![]() अभी कल तक गालियॉं देती तुम्हें हताश खेतिहर, अभी कल तक धूल में नहाते थे गोरैयों के झुंड, अभी कल तक पथराई हुई थी धनहर खेतों की माटी, अभी कल तक धरती की कोख में दुबके पेड़ थे मेंढक, अभी कल तक उदास और बदरंग था आसमान! और आज ऊपर-ही-ऊपर तन गए हैं तम्हारे तंबू, और आज छमका रही है पावस रानी बूँदा-बूँदियों की अपनी पायल, और आज चालू हो गई है झींगुरो की शहनाई अविराम, और आज ज़ोरों से कूक पड़े नाचते थिरकते मोर, और आज आ गई वापस जान दूब की झुलसी शिराओं के अंदर, और आज विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म समेटकर अपने लाव-लश्कर।
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![]() एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
आभार देवाशीष वत्स Archives
May 2013
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