भाषा का मुनष्य के साथ एक गहन और संवेदनात्मक रिश्ता होता है। हम वही होते हैं जो हम सोचते हैं और फिर इसी सोच को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। भाषा की पहली भूमिका अभिव्यक्ति में ही है, इसके बाद समाज के साथ है। जब समाज के साथ है तो अंतत: समाज की हर गतिविधि के साथ है- व्यवहार के रूप में सबसे पहले मातृभाषा है- फिर औपचारिक शिक्षा की भाषा है और फिर व्यापार की भाषा भी है। एक आदर्श स्थिति में अकादेमिक, प्रशासन और व्यापार की भाषा एक ही होनी चाहिए किंतु भारतीय परिदृश्य में भाषा का संसार काफी जटिल और संश्लिष्ट है।
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू अपनी बेबाक राय के लिए जाने जाते हैं। अभी हाल ही, उनका एक बयान आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ''अंग्रेजी हमारे लिए पश्चिम के दर्शन और ज्ञान की एक खिड़की है और इसका जानना बहुत जरूरी है, अगर हम अंग्रेजी नहीं पढ़ेंगे तो हमारे वे युवा जिन्हें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं होगा, आजीवन बैलगाड़ी खींचते रहेंगे।'' न्यायमूर्ति काटजू ठीक कहते हैं। दरअसल आाादी के बाद हमारी जो भाषा-नीति रही है वह काफी हद तक खोखली साबित हुई है और यथार्थ के धरातल की जगह एक झूठे अहम् और कथित आदर्श के आधार पर टिकी हुई है या कहना चाहिए कि लड़खड़ा रही है। हम सब जानते हैं कि खड़ी बोली का इतिहास कोई डेढ़-दो सौ वर्ष से पुराना नहीं है और अभी तक हम खडी बोली के ही ठोस मानक तैयार नहीं कर सके हैं। पिछले सौ सालों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जो तरक्की देश में और पूरे संसार में हुई है हिन्दी में शोध के मामले में या मानक शब्द कोष बनाने के संदर्भ में जो काम हुआ है वह लगभग नगण्य है। अगर आपको जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ना है तो आप इस सच्चाई से आंख नहीं मोड़ सकते और यह बेहतर होगा कि जिस भाषा के अद्यतन अनुसंधान की पुस्तकें उपलब्ध हैं उनका सहारा लेकर, आगे बढ़ लिया जाए। भाषा के नाम पर युवाओं के विकास को रोका नहीं जा सकता। हिन्दी के मूढ़-मति अधिकारी और अनुवादक अपने कवच से बाहर नहीं निकलना चाहते। भाषा की शुध्दता के सवाल को वे कुछ इस तरह उठाते हैं कि जड़ नंजर आते हैं। देश में पिछले लगभग बीस वर्षों में यानि कि सन् 1991 के नवउदारवाद के बाद शहरों में औद्योगिकीकरण तेजी के साथ बढ़ा है, यह एक सच्चाई है, इन वर्षों में बड़ी संख्या में हमारे ग्रामीण क्षेत्रों से श्रमिक और अन्य वर्गों के लोग शहरों में आए हैं, भले वे रोजगार की तलाश में आए हों किंतु वे अकेले नहीं आए, अपनी भाषा और संस्कृति के कुछ पृष्ठ लेकर वे शहरों में आए। हिन्दी के ऐसे कितने विद्वान हैं, जिन्होंने कि उनकी भाषा के नए शब्दों को पकड़ा और खड़ी बोली के मानकों में शामिल करने का प्रयास किया, पता नहीं।
अभी रायपुर में भाषा पर केन्द्रित एक कार्यक्रम में हिन्दी के एक कथित महान विचारक और पिछले करीब चालीस वर्षों से क्रांतिवीर का दोशाला ओढ़ रखे विद्वान वेदप्रताप वैदिक का भाषण सुनने का अवसर मिला। जिस भाषा में इस तरह के विद्वान होंगे उस भाषा के भविष्य की कल्पना सहज ही की जा सकती है। ये विद्वान महोदय हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए बार-बार जाति पर आधारित आरक्षण को खत्म करने की वकालत कर रहे थे और अपने भाषण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं के विचार अपने समर्थन में उध्दृत कर रहे थे। वे बता रहे थे कि दुनिया के तमाम देशों में और विशेष रूप से चीन में वे कितनी बार और क्या-क्या देख कर आए हैं। उनकी बातों से यह स्पष्ट था कि वे खुली आंखों से कहीं नहीं गए बल्कि नागपुर के रेशिमबाग से अपनी आंखों में केसरिया पट्टी बांध कर जाते रहे हैं। उन्होंने अत्यंत गैर-जिम्मेदाराना और हास्यास्पद शब्दों में प्रख्यात लेखक तथा बुध्दिजीवी जार्ज बर्नाड शॉ के शब्द कथित रूप से उधार लेकर अंग्रेजी को एक हास्यास्पद और गैर-तार्किक भाषा के रूप में प्रमाणित करने की बचकानी कोशिश भी की। यह अजीब बात है कि उन्हें जॉर्ज बर्नाड शॉ जैसे प्रखर बौध्दिक के जीवन और रचनाकर्म से यही कुछ मिला जो उन्होंने उस कार्यक्रम में सबके सामने उडेल दिया। कुल मिलाकर सारा मामला एक राजनैतिक दृष्टि से ओत-प्रोत था। भाषा का इस्तेमाल अपनी राजनैतिक स्वार्थ-सिध्दि के लिए करने से बड़ा असभ्य और गैर-जिम्मेदाराना काम और कुछ हो नहीं सकता।
हमारी पहली प्राथमिकता तो यह होनी चाहिए कि हिन्दी को देश के ही गैर हिन्दी प्रदेशों में सम्मान और स्वीकृति मिले। सन् साठ के दशक में जिस तरह पंजाब और हरियाणा में भाषा के नाम पर राजनीति की गई और अंतत: पंजाब का विभाजन कर नए राज्य हरियाणा का गठन किया गया वह तो सर्वविदित है लेकिन भाषा के नाम पर अलग-अलग प्रांतों में लोग कैसा व्यवहार करते हैं इसका प्रमाण छत्तीसग्रढ़ के दो पड़ोसी राज्य ओड़िशा और महाराष्ट्रभी हैं। मुझे महाराष्ट्र के नागपुर में करीब पांच वर्ष रहने का अवसर मिला। वहां यह बात देखकर मैं अचंभित रह गया कि पुणे और औरंगाबाद के मराठीभाषी, विदर्भ की मराठी को एक तरह की हेय दृष्टि के साथ देखते हैं कि वह हिन्दी मिश्रित है, इसलिए शुध्द नहीं है। ठीक यही स्थिति ओड़िशा में है- पश्चिमी ओड़िशा और तटीय ओड़िशा। तटीय ओड़िशा यानि कि कटक और भुवनेश्वर के ओड़िशा विद्वान, संबलपुर और पश्चिम ओड़िशा की भाषा को सम्मान के साथ नहीं देखते क्योंकि उनका मानना है कि इस क्षेत्र की भाषा शुध्द नहीं है क्योंकि इसमें हिन्दी के शब्द हैं। इसी तरह तमिलनाडु तो एक कदम आगे है। वहां यह माना जाता है कि तमिल भाषा संसार की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक है और अन्य भारतीय भाषाएं तो उसके सामने कहीं टिकती ही नहीं। यहां तक कि वे यह मानते हैं कि तमिल में जहां-जहां भी संस्कृत के शब्द आए हैं वहां तमिल भ्रष्ट हो गई है। तो क्या हम इस तरह के परिदृश्य से पलायन कर सकते हैं? नहीं- बल्कि हमें इससे जूझना होगा और अपनी विश्वसनीयता स्थापित करनी होगी। जब तक हिन्दी की यह विश्वसनीयता स्थापित नहीं होती और हम हिन्दी का विकास एक ऐसी समृध्द भाषा में नहीं कर लेते कि वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा कर सके हमें अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही आगे बढ़ना होगा वर्ना हम पिछड़ जाएंगे और न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू के शब्दों में हमारा युवा बैलगाड़ी ही खींचता रह जाएगा।
यह सच है कि तमाम विरोधाभासों और कठिनाईयों के बावजूद हिन्दी में पिछले कुछ दशकों में, कविता, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण साहित्य रचा गया है, लेकिन बााार के व्यवहार की दूरदृष्टि के अभाव में हम उसे सामान्यजन तक नहीं पहुंचा सके और हमारी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह गईं जबकि मलयालम, बांग्ला, मराठी, पंजाबी और तमिल आदि भाषाओं में जो सार्थक साहित्य रचा गया वह सामान्यजन तक पहुंच सका। हिन्दी में तो स्थिति न केवल दयनीय बल्कि शर्मनाक है। करोड़ों हिन्दी भाषियों के वृहद संसार में सृजनात्मक साहित्य की एक हजार पुस्तकें छपती हैं और कुछ पचास-सौ या दो सौ लोगों में गुम हो जाती है। बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, इस पर फिर कभी...।
तेजिन्दर
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू अपनी बेबाक राय के लिए जाने जाते हैं। अभी हाल ही, उनका एक बयान आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ''अंग्रेजी हमारे लिए पश्चिम के दर्शन और ज्ञान की एक खिड़की है और इसका जानना बहुत जरूरी है, अगर हम अंग्रेजी नहीं पढ़ेंगे तो हमारे वे युवा जिन्हें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं होगा, आजीवन बैलगाड़ी खींचते रहेंगे।'' न्यायमूर्ति काटजू ठीक कहते हैं। दरअसल आाादी के बाद हमारी जो भाषा-नीति रही है वह काफी हद तक खोखली साबित हुई है और यथार्थ के धरातल की जगह एक झूठे अहम् और कथित आदर्श के आधार पर टिकी हुई है या कहना चाहिए कि लड़खड़ा रही है। हम सब जानते हैं कि खड़ी बोली का इतिहास कोई डेढ़-दो सौ वर्ष से पुराना नहीं है और अभी तक हम खडी बोली के ही ठोस मानक तैयार नहीं कर सके हैं। पिछले सौ सालों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जो तरक्की देश में और पूरे संसार में हुई है हिन्दी में शोध के मामले में या मानक शब्द कोष बनाने के संदर्भ में जो काम हुआ है वह लगभग नगण्य है। अगर आपको जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ना है तो आप इस सच्चाई से आंख नहीं मोड़ सकते और यह बेहतर होगा कि जिस भाषा के अद्यतन अनुसंधान की पुस्तकें उपलब्ध हैं उनका सहारा लेकर, आगे बढ़ लिया जाए। भाषा के नाम पर युवाओं के विकास को रोका नहीं जा सकता। हिन्दी के मूढ़-मति अधिकारी और अनुवादक अपने कवच से बाहर नहीं निकलना चाहते। भाषा की शुध्दता के सवाल को वे कुछ इस तरह उठाते हैं कि जड़ नंजर आते हैं। देश में पिछले लगभग बीस वर्षों में यानि कि सन् 1991 के नवउदारवाद के बाद शहरों में औद्योगिकीकरण तेजी के साथ बढ़ा है, यह एक सच्चाई है, इन वर्षों में बड़ी संख्या में हमारे ग्रामीण क्षेत्रों से श्रमिक और अन्य वर्गों के लोग शहरों में आए हैं, भले वे रोजगार की तलाश में आए हों किंतु वे अकेले नहीं आए, अपनी भाषा और संस्कृति के कुछ पृष्ठ लेकर वे शहरों में आए। हिन्दी के ऐसे कितने विद्वान हैं, जिन्होंने कि उनकी भाषा के नए शब्दों को पकड़ा और खड़ी बोली के मानकों में शामिल करने का प्रयास किया, पता नहीं।
अभी रायपुर में भाषा पर केन्द्रित एक कार्यक्रम में हिन्दी के एक कथित महान विचारक और पिछले करीब चालीस वर्षों से क्रांतिवीर का दोशाला ओढ़ रखे विद्वान वेदप्रताप वैदिक का भाषण सुनने का अवसर मिला। जिस भाषा में इस तरह के विद्वान होंगे उस भाषा के भविष्य की कल्पना सहज ही की जा सकती है। ये विद्वान महोदय हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए बार-बार जाति पर आधारित आरक्षण को खत्म करने की वकालत कर रहे थे और अपने भाषण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं के विचार अपने समर्थन में उध्दृत कर रहे थे। वे बता रहे थे कि दुनिया के तमाम देशों में और विशेष रूप से चीन में वे कितनी बार और क्या-क्या देख कर आए हैं। उनकी बातों से यह स्पष्ट था कि वे खुली आंखों से कहीं नहीं गए बल्कि नागपुर के रेशिमबाग से अपनी आंखों में केसरिया पट्टी बांध कर जाते रहे हैं। उन्होंने अत्यंत गैर-जिम्मेदाराना और हास्यास्पद शब्दों में प्रख्यात लेखक तथा बुध्दिजीवी जार्ज बर्नाड शॉ के शब्द कथित रूप से उधार लेकर अंग्रेजी को एक हास्यास्पद और गैर-तार्किक भाषा के रूप में प्रमाणित करने की बचकानी कोशिश भी की। यह अजीब बात है कि उन्हें जॉर्ज बर्नाड शॉ जैसे प्रखर बौध्दिक के जीवन और रचनाकर्म से यही कुछ मिला जो उन्होंने उस कार्यक्रम में सबके सामने उडेल दिया। कुल मिलाकर सारा मामला एक राजनैतिक दृष्टि से ओत-प्रोत था। भाषा का इस्तेमाल अपनी राजनैतिक स्वार्थ-सिध्दि के लिए करने से बड़ा असभ्य और गैर-जिम्मेदाराना काम और कुछ हो नहीं सकता।
हमारी पहली प्राथमिकता तो यह होनी चाहिए कि हिन्दी को देश के ही गैर हिन्दी प्रदेशों में सम्मान और स्वीकृति मिले। सन् साठ के दशक में जिस तरह पंजाब और हरियाणा में भाषा के नाम पर राजनीति की गई और अंतत: पंजाब का विभाजन कर नए राज्य हरियाणा का गठन किया गया वह तो सर्वविदित है लेकिन भाषा के नाम पर अलग-अलग प्रांतों में लोग कैसा व्यवहार करते हैं इसका प्रमाण छत्तीसग्रढ़ के दो पड़ोसी राज्य ओड़िशा और महाराष्ट्रभी हैं। मुझे महाराष्ट्र के नागपुर में करीब पांच वर्ष रहने का अवसर मिला। वहां यह बात देखकर मैं अचंभित रह गया कि पुणे और औरंगाबाद के मराठीभाषी, विदर्भ की मराठी को एक तरह की हेय दृष्टि के साथ देखते हैं कि वह हिन्दी मिश्रित है, इसलिए शुध्द नहीं है। ठीक यही स्थिति ओड़िशा में है- पश्चिमी ओड़िशा और तटीय ओड़िशा। तटीय ओड़िशा यानि कि कटक और भुवनेश्वर के ओड़िशा विद्वान, संबलपुर और पश्चिम ओड़िशा की भाषा को सम्मान के साथ नहीं देखते क्योंकि उनका मानना है कि इस क्षेत्र की भाषा शुध्द नहीं है क्योंकि इसमें हिन्दी के शब्द हैं। इसी तरह तमिलनाडु तो एक कदम आगे है। वहां यह माना जाता है कि तमिल भाषा संसार की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक है और अन्य भारतीय भाषाएं तो उसके सामने कहीं टिकती ही नहीं। यहां तक कि वे यह मानते हैं कि तमिल में जहां-जहां भी संस्कृत के शब्द आए हैं वहां तमिल भ्रष्ट हो गई है। तो क्या हम इस तरह के परिदृश्य से पलायन कर सकते हैं? नहीं- बल्कि हमें इससे जूझना होगा और अपनी विश्वसनीयता स्थापित करनी होगी। जब तक हिन्दी की यह विश्वसनीयता स्थापित नहीं होती और हम हिन्दी का विकास एक ऐसी समृध्द भाषा में नहीं कर लेते कि वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा कर सके हमें अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही आगे बढ़ना होगा वर्ना हम पिछड़ जाएंगे और न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू के शब्दों में हमारा युवा बैलगाड़ी ही खींचता रह जाएगा।
यह सच है कि तमाम विरोधाभासों और कठिनाईयों के बावजूद हिन्दी में पिछले कुछ दशकों में, कविता, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण साहित्य रचा गया है, लेकिन बााार के व्यवहार की दूरदृष्टि के अभाव में हम उसे सामान्यजन तक नहीं पहुंचा सके और हमारी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह गईं जबकि मलयालम, बांग्ला, मराठी, पंजाबी और तमिल आदि भाषाओं में जो सार्थक साहित्य रचा गया वह सामान्यजन तक पहुंच सका। हिन्दी में तो स्थिति न केवल दयनीय बल्कि शर्मनाक है। करोड़ों हिन्दी भाषियों के वृहद संसार में सृजनात्मक साहित्य की एक हजार पुस्तकें छपती हैं और कुछ पचास-सौ या दो सौ लोगों में गुम हो जाती है। बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, इस पर फिर कभी...।
तेजिन्दर