योगेन्द्र कृष्ण की एक कविता की पंक्तियां हैं 'हत्यारे जब बुध्दिजीवी होते हैं, वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते बख्श देते हैं तुम्हारी जिन्दगीबड़ी चालाकी सेझपट लेते हैं तुम सेतुम्हारा वह समयतुम्हारी वह आवाजतुम्हारा वह शब्दजिसमें तुम रहते हो' आज के राजनैतिक-सामाजिक जीवन में संभवत: यह बहुत गंभीर प्रश्न है कि पहले हम यह तय करें कि हमारा अपना पक्ष क्या है? हम किन लोगों के साथ हैं और इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि हम किन लोगों के साथ नहीं हैं। विरोध में है, यह कहने का साहस भले न हो पर यह बताना तो जरूरी है कि हम उनके साथ नहीं हैं। एक तरह के धुंधलके में यह प्रश्न कहीं गायब हो गया सा लगता है।
इसका उत्तर कहीं तो होगा इस बात का विश्वास आम आदमी को नहीं है, आम आदमी को तो इस बात का भी विश्वास नहीं है कि हत्यारा कभी बुध्दिजीवी भी हो सकता है, जबकि वह अलग-अलग रूपों में हमारे आस-पास है, वह हम तक अलग-अलग माध्यमों से पहुंच रहा है, कभी समाचार-पत्रों, तो कभी रेडियो एफएम और इन दिनों अक्सर ही टेलीविजन के पर्दे के माध्यम से। आप चाहे कोई भी चैनल लगा लें- एकाध हत्यारा बुध्दिजीवी बहुत मीठी और सधी हुई जुबान में आप से ऐसा कुछ कह रहा होगा जिसे वह तार्किक तो कहेगा ही, आप के हित में भी बताएगा जब कि सच बात यह होती है कि वह उसके अपने हित में होता है। आभिजात्य से ओत-प्रोत एक शहरी उच्च मध्यवर्ग की स्त्री जिसके ऊपर यह आरोप है कि वह कथित रूप से अपनी बच्ची और एक गरीब नौकर की हत्या की साजिश में शामिल है एकाएक उन तमाम मेहनतकश और ममतामयी स्त्रियों के ऊपर छा जाती है। उनका सारा स्थान जो उस चैनल में होना चाहिए था, उसे घेर लेती हैं। चार या उनसे भी अधिक चेहरे क्रिकेट और उसके खिलाड़ियों के बल्ले और घुमावदार गेंदबाजी पर इतनी संजीदगी से बात करते हैं कि विदर्भ के खेतों की पिच सूख जाती है और किसानों तथा क्रिकेट के इन बुध्दिजीवियों की दुनिया दो अलग-अलग खांचों में ढलती जाती है। पिछले दिनों हमने देखा कि हथियारों का व्यापारी क्वोत्रोकी आज भी एक बिकने वाला चेहरा है, उसके बारे में भी घंटों छद्म गंभीरता के साथ बातचीत की जाती है। क्वात्रोकी एक अपराधी हो सकता है या संभव है कि हो भी लेकिन आसपास जो अंधकार फैला है और उसमें जो अपराधी खुलेआम किसी न किसी के संरक्षण में घूम रहे हैं उन पर इन के कैमरों की रोशनियां क्यों नहीं पड़तीं?
मुझे नहीं याद पड़ता कि चैनलों के ये कैमरे कभी बुंदेलखण्ड के भीतरी गांवों में जहां जीवन का अर्थ नर्क से भी बदतर एक जीवन है या विदर्भ के कपास के खेतों में या फिर ओड़िशा के कालाहांडी और बलांगीर जिलों के दूर-दूर तक अंधकार में फैले गांवों में नहीं जाता। इनके लिए भूख से मौन किसी तरह की पीड़ा अथवा आक्रोश पैदा नहीं करती। गरीब का चेहरा इनके लिए बिकाऊ नहीं है। बााार में एक नार झांकने पर यह कितना आश्चर्यजनक और तकलीफदेह तथ्य सामने आता है कि कपास उगाने वाले किसान लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं और बााार में 'हंड्रेड परसेंट कॉटन' वाले कपड़ों के भाव आसमान छू रहे हैं। एक कमींज की कीमत पांच सौ रुपए से लेकर पांच हजार रुपए तक है। यह कपास जो कि अंतत: खेतों से ही आता है कुछ लोगों का जिस्म ढंकने के लिए वृहत्तर फैशन का हिस्सा बन जाता है और कुछ नहीं बल्कि बड़ी संख्या में लोग जमीन की जुताई-रोपाई करते-करते उसी में अपनी देह की जुताई तक कर डालते हैं। इतना असंतुलन? अभी पिछले सप्ताह टेलीविजन चैनलों पर एक दृश्य देखा गया कि सरकारी प्रतिनिधि जब जंगल में सुकमा के जिला कलेक्टर की रिहाई के संदर्भ में जा रहे थे तो आदिवासी नक्सलवादी उनकी तलाशी ले रहे थे या फिर यह कि 'मीडिया' को उनके निर्देशों का पालन करना पड़ रहा था कि इतने बजे आओ और यहां तक आओ। यहां आशय किसी भी तरह से व्यवस्था के खिलाफ जाने का आग्रह नहीं है या फिर हिंसा और अपहरण के पक्ष में जाने का भी नहीं है, इसी तरह लोकतांत्रिक देश में जन-समस्याओं से निपटने के लोकतांत्रिक अहिंसक तरीके से ही अपनाए जा सकते हैं क्योंकि अंतत: वे तरीके ही सकारात्मक परिणाम लाने में सक्षम होंगे पर पता नहीं क्यों मुझे वरिष्ठ पत्रकार राजनारायण मिश्र की एक बात बार-बार याद आती है। यह सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों की बात है। श्री मिश्र 'देशबन्धु' के संपादकीय विभाग में वरिष्ठ थे। उस वर्ष कोलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'स्टेट्समैन' ने ग्रामीण पत्रकारिता पर केन्द्रित एक अखिल भारतीय पुरस्कार आरंभ किया था। श्री राजनारायण मिश्र के रिर्पोताज को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था जो कुल्हाड़ीघाट नामक एक ऐसी दूरस्थ गांव की यात्रा पर आधारित था जहां के निवासियों ने तब तक रेलागाड़ी भी नहीं देखी थी। यह पुरस्कार जीतने पर मैंने आकाशवाणी रायपुर के लिए उनका एक इंटरव्यू लिया था। मैंने उनसे पूछा था कि- ''एक ऐसे गांव में जहां के लोगों ने अब तक रेलगाड़ी भी नहीं देखी घूमकर आने के बाद क्या आप को निराशा नहीं होती कि हमारी सामाजिक-आर्थिक गति कितनी धीमी है?'' तो उन्होंने जो जवाब दिया वह आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने बताया कि- ''मैंने उस गांव में यह देखा कि आदिवासी युवा लड़के, उड़ते हुए गिध्द को अपने तीर का निशाना बना देते हैं और आसमान में हर उड़ता हुआ गिध्द एकाएक उनके सामने आ गिरता है, इसलिए मैं निराश नहीं हूं। सारी दिक्कत यह है कि आदिवासी को अपने दुश्मन का पता नहीं है, जिस दिन उसे अपने दुश्मन का पता चल जाएगा, उस दिन वह उसे छोड़ेगा नहीं।'' राजनारायण के मिश्र के शब्दों का सच हमारे सामने आने लगा है कि यह वह सही समय है जब हमारी सरकारों को देखना चाहिए कि आदिवासियों के साथ किसी तरह का अन्याय न हो, निजी व्यापारियों और सरकारी कर्मचारियों की सांठ-गांठ से उनका शोषण न हो और उन्हें उनके काम का वाजिब दाम मिले। अब इसमें किसी भी तरह की देर या ढिलाई, हमें अंधकार की तरफ ही ले जाएगी। आदिवासी अपने आप में सम्पूर्ण होता है वह बुध्दिजीवी या गैर-बुध्दिजीवी नहीं होता और न ही उसमें किसी तरह का छद्म होता है। वह सरल भी होता है। उससे बात करने के लिए यह जरूरी होता है कि आप अपनी नकली और मनुष्य-विरोधी तथा सत्ता के अहम् से भरी मानसिकता की सीढ़ी से नीचे उतरें और ठोस जमीन पर खड़े होकर उसकी जमीन के बारे में बात करें, अपनी जमीन के बारे में नहीं।
सत्ता का तंत्र आम आदमी को बांटकर रखने में इसलिए रुचि लेता है कि इससे उसकी रोजी-रोटी चलती है और जब रोजी-रोटी की जरूरत छोटी पड़ने लगती है तो, अपने अहम् के लिए, अपने ही लोगों का इस्तेमाल वस्तुओं की तरह करने लगती है। कहते हैं कि सत्ता की हथेलियों में संवेदना नहीं होती और जब सत्ता किसी पर हमला करती है तो लोहे की हथेलियों के साथ करती है। जब यह तथ्य हमारे सामने है तो इसका अर्थ यह कतई नहीं कि हम अपनी संवेदनात्मकता को भूल जाएं, इसका अर्थ यह है कि सत्ता के चरित्र को बदलने की कोशिशें तेज की जानी चाहिए। ------------- तेजिन्दर गगन
इसका उत्तर कहीं तो होगा इस बात का विश्वास आम आदमी को नहीं है, आम आदमी को तो इस बात का भी विश्वास नहीं है कि हत्यारा कभी बुध्दिजीवी भी हो सकता है, जबकि वह अलग-अलग रूपों में हमारे आस-पास है, वह हम तक अलग-अलग माध्यमों से पहुंच रहा है, कभी समाचार-पत्रों, तो कभी रेडियो एफएम और इन दिनों अक्सर ही टेलीविजन के पर्दे के माध्यम से। आप चाहे कोई भी चैनल लगा लें- एकाध हत्यारा बुध्दिजीवी बहुत मीठी और सधी हुई जुबान में आप से ऐसा कुछ कह रहा होगा जिसे वह तार्किक तो कहेगा ही, आप के हित में भी बताएगा जब कि सच बात यह होती है कि वह उसके अपने हित में होता है। आभिजात्य से ओत-प्रोत एक शहरी उच्च मध्यवर्ग की स्त्री जिसके ऊपर यह आरोप है कि वह कथित रूप से अपनी बच्ची और एक गरीब नौकर की हत्या की साजिश में शामिल है एकाएक उन तमाम मेहनतकश और ममतामयी स्त्रियों के ऊपर छा जाती है। उनका सारा स्थान जो उस चैनल में होना चाहिए था, उसे घेर लेती हैं। चार या उनसे भी अधिक चेहरे क्रिकेट और उसके खिलाड़ियों के बल्ले और घुमावदार गेंदबाजी पर इतनी संजीदगी से बात करते हैं कि विदर्भ के खेतों की पिच सूख जाती है और किसानों तथा क्रिकेट के इन बुध्दिजीवियों की दुनिया दो अलग-अलग खांचों में ढलती जाती है। पिछले दिनों हमने देखा कि हथियारों का व्यापारी क्वोत्रोकी आज भी एक बिकने वाला चेहरा है, उसके बारे में भी घंटों छद्म गंभीरता के साथ बातचीत की जाती है। क्वात्रोकी एक अपराधी हो सकता है या संभव है कि हो भी लेकिन आसपास जो अंधकार फैला है और उसमें जो अपराधी खुलेआम किसी न किसी के संरक्षण में घूम रहे हैं उन पर इन के कैमरों की रोशनियां क्यों नहीं पड़तीं?
मुझे नहीं याद पड़ता कि चैनलों के ये कैमरे कभी बुंदेलखण्ड के भीतरी गांवों में जहां जीवन का अर्थ नर्क से भी बदतर एक जीवन है या विदर्भ के कपास के खेतों में या फिर ओड़िशा के कालाहांडी और बलांगीर जिलों के दूर-दूर तक अंधकार में फैले गांवों में नहीं जाता। इनके लिए भूख से मौन किसी तरह की पीड़ा अथवा आक्रोश पैदा नहीं करती। गरीब का चेहरा इनके लिए बिकाऊ नहीं है। बााार में एक नार झांकने पर यह कितना आश्चर्यजनक और तकलीफदेह तथ्य सामने आता है कि कपास उगाने वाले किसान लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं और बााार में 'हंड्रेड परसेंट कॉटन' वाले कपड़ों के भाव आसमान छू रहे हैं। एक कमींज की कीमत पांच सौ रुपए से लेकर पांच हजार रुपए तक है। यह कपास जो कि अंतत: खेतों से ही आता है कुछ लोगों का जिस्म ढंकने के लिए वृहत्तर फैशन का हिस्सा बन जाता है और कुछ नहीं बल्कि बड़ी संख्या में लोग जमीन की जुताई-रोपाई करते-करते उसी में अपनी देह की जुताई तक कर डालते हैं। इतना असंतुलन? अभी पिछले सप्ताह टेलीविजन चैनलों पर एक दृश्य देखा गया कि सरकारी प्रतिनिधि जब जंगल में सुकमा के जिला कलेक्टर की रिहाई के संदर्भ में जा रहे थे तो आदिवासी नक्सलवादी उनकी तलाशी ले रहे थे या फिर यह कि 'मीडिया' को उनके निर्देशों का पालन करना पड़ रहा था कि इतने बजे आओ और यहां तक आओ। यहां आशय किसी भी तरह से व्यवस्था के खिलाफ जाने का आग्रह नहीं है या फिर हिंसा और अपहरण के पक्ष में जाने का भी नहीं है, इसी तरह लोकतांत्रिक देश में जन-समस्याओं से निपटने के लोकतांत्रिक अहिंसक तरीके से ही अपनाए जा सकते हैं क्योंकि अंतत: वे तरीके ही सकारात्मक परिणाम लाने में सक्षम होंगे पर पता नहीं क्यों मुझे वरिष्ठ पत्रकार राजनारायण मिश्र की एक बात बार-बार याद आती है। यह सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों की बात है। श्री मिश्र 'देशबन्धु' के संपादकीय विभाग में वरिष्ठ थे। उस वर्ष कोलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'स्टेट्समैन' ने ग्रामीण पत्रकारिता पर केन्द्रित एक अखिल भारतीय पुरस्कार आरंभ किया था। श्री राजनारायण मिश्र के रिर्पोताज को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था जो कुल्हाड़ीघाट नामक एक ऐसी दूरस्थ गांव की यात्रा पर आधारित था जहां के निवासियों ने तब तक रेलागाड़ी भी नहीं देखी थी। यह पुरस्कार जीतने पर मैंने आकाशवाणी रायपुर के लिए उनका एक इंटरव्यू लिया था। मैंने उनसे पूछा था कि- ''एक ऐसे गांव में जहां के लोगों ने अब तक रेलगाड़ी भी नहीं देखी घूमकर आने के बाद क्या आप को निराशा नहीं होती कि हमारी सामाजिक-आर्थिक गति कितनी धीमी है?'' तो उन्होंने जो जवाब दिया वह आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने बताया कि- ''मैंने उस गांव में यह देखा कि आदिवासी युवा लड़के, उड़ते हुए गिध्द को अपने तीर का निशाना बना देते हैं और आसमान में हर उड़ता हुआ गिध्द एकाएक उनके सामने आ गिरता है, इसलिए मैं निराश नहीं हूं। सारी दिक्कत यह है कि आदिवासी को अपने दुश्मन का पता नहीं है, जिस दिन उसे अपने दुश्मन का पता चल जाएगा, उस दिन वह उसे छोड़ेगा नहीं।'' राजनारायण के मिश्र के शब्दों का सच हमारे सामने आने लगा है कि यह वह सही समय है जब हमारी सरकारों को देखना चाहिए कि आदिवासियों के साथ किसी तरह का अन्याय न हो, निजी व्यापारियों और सरकारी कर्मचारियों की सांठ-गांठ से उनका शोषण न हो और उन्हें उनके काम का वाजिब दाम मिले। अब इसमें किसी भी तरह की देर या ढिलाई, हमें अंधकार की तरफ ही ले जाएगी। आदिवासी अपने आप में सम्पूर्ण होता है वह बुध्दिजीवी या गैर-बुध्दिजीवी नहीं होता और न ही उसमें किसी तरह का छद्म होता है। वह सरल भी होता है। उससे बात करने के लिए यह जरूरी होता है कि आप अपनी नकली और मनुष्य-विरोधी तथा सत्ता के अहम् से भरी मानसिकता की सीढ़ी से नीचे उतरें और ठोस जमीन पर खड़े होकर उसकी जमीन के बारे में बात करें, अपनी जमीन के बारे में नहीं।
सत्ता का तंत्र आम आदमी को बांटकर रखने में इसलिए रुचि लेता है कि इससे उसकी रोजी-रोटी चलती है और जब रोजी-रोटी की जरूरत छोटी पड़ने लगती है तो, अपने अहम् के लिए, अपने ही लोगों का इस्तेमाल वस्तुओं की तरह करने लगती है। कहते हैं कि सत्ता की हथेलियों में संवेदना नहीं होती और जब सत्ता किसी पर हमला करती है तो लोहे की हथेलियों के साथ करती है। जब यह तथ्य हमारे सामने है तो इसका अर्थ यह कतई नहीं कि हम अपनी संवेदनात्मकता को भूल जाएं, इसका अर्थ यह है कि सत्ता के चरित्र को बदलने की कोशिशें तेज की जानी चाहिए। ------------- तेजिन्दर गगन