उस अंतिम शिला पर बैठकर स्वामी ने अपना मन एकाग्र किया | वे ध्यान में गहरे उतरते चले गए | उनका ध्यान भारत के वर्तमान और भविष्य पर एकाग्र हो रहा था | देश के इस पतन का कारण क्या है ? एक दृष्टा के दिव्यदर्शन के रूप में उन्होंने देखा-क्यों भारत उन्नति की चोटी से पतन के गर्त में गिर गया | उस एकांत में जहाँ चारों ओर झाग और पवन का वेग ही सुनाई पड़ता था, उनके सारे अस्तित्व में मानों भारत का गंतव्य प्राण के रूप में स्पंदन कर रहा था | भारत की उपलब्धियाँ आकाश के ग्रहों के समान उनके हृदयाकाश में द्युतिमान थीं | अनागत शताब्दियों के आवरण को हटाकर अपना रहस्य उद्घाटित कर रही थीं | भारतीय संस्कृति के क्षमतावान स्वरुप के यथार्थ को स्वामी ने साक्षात देखा | जिस प्रकार कोई वास्तुकार अनबने भवन की कल्पना ईंट और पत्थरों में करता है, उसी प्रकार उन्होंने भारत को उसके मूर्त्त रूप में देखा | साक्षात देखा | सांगोपांग देखा | उन्होंने देखा कि भारत माता की धमनियों में दौड़ने वाला रक्त और कुछ नहीं, केवल धर्म था | अध्यात्म ही उसका प्राण था | उन्हें अनुभव हुआ : भारत का निर्माण उसी सर्वोच्च आध्यात्मिक चेतना की पुन:प्रतिष्ठा से होगा, जिसने उसे सदा के लिए भक्ति, श्रद्धा और मानवता का पालना बना दिया था | उन्होंने भारत की महानता को देखा | उन्होंने उसकी सीमाओं और दुर्बलताओं को भी देखा | भारत अपनी अस्मिता खो चुका था | अब एक मात्र आशा ऋषियों की संस्कृति में थी | उसे पुन: जगाया जाए, उसे पुन: जीवंत किया जाए, उसे पुन: स्थापित किया जाए | धर्म भारत के पतन का कारण नहीं था | पतन का कारण था- धर्म के आदेशों की अवहेलना, उनका उल्लंघन | धर्म का आचरण संसार की सबसे बड़ी शक्ति को जन्म देता है |मोक्षोन्मुखी संन्यासी एक सुधारक, एक राष्ट्रनिर्माता, विश्वशिल्पी में परिणत हो गया था | उनकी आत्मा करुणा से पिघलकर जैसे सर्वव्यापक हो गई | हे भगवान ! जिस देश में बड़ी-बड़ी खोपड़ी वाले आज दो सहस्र वर्षों से यह ही विचार कर रहे हैं कि दाहिने हाथ से खाऊँ या बाएँ हाथ से ? पानी दाहिनी ओर से लूँ या बायीं ओर से | अथवा जो लोग फट फट स्वाहा, क्रां, क्र्रूं हुं हुं करते हैं , उनकी अधोगति न होगी, तो और किसकी होगी ? काल: सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रम: | काल का अतिक्रम करना बहुत कठिन है | ईश्वर सब जानते हैं, भला उनकी आँखों में कौन धूल झोंक सकता है ?जिस देश में करोड़ों लोग महुआ खाकर दिन गुज़ारते हैं, और दस-बीस लाख साधु और दस-बारह करोड़ ब्राह्मण उन गरीबों का खून चूस कर जीते हैं; और उनकी उन्नति के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, वह देश है या नरक ? वह धर्म है या उसकी भ्रमित व्याख्या करने वाला पिशाच नृत्य ? मैं भारत को घूम-घूमकर देख चुका हूँ-क्या बिना कारण के कहीं कोई कार्य होता है ? क्या बिना पाप के दंड मिल सकता है ? 'सब शास्त्रों और पुराणों में व्यास के ये दो वचन हैं - परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप |' देश का दारिद्र्य और अज्ञता देखकर मुझे नींद नहीं आती | क्या हमारे गुरुदेव नहीं कहा करते थे कि खाली पेट से धर्म नहीं होता ? वे गरीब, जो पशुओं का सा जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उसका कारण अज्ञान है | पाजियों ने युग युगों से उनका खून चूसा है और उन्हें अपने पैरों तले कुचला है | हिन्दू, मुसलमान, ईसाई- सबने ही उन्हें पैरों तले रौंदा है | उनकी उद्धार की शक्ति भी भीतर से अर्थात कट्टर हिंदुओं से ही आएगी | प्रत्येक देश में बुराइयाँ धर्म के कारण नहीं, वरन धर्म को न मानने के कारण ही विद्यमान रहती हैं | दोष धर्म का नहीं, समाज का है | स्वामी ने स्पष्ट देखा : सन्यास और सेवा- ये युगल विचार ही भारत का उद्धार कर सकते हैं |हाँ, वे अमेरिका जाएँगे | भारत के करोड़ों लोगों के नाम पर, उनके प्रतिनिधि बनकर वे अमेरिका जाएँगे | अपने मस्तिष्क की शक्ति से वे वहाँ संपत्ति अर्जित करेंगे | भारत लौटकर वे अपने देशवासियों के उत्थान का प्रयत्न करेंगे | या फिर इस प्रयत्न में अपने प्राण दे देंगे | और कोई सहायता करे न करे, गुरुदेव उनकी सहायता करेंगे |उनका वर्षों का चिंतन आज कुछ निष्कर्षों पर पहुँचा था | उन्हें मार्ग मिल गया था | उन्होंने अश्रुभरी आँखों से सागर को देखा : उनका ह्रदय अपने गुरु और जगदंबा के चरणों में नत हो गया | आज से उनका जीवन अपने देश की सेवा को समर्पित था | विशेष रूप से अस्पृश्य नारायण की सेवा के लिए, भूखे नारायणों के लिए, करोड़ों करोड़ दलित और दमित नारायणों के लिए | ब्रह्म का साक्षात्कार, निर्विकल्प समाधि का आनन्द, उनके जीवन का लक्ष्य नहीं था, जीवन का लक्ष्य था - सेवा | उन्होंने नारायण को देखा, संसार के स्वामी, अनुभवातीत, किंतु सारे जीवों में व्याप्त | उनका असीम प्रेम कोई भेदभाव नहीं करता - कोई ऊँच-नीच नहीं है, शुद्ध और अशुद्ध धनी और निर्धन, पुण्यात्मा और पापी - किसी में कोई भेद नहीं करते थे | उनके लिए धर्मलाभ ही मनुष्य के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं था | मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिए- वेद, ऋषि, तपस्या और ध्यान, आत्मसाक्षात्कार ... किंतु यह सर्वसाधारण...उनका जीवन, उनके सुख-दुख, उनकी पीड़ा और दीनता, उनकी निर्धनता और असहायता | मानव यातना से निरपेक्ष धर्म तत्वहीन और सारहीन था | (विवेकानंद के पर प्रस्तुत अंश डॉ. नरेन्द्र कोहली जी द्वारा लिखित पुस्तक 'न भूतो न भविष्यति' से लिया गया है | एक साधारण संन्यासी से एक युग प्रवर्तक और समाज सेवक बनने का दृढ़ संकल्प कन्याकुमारी की अंतिम शिला से शुरू हुआ और पूरे भारत में क्रांति बनकर छा गया | साभार http://kabaadkhaana.blogspot.com )
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एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
आभार देवाशीष वत्स Archives
May 2013
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