमाल वस्तुओं की तरह करने लगती है। कहते हैं कि सत्ता की हथेलियों में संवेदना नहीं होती और जब सत्ता किसी पर हमला करती है तो लोहे की हथेलियों के साथ करती है। जब यह तथ्य हमारे सामने है तो इसका अर्थ यह कतई नहीं कि हम अपनी संवेदनात्मकता को भूल जाएं, इसका अर्थ यह है कि सत्ता के चरित्र को बदलने की कोशिशें तेज की जानी चाहिए। ------------- तेजिन्दर गगन भाषा का मुनष्य के साथ एक गहन और संवेदनात्मक रिश्ता होता है। हम वही होते हैं जो हम सोचते हैं और फिर इसी सोच को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। भाषा की पहली भूमिका अभिव्यक्ति में ही है, इसके बाद समाज के साथ है। जब समाज के साथ है तो अंतत: समाज की हर गतिविधि के साथ है- व्यवहार के रूप में सबसे पहले मातृभाषा है- फिर औपचारिक शिक्षा की भाषा है और फिर व्यापार की भाषा भी है। एक आदर्श स्थिति में अकादेमिक, प्रशासन और व्यापार की भाषा एक ही होनी चाहिए किंतु भारतीय परिदृश्य में भाषा का संसार काफी जटिल और संश्लिष्ट है।
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू अपनी बेबाक राय के लिए जाने जाते हैं। अभी हाल ही, उनका एक बयान आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ''अंग्रेजी हमारे लिए पश्चिम के दर्शन और ज्ञान की एक खिड़की है और इसका जानना बहुत जरूरी है, अगर हम अंग्रेजी नहीं पढ़ेंगे तो हमारे वे युवा जिन्हें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं होगा, आजीवन बैलगाड़ी खींचते रहेंगे।'' न्यायमूर्ति काटजू ठीक कहते हैं। दरअसल आाादी के बाद हमारी जो भाषा-नीति रही है वह काफी हद तक खोखली साबित हुई है और यथार्थ के धरातल की जगह एक झूठे अहम् और कथित आदर्श के आधार पर टिकी हुई है या कहना चाहिए कि लड़खड़ा रही है। हम सब जानते हैं कि खड़ी बोली का इतिहास कोई डेढ़-दो सौ वर्ष से पुराना नहीं है और अभी तक हम खडी बोली के ही ठोस मानक तैयार नहीं कर सके हैं। पिछले सौ सालों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जो तरक्की देश में और पूरे संसार में हुई है हिन्दी में शोध के मामले में या मानक शब्द कोष बनाने के संदर्भ में जो काम हुआ है वह लगभग नगण्य है। अगर आपको जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ना है तो आप इस सच्चाई से आंख नहीं मोड़ सकते और यह बेहतर होगा कि जिस भाषा के अद्यतन अनुसंधान की पुस्तकें उपलब्ध हैं उनका सहारा लेकर, आगे बढ़ लिया जाए। भाषा के नाम पर युवाओं के विकास को रोका नहीं जा सकता। हिन्दी के मूढ़-मति अधिकारी और अनुवादक अपने कवच से बाहर नहीं निकलना चाहते। भाषा की शुध्दता के सवाल को वे कुछ इस तरह उठाते हैं कि जड़ नंजर आते हैं। देश में पिछले लगभग बीस वर्षों में यानि कि सन् 1991 के नवउदारवाद के बाद शहरों में औद्योगिकीकरण तेजी के साथ बढ़ा है, यह एक सच्चाई है, इन वर्षों में बड़ी संख्या में हमारे ग्रामीण क्षेत्रों से श्रमिक और अन्य वर्गों के लोग शहरों में आए हैं, भले वे रोजगार की तलाश में आए हों किंतु वे अकेले नहीं आए, अपनी भाषा और संस्कृति के कुछ पृष्ठ लेकर वे शहरों में आए। हिन्दी के ऐसे कितने विद्वान हैं, जिन्होंने कि उनकी भाषा के नए शब्दों को पकड़ा और खड़ी बोली के मानकों में शामिल करने का प्रयास किया, पता नहीं। अभी रायपुर में भाषा पर केन्द्रित एक कार्यक्रम में हिन्दी के एक कथित महान विचारक और पिछले करीब चालीस वर्षों से क्रांतिवीर का दोशाला ओढ़ रखे विद्वान वेदप्रताप वैदिक का भाषण सुनने का अवसर मिला। जिस भाषा में इस तरह के विद्वान होंगे उस भाषा के भविष्य की कल्पना सहज ही की जा सकती है। ये विद्वान महोदय हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए बार-बार जाति पर आधारित आरक्षण को खत्म करने की वकालत कर रहे थे और अपने भाषण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं के विचार अपने समर्थन में उध्दृत कर रहे थे। वे बता रहे थे कि दुनिया के तमाम देशों में और विशेष रूप से चीन में वे कितनी बार और क्या-क्या देख कर आए हैं। उनकी बातों से यह स्पष्ट था कि वे खुली आंखों से कहीं नहीं गए बल्कि नागपुर के रेशिमबाग से अपनी आंखों में केसरिया पट्टी बांध कर जाते रहे हैं। उन्होंने अत्यंत गैर-जिम्मेदाराना और हास्यास्पद शब्दों में प्रख्यात लेखक तथा बुध्दिजीवी जार्ज बर्नाड शॉ के शब्द कथित रूप से उधार लेकर अंग्रेजी को एक हास्यास्पद और गैर-तार्किक भाषा के रूप में प्रमाणित करने की बचकानी कोशिश भी की। यह अजीब बात है कि उन्हें जॉर्ज बर्नाड शॉ जैसे प्रखर बौध्दिक के जीवन और रचनाकर्म से यही कुछ मिला जो उन्होंने उस कार्यक्रम में सबके सामने उडेल दिया। कुल मिलाकर सारा मामला एक राजनैतिक दृष्टि से ओत-प्रोत था। भाषा का इस्तेमाल अपनी राजनैतिक स्वार्थ-सिध्दि के लिए करने से बड़ा असभ्य और गैर-जिम्मेदाराना काम और कुछ हो नहीं सकता। हमारी पहली प्राथमिकता तो यह होनी चाहिए कि हिन्दी को देश के ही गैर हिन्दी प्रदेशों में सम्मान और स्वीकृति मिले। सन् साठ के दशक में जिस तरह पंजाब और हरियाणा में भाषा के नाम पर राजनीति की गई और अंतत: पंजाब का विभाजन कर नए राज्य हरियाणा का गठन किया गया वह तो सर्वविदित है लेकिन भाषा के नाम पर अलग-अलग प्रांतों में लोग कैसा व्यवहार करते हैं इसका प्रमाण छत्तीसग्रढ़ के दो पड़ोसी राज्य ओड़िशा और महाराष्ट्रभी हैं। मुझे महाराष्ट्र के नागपुर में करीब पांच वर्ष रहने का अवसर मिला। वहां यह बात देखकर मैं अचंभित रह गया कि पुणे और औरंगाबाद के मराठीभाषी, विदर्भ की मराठी को एक तरह की हेय दृष्टि के साथ देखते हैं कि वह हिन्दी मिश्रित है, इसलिए शुध्द नहीं है। ठीक यही स्थिति ओड़िशा में है- पश्चिमी ओड़िशा और तटीय ओड़िशा। तटीय ओड़िशा यानि कि कटक और भुवनेश्वर के ओड़िशा विद्वान, संबलपुर और पश्चिम ओड़िशा की भाषा को सम्मान के साथ नहीं देखते क्योंकि उनका मानना है कि इस क्षेत्र की भाषा शुध्द नहीं है क्योंकि इसमें हिन्दी के शब्द हैं। इसी तरह तमिलनाडु तो एक कदम आगे है। वहां यह माना जाता है कि तमिल भाषा संसार की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक है और अन्य भारतीय भाषाएं तो उसके सामने कहीं टिकती ही नहीं। यहां तक कि वे यह मानते हैं कि तमिल में जहां-जहां भी संस्कृत के शब्द आए हैं वहां तमिल भ्रष्ट हो गई है। तो क्या हम इस तरह के परिदृश्य से पलायन कर सकते हैं? नहीं- बल्कि हमें इससे जूझना होगा और अपनी विश्वसनीयता स्थापित करनी होगी। जब तक हिन्दी की यह विश्वसनीयता स्थापित नहीं होती और हम हिन्दी का विकास एक ऐसी समृध्द भाषा में नहीं कर लेते कि वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा कर सके हमें अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही आगे बढ़ना होगा वर्ना हम पिछड़ जाएंगे और न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू के शब्दों में हमारा युवा बैलगाड़ी ही खींचता रह जाएगा। यह सच है कि तमाम विरोधाभासों और कठिनाईयों के बावजूद हिन्दी में पिछले कुछ दशकों में, कविता, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण साहित्य रचा गया है, लेकिन बााार के व्यवहार की दूरदृष्टि के अभाव में हम उसे सामान्यजन तक नहीं पहुंचा सके और हमारी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह गईं जबकि मलयालम, बांग्ला, मराठी, पंजाबी और तमिल आदि भाषाओं में जो सार्थक साहित्य रचा गया वह सामान्यजन तक पहुंच सका। हिन्दी में तो स्थिति न केवल दयनीय बल्कि शर्मनाक है। करोड़ों हिन्दी भाषियों के वृहद संसार में सृजनात्मक साहित्य की एक हजार पुस्तकें छपती हैं और कुछ पचास-सौ या दो सौ लोगों में गुम हो जाती है। बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, इस पर फिर कभी...। तेजिन्दर |
![]() एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
आभार देवाशीष वत्स Archives
May 2013
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