नवंबर 1958 में मैनकाइंड में छपे अपने आलेख 'राष्ट्रपति नासर का राजनैतिक दर्शन' में लोहिया ने मिस्र की क्रांति के बहाने, क्रांति के विभिन्न आयामों पर विस्तार से विचार किया है। नासर का ख्याल था कि व्यक्तियों और वर्गों के संघर्ष से दूर रहकर जनता के दिलों से ली गई शक्ति के सहारे देश की सेना, जिसके पास पर्याप्त भौतिक संसाधन हों, क्रांति का सूत्रपात कर सकती है।
यहाँ लोहिया सवाल करते हैं कि क्या सेना को एकमात्र शक्ति मानने वाले नासर सही हैं या पार्टी को एकमात्र ताकत मानने वाले माओ सही हैं या रंगीन जातियों के वे संत व राजनेता सही हैं जो खुद को ऐसे तर्क-वितर्क से परे रखना चाहते हैं। इन सबको लोहिया अस्थायी व गलत समाधान बताते हैं। लोहिया को लगता है कि रंगीन जातियों जब तक अपनी बीमारी को नहीं पहचानती, जो कमोबेश गोरी जातियों की भी बीमारी है, तब तक उनकी क्रांतियाँ ऐसी ही अवरुद्ध होती रहेंगी जैसे राजनैतिक और सामाजिक क्रांतियों के दो पाटों के बीच फंसकर रूसी क्रांति अवरुद्ध हुई या भारतीय क्रांति अवरुद्ध हुई। नासर का तर्क है कि राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र में एक साथ क्रांति से मिस्र में अभूतपूर्व बदलाव संभव हुआ। लोहिया यहाँ अमरीका, फ्रांस और चीन का उदाहरण देते हैं जहाँ दोनों क्रांतियाँ एक साथ हुईं, कि मिस्र कोई अनोखा उदाहरण नहीं है? रूसी और भारतीय क्रांति के अवरुद्ध होने को लोहिया क्रांति की स्थायी विफलता नहीं मानते हैं। लोहिया सोचते हैं कि अगर इन क्रांतियों की अस्थायी अवरुद्धता के कारणों का रंगीन समाजों को बोध हो तो मानव-जाति के नए युग का आरंभ हो जाएगा। नासिर द्वारा सेना की भूमिका को रेखांकित किए जाने के संदर्भ में लोहिया देखते हैं कि अफ्रीकी-एशियाई देशों में सैनिक या अन्य किस्म की तानाशाहियाँ लोकप्रिय होती जा रही हैं। काहिरा से जकार्ता और पीकिंग तक की कई मिसाले हैं और पाकिस्तान इसकी हालिया मिसाल है। पीकिंग के पार्टी आधारित समाधान और काहिरा के सेना आधारित समाधान में वे परिणाम की भिन्नता पाते हैं पर उनका मानना है कि दोनों की भावना एक है। सेना के शासन या अन्य तानाशाहियों के भीतर हो रहे चुनावों की भूमिका पर भी वे विचार करते हैं, ''चुनाव निश्चय ही महत्त्वपूर्ण होते हैं खासकर अगर विचार और संगठन की स्वतंत्रता और आलोचना की योजना का हिस्सा होते हैं।'' पर जिस तरह, स्टालिन के रूस और हिटलर के जर्मनी में चुनावों को वे नियंत्रित देखते हैं, वहां वे उसे प्रायहीन पाते हैं। एशियायी मुल्कों की इस प्रवृत्ति पर भी वे ध्यान दिलाते हैं जब जनता के स्वतंत्र सोचने की क्षमता क्षीण हो जाती है और निर्णय की अपनी जिम्मेदारी वह किसी एक नेता, पार्टी या सेना को सौंप देती है। भारत में इंदिरा गांधी को चुनाव द्वारा सौंपी गई ताकत और आगे, उसके तानाशाही में बदलने की घटनाओं को हम इसके उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। लोहिया भविष्य के गर्भ में छिपी इन घटनाओं का आकलन पहले ही कर चुके थे, वे 1958 में ही लिख रहे थे, ''जिन क्षेत्रों में जनता ने अभी निर्णायक जिम्मेदारी किसी नेता, सेना आदि को सौंपने की संवैधानिक व्यवस्था नहीं की है, जैसे भारत में, वहां पर प्रक्रिया चलने लगी है।'' ऐसी स्थिति में सेना की बजाय पार्टी को जनता द्वारा मिली ताकत को वे ज्यादा स्थायी मानते हैं क्योंकि उसका जनता के मन पर एक हद तक विचारधारात्मक प्रभाव पड़ता है। पाक की सैनिक तानाशाहियों और इंदिरा की तानाशाही के काल की तुलना हम यहाँ कर सकते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में विवेक की शक्ति का क्षय होता वे साफ देखते हैं। भारत में विनोबा भावे जैसे संत राजनेताओं की दल विहीन राजनीति की संकल्पना के खतरों की ओर भी वे ध्यान दिलाते हैं। वे देखते हैं कि विनोबा की ऐसी बहसों से नेहरू आदि को एक आड़ मिलती है। जिसका उपयोग वे पार्टी के मतभेदों, आलोचना आदि को सीमित करने की चालें चलते हैं। यहाँ तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति भी इसका लाभ ले वयस्क मताधिकार की उपयोगिता पर संदेह व्यक्त करते हैं। ऐसा करते हुए निरक्षरता और गरीबी का तर्क देते हैं। दलविहीनता के खतरे की ओर इशारा करते लोहिया बतलाते हैं कि, ''पार्टियों के न रहने पर शिक्षित और शिष्ट व्यवहार वाले लोग ही चुने जाएँगे, दूसरे शब्दों में यथास्थिति के पोषक लोग, निरक्षर लोग, नाराज और शोर मचाने वाले लोग अधिकाधिक बाहर हो जाएँगे। किंतु यही तत्व रंगीन मानव-जातियों का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करते हैं। वयस्क मताधिकार ने इन लोशो को बीच में लाया है। दलविहीन राजनीति या परोक्ष चुनाव का उद्देश्य इन लोगों को बाहर रखना है।'' यूं पार्टी प्रणाली जैसे टाइप्ड होती जा रही है वह भी पूरी दुनिया में विफल होती जा रही है। गोरी जातियों के लिए उसने एक नए राजनैतिक कर्म के समान हो गई है जो अपने प्रति अतिरिक्त निष्ठा के आधार पर पहचान देती है। लोहिया इससे परेशान थे कि राजनैतिक पार्टियों का इस्तेमाल बेशर्मी से अपने व्यक्ति-उत्थान के लिए हो रहा है। ''ये व्यक्ति को सुविधा भी देती हैं और प्रतिष्ठा भी और अकसर उसी अनुपात में जितना वह कमीना होता है।'' हालांकि लोहिया आशा नहीं छोड़ते और ऐसे सच्चे संत नेता की प्रतीक्षा करने की सलाह देते हैं—''जो ऐसी पार्टी बनाएगा जो कभी भी सरकार में नहीं आएगी, लेकिन हमेशा अन्याय से लड़ेगी...।'' इस दूरारूढ कल्पना के बाद लोहिया फिर इस सवाल पर आते हैं कि आखिर रंगीन समाज के लोग क्यों सेना या पार्टी की तानाशाही से आशा कर बैठते हैं। इसकी तह में जाते हुए वे पाते हैं कि गोरे समाजों के मुकाबले रंगीन समाज एक रुका हुआ समाज है जिसने अपनी आबादी बढ़ाई पर उसकी आय में कमी होती गई है। सैकड़ों सालों से वह गुलाम रहा और अब जबकि वह आजाद हो रहा है तो गोरे समाजों की बराबरी करना चाहता है। कमजोर साधनों के आधार पर गोरों की नकल कर आधुनिक बनने की उसकी चाह ही तानाशाही समाधानों में अपनी कामना की पूर्ति के स्वप्न देखती है। यहाँ वे एक और बड़ी गड़बड़ी की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। वह यह कि एकरूपता समानता नहीं होती। किसी के समान दीखने से ही वह उसके समान नहीं हो जाता। वे लिखते हैं, ''रंगीन आदमी में एकरूपता और समानता को एक ही समझने की कमजोरी है, क्योंकि उसने गोरी जाति की शक्ति और उसकी सुख-सुविधाओं को देखा है। वह सोचता है गोरों की नकल करने से उसमें भी वही ताकत आ जाएगी और उसे भी आधुनिक सुविधाएं मिल जाएँगी।'' इस गड़बड़ी को हम भारत की दलित और अगड़ी जातियों के संदर्भ में भी देखते हैं। कभी वे जनेऊ धारण करने का आंदोलन चलाते हैं कभी सिंह टाइटल को लगाकर खुद को अगड़ा बनाना चाहते हैं पर उनकी तरह दिखने से जरूरी है अपना आत्मविश्वास कायम करना और अपने मानदंड रचना जो नकल से नहीं होगा। लोहिया देखते हैं कि आधुनिकीकरण के पीछे पागल रंगीन समाज का आदमी जब सत्तासीन होता है तब ''उत्पादन और उपभोग का आधुनिकीकरण राज्य की नीति का मुख्य ध्रुवतारा बन जाता है।'' इस नीति से जो गंभीर तनाव व दबाव पैदा होता है वह उन्हें तानाशाही की ओर ले जाता है। इस तनाव और तानाशाही की ओर रंगीन जातियों के झुकाव के काणों को तलाशते हुए लोहिया देखते हैं कि उत्पादन और उपभोग के आधुनिकीकरण के लिए जो पूँजी चाहिए वह रंगीन देशों की पहुँच के बाहर है, गोरे देश चाहें भी तो इसमें हमारी मदद नहीं कर सकते। यहाँ एक बड़ा संकट आबादी का बढऩा भी है। गोरों की आबादी भी उसी तेजी से बढ़ी है पर उसके उत्पादन साधनों का विकास भी उसी तेजी से हो रहा है जो रंगीन जातियों के यहाँ नहीं होता। ऐसे में रंगीन राष्ट्र एक रास्ता निकालते हैं। वह टुकड़ों में आधुनिकीकरण करना चाहते हैं, देश को कई क्षेत्रों में बांट वह उनका कई चरणों में विकास की कोशिश करता है। इससे काफी तनाव पैदा होता है। तब जिन क्षेत्रों का विकास हो जाता है या जो माडल बन जाते हैं वे बाकी पिछड़े तबकों के लिए तनाव का कारण बन जाता है फिर जो शीतयुद्ध आरंभ होता है वह रंगीन देशों को सेना या पार्टी की तानाशाही की ओर ले जाता है। यहाँ फिर लोहिया को साम्यवादी सरकारें एक बेहतर उदाहरण के रूप में याद आती हैं जिन्होंने इस समस्या को 'बेहतर ढंग से समझा है...।' क्योंकि उन्होंने उत्पादन और उपभोग के आधुनिकीकरण को अलग-अलग रखा है। वे बताते हैं कि चीन के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री का खर्चा भारतीय राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से करीब बीस गुना कम होगा। वे लिखते हैं—''वे सारी जनता के लिए, मानक निर्धारित करते हैं। साम्यवादी नेताओं का स्तर सादगी का होता है, शायद त्याग का भी जबकि गैर-साम्यवादी नेताओं का स्तर गोरों की नकल के अनुसार होता है।'' यहाँ हम दिनकर की पंक्तियाँ याद कर सकते हैं—''बेलगाम अगर रहा भोग, निश्चय संहार मचेगा...।'' आज भी हम लोहिया और दिनकर के सवालों के आलोक में नेताओं के बेलगाम भोग और गरीब अन्नदाताओं की आत्महत्या के आंकड़ों को सामने रख झंझट के कारकों को पहचान सकते हैं, और यह सब गांधी के देश में होता है। हद यह है कि इसी टुकड़े विकास की तर्ज पर मॉडल कहला रहे गुजरात का मुख्यमंत्री अब गांधी की तस्वीरों का भी उपयोग अपनी छवि सुधारने में करते हुए जरा नहीं शर्माता। बड़ी आबादी और साधनों की कमी के हिसाब से लोहिया आधुनिकीकरण के किसी अन्य प्रकार पर विचार करने को कहते हैं। प्रतियोगिता को मूल संभव तो वहां सोच-समझकर छोटी मशीनों और जहाँ जरूरी हों वहां भारी उद्योगों की नीति अपनानी चाहिए। इसे लोहिया रंगीन देशों के आधुनिकीकरण का एकमात्र, जरूरी रास्ता बतलाते हैं। रंगीन आदमी क्रूर, तानाशाह नेतृत्व को क्यों स्वीकारता है, के जवाब वे कहते हैं कि—''इसलिए कि वह नेतृत्व उसे आधुनिक लगता है। वह उम्मीद करता है कि क्रूर नेतृत्व किसी समय उसे आधुनिक बना देगा।'' यहाँ उनका निष्कर्ष बहुत स्पष्ट है—''जब रंगीन जनता आधुनिकीकरण के सही आयामों को भलीभाँति ग्रहण करेगी तभी वह इस नेतृत्व को उखाड़ फेंकेगी जो बहुत धोखेबाज है और अपने को तथा अपने आसपास के लोगों को आधुनिक बनाता है। जनता को नहीं या जो मानव के रूप में भारी कीमत चुकाकर यूरोप की नकल करता है।'' इस तरह रंगीन देशों की क्रांति के अवरोधों की सही पहचान करते हैं लोहिया—''जब क्रांति वास्तव में हुई हो या होने को हो तो बुद्धिजीवी अपव्यय को तथा शासक वर्गों की विलासिता को देखने लगते हैं जो तब तक उन्हें आधुनिकीकरण लगता रहा। च्याँग का चीन सारे रंगीन विश्व में दिखाई देगा।'' कुमार मुकुल की प्रभात प्रकाशन से आयी पुस्तक 'डॉ.लोहिया और उनका जीवन दर्शन ' से
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' मतलब जातिवाद की जडें नीची जातियों में भी उसी तरह गहरी हैं. वे पाते हैं कि नीची जातियों के पास ऐसी ढेरों कहानियां हैं जो उनकी उस गिरी हालत की भी ओजस्वी और त्यागपूर्ण व्याख्या करती हैं. इस तरह की व्याखाएं हम डॉ.अंबेडकर तक में देख सकते हैं. इन कहानियों में उनका गौरवपूर्ण काल्पनिक अतीत होता है जिसमें कभी वे क्षत्रियों से भी ज्यादा बलशाली थे और अगर उन्हें क्षत्रिय धोखा नहीं देते तो आज वे इस हालत को नहीं प्राप्त होते. लोहिया लिखते हैं - ' सैदधांतिक आधिपत्य की लंबी परंपरा ने छोटी जातियों को निश्चल बना दिया है, उनका राजनैतिक आचरण कुछ कम समझ में आता लगता है. यह धारणा बिल्कुल सही है. ...बुरे दिनों में भी जाति से चिपके रहना, पूजा दवारा अच्छे जीवन की कामना करना, रसम-रिवाज और सामन्य नम्रता उनमें सदियों से कूट-कूटकर भरी गई है. यह बदल सकता है. वास्तव में इसे बदलना चाहिए. जाति से विद्रोह में हिंदुस्तान की मुक्ति है....' विदेशी शासन ने भी जातीय विभेद को बढाया ही. ब्रिटिश राज ने ' जाति के तत्व को उसी तरह इस्तेमाल किया जैसे धर्म के तत्व को. चूंकि भिडंत कराने में जाति की शक्ति धर्म के जितनी बडी न थी, इस प्रयत्न में उसे सीमित सफलता मिली.' लोहिया मानते हैं कि विदेशी शासन ने निश्चित तौर पर जातीय विभेद को बढाया पर इस विभेद की जमीन पहले से मौजूद थी. अंग्रेजी शासन तो हट गया पर जिन जातीय पार्टियों को उसने पैदा किया वे आज भी चल रही हैं. ' पश्चिम हिंदुस्तान की कामगारी, शेतकरी पक्ष और रिपब्लिकन पार्टी,दक्षिण हिंदुस्तान का द्रविड मुनेत्र कषगम और पूर्वी हिन्दुस्तान की झारखंड पार्टी के साथ-साथ गणतंत्र और जनता पार्टियां न सिर्फ क्षेत्रिय पार्टियां हैं बल्कि जातीय पर्टियां भी हैं.' आदिवासी, महार, मराठा, मुदलियार और क्षत्रिय आदि जातियां इन पार्टियों का प्राण हैं. इस तरह क्षेत्रिय जातियों के दल बनने को लोहिया पसंद नहीं करते थे. चाहे वे जैसा भी क्रांतिकारी मुखौटा लगाकर आएं उनकी तोडने की क्षमता को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. लोहिया बताते हैं कि जिन मराठा, जस्टिस या अनुसूचित जातियों को अंग्रेज शासकों ने बहुत गंदे ढंग से इस्तेमाल किया अपने हित में उनके साथ भारतीय समाज ने दुर्व्यवहार किया था. सामान्यत: पीडित जातियां का विद्रोह शासक जातियों को रिप्लेस कर शांत हो जाता है पर इससे समस्या हल नहीं होती बस एक की जगह दूसरी जाति आ जाती है और जातिवाद वैसा का वैसा रह जाता है. लोहिया के शब्दों में - ' जाति प्रथा को समूचे भारत में नष्ट करने के बजाय, इस या उस जाति को उंचा उठाने के लिए ही दबी जातियों के विद्रोह को हमेशा और बार-बार बेजा इस्तेमाल किया गया.' अपनी जातिविरोधी राजनीति को लोहिया इस तरह चलाना चाहते थे कि उंची जातियों को राजनैतिक सत्ता से वंचित किया जाए पर वे उन्हें आर्थिक और दूसरे प्रकारों की सत्ता से वंचित नहीं करना चाहते थे. वे मानते थे कि द्वेषपूर्ण बातें जाति समस्या की ठोस बात को धुंधला और कमजोर बना देती हैं. जाति प्रथा पर मैक्स वेबर जैसे प्रख्यात समाजशास्त्री के वक्तव्य को सामने रखते लोहिया बताते हैं कि उनके अनुमान पूरी तरह गलत साबित हुए हैं. उनका कहना था कि योरोप शिक्षित हिंदुस्तानी भारत लौटकर जाति को खत्म कर देंगे. जबकि उंची जातियों से जाने के कारण इन विलायत पलटों ने जाति को और बढाया ही. विलायत का अर्थ लोहिया सिर्फ इंगलैंड नहीं बल्कि यूरोप लेते हैं. इन विलायत पलटों का आर्थिक आधार पर आकलन करते हुए लोहिया लिखते हैं -' ... अब तक जितने लोग यूरोप पढने गए हैं ...उनमें करीब 80-90 सैकडा ऐसे लोग मिलेंगे, जिनके पास खुद के पैसे हैं. ...पहले से ही उंची जाति और जब विलायत से पास करके लौटकर आते हैं तो उंची जाति में भी एक उंची जाति की सीढी बन जाती है.' इसी तरह ब्राहमण ब्राहमण में भी लोहिया फर्क करते हुए लिखते हैं -' एक ब्राहमण है जो राज चलाता है , दूसरा शिव महाराज के उपर बेलपत्र चढाता है, दोनों में बडा फर्क है. वह बेलपत्र चढाने वाला सच पूछो तो छोटी जाति का हो गया, और जो नौकरी करता है, वह उंची जाति का हो गया. इसी तरह वे मुसलमान मुसलमान में भी फर्क करते हैं. जाति समस्या का हल लोहिया यह मानते हैं कि समान अवसर की जगह उन्हें विशेष अवसर दिए जाएं. हजारों सालों के बडी जातियों के अत्याचार ने जो हालत निम्न तबकों की कर दी है उसे कुछ दशकों तक विशेष अवसर देकर ही सुधारा जा सकता है. पहले उन्हें बडी जगहों पर बिठाइए फिर उनमें योग्यता आ जाएगी. अक्सरहां लोग तर्क देते हैं कि पहले उन्हें योग्य बनाओ फिर उंची जगहों पर बिठाओ. लोहिया यहां याद दिलाना चाहते हैं कि -' यही तर्क अंग्रेज लोग दिया करते थे, जो गलत था. लोहिया कहते हैं कि इस जातिव्यवस्था के टिके रहने का एक मुख्य कारण यह भी है कि उंची जातियों का बहुमत ज्यादातर नीची जातियों की पांत में आता है. पर उन्हें इसकी जानकारी नहीं और यह अनभिज्ञता ही इसके टिके रहने का करण है. वे बताते हैं कि सचमुच की उंची जाति के लोग मात्र पांच या दस लाख हैं जब कि झूठी उंची जाति के लोग आठ करोड हैं और नीची जाति के लोग तीस करोड हैं. जिन उंची जातियों की चर्चा लोहिया करते हैं, वे हैं -' बंगाली बडडी, मारवाडी, बनिए, कश्मीरी ब्रहमण, जो व्यापार अथवा पेशे के नेताओं को उगलते हैं.' लोहिया बतलाते हैं कि जाति की चक्की केवल नीची जातियों को ही नहीं पीसती वह उंची जाति को भी पीसकर सच्ची उंची जाति और झूठी उंची जाति को अलग अलग कर देती है. उनके अनुसार सच्ची उंची जाति दिल्ली और अन्य राजधानियों में निवास करने वाले ब्राहमण , बनिए, क्षत्रिय और कायस्थ हैं जो कोट,कंठलंगोट, शेरवानी और चूडीदार पायजामा पहनती हैं. बनिया जाति के तेली, जायसवाल और पंसारी आदि को पोंगापंथी लोग शूद्र की कोटि में रखते हैं जबकि अच्छा खाता पीता थोक व्यापारी वैश्य बन गया. आप देखें तो भारतीय इतिहास में थोक व्यापारी और पुजारी की हमेशा सांठ-गांठ रही है. इस सांठ-गांठ ने उन्हें ' द्विज और आधुनिक हिंदू समाज की उत्कृष्ट उच्च जाति बना दिया.' इसे लोहिया खुली धोखेबाजी बताते हुए कहते हैं कि -' पैसे और प्रतिष्ठा के जमाव के रूप के अतिरिक्त जाति और किसी रूप में प्रकट नहीं होती.' देखा जाए तो जाति पर बात करते हुए लोहिया कहीं भी उसके आर्थिक पहलू को अनदेखा नहीं करते. लोहिया मात्र शास्त्रों के आधार पर ही जाति का आकलन नहीं करते बल्कि समय के साथ आर्थिक रूप से ताकतवर हो जाने वाली जातियों को भी वे उंची जाति में गिनते हैं. 'जाति' शीर्षक से अपने लेख में वे लिखते हैं -' उन सभी को उंची जाति वाला मानें , चाहे हिंदू शास्त्रों के मुताबिक वे उंची जाति के हों या न हों, जो इस इलाके में कभी राजा रह चुके हैं या जो आज भी राजनीति के पलटाव में फिर से जनतंत्र में राजा बन रहे हैं जैसे रेडडी या वेलमा. वैसे वेलमा राजा नहीं बने हैं , लेकिन कभी रह चुके हैं. कुछ थोडा बहुत अपने धन के कारण कम्मा को भी उनमें शामिल किया जा सकता है.... मराठा, मुदलियार वगैरह को उंची जाति में शामिल कर लेता हूं , चाहे धर्म उन्हें करता हो न करता हो. यह इसलिये कि उन्होंने रूपया पैदा करना शुरू किया या अब वे राजनीति में उंचे आने शुरू हुए हैं.' आगे अहीर जाति को भी लोहिया इसी में गिनना चाहते हैं पर उनमें वे जाति प्रथा के नाश का रूझान भी पाते हैं. लोहिया के बाद बाकी जातियों की तरह अहीर भी सत्तासीन हुए पर जाति के विनाश के उनके सपने के अनुरूप वे भी खरे नहीं उतर सके. इस तरह हम देखते हैं कि लोहिया ने अपने समय की तमाम जातियों के आर्थिक संदर्भों पर भी गौर किया है. ब्राहमणों की तुलना करते वे लिखते हैं -' ... किसके मुकाबले में वह ब्राहमण है. हिंदुस्तान का माला, मादीगा और कापू के मुकाबले में वह ब्राहमण है, लेकिन रूस और अमरीका के ब्राहमणों के मुकाबले में वह हरिजन है. वह हमेशा भीख मांगते फिरता है.' लोहिया इस बात को लेकर चिंता जताते हैं कि शूद्रों की ऐसी जातियां जो तादाद में ज्यादा हैं वे लाकतंत्र और बालिग मताधिकार का फायदा उठाकर जब सत्ता में आती हैं तो इसका लाभ उंची जातियों की तरह अपने से नीची जातियों को नहीं देतीं. दक्षिण में मुदलियार और रेडडी और पश्चिम में मराठा आदि ऐसी ही जातियां हैं. वे अपने क्षेत्र की राजनैतिक रूप से मालिक हैं. लोहिया को भय है कि इन क्षेत्रों में उंची जातियां अपने सत्ता में वापिस आने के षडयंत्र में सफल हो सकती हैं क्योंकि 'जाति के विरूद्ध' बडी आबादी वाली नीची जातियों के 'आंदोलन थोथे' हैं. क्योंकि -' समाज को ज्यादा न्यायसंगत, चलायमान और क्रियाशील बनाने के अर्थ में वे समाज को नहीं बदलते'. लोहिया जनतंत्र को संख्या पर आधारित शासन मानते हैं और लिखते हैं -' ... सबसे ज्यादा संख्या वाले समुदाय राजनैतिक और आर्थिक विशेषाधिकार प्राप्त कर ही लेते हैं.' इस तरह एक हद तक जनतंत्र जाति आधारित सत्ता को धीरे-धीरे संख्या आधारित सत्ता में बदल देता है. इस अर्थ में वे गोप और चर्मकार इन दो जातियों को 'वृहत्काय' बताते हैं और कहते हैं कि ये वैसे ही हैं जैसे द्विजों में ब्राहमण और क्षत्रिय. वे कहते हैं कि -' कोई भी आंदोलन जो उनकी हैसियत और हालत को बदलता नहीं, उसे थोथा ही मानना चाहिए. ... पूरे समाज के लिए उनका कोई खास महत्व नहीं.' रेडिडयों और मराठों की तरह अहीरों और चर्मकारों के आंदोलन की सीमा को इसी संदर्भ में वे देखते हैं. वे लिखते हैं -' संसद और विधायिकाओं के लिए उन्हीं के बीच से उम्मीदवारों का चयन करने के लिए राजनीतिक दल उनके पीछे भागते फिरते हैं. और , व्यापार और नौकरियों में अपने हिस्से के लिये ये ही सबसे ज्यादा शोर मचाते हैं. इसके परिणाम बहुत ही भयंकर होते हैं.' लोहिया देखते हैं कि इन चारों बडी जातियों के हो हल्ले में सैकडों नीची जातियां निश्चल हो जाती हैं. उनके अनुसार -' जाति पर हमले का मतलब होना चाहिए सबकी उन्नति न कि सिर्फ एक तबके की उन्नति.' इसलिये लोहिया जातियों के आधार में परिवर्तन चाहते हैं. वे इस बात पर दुख जताते हैं कि -' उंची जाति पर पहुंचने के बाद , सभी जानते हैं कि नीची जाति के लोग कैसे अपनी औरतों को परदे में कर देते हैं जो कि उंची जाति में नहीं होता, बल्कि बिचली उच्च जाति में होता है. इसके अलावा उंचे उठने वाली नीची जातियां द्विज की तरह जनेउ पहनने लगती हैं, जिससे वे अब तक वंचित रखे गए, लेकिन जिसे अब सच्ची उंची जाति उतारने लगी है. लोहिया, कोई भी जाति विनाशक आंदोलन जाति के नाश के लिए चाहते हैं न कि ब्राहमण और कायस्थ की बराबरी के लिये, उनके जैसा ही हो जाने के लिए. लोहिया लिखते हैं कि -' ऐसे थोथे आंदोलनों को रोकने का अब समय है.' लोहिया के आंदोलन का लक्ष्य है औरत, शूद्र, हरिजन, मुसलमान और आदिवासी. इन पांच समुदायों की योग्यता को नजरंदाज कर फिलहाल वे उन्हें नेतृत्व के स्थानों पर बिठाना चाहते हैं. यहां औरत में वे द्विज औरतों को भी शामिल किया जाना उचित मानते हैं. लोहिया के अनुसार -' दबे हुए समुदायों को उंचा उठाने के धर्मयुद्ध से उंची जाति भी पुनरजीवित होगी और उससे सारे चौखट और मूल्य, जो आज बिगड गए हैं, ठीक हो जाएंगे.' लोहिया मानते हैं कि आज जैसे राजनीतिक दल वोट फंसाने के लिए नीची जाति के पंद्रह-बीस लोगों को जोड लेते हैं उससे काम नहीं चलने का आज सैकडों और हजारों लोगों को जोडने की जरूरत है. अपनी इस नीती का मूल्यांकन करते हुए लोहिया कहते हैं इस प्रक्रिया में कई बाधाएं आएंगी और हो सकता है कि इससे एक ओर द्विज तो नाराज हो जाएं और शूद्र को प्रभावित होने में समय लगे. इसमें धैर्य और तालमेल की जरूरत होगी. नहीं तो आंदोलन की जरा सी भी असफलता को लेकर द्विज आंदोलनकर्ताओं पर बदनामी मढ सकते हैं और यह भी हो सकता है कि वृहत्काय अहीर, चर्मकार जैसी जातियां इस नीति के फल को नीची जातियों में बांटे बिना खुद ही चट कर जा सकती हैं. जिसका मतलब होगा कि ब्राहमण और चमार तो अपनी जगह बदल लेंगे पर जाति वैसी ही बनी रहेगी. ... नीची जातियों के स्वार्थी लोग अपनी निज की उन्नति करने के लिये इस नीति का अनुचति इस्तेमाल कर सकते हैं और वे लडाने-भिडाने और जाति के जलन के हथियारों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.' लोहिया इस मामले में सचेत हैं कि इस आंदोलन की आड में आर्थिक और राजनैतिक समस्याओं को पृष्ठभूमि में ना ढकेल दिया जाए. कि -' अपने स्वार्थ साधन के लिये नीची जातियों के प्रतिक्रियावादी तत्व जाति-विरोधी नीति का बेजा इस्तेमाल कर सकते हैं.. मिसाल के लिए, पिछडी जाति आयोग की रपट ने, नीची जाति जिसकी दुहाई देती रहती है, जनता की बडी समस्याओं से कन्नी काट ली है,... उनकी ठोस सिफारिशों की संख्यां कुल दो है जिनमें एक अच्छी है और दूसरी खराब. पिछडी जातियों के लिये नौकरियों में सुरक्षा की उसने सिफारिश की है और यह सुरक्षा इस आयोग की ईच्छा से बढकर न्यायसंगत रूप में अनुपातहीन हो सकती है. लेकिन शिक्षा में भी ऐसी ही सिफारिश करके उसने गलती की है. स्कूलों और कालेजों में , अगर जरूरत हो तो, पिछडी जातियां दो या तीन पालियों कीं मांग कर सकती हैं, लेकिन हिंदुस्तान के किसी भी बच्चे को किसी शैक्षणिक संस्था के दरवाजे में घुसने न देने की मांग नहीं करनी चाहिए.' लोहिया चेतावनी देते हैं कि आंदोलन की नीति ऐसे जहर उगल सकती है और इस मामले में अगर हम सचेत होकर लगातार काम करें तो ' हिंदुस्तान अपने इतिहास की सबसे ज्यादा स्फूर्तिदायक क्रांति से अवगत होगा.' लोहिया लिखते हैं -' कार्ल मार्क्स ने वर्ग को नाश करने का प्रयत्न किया. जाति में परिवर्तित हो जाने की उसकी क्षमता से वे अनभिज्ञ थे, लाजमी तौर पर हिंदुस्तान की जाति के सींकचों जैसे नहीं पर अचल वर्ग तो हैं ही. इस मार्ग को अपनाने पर पहली बार वर्ग और जाति को एक साथ नाश करने का एक तजुरबा होगा.' इस जाति विरोधी आंदोलन को लोहिया किसी जाति को लाभ पहुचाने वाला आंदोलन ना मानकर राष्ट्र के नवोत्थान का आंदोलन बनाना चाहते हैं और उंची जाति के युवकों से आहवान करते हैं कि वे इस आंदोलन में छोटी जातियों के लिये ' खाद बन ' कर नयी रौशनी को फैलाने में सहायक बनें. लोहिया कहते हैं कि -' उन्हें उंची जातियों की सभी परंपराओं और शिष्टाचारों का स्वांग नहीं रचना है, उन्हें शारीरिक श्रम से कतराना नहीं है, व्यक्ति की स्वार्थोन्नति नहीं करनी है, तीखी जलन में नहीं पडना है, बल्कि यह समझकर कि वे कोई पवित्र काम कर रहे हैं, उन्हें राष्ट्र के नेतृत्व का भार वहन करना है.' --------------------------- कुमार मुकुल लोहिया पर लिखी कुमार मुकुल की एक किताब शीघ्र प्रकाशित होने वाली है. यह कैसी विडम्बना है कि जिस धार्मिकता के कारण हमारे समाज का सबसे यादा शोषण होता है, वह हमारे ही भीतर कहीं जीवंत होता है। हम जहां है वहीं असुरक्षित हैं और असुरक्षा की इस भावना का करोड़ों-अरबों रुपयों का व्यापार हमारे इर्द-गिर्द हो रहा है। इस व्यापार का मूल स्रोत हमारे ही भीतर है पर हम उसमें हिस्सेदार नहीं हैं। हम सिर्फ डरे-सहमे हुए लोग हैं और बेहतर ढंग से रह सकें, इसके लिए हमारी कल्पना-शक्ति तक को कुंद कर दिया जाता है। अपने लाखों, करोड़ों-अरबों रुपयों के व्यापार और लाभ-हानि के खेल में वे उन करोड़ों उपभोक्ताओं, और दर्शकों को कुछ सौ या कुछ हजार रुपए की कल्पनाशक्ति में सीमित कर देते हैं और एक पूरा समाज लगभग पंगु होकर इन पूंजीपतियों के बिछाए जाल में फंसकर रह जाता है। यह बात बहुत आश्चर्यजनक लगती है कि भारतीय समाज जो कि मूल रूप से धर्म भीरू समाज है- अपने धर्म और अपनी आस्था को समझने के लिए एक गाब की 'फैंटेसी' का निर्माण करता है और संभवत: उसी प्रयास में उसके आसपास जो यथार्थ में घटित हो रहा है- जिसमें उसके शोषण की नई-नई पारियां खेली जाती हैं, जिसकी पीड़ा भी सब से यादा उसे ही भोगनी पड़ती है, उन तमाम स्थितियों में वह अपने विवेक को कुंद कर देता है।
एक कथनी याद आती है। एक देश की सरकार ने अपने नागरिकों की कल्पनाशक्ति जांचने-परखने के लिए एक प्रयोग किया। एक कमरे में ब्लैकबोर्ड पर सफेद चाक से एक बड़ा सा गोला बनाया गया। फिर प्रशासनिक अधिकारियों के एक दल को बुला कर उनसे पूछा गया कि -''यह क्या है?'' प्रशासनिक अधिकारियों के दल ने काफी देर के विचार विमर्श के बाद यह कहा कि ''हम किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंच सके हैं इसके लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाएगा और तभी अंतिम रूप से यह बताया जा सकेगा कि यह क्या है?'' फिर, विश्वविद्यालयीन प्राध्यापकों के एक दल को बुलाया गया। प्राध्यापकों ने कहा कि ''यह एक इस तरह का चित्र है जिस पर शोध होना अभी बाकी है। हम जल्द ही दो-चार छात्रों का पंजीयन कराएंगे और फिर उनके शोध कार्य का एक तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद अपनी रिपोर्ट देंगे।'' इसके बाद प्राथमिक स्कूल के शिक्षकों को बुलाया गया- ''उन्होंने सीधा सा जवाब दिया कि यह एक ब्लैकबोर्ड है जिस पर खड़िया से शून्य लिखा हुआ है।'' अंतिम दौर में प्राथमिक शाला के बच्चों को बुलाया गया- ''बच्चों ने उसे देखते ही तपाक से उत्तर दिया कि -''काले बादलों से भरे आसमान में यह पूर्णिमा का चांद है।'' कहानी के नीचे एक वाक्य लिखा था कि ''यों-यों हम बड़े होते जाते हैं, हमारी कल्पनाशक्ति को लकवा मारता चलता है।'' यह कहानी पिछले करीब बीस वर्षों से मुझे परेशानी करती है। यह सच है कि हमारी कल्पनाशक्ति पर जो ताले जड़े हैं वह पिछले बीस वर्षों से ही जड़े गए हैं और इनकी चाबी हमारे पास नहीं रहने दी जाती। कमरा भी हमारा है, ताला भी हमारा ही है पर उसकी चाबी उन्होंने हथिया ली है, जो पहले कभी दूर देश से हमारे यहां व्यापार करने आए थे। वे आज उसी तरह हर देश में बैठकर हमारे साथ व्यापार कर रहे हैं। जो लोग यह व्यापार कर रहे हैं वे भारतीय हो भी सकते हैं और भारतीय नहीं भी हो सकते क्योंकि उनका धर्म और राष्ट्र सब कुछ पैसे में ही समाहित है। इनमें चंद बड़े उद्योगपति, कुछ खिलाड़ी, कुछ राजनैतिज्ञ और बालीबुड के कुछ कथित बादशाह शामिल हैं। अंग्रेजी मीडिया का खुला समर्थन इसे प्राप्त है। आम आदमी की लगातार कुंद होती कल्पनाशक्ति को और अधिक कमजोर करने का काम ये सारे लोग बहुत मुस्तैदी के साथ करते हैं। आम आदमी कहता है- 'रोटी', तो यह कहते हैं- 'लो कर दी न छोटी बात, हम तुम्हारे लिए आईपीएल लेकर आए हैं- इसे देखोगे तो रोटी भूल जाओगे।' आम आदमी रोटी को नहीं भूलता पर यह भूल जाता है कि सच क्या है? यह आज की बात नहीं है- सत्ता-तंत्र का खेल आरंभ से यही रहा है। जब-जब भी किसी महत्वपूर्ण जनकल्याणकारी मुद्दे पर चर्चा करनी होती है, अचानक एक ऐसा गैर- अर्थपूर्ण और बेमानी मुद्दा वे हमारे नथुनों में भर देते हैं, जिसमें आक्सीजन नहीं होती। हमारे तमाम संबंध चीजों की चकाचौंध में धुंधला गए हैं और एक छद्म तरीके से हम धूप, हवा और अंधेरे से बचने की कोशिश में हैं। दरअसल यथार्थ अब इतना भयावह है कि उससे बचकर निकलने का रास्ता कल्पनालोक से होकर ही जाता है और यह रास्ता कथित रूप से धर्म का रास्ता है। धर्म मनुष्य के कल्पनालोक का सबसे बड़ा हिस्सा है, कुछ लोगों को अगर इस बात पर आपत्ति हो और वे कहें कि धर्म जीवन जीने का एक मार्ग है तो फिर संभवत: ईश्वर मनुष्य की एक विराट कल्पना है। बहरहाल, यहां आशय दर्शनशास्त्र की गुफा-कंदराओं में खो जाने का नहीं है और न ही सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ से पलायन का है, यहां आशय विकल्प से है। बाजार का विकल्प क्या है? क्या बााार का विकल्प ईश्वर हो सकता है? संभवत: नहीं, क्योंकि ईश्वर का इस्तेमाल यह बाजार सब से यादा कर रहा है। बाजार आप को धार्मिक बनाने के सारे खेल, खेल रहा है, बाजार आपके लिए एक वैकल्पिक ईश्वर की रचना करने में लगा है। बाजार ऐसे-ऐसे उत्पाद लेकर जा रहा है, जो सूर्य की तपिश और चांद की चांदनी को भी चुनौती देते हुए से लगते हैं। ''चेहरे पर यह क्रीम लगाइए मैडम तो सूरज की किरणें आपकी त्वचा पर पड़ने से पहले ही अपना रास्ता बदल देंगी।'' रायपुर के एक शापिंग माल में एक दुकानदार एक महिला ग्राहक से कह रहा था। ''कितने की है''- महिला ने उत्सुकतावश पूछा। ''दो हजार तीन सौ निन्यान्वे रुपए की''- दुकानदार ने कुछ यों बताया कि जैसे यह कोई कीमत ही नहीं है। महिला ग्राहक सोच में पड़ गई। दुकानदार उनका चेहरा देखकर समझ गया कि, बात अभी बनी नहीं। ''आप चाहें तो छोटी टयूब ले जाएं, एक बार आजमा लें।'' सूरज की किरणों से बचने का लालच संभवत: काफी बड़ा था। महिला ने पन्द्रह सौ पचहत्तर रुपए अस्सी पैसे में वह छोटी टयूब खरीद ली और इस दिवास्वप्न के साथ दुकान से बिदा हुई कि सूरज अब उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। बाजारर की माया और बाजार का कल्पना-लोक तो कुछ ऐसा है कि वह आप को एक तरह के धुंधलके में रखता है। बाजार में जब तक आप खरीदने की हैसियत रखते हैं, ठीक है, जिस दिन आप की जेब की हैसियत खत्म हो जाती है, आप को बाजार के पिछवाड़े कचराघर में भी जगह नहीं मिलती। वहां पड़े रहने के लिए भी पैसे लगते हैं। बाजार की दिक्कत यह है कि वहां मानवीय संबंधों और उपमा के लिए कोई स्थान नहीं है और यही सबसे यादा खतरनाक है। यहां तक कि अब कल्पना में भी यह बात नहीं रही। देखते ही देखते सारा दृश्य बदल गया सा लगता है। बाजार से भागने के सारे रास्ते बंद नार आते हैं क्योंकि बाजार लगभग घर के अंदर तक आ चुका है। देखते ही देखते हमारे लिए पुस्तकों के मुखपृष्ठ अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं, भीतर शब्दों में, शब्द की संवेदनाओं में क्या है, इससे किसी का कोई मतलब नहीं रह गया है, और यही हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है। एक पूरी की पूरी पीढ़ी संवेदनहीनता के बोझ तले दबी हुई है और उसके ऊपर मंच सजा कर कुछ लोग रंगीन कपड़े पहिने, अपनी ऑंखों में काले चश्मे लगाकर घोषणा कर रहे हैं कि -''सब कुछ ठीक-ठाक है और यह दबाव हम आपकी सुरक्षा के लिए बना रहे हैं।'' मैं आश्वस्त हूं कि उनका यह झूठ अंतत: एक दिन सबके सामने आएगा और आसमान के काले बादलों के बीच पूर्णिमा के चांद की कल्पना सिर्फ प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की कल्पना नहीं रहेगी। हमारा समाज बच्चे की उस कल्पना को अपने अंदर एक सजग दृष्टि की तरह विकसित करेगा और बाजार की ताकतें विफल होंगी। लोकपाल का सवाल एक बार हमारे सामने है पिछले एक साल से लोकपाल हमारी राजनीति के केन्द्र में है। कुछ लोग लोकपाल के बारे में यों बात करते हैं कि जैसे यह दूसरा स्वतंत्रता आन्दोलन हो। लोकपाल आएगा और सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। लोकपाल आएगा और एकाएक लोगों का रंग-रूप बदल जाएगा, लोगों की दिशाएं बदल जाएंगी, बिल्लियां चूहे खाना बंद कर देंगी, सारे सियार शेर हो जाएंगे और चीते और भालू शाकाहारी हो जाएंगे। लोकपाल की तस्वीर कुछ इस तरह से प्रस्तुत की जा रही है कि लोकपाल अपने हाथों में अलादीन का एक चिराग ले कर आएगा और जैसे ही उसे किसी भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्ति की सूचना दी जाएगी, वह उसे भस्म कर देगा। इस तरह की धारणा रखने वालों को उनके अनुयायी भी मिल जाते हैं। आबादी भी काफी है और तोी से बढ़ भी रही है। उसी अनुपात में 'बाबा लोग' भी बढ़ रहे हैं। हर तरह की पोशाक वाले बाबा मौजूद हैं- सफेद और गेरुआ तो प्रमुख रूप से हैं ही। मैं नहीं जानता कि यह बात आसानी के साथ समझ में क्यों नहीं आती कि भ्रष्ट आचरण राजनीति से पहले एक सामाजिक मुद्दा है। हमारे समाज में हमारे बहुसंख्यक वर्ग में बच्चे के पैदा होने के साथ ही या बच्चे के होश सम्हालने के साथ ही भ्रष्ट आचरण की खिडक़ियां खोल दी जाती हैं। कभी रीति-रिवाजों के नाम पर और कभी लड़का या लड़की होने के नाम पर। जाहिर है कि इसमें समाज का सांस्कृतिक पक्ष शामिल नहीं है लेकिन यह लकीर बहुत बारीक है। मुझे तो यह जो शुभ-लाभ का बीज वाक्य है इसमें ही खोट दिखाई देती है। सुविधा के लिए अगर यह मान लिया जाए कि भ्रष्टाचार की शुरुआत ही 'शुभ-लाभ' के विचार के पीछे है, तो संभवत: गलत नहीं होगा। अब जबकि हमारा देश आधुनिकता के दौर में काफी आगे निकल जाने का दावा कर रहा है, तो हमें ठहर कर कुछ सोचने की ारूरत है। पुणे, बैंगलुरू, अहमदाबाद, गुड़गांव और नोएडा के बावजूद हमारा अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र अभी भी एक तरह के सामंतवादी मानसिक ढांचे में जी रहा है, कईं क्षेत्र ऐसे हैं जहां राजे-राजवाड़ों का प्रभाव अभी भी शेष है, जहां पारंपरिक राजवाड़े खत्म हो गए वहां उनकी जगह पूंजीपति ताकतों ने ले ली है अथवा वहां दक्षिण पंथी राजनैतिक दलों का शासन है। अधिकांश लोग उनके गुणगान करते हुए देखे और सुने जा सकते हैं, जिन्होंने ऐन-केन-प्रकारेण किसी भी तरीके से पैसा कमा लिया हो। पैसा कमाना और अधिक पैसा कमाना आज भी हमारे सामाजिक रिश्तों में, सफलता का उच्चतम मापदण्ड है। यह आज से नहीं है। जब से होश सम्हाला है, समाज को ऐसा ही व्यवहार करते हुए पाया है। पद और पैसा- इनके अंर्तसंबंध जैसे देह और आत्मा के अंर्तसंबंध होते हों- एक के बिना दूसरा अधूरा है। यह गलत सामाजिक मान्यता समाज में ाहर की तरह फैली है। इसका एक तीसरा पक्ष भी है, वह है व्यक्ति का दंभ, अथवा अहम्। अंतत: अहम् भी तो एक तरह के भ्रष्टाचार का हिस्सा है। हमारे समाज में पद को पूजा जाता है, चाहे वह कैसे भी क्यों न प्राप्त किया गया हो। मुफ्त में कोई चीज पा लेना गर्व की बात मानी जाती है। मैंने व्यक्तिगत रूप से मध्यवर्गीय परिवारों में मां-बाप को अपने बच्चों को उन राजाओं और राजकुमारों के किस्से सुनाते हुए देखा है और सुना है, जो या तो हत्यारे थे या जिन की कई-कई रानियां थीं या जिनके पास जीवन की किसी भी तरह की दार्शनिक दृष्टि नहीं थी। होश सम्हालते ही बहुत सारे ऐसे किस्से हमारे सामने आते हैं जिनसे यह आभास होता है कि भ्रष्टाचार को एक तरह की सामाजिक और सार्वजनिक मान्यता मिली हुई है। जैसे कि- 'लड़का ओवरसियर है' यह कहने के बाद कोई तनख्वाह नहीं पूछी जाती थी। ओवरसियर का मतलब यानि कि कमाई की पहली पायदान। इसके बाद तो फिर ऊपर ही ऊपर का रास्ता जाता है। साधारण रूप से मध्यवर्गीय समाज यह मान कर चलता है कि 'ओवरसियर' का भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार होता ही नहीं, यह उसके काम का हिस्सा है। यह स्वीकारोक्ति एक आदर्श समाज की जड़ों में मट्ठा डालने की तरह है। यह बात सिर्फ ओवरसियर पर आकर ही नहीं रूकती, ऊपर और ऊपर चलती चली जाती है। आपकी शब्दावली में इस तरह शामिल होती चलती है कि आपको इस बात का पता ही नहीं चलता कि आप एक तरह के षड़यंत्र में शामिल हो गए हैं। अभी पिछले दिनों रायपुर के आसपास जमीन की खरीद-फरोख्त करने वाले कुछ मित्रों के साथ बातचीत का अवसर मिला। मैं यह सुनकर सन्न रह गया कि वे जमीन के लिए 'माल' शब्द का इस्तेमाल करते हैं। 'महासमुन्द' से दस किलोमीटर आगे, सड़क के किनारे मेरे पास है सात एकड़ माल है। यहां यह स्पष्ट करना ारूरी है कि यह फसल की बात नहीं है, सिर्फ और सिर्फ भूमि की बात है। इस तरह की बात वे करते हैं और धरती को अपनी जेब के माल के रूप में बदल देते हैं। अपनी जमीन के बारे में उनकी बातचीत को सुनकर वापिस सहज होने में मुझे काफी वक्त लग गया। यह मेरी मूर्खता हो सकती है, पर कमजोरी कतई नहीं। अन्ना हजारे जी और बाबा रामदेव जी क्या आपसे दोनों हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक यह पूछा जा सकता है कि जिस समाज का तथाकथित रूप से आप प्रतिनिधित्व कर रहे हैं- उस समाज के संस्कारों में क्या है? उस समाज के बच्चों को घर में किस तरह की जीवनशैली अपनाए जाने की शिक्षा दी जाती है? क्या आप को पता है कि यह जो बहुत सारे लोग आप को भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में अपना समर्थन देने की घोषणा करते हैं वे स्वयं भ्रष्ट आचरण के मायाजाल में आकंठ डूबे हैं।
यह बात उन गरीबों के संदर्भ में नहीं है जिनके पास कुछ देने को है ही नहीं, लेकिन उस मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग के संदर्भ में अवश्य है जो दिल खोलकर भ्रष्ट अफसरशाहों को दान-पुण्य की तरह रिश्वत देते हैं और बदले में अपने सारे रूके हुए काम करा लेते हैं। यह ऐसा समाज है जो किसी भ्रष्ट नौकरशाह या सरकारी कर्मचारी पर ईश्वर से भी यादा भरोसा करता है और उसकी झोली में इस उम्मीद पर अपनी आय का दसवां हिस्सा डालता है कि लेन-देन का क्रम बराबर चलता रहे। पर यह तो छोटी बात है जो सिर्फ पैसे तक सीमित है। अपने अहम् और अपनी हैसियत को बनाए रखने के लिए उन संबंधों की चादर भी बिछाई जाती है, जिस पर दोनों तरफ सिर रखकर सोया जा सके। मुझे अपने साथ घटित एक बात याद आती है। यह वर्ष 1969 की बात है। मैंने घर से रायपुर के एक विज्ञान महाविद्यालय में प्रवेश के लिए पैसे लिए, लेकिन फीस जमा नहीं कर सका क्योंकि मेरी रुचि एक अन्य महाविद्यालय में जाने की थी और मैं वहां के प्रवेश पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था। फीस के पैसे इस दौरान मुझ से इंडियन कॉफी हाऊस में खर्च हो गए और मैं डर गया कि कहीं ऐसा न हो कि मुझे किसी भी महाविद्यालय में प्रवेश न मिले। मैं दौड़ा-दौड़ा विज्ञान महाविद्यालय गया और उनसे एक सप्ताह बाद अपनी फीस जमा करने की मोहलत मांगी पर मेरी बात न सुनते हुए मुझे प्राचार्य महोदय के पास भेज दिया गया। प्राचार्य उन वर्षों में अपनी विद्वता के लिए और प्रशासनिक क्षमता के लिए पूरे अंचल में जाने जाते थे। उनसे मैंने बताया कि- 'मैं बाहर से आया हूं, मेरा मनीआर्डर नहीं आया है, मैं बहुत गरीब घर से हूं आदि-आदि, पर उनके ऊपर कोई असर नहीं हुआ, उन्होंने मुझे तुरंत कमरे से बाहर चले जाने के लिए कहा और यह भी कहा कि मेरी उनके पास आने की हिम्मत कैसे हुई। बेहद तनाव और निराशा से मैं लौट रहा था कि आजाद चौक के पास मुझे एक ख्याल आया। ''एन आईडिया कैन चेंज यूअर लाईफ।'' यह बात पुरानी है। मैंने वहां की एक दुकान पंजाब साईकिल स्टोर से उन्हीं प्रिंसीपल महोदय को एक छद्म नाम से आवाज बदलकर फोन किया। मैंने अपने आप को शहर का आरटीओ बताया और कहा कि मैं बालक को आपके पास भेज रहा हूं। वे बिछ गए। मैं वापिस विज्ञान महाविद्यालय उनके कक्ष में पहुंच गया। उन प्राचार्य महोदय ने मुझे सोफे पर बैठाया, चाय पिलाई और मेरी एप्लीकेशन पर मुझे पन्द्रह दिन का अतिरिक्त समय लिखकर दे दिया। इस तरह मेरा काम तो हो गया पर उस दिन, उस क्षण मेरा जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई मैं आज तक नहीं कर पा रहा हूं। मेरा विश्वास इस प्रशासनिक व्यवस्था और शिक्षा के इन प्राचार्यों से टूट गया, जो आज तक नहीं जुड़ सका है। लेकिन मूलत: यह एक सामाजिक लड़ाई है, यह एक युध्द है जो हमें अपने ही भीतर लड़ना है और जीतना है। लोकपाल इस लड़ाई का एक अंग हो सकता है लेकिन वह भी उसी व्यवस्था का एक हिस्सा होगा जहां से भ्रष्टाचार उपजता है। लोकपाल की लड़ाई के चारों तरफ एक तरह की राजनीति है, जिससे मुक्त होना समय की सबसे पहली आवश्यकता है। ------- तेजिंदर गगन योगेन्द्र कृष्ण की एक कविता की पंक्तियां हैं 'हत्यारे जब बुध्दिजीवी होते हैं, वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते बख्श देते हैं तुम्हारी जिन्दगीबड़ी चालाकी सेझपट लेते हैं तुम सेतुम्हारा वह समयतुम्हारी वह आवाजतुम्हारा वह शब्दजिसमें तुम रहते हो' आज के राजनैतिक-सामाजिक जीवन में संभवत: यह बहुत गंभीर प्रश्न है कि पहले हम यह तय करें कि हमारा अपना पक्ष क्या है? हम किन लोगों के साथ हैं और इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि हम किन लोगों के साथ नहीं हैं। विरोध में है, यह कहने का साहस भले न हो पर यह बताना तो जरूरी है कि हम उनके साथ नहीं हैं। एक तरह के धुंधलके में यह प्रश्न कहीं गायब हो गया सा लगता है।
इसका उत्तर कहीं तो होगा इस बात का विश्वास आम आदमी को नहीं है, आम आदमी को तो इस बात का भी विश्वास नहीं है कि हत्यारा कभी बुध्दिजीवी भी हो सकता है, जबकि वह अलग-अलग रूपों में हमारे आस-पास है, वह हम तक अलग-अलग माध्यमों से पहुंच रहा है, कभी समाचार-पत्रों, तो कभी रेडियो एफएम और इन दिनों अक्सर ही टेलीविजन के पर्दे के माध्यम से। आप चाहे कोई भी चैनल लगा लें- एकाध हत्यारा बुध्दिजीवी बहुत मीठी और सधी हुई जुबान में आप से ऐसा कुछ कह रहा होगा जिसे वह तार्किक तो कहेगा ही, आप के हित में भी बताएगा जब कि सच बात यह होती है कि वह उसके अपने हित में होता है। आभिजात्य से ओत-प्रोत एक शहरी उच्च मध्यवर्ग की स्त्री जिसके ऊपर यह आरोप है कि वह कथित रूप से अपनी बच्ची और एक गरीब नौकर की हत्या की साजिश में शामिल है एकाएक उन तमाम मेहनतकश और ममतामयी स्त्रियों के ऊपर छा जाती है। उनका सारा स्थान जो उस चैनल में होना चाहिए था, उसे घेर लेती हैं। चार या उनसे भी अधिक चेहरे क्रिकेट और उसके खिलाड़ियों के बल्ले और घुमावदार गेंदबाजी पर इतनी संजीदगी से बात करते हैं कि विदर्भ के खेतों की पिच सूख जाती है और किसानों तथा क्रिकेट के इन बुध्दिजीवियों की दुनिया दो अलग-अलग खांचों में ढलती जाती है। पिछले दिनों हमने देखा कि हथियारों का व्यापारी क्वोत्रोकी आज भी एक बिकने वाला चेहरा है, उसके बारे में भी घंटों छद्म गंभीरता के साथ बातचीत की जाती है। क्वात्रोकी एक अपराधी हो सकता है या संभव है कि हो भी लेकिन आसपास जो अंधकार फैला है और उसमें जो अपराधी खुलेआम किसी न किसी के संरक्षण में घूम रहे हैं उन पर इन के कैमरों की रोशनियां क्यों नहीं पड़तीं? मुझे नहीं याद पड़ता कि चैनलों के ये कैमरे कभी बुंदेलखण्ड के भीतरी गांवों में जहां जीवन का अर्थ नर्क से भी बदतर एक जीवन है या विदर्भ के कपास के खेतों में या फिर ओड़िशा के कालाहांडी और बलांगीर जिलों के दूर-दूर तक अंधकार में फैले गांवों में नहीं जाता। इनके लिए भूख से मौन किसी तरह की पीड़ा अथवा आक्रोश पैदा नहीं करती। गरीब का चेहरा इनके लिए बिकाऊ नहीं है। बााार में एक नार झांकने पर यह कितना आश्चर्यजनक और तकलीफदेह तथ्य सामने आता है कि कपास उगाने वाले किसान लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं और बााार में 'हंड्रेड परसेंट कॉटन' वाले कपड़ों के भाव आसमान छू रहे हैं। एक कमींज की कीमत पांच सौ रुपए से लेकर पांच हजार रुपए तक है। यह कपास जो कि अंतत: खेतों से ही आता है कुछ लोगों का जिस्म ढंकने के लिए वृहत्तर फैशन का हिस्सा बन जाता है और कुछ नहीं बल्कि बड़ी संख्या में लोग जमीन की जुताई-रोपाई करते-करते उसी में अपनी देह की जुताई तक कर डालते हैं। इतना असंतुलन? अभी पिछले सप्ताह टेलीविजन चैनलों पर एक दृश्य देखा गया कि सरकारी प्रतिनिधि जब जंगल में सुकमा के जिला कलेक्टर की रिहाई के संदर्भ में जा रहे थे तो आदिवासी नक्सलवादी उनकी तलाशी ले रहे थे या फिर यह कि 'मीडिया' को उनके निर्देशों का पालन करना पड़ रहा था कि इतने बजे आओ और यहां तक आओ। यहां आशय किसी भी तरह से व्यवस्था के खिलाफ जाने का आग्रह नहीं है या फिर हिंसा और अपहरण के पक्ष में जाने का भी नहीं है, इसी तरह लोकतांत्रिक देश में जन-समस्याओं से निपटने के लोकतांत्रिक अहिंसक तरीके से ही अपनाए जा सकते हैं क्योंकि अंतत: वे तरीके ही सकारात्मक परिणाम लाने में सक्षम होंगे पर पता नहीं क्यों मुझे वरिष्ठ पत्रकार राजनारायण मिश्र की एक बात बार-बार याद आती है। यह सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों की बात है। श्री मिश्र 'देशबन्धु' के संपादकीय विभाग में वरिष्ठ थे। उस वर्ष कोलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'स्टेट्समैन' ने ग्रामीण पत्रकारिता पर केन्द्रित एक अखिल भारतीय पुरस्कार आरंभ किया था। श्री राजनारायण मिश्र के रिर्पोताज को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था जो कुल्हाड़ीघाट नामक एक ऐसी दूरस्थ गांव की यात्रा पर आधारित था जहां के निवासियों ने तब तक रेलागाड़ी भी नहीं देखी थी। यह पुरस्कार जीतने पर मैंने आकाशवाणी रायपुर के लिए उनका एक इंटरव्यू लिया था। मैंने उनसे पूछा था कि- ''एक ऐसे गांव में जहां के लोगों ने अब तक रेलगाड़ी भी नहीं देखी घूमकर आने के बाद क्या आप को निराशा नहीं होती कि हमारी सामाजिक-आर्थिक गति कितनी धीमी है?'' तो उन्होंने जो जवाब दिया वह आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने बताया कि- ''मैंने उस गांव में यह देखा कि आदिवासी युवा लड़के, उड़ते हुए गिध्द को अपने तीर का निशाना बना देते हैं और आसमान में हर उड़ता हुआ गिध्द एकाएक उनके सामने आ गिरता है, इसलिए मैं निराश नहीं हूं। सारी दिक्कत यह है कि आदिवासी को अपने दुश्मन का पता नहीं है, जिस दिन उसे अपने दुश्मन का पता चल जाएगा, उस दिन वह उसे छोड़ेगा नहीं।'' राजनारायण के मिश्र के शब्दों का सच हमारे सामने आने लगा है कि यह वह सही समय है जब हमारी सरकारों को देखना चाहिए कि आदिवासियों के साथ किसी तरह का अन्याय न हो, निजी व्यापारियों और सरकारी कर्मचारियों की सांठ-गांठ से उनका शोषण न हो और उन्हें उनके काम का वाजिब दाम मिले। अब इसमें किसी भी तरह की देर या ढिलाई, हमें अंधकार की तरफ ही ले जाएगी। आदिवासी अपने आप में सम्पूर्ण होता है वह बुध्दिजीवी या गैर-बुध्दिजीवी नहीं होता और न ही उसमें किसी तरह का छद्म होता है। वह सरल भी होता है। उससे बात करने के लिए यह जरूरी होता है कि आप अपनी नकली और मनुष्य-विरोधी तथा सत्ता के अहम् से भरी मानसिकता की सीढ़ी से नीचे उतरें और ठोस जमीन पर खड़े होकर उसकी जमीन के बारे में बात करें, अपनी जमीन के बारे में नहीं। सत्ता का तंत्र आम आदमी को बांटकर रखने में इसलिए रुचि लेता है कि इससे उसकी रोजी-रोटी चलती है और जब रोजी-रोटी की जरूरत छोटी पड़ने लगती है तो, अपने अहम् के लिए, अपने ही लोगों का इस्तेमाल वस्तुओं की तरह करने लगती है। कहते हैं कि सत्ता की हथेलियों में संवेदना नहीं होती और जब सत्ता किसी पर हमला करती है तो लोहे की हथेलियों के साथ करती है। जब यह तथ्य हमारे सामने है तो इसका अर्थ यह कतई नहीं कि हम अपनी संवेदनात्मकता को भूल जाएं, इसका अर्थ यह है कि सत्ता के चरित्र को बदलने की कोशिशें तेज की जानी चाहिए। ------------- तेजिन्दर गगन भाषा का मुनष्य के साथ एक गहन और संवेदनात्मक रिश्ता होता है। हम वही होते हैं जो हम सोचते हैं और फिर इसी सोच को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। भाषा की पहली भूमिका अभिव्यक्ति में ही है, इसके बाद समाज के साथ है। जब समाज के साथ है तो अंतत: समाज की हर गतिविधि के साथ है- व्यवहार के रूप में सबसे पहले मातृभाषा है- फिर औपचारिक शिक्षा की भाषा है और फिर व्यापार की भाषा भी है। एक आदर्श स्थिति में अकादेमिक, प्रशासन और व्यापार की भाषा एक ही होनी चाहिए किंतु भारतीय परिदृश्य में भाषा का संसार काफी जटिल और संश्लिष्ट है।
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू अपनी बेबाक राय के लिए जाने जाते हैं। अभी हाल ही, उनका एक बयान आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ''अंग्रेजी हमारे लिए पश्चिम के दर्शन और ज्ञान की एक खिड़की है और इसका जानना बहुत जरूरी है, अगर हम अंग्रेजी नहीं पढ़ेंगे तो हमारे वे युवा जिन्हें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं होगा, आजीवन बैलगाड़ी खींचते रहेंगे।'' न्यायमूर्ति काटजू ठीक कहते हैं। दरअसल आाादी के बाद हमारी जो भाषा-नीति रही है वह काफी हद तक खोखली साबित हुई है और यथार्थ के धरातल की जगह एक झूठे अहम् और कथित आदर्श के आधार पर टिकी हुई है या कहना चाहिए कि लड़खड़ा रही है। हम सब जानते हैं कि खड़ी बोली का इतिहास कोई डेढ़-दो सौ वर्ष से पुराना नहीं है और अभी तक हम खडी बोली के ही ठोस मानक तैयार नहीं कर सके हैं। पिछले सौ सालों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जो तरक्की देश में और पूरे संसार में हुई है हिन्दी में शोध के मामले में या मानक शब्द कोष बनाने के संदर्भ में जो काम हुआ है वह लगभग नगण्य है। अगर आपको जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ना है तो आप इस सच्चाई से आंख नहीं मोड़ सकते और यह बेहतर होगा कि जिस भाषा के अद्यतन अनुसंधान की पुस्तकें उपलब्ध हैं उनका सहारा लेकर, आगे बढ़ लिया जाए। भाषा के नाम पर युवाओं के विकास को रोका नहीं जा सकता। हिन्दी के मूढ़-मति अधिकारी और अनुवादक अपने कवच से बाहर नहीं निकलना चाहते। भाषा की शुध्दता के सवाल को वे कुछ इस तरह उठाते हैं कि जड़ नंजर आते हैं। देश में पिछले लगभग बीस वर्षों में यानि कि सन् 1991 के नवउदारवाद के बाद शहरों में औद्योगिकीकरण तेजी के साथ बढ़ा है, यह एक सच्चाई है, इन वर्षों में बड़ी संख्या में हमारे ग्रामीण क्षेत्रों से श्रमिक और अन्य वर्गों के लोग शहरों में आए हैं, भले वे रोजगार की तलाश में आए हों किंतु वे अकेले नहीं आए, अपनी भाषा और संस्कृति के कुछ पृष्ठ लेकर वे शहरों में आए। हिन्दी के ऐसे कितने विद्वान हैं, जिन्होंने कि उनकी भाषा के नए शब्दों को पकड़ा और खड़ी बोली के मानकों में शामिल करने का प्रयास किया, पता नहीं। अभी रायपुर में भाषा पर केन्द्रित एक कार्यक्रम में हिन्दी के एक कथित महान विचारक और पिछले करीब चालीस वर्षों से क्रांतिवीर का दोशाला ओढ़ रखे विद्वान वेदप्रताप वैदिक का भाषण सुनने का अवसर मिला। जिस भाषा में इस तरह के विद्वान होंगे उस भाषा के भविष्य की कल्पना सहज ही की जा सकती है। ये विद्वान महोदय हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए बार-बार जाति पर आधारित आरक्षण को खत्म करने की वकालत कर रहे थे और अपने भाषण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं के विचार अपने समर्थन में उध्दृत कर रहे थे। वे बता रहे थे कि दुनिया के तमाम देशों में और विशेष रूप से चीन में वे कितनी बार और क्या-क्या देख कर आए हैं। उनकी बातों से यह स्पष्ट था कि वे खुली आंखों से कहीं नहीं गए बल्कि नागपुर के रेशिमबाग से अपनी आंखों में केसरिया पट्टी बांध कर जाते रहे हैं। उन्होंने अत्यंत गैर-जिम्मेदाराना और हास्यास्पद शब्दों में प्रख्यात लेखक तथा बुध्दिजीवी जार्ज बर्नाड शॉ के शब्द कथित रूप से उधार लेकर अंग्रेजी को एक हास्यास्पद और गैर-तार्किक भाषा के रूप में प्रमाणित करने की बचकानी कोशिश भी की। यह अजीब बात है कि उन्हें जॉर्ज बर्नाड शॉ जैसे प्रखर बौध्दिक के जीवन और रचनाकर्म से यही कुछ मिला जो उन्होंने उस कार्यक्रम में सबके सामने उडेल दिया। कुल मिलाकर सारा मामला एक राजनैतिक दृष्टि से ओत-प्रोत था। भाषा का इस्तेमाल अपनी राजनैतिक स्वार्थ-सिध्दि के लिए करने से बड़ा असभ्य और गैर-जिम्मेदाराना काम और कुछ हो नहीं सकता। हमारी पहली प्राथमिकता तो यह होनी चाहिए कि हिन्दी को देश के ही गैर हिन्दी प्रदेशों में सम्मान और स्वीकृति मिले। सन् साठ के दशक में जिस तरह पंजाब और हरियाणा में भाषा के नाम पर राजनीति की गई और अंतत: पंजाब का विभाजन कर नए राज्य हरियाणा का गठन किया गया वह तो सर्वविदित है लेकिन भाषा के नाम पर अलग-अलग प्रांतों में लोग कैसा व्यवहार करते हैं इसका प्रमाण छत्तीसग्रढ़ के दो पड़ोसी राज्य ओड़िशा और महाराष्ट्रभी हैं। मुझे महाराष्ट्र के नागपुर में करीब पांच वर्ष रहने का अवसर मिला। वहां यह बात देखकर मैं अचंभित रह गया कि पुणे और औरंगाबाद के मराठीभाषी, विदर्भ की मराठी को एक तरह की हेय दृष्टि के साथ देखते हैं कि वह हिन्दी मिश्रित है, इसलिए शुध्द नहीं है। ठीक यही स्थिति ओड़िशा में है- पश्चिमी ओड़िशा और तटीय ओड़िशा। तटीय ओड़िशा यानि कि कटक और भुवनेश्वर के ओड़िशा विद्वान, संबलपुर और पश्चिम ओड़िशा की भाषा को सम्मान के साथ नहीं देखते क्योंकि उनका मानना है कि इस क्षेत्र की भाषा शुध्द नहीं है क्योंकि इसमें हिन्दी के शब्द हैं। इसी तरह तमिलनाडु तो एक कदम आगे है। वहां यह माना जाता है कि तमिल भाषा संसार की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक है और अन्य भारतीय भाषाएं तो उसके सामने कहीं टिकती ही नहीं। यहां तक कि वे यह मानते हैं कि तमिल में जहां-जहां भी संस्कृत के शब्द आए हैं वहां तमिल भ्रष्ट हो गई है। तो क्या हम इस तरह के परिदृश्य से पलायन कर सकते हैं? नहीं- बल्कि हमें इससे जूझना होगा और अपनी विश्वसनीयता स्थापित करनी होगी। जब तक हिन्दी की यह विश्वसनीयता स्थापित नहीं होती और हम हिन्दी का विकास एक ऐसी समृध्द भाषा में नहीं कर लेते कि वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा कर सके हमें अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही आगे बढ़ना होगा वर्ना हम पिछड़ जाएंगे और न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू के शब्दों में हमारा युवा बैलगाड़ी ही खींचता रह जाएगा। यह सच है कि तमाम विरोधाभासों और कठिनाईयों के बावजूद हिन्दी में पिछले कुछ दशकों में, कविता, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण साहित्य रचा गया है, लेकिन बााार के व्यवहार की दूरदृष्टि के अभाव में हम उसे सामान्यजन तक नहीं पहुंचा सके और हमारी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह गईं जबकि मलयालम, बांग्ला, मराठी, पंजाबी और तमिल आदि भाषाओं में जो सार्थक साहित्य रचा गया वह सामान्यजन तक पहुंच सका। हिन्दी में तो स्थिति न केवल दयनीय बल्कि शर्मनाक है। करोड़ों हिन्दी भाषियों के वृहद संसार में सृजनात्मक साहित्य की एक हजार पुस्तकें छपती हैं और कुछ पचास-सौ या दो सौ लोगों में गुम हो जाती है। बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, इस पर फिर कभी...। तेजिन्दर मीडिया यानि कि जनसंचार माध्यमों की भूमिका पर पिछले कुछ वर्षों से बहुत कुछ लिखा जा रहा है। वर्ष 1991 से आरंभ हुए नवउदारीकरण के बाद तो मानों शब्दों और दृष्यों की बाढ़ है। मीडिया की भूमिका पर कई तरह की किताबें बाजार में आ रही हैं, पर कैमरामैन का कैमरा है कि हिलता ही नहीं और कलमकार की कलम है कि चलती ही नहीं, जब तक कि 'ऊपर से' साफ-साफ दिशा-निर्देश न मिल जायें। ये दिशा-निर्देश किसी सरकारी महकमे में जिस तरह लिखा हुआ होता है उस तरह लिखे हुए नहीं हैं, बल्कि एक ऐसी लिपि में 'डाउनलोड' किए हुए हैं जिसे सिर्फ मालिक और उसका नौकर ही पढ़ सकते हैं। इसको पारदर्शिता का नाम भी दिया जाता है कि ''देखो हमारी आपसी समझ कितनी परिपक्व है।'' इसे एक तरह की त्रासदी ही कहा जायेगा कि इस तथाकथित परिपक्व समझ का विरोध करने वाले और फिर इसे 'गरिमापूर्वक' स्वीकार कर लेने का श्रेय- एक ही व्यक्ति को जाता है। वे हैं 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के दिलीप पांडगांवकर। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के नये और युवा मालिक समीर जैन ने कहा कि, ''अखबार उनके लिए ठीक उसी तरह का उत्पादन है जिस तरह कि कोई भी प्रेशर कुकर, साबुन अथवा टूथपेस्ट का उत्पादन होता है और जो लाभ का सौदा होता है।'' समीर जैन की इस बात पर अपना विरोध दर्ज करते हुए दिलीप पांडगांवकर ने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। देश और समाज के वे नागरिक जिन्हें छपे हुए शब्द पर भरोसा था, उन्हें सुकून मिला। भले यह धारणा तब तक पुरानी पड़ चुकी थी कि छपा हुआ शब्द आसमान से आयद होता है पर फिर भी तब तक अनास्था का अंधेरा इतना घना नहीं हुआ था। ऊपर आसमान में जो हमारे उपग्रह हैं उनके 'सर्वर' में छपे हुए शब्द पर विश्वास करने वालों का एक बड़ा वर्ग था, जिस की अपनी मान्यताएं थीं, जिसके पास अपना एक मूल्य-बोध था। फिर पता नहीं क्या हुआ, उपग्रह के किस हिस्से से कौन सी अदृश्य किरणें निकलीं और दिलीप पांडगांवकर वापिस 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में आ गये। इस बार निदेशक, कार्पोरेट बन कर। वह दिन देश की पत्रकारिता का एक काला दिन था। संभवत: तब तक दिलीप पांडगांवकर एक व्यक्ति नहीं रह गए थे, वे एक ब्रांड में बदल गए थे, जिसकी जरूरत समीर जैन को थी और दिलीप पांडगांवकर को भी। उन्हें ऐसा लगा था कि यह उनके 'कैरियर' का अंतिम पड़ाव है, इसको छोड़ दिया तो वे बाजार के अंधेरे में कहीं खो जाएंगे। सचमुच बाजा र की चकाचौंध आंखों की रोशनी छीन रही थी। राजनैतिक उथल-पुथल चरम पर थी। मंडल आयोग की रिपोर्ट का स्वीकार होना जिसकी अनुशंसा के आधार पर समाज के पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जन-जातियों को शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में पर्याप्त अवसर देने का प्रावधान था। भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी की रथयात्रा और उसके बाद बाबरी मस्जिद विध्वंस, देश में जगह-जगह पर सांप्रदायिक दंगे, तमिल उग्रवादियों द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या। तेजी से घटे इस दुर्भाग्यजनक और त्रासद घटनाक्रम के बाद जब स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने विश्व बैंक की नौकरी कर चुके डा. मनमोहन सिंह को देश का वित्तमंत्री बनाया तो देश की जनता ने जैसे कुछ समय के लिए चैन की सांस ली। किसी को इस बात का इल्म नहीं था कि बहुत जल्द हमारे ऊपर एक नई भाषा और एक नई संस्कृति और उस विदेशी मूल्य-पध्दति का आक्रमण होने वाला है जिसके खिलाफ लड़ते-लड़ते हमारे पूर्वजों ने आजादी प्राप्त की थी। हमारे तमाम संस्थान इस कुचक्र का शिकार हुए लेकिन उनकी योजना का सबसे पहला शिकार हमारे जनसंचार संस्थान थे। दरअसल यह काम आसान था। हमारे पास या तो सरकारी मीडिया के रूप में आकाशवाणी और दूरदर्शन थे या फिर कुछेक अखबार, जिनकी समाज में अपनी प्रतिष्ठा थी। वर्ष 1988-89 और 1992 के मध्य जो राजनैतिक गहमागहमी हुई उसने इन अखबारों को उनके कथ्य के आधार पर बांट दिया था। 'जनसत्ता' और 'देशबन्धु' को छोड़कर उत्तर भारत के अधिकतर हिंदी के बड़े अखबार घोषित रूप में सांप्रदायिक हो चुके थे। अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों का इन अखबारों से लगभग विश्वास उठ चुका था जो कि आज भी पूरी तरह से पुर्नस्थापित नहीं हो सका है। दूरदर्शन और आकाशवाणी से जड़ता की सड़ांध आती है और फिर सरकारी बंधुआ होने के कारण भी ये दोनों संस्थान कभी अपनी विश्वसनीयता अर्जित नहीं कर सके। गौरतलब बात यह है कि 1991-92 के बाद आरंभ में यह लगा कि सब ठीक-ठाक चल रहा है, और पारदर्शिता बढ़ी है, आम आदमी को बोलने के लिए जुबान मिल गई है पर जल्दी ही यह भ्रम टूटने लगा। क्या पारदर्शिता का एक मतलब यह भी होता है कि उसमें सिर्फ अंधकार दिखाई दे? घनी धुंध और घने कोहरे के पारदर्शी होने के क्या मायने होते हैं? वर्ष 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन सरकार ने उस पक्षी को पंख लगा दिये जिसे पिंजरे से बाहर निकालने का काम डा. मनमोहन सिंह ने किया था। यह पक्षी जो एक बार आसमान में उड़ा तो फिर उसने जमीन पर नहीं देखा। ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं पर ही उसने अपने बैठने और टिकने की जगह बनाई। जमीन उसे नार ही नहीं आती थी। उसी के पंखों में मीडिया के कैमरामैन ने अपनी लेंस और कलमकार ने अपनी कलम छिपा दी और फिर जैसे किसी तोते को रटाया जाता है, उसी तरह यह पक्षी भी 'इंडिया इज शाईनिंग' का पाठ रटने लगा। आसमान में इस नारे की गूंज इतनी ज्यादा थी कि धरती पर रहने वालों का दम घुटने लगा और अंतत: सन् 2004 में धरती पर रहने वालों ने इस पक्षी को अपने पास खींच लिया। पर कैमरे और कलम की दृष्टि और भाषा नहीं बदली, क्योंकि सिर्फ चेहरे बदले थे। जहां तक सवाल आर्थिक नीतियों का था उनमें कुछ भी नहीं बदला। गरीब आदमी सरकार के हाशिये पर ही रहा और उनका पक्षी अपने नये मालिकों के आदेश पर वापिस अट्टालिकाओं के ऊपर उड़ गया। उस पक्षी ने मुंबई की दलाल-स्ट्रीट में किसी ऊंचे भवन की छत पर अपना डेरा जमा लिया और वहीं प्रजनन भी करने लगा। इस तरह एक कैमरे की कई आंखें हो गईं और अब लगता है कि एक ही कलम है जिसमें अलग-अलग रंग की स्याही से एक ही इबारत लिखी जा रही है। जिन वर्षों में मीडिया पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में था, और इसका निजीकरण एक तरह की रोमांचकारी कल्पना होने का आभास देता था उस समय यह बात संभवत: कल्पनातीत थी कि एक दिन 'मीडिया', सरकार की जगह चंद पूंजीपतियों के इशारे पर और फिर कार्पोरेट्स के दम पर और अंतत: विश्व बैंक और संयुक्त राय अमेरिका के हाथों में पकड़े रिमोट से संचालित होने लगेगा। महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज्य में अखबारों के लिए जो बात कही थी वह आज भी समाचार-पत्रों के साथ ही इलेक्ट्रानिक मीडिया चैनलों पर भी लागू होती है। गांधी जी ने कहा था, ''अखबार का एक काम तो है लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना, दूसरा काम है लोगों में अमुक जरूरी भावनाएं पैदा करना और तीसरा काम है लोगों में दोष हों तो चाहे जितनी मुसीबतें आने पर भी बेधड़क होकर उन्हें दिखाना।'' हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जब कुछ भी असंभव नहीं है और यही एक तथ्य है जो सकारात्मक है। एक दिन अवश्य ही इस पक्षी को धरती पर उगे हुए पेड़ अपनी ओर खीचेंगे और फिर उस सच्चाई का सटीक चित्रण किया जा सकेगा जो धरती पर एक कोने से दूसरे कोने तक फैली है और टूटे हुए संवाद को जोड़ा जा सकेगा। ------------ तेजिन्दर पिछले सप्ताह पश्चिम बंगाल के परिवहन मंत्री मदन मित्रा ने कोलकाता के पार्क स्ट्रीट में सैंतीस वर्षीय एक स्त्री के साथ हुये सामूहिक बलात्कार के संदर्भ में एक विवादास्पद बयान दिया। उन्होंने कहा कि- ''सैंतीस वर्षीय यह स्त्री जो कि लंबे समय से अपने पति से अलग रह रही थी और जिसके दो बच्चे भी हैं, आधी रात को क्लब में क्या कर रही थी?'' इसी दुर्भाग्यजनक घटना के संदर्भ में मुख्यमंत्री सुश्री ममता बैनर्जी ने भी यह कह कर तूफान खड़ा कर दिया कि बलात्कार की इस घटना के पीछे एक तरह की राजनीति है। कुल मिलाकर एक स्त्री जिसके जीवन के साथ खुलेआम खिलवाड़ किया गया उसके प्रति किसी तरह की संवेदना कहीं नार नहीं आई उल्टे अप्रसांगिक प्रश्ों की झड़ी लगा दी गई। यह तो उस स्त्री के साहस की प्रशंसा करनी होगी कि उसने सामने आकर प्रेस और पुलिस को बयान दिये जिससे कि अगली कानूनी लड़ाई का रास्ता साफ हुआ। इसी तरह छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी और पांच पुत्रियों की हत्या इस कारण कर दी कि उसे अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह हो गया था। दोनों ही मामलों की अभी तंफतीश की जा रही है और अंतिम निर्णय आना अभी बाकी है पर दोनों में ही 'स्त्री' को लक्ष्य बनाया गया है।
दरअसल, हमारे मध्यवर्गीय समाज को कुछ स्थूल और जड़ मान्यताओं के बीच जीने की आदत है। त्रासदी यह है कि उसके मन में इस स्थिति के लिये किसी तरह का पश्चाताप नहीं है या उसे बदलने की इच्छा नहीं है। विशेषत: नैतिकता के प्रश् को लेकर एक तरह के भ्रम को पाल कर रखने के लिए वह अभिशप्त है। नैतिक अथवा अनैतिक दोनों का भ्रम मूलत: स्त्री-पुरुष संबंधों के इर्द-गिर्द बुना गया है। यह भ्रम भी समाज में स्त्री की संपूर्ण उपस्थिति को लेकर नहीं है बल्कि उसकी देह के लिये ज्यादा है। नैतिकता और अनैतिकता और शालीनता या अश्लीलता के सारे प्रश् स्त्री की देह पर ही टिके हैं। यह त्रासद भी है और हास्यास्पद भी। पता नहीं स्त्री अपनी देह में ऐसा क्या लेकर जन्म लेती है कि उसकी देह के सामने उसका मन और उस की संवेदना और उसकी आत्मा से जुड़े सारे सवाल बौने हो जाते हैं और हमारा समाज, जिसमें कई बार स्त्रियां स्वयं भी शामिल होती हैं, केवल उस की देह के लिये कड़े उसूल तय कर देता है, जिनका अतिक्रमण या जिनकी सीमाएं शालीनता और अश्लीलता के मापदंड बन जाते हैं। इस पूरे गणित में हर जगह स्त्री को वस्तु में रूपांतरित कर दिया जाता है। हमारे धर्मग्रंथ भी यही सिखाते आए हैं कि पराई स्त्री को स्पर्श मत करो, युध्द में जीती गई स्त्रियों को बराबर-बराबर बांट दो, स्त्रियों को तलाक ऐसे नहीं, वैसे दो, जिस स्त्री की कोंख से बच्चा न हो वह डायन होती है इसलिए दूसरी स्त्री से अपना वंश चलाओ, वगैरह-वगैरह। यानि कि जो भी निर्णय लेना है पुरुष को ही लेना है, स्त्री को कुछ नहीं करना सिवाय पुरुष द्वारा लिये गये निर्णय का अनुसरण करने के। यह एक तरफा है। एक दृष्टि में यह विचार ही अपने आप में अश्लील है। इस बात को और अधिक गहराई से समझने के लिए हमें नैतिकता और सृजनात्मकता के अंर्तसंबंधों की खोज करनी पड़ेगी। वैसे साहित्य में यह मुद्दा नया नहीं है। इस पर सार्थक बहस भी हुई है। स्त्री को शताब्दियों से पर्दे में रखने और उसकी सहज मानवीय अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाये रखने के चलते स्त्री की एक आंख भी घूरती हुई दिखाई दे जाती है तो भद्रजन असहज हो उठते हैं। उन्हें लगता है कि जैसे वे नंगे हो रहे हैं। भीतर के भय से मुक्ति पाने के लिये वे स्त्री की आंख को ही अश्लील घोषित कर देते हैं। पश्चिम बंगाल के मंत्री महोदय ने यह काम किया है। उनके प्रश् ही अपने आप में अश्लील हैं। याें यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसी भद्र समाज में जिसमें कि स्त्री और पुरुष दोनों शामिल हैं, उन्हें बड़ा-बड़ा वर्ग अपने समर्थन में भी मिल जायेगा। मामले की पूरी तरह से छानबीन किये बिना यह सवाल उठा देना कि - ''सैंतीस वर्षीय वह स्त्री वहां क्यों थी, जहां उसके साथ बलात्कार किया गया,'' अपने आप में एक अपराध है। हर समाज के अपने जीवन-मूल्य होते हैं, अपनी नैतिकता होती है। महाराष्ट्र के विदर्भ में दलित समाज की अपनी नैतिकता है और उत्तराखंड में चकराता के आदिम समाज की अपनी एक पारंपरिक जीवन शैली है। हमारे शहरी कथित आधुनिक समाज की जीवन-शैली इनके साथ मेल नहीं खाती तो इसका अर्थ यह नहीं है कि शहर अधिक श्लील है, या नैतिक है या आधुनिक और न ही इसका अर्थ यह है कि मध्य भारत का आदिवासी समाज जिसकी उपस्थिति हमारे साहित्य में या पत्रकारिता में न के बराबर है उसकी नैतिकता कहीं गौण हो गई है। आदिवासी हमारे समाचारों में आते हैं तो दीगर कारणों से-धर्म-परिवर्तन की खबरों के साथ, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शो-पीस या विकास की दौड़ में कथित रूप से पिछड़ेपन के नाम पर। आदिवासी स्त्री को हमारे शहरी मध्यमवर्ग ने कभी सम्मान के साथ नहीं देखा बल्कि अपनी कुदृष्टि के साथ उसकी देह की तरफ ही देखा है। उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि आदिवासी स्त्री, शहरी मध्य-वर्ग की पढ़ी-लिखी स्त्रियों के मुकाबले अधिक स्वतंत्र व गरिमा से भरा हुआ जीवन जीती हैं। बात यह है कि शहर का स्वभाव आदिवासी समाज को रास नहीं आता। इसलिये जहां-जहां सड़क जाती है आदिवासी अपने आप को भीतर जंगल की तरफ समेटने लगते हैं, क्योंकि जंगल उन्हें आकर्षित करता है, जंगल उन्हें अपना घर लगता है, जंगल उन्हें सुरक्षा देता है। वहां उनका सामना नैतिकता और अश्लीलता जैसे दुरूह शब्द-जाल से नहीं होता। शहर में नई-नई आई आदिवासी युवती जो कि शिक्षिका, नर्स, मजदूर या सिर पर टोकरी रखकर सब्जी-भाजी बेचने वाली कुछ भी हो सकती है, उसके साथ शहर में बदसलूकी होने की आशंका ज्यादा होती है। गजब यह है कि शहर की स्त्रियां जंगल में आदिवासी क्षेत्रों में जाने से डरती हैं और और इस बात को भूलती है कि उन भले लोगों के बीच वे अपने उन लोगों से ज्यादा सुरक्षित हैं जिन्हें वे शहरी और आधुनिक कहती हैं। स्त्री की उपस्थिति ज्यों-ज्यों समाज में मुखर हो रही है, जिस तेजी के साथ स्त्री समाज के हर तरह के काम में अपनी योग्यता को स्थापित कर रही है, उतनी ही तेजी के साथ उसके यौन-उत्पीड़न की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है, न केवल उसकी देह को लेकर बल्कि उसकी अस्मिता को लेकर ही कई तरह के सवाल उठाये जाते हैं। किसी भी सरकारी, गैर-सरकारी दफ्तर में स्त्री का संघर्ष उसके पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले अधिक बड़ा होता है क्योंकि उसे तमाम नियम-कायदों के साथ पुरुष की आंखों का सामना भी करना पड़ता है। वह दोहरा संघर्ष करती है। घर पर भी एक तरह के संघर्ष के बाद वह नौकरी पर आती है, नौकरी में उसे अपने स्त्री होने के प्रति लगातार सतर्क रहना होता है, और अगर वह अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ बराबरी करते हुये कभी किसी एक ऐसी जगह पर पहुंच जाये जहां कि वह यौन-शोषण का शिकार हो जाये तो उसे उन प्रश्ों के उत्तर देने के लिये भी तैयार रहना पड़ता है जो पश्चिम बंगाल के मंत्री खुलेआम पूछ रहे हैं कि, आप वहां क्यों थीं मैडम? उस स्त्री की संवेदना को पकड़ने की सख्त ारूरत है जो लगातार अपमान सहने और जीने के लिये अभिशप्त है पर उससे पहले यह आवश्यक है कि हमारा समाज नैतिकता के अपने मापदंडों को लेकर अपनी धारणा को एक सुस्पष्ट दिशा दे जिसमें स्त्री और पुरुष के लिये अलग-अलग मापदंड न हों। ------ तेजिन्दर गगन |
![]() एक छोटा सा सजग प्रयास है मेरी ओर से की बची रहे ये धरती और उसकी सृजनात्मक क्षमता ...धरती के हरे सपनों को बचाने के लिए उठे मेरे हाथ आप सबका स्नेह और साथ चाहते हैं..उम्मीद है जल्द ही खिल उठेंगे सृजन के फूल हर आँगन में ...
आभार देवाशीष वत्स Archives
May 2013
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